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पामो संधि परकोटे और गोपुर थे । उसमें बारह गण और बारह ही कोठे
। जैसे ही चार मानस्तम्भ बनकर तैयार हुए वैसे ही किसी बाबमीने शीघ्र ही ॥१-८॥
पत्ता-चरणोंमें प्रणाम कर, राजा श्रेणिकसे निवेदन किया-"तुम जिसका ध्यान और स्मरण करते हो, वह जगत् गुरु आये हैं ॥९॥
[८] जनके वचनोंको अपने कानोंका कमल बनाकर (सुनकर या अलंकार बनाकर ) राजा सिंहासनसे उतर पड़ा। पुलकित अंग होकर और सात पैर आगे जाकर, उसने धरतीपर अपना शिर नवाया। फिर उसने आनन्द की मेरी बजवा दी, जगको उत्पन्न करनेवाली धरती उससे हिल गयी। राजा अपने परिगार, पुत्र, अन्तःपुर, परिजन और सेनाके साथ सहर्ष जिनवरकी बन्दना भक्तिके लिए गया। वह महीधरके निकट पहुँचा । उसने हर्षित मन होकर बारह प्रकारके गणोंसे घिरा हुआ समवशरण देखा। पहले कोठेमें उसने ऋषिसंघको देखा। दूसरेमें कल्पवासी देवोंकी देवांगनाएँ बैठी हुई थीं, तीसरेमें अनुरागपूर्वक आर्यिकाएँ थीं, चौथेमें ज्योतिष देवोंकी देवांगनाएँ थीं, पाँचमें 'शुभ बोलनेवाली' व्यन्तर देवोंकी देवांगनाएँ थीं,
छठेमें भवनवासी देवांगनाएँ थीं, सातमें समस्त भवनवासी i देव और आठवेमें श्रद्धाभाववाले व्यन्तरवासी देव ये । नौवमें
अपना शिर झुकाये हुए ज्योतिष देव जैठे थे। और इसमें पुलकितांग कल्पवासी देव थे । ग्यारहवे में श्रेष्ठ नर बैठे थे और बारहवेमें नमन करती हुई स्त्रियाँ ? ॥१-१२|| ___घत्ता-सिंहासनपर विराजमान आदरणीय वीर जिन ऐसे दिखाई दिये जैसे त्रिभुवनके मस्तकपर स्थित शिवपुरमें मोक्ष ही परिस्थित हो ॥१३॥