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विहमो संधि उसने जिनेन्द्रकी वन्दना प्रारम्भ की, "त्रिभुवनगुरु और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले आपकी जय हो, सूर्यकी तरह किरणसमूहको प्रसारण करनेवाले, और तरुण सूर्यको किरणों के प्रसारको रोकनेवाले आपकी जय हो, नमि-विनमिफे द्वारा नमित आपकी जय हो ॥१-९!| __पत्ता-“विश्वगुरू पुण्यसे पवित्र त्रिभुवनके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले, हे आदरणीय जिन, जन्म-जन्म में हमें गुण सम्पति दें" ||१०||
[७] "नाग, नर और अमरोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले तथा जिनकी वन्दना भक्ति करते हुए इन्द्र के रूपमें आसक्त नेत्र तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए 1 वे जहाँ भी गिरते वहीं गड़कर इस प्रकार रह जाते जैसे कीचड़ में फंसे हुए दुर्षल ढोर (पशु) हो। इन्द्रने, बालक जिनके बायें हाथ के अँगू टेको चीरकर, उसमें अमृतका संचार कर दिया, और उसने जाफर, कामका नाश करनेवाले आदरणीय जिनको वापस अयोध्या में रख दिया। जैसे सूर्य, सुमेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करता है, उसी प्रकार जिनकी इन्द्रने प्रदक्षिणा की और एक हजार हाथ बनाकर नाचा, अपने अलंकार, दोर, नूपुर स्वर-परिवार और अन्तःपुरके साथ | जब माँने उन्हें अभिषिक्त देखा तो उन्हें ऋषभ समझकर उनका नाम ऋषम रख दिया । १-८॥
पत्ता-समय बीतनेपर स्वामीकी देह-ऋद्धि उसी प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कवियोंके द्वारा व्याख्या होने पर व्याकरणका मन्थ फैलता जाता है ।।२।।
[4] अमरकुमारोंके साथ क्रीड़ा करते हुए उनका बीस लाख पूर्व समय बीत गया । एक दिन प्रजा करुण स्वरमें पुकार उठी- "देव देव, हम भूखकी मारसे मरे जा रहे हैं। जिनके प्रसादसे हम अपनेको धन्य समझ रहे थे, वे सारे कल्पवृक्ष