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कविराज-स्वयम्भूदेव-कृत
पदाचरित
जो नवकमलोंकी कोमल सुन्दर और अत्यन्त सघन कान्तिकी तरह शोभित है और जो सुर तथा असुरोंके द्वारा वन्दित है, ऐसे ऋषभ भगवान्के चरणकमलोंको शिरसे |नमन करो॥१॥
जिसमें लम्बे-लम्बे समासोंके मृणाल हैं, जिसमें शब्दरूपी दल है, जो अर्थरूपी परागसे परिपूर्ण है, और जिसका बुधजन रूपी भ्रमर रसपान करते हैं, स्वयम्भूका ऐसा काव्यरूपी कमल जयशील हो ||२||
पहले, परममुनिका जय करता हूँ जिन परममुनिक सिद्धान्त-वाणी मुनियोंके मुख में रहती है, और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है । कभी समाप्त नहीं होती ), जिनके हृदयसे जिनेन्द्र भगवान्' एक क्षणके लिए अलग नहीं होते। एक क्षणके लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता, मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमनकी याचना करता है, गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है । मृत्यु भी मुनिवरोंकी कहाँ होती है, उन मुनिवरोंकी, जो जिनवरकी सेवामें लगे हुए हैं। जिनवर भी वे, जो दूसरोंका मान ले लेते हैं (अर्थात् जिनके सम्मुख किसीका मान नहीं ठहरता), जो परिजनोंके पास भी पर के समान जाते हैं (अतः उनके लिए न तो कोई पर है,
और न स्व ), जो स्वजनोंको अपने में तृणके समान समझते हैं, जिनके पास नरकका ऋण तिनकेके बराबर भी नहीं है। जो संसारके भयसे रहित है, उन्हें भय हो भी कैसे सकता है। वे भयसे रहित और धर्म एवं संयमसे सहित हैं ॥१८॥
घत्ता-जो मन-वचन और कायसे कपट रहित हैं, जो काम और क्रोधके पापसे तर चुके हैं, ऐसे परमाचार्य गुरुओंको स्वयम्भदेव (कवि) एकमनसे बंदना करता है ।।