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॥१७॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । जो मनुष्य परस्त्रीके सेवन करनेवाले हैं उनको इसीलोकमें जो चिंता, व्याकुलता, भय, द्वेष, बुद्धिकाभ्रष्टपना, शरीरकादाह, भूख, प्यास, रोग, जन्ममरणआदिक दुःख होते हैं वे कोई अधिक दुःख नहीं किन्तु जिस समय उन परस्त्रीसेवीमनुष्योंको नरकर्मे जाना पड़ता है तथा वहांपर जब उनको परस्त्रीकी जगह लोहकी पुतलीसे आलिंगन करना पड़ता है उससमय उनको अधिक दुःख होता है।
भावार्थ-जो मनुष्य परस्त्रकिसेवी हैं उनको निरंतर अनेकप्रकारकी चिंता लगीरहती है, तथा उस स्त्रीसे मैं कैसे मिलूं कैसे उसको प्रसन्न करूं इसप्रकार उनको निरंतर आकुलता भी रहती है, और कोई हमें संभोग करते देख न लेवे तथा कोई मार न देवे, इसप्रकारका उनको सदा भय भी लगा रहता है तथा परस्त्री सेवन करनेवाले मनुष्यकी किसीके साथ प्रीति भी नहीं होती सबके साथ द्वेष ही रहता है तथा परस्त्रीसेवन करनेवाले मनुष्यकी बुद्धि भी भ्रष्ट होजाती है क्योंकि उसको माता, बहिन, पुत्री आदिका कुछ भी ध्यान नहीं रहता तथा जो मनुष्य परस्त्रीके विलासी हैं उनका शरीर सदा कामज्वरसे संतप्त रहता है तथा परस्त्रीसेवीपुरुषोंको भूख प्यास आदि नानाप्रकारके दुःख भी आकर सताते हैं और उनको अनेक प्रकारके गर्मी आदि प्राणघातक रोगोंका भी सामना करना पड़ता है तथा अनेकप्रकारके दुःख भी उन्हें भोगने पड़ते हैं और अंतमें वे मर भी जाते हैं ये तो इस भवके दुःख हैं किन्तु जिससमय वे परभवमें नरक जाते हैं तथा जिससमय उनको गरम कीहई लोहकी पुतलीसे चिपका दिया जाता है तथा कहा जाता है कि जिस प्रकार तुमने पूर्वभव में परस्त्री के साथ संभोग किया था वैसीही यह स्त्री है इसके साथ भी वैसाही संभोग करो तब उनको और भी अधिक दुःख होता है इसलिये उत्तमपुरुषोंको चाहिये कि वे किसी भी परस्त्रीकेसाथ संबंध न करें ॥ २९॥
और भी आचार्य उपदेश देते हैं।
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