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विईभी संधि उस दिनका नाम अक्षय तृतीया पड़ गया।
पत्ता-परम आदरणीय ऋषभ जिनने वह सब खाया, जो राजा श्रेयांसने भावपूर्वक दिया । उसने अपने दोनों हाथ सिर पर रखकर ऋपभ जिनेन्द्रकी वन्दना की ! ||२|| इस प्रकार यहाँ धनंजयके आश्रित स्वयंभूवेव द्वारा विरचित 'जिनवर निष्क्रमण' नामक दुसरा पर्व समाप्त हुआ।
तीसरी सन्धि
जिनकी कपाय क्षीण हो चुकी है. ऐसे परमशान्त परमगुरु उस हस्तिनापुर नगरको छोड़कर, विहार करते हुए पुरिमताल ( उद्यान ) पहुँचे।
[१] लम्बे समय चक्र के एक हजार वर्ष बीत जाने पर आदरणीय ऋपजिन झाकटामुख उद्यान-बन में पहुँचे जो महान् उन्धान, खिली हुई लताओं पल्लधों और बेलों के समूह से युक्त था। पुन्नाग, नाग वृक्षों तथा कपूर, कंकोल, एला, लथंग, मधुमाधवी, मातुरिंगी, बिडंग, मरियल्ल, जीर, उच्छ, कुंकुम, कुडंग, नवनिलक, पद्माक्ष, रुद्राक्ष, द्वाश्मा, खजूर, जंबीरी, घन, पनस, निम्ब, हड़ताल, ढोक, बहुपुत्रजीविका, सप्तच्छद, अगस्त, दुधिवर्ण, नंदी, मंदार, कुन्द, इंदु, सिन्दूर, सिन्दी,