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पदमो संधि [३] बुधजनो, यह स्वयम्भू कवि आपलोगोंसे निवेदन करता है कि मेरे समान दूसरा कोई कुकवि नहीं है । कभी भी मैंने व्याकरणको न जाना, न ही वृत्तियों और सूत्रोंकी व्याख्या की। प्रत्याहारों में भी मैंने सन्तोष प्राप्त नहीं किया ! संधियोंके ऊपर मेरी बुद्धि स्थिर नहीं। सात विभक्तियाँ भी नहीं सुनी, और न छह प्रकारको समास-प्रवृत्तियाँ ही । छह कारक और दस लकार नहीं सुने । बीस उपसर्ग और बहुत-से प्रत्यय भी नहीं सुने । बलाबल धातु और निपातगण, लिंग, उगादि वाक्य और वचन भी नहीं सुने । पाँच महाकाव्य नहीं सुने, और न भरतका सब लक्षणोंसे युक्त गेय सुना 1 पिंगल शास्त्र के प्रस्तारको नहीं समझा।
और न दंडी और भामहके अलंकार भी। तो भी मैं अपना व्यवसाय नहीं छोड़ गा, बल्कि रहाबद्ध शैलीमें काव्य रचना करता हूँ | संप्राप्त सामान्य भाषामें कोई आगम युक्तिको गढ़ता हूँ। प्राम्य भाषाके प्रयोगोंसे रहित मेरी भाषा सुभाषित हो । मैंने यह विनय सबन लोगोंसे ही की है और अपना अज्ञान प्रदर्शित किया है। यदि इतनेपर भी कोई दुष्ट रूठता है तो उसके छलको मैं हाथ उठाकर लेता हूँ ॥१-१३|| ___ पत्ता-उस दुष्टको अभ्यर्थनासे भी क्या लाभ, जिसे कोई भी अच्छा नहीं लगता? क्या काँपया हुआ पूर्णिमाका चन्द्रमा महामहणसे बच पाता है । ॥१४॥
[४] समस्त खलजनोंकी उपेक्षाकर, पहले मैं मगध देशका वर्णन करता हूँ। जहाँ कमलिनी पके हुए धान्य में ऐसी स्थित है, जो मानो सूर्यको नहीं पा सकनेके कारण वृद्धाकी तरह उदासीन है ? जहाँ चैठी हुई तोतोंकी पंक्ति ऐसी लगती है मानो बनलक्ष्मीका पन्नोंका कण्ठा हो । जहाँ हवासे हिलते हुए ईखों के खेत ऐसे लगते हैं जैसे पेरे जानेके डरसे काँप रहे हो । जहाँ सुन्दर नन्दन वन, अपने घश्चल पल्लव रूपी हाथ से ऐसे