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VANWANA
* प्रथम सर्ग - गॅवाओ। जड़-कटा वृक्ष, सिर-कटा सिपाही, और धर्म-हीन धनवान् भला कहाँ तक अपनी लीला दिखला सकता है ? जैसे वृक्षकी ऊँचाईपरसे नीचे जमीनमें गड़ी हुई उसकी जड़का अनुमान किया जा सकता है, वैसेही पूर्वकृत धर्म अदृष्ट होते हुए भी प्राप्त सम्पत्तिसे उसका अनुमान किया जाता है। इसीलिये सुझजन धर्मको ही मूल मानकर उसीको सींचते और सब तरहके फल भोग करते हैं । मूढजन उसी जड़को काटकर सदाके लिये भोगका रास्ता बन्द कर देते हैं। निर्मल कुल, कामदेवका सा रूप, फलाफूला वैभव, निर्दोष क्रिया, फैली हुई कीर्ति, सारे संसारके काम आने लायक और कभी कम न होनेवाला सौभाग्य आदि मनोहर गुण धर्मसे ही मिल सकते हैं । जो धर्मका पक्षावलम्बन करता है उसे ललिताङ्ग कुमार की तरह जय मिलती है। और धर्मका विरोध करनेसे उनके नौकर सजनकी ही तरह अनर्थका मूल हो जाता है।