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पअनन्दिपश्चविंशतिका । स्त्रीवालादिजनादपि स्फुटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते नित्यं चञ्चनहिंसनोज्झनविधौ लोकाः कुतो मुह्यते२७॥
अर्थः-स्त्री बालक आदिसे तथा शास्त्रसे जब यह बात भलीभांति मालूम है कि जो प्राणी इस जन्ममें एकबार भी दूसरेप्राणीको मारता है वह दूसरे जन्ममें उस मरेहुवे प्राणीसे अनन्तबार माराजाता है तथा जो मनुष्य इस जन्ममें एकबार भी दूसरे प्राणीको ठगता है वह दूसरे जन्ममें अनन्तबार उसी पूर्वभवमे ठगेहवे प्राणीसे || ठगाया जाता है फिर भी हे लोक तू दूसरेके ठगनेमें तथा मारनेमें छोड़ने में रातदिन लगा रहता है यह बड़े आश्चर्यकी बात है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे ऐसे अनर्थके करनेवाले दूसरेके मारने ठगने में अपने चित्तको न लगावे २७॥
और भी आचार्य चोरी कपट करनेका दोष दिखाते हैं । अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनैर्ये वञ्चयन्ते परान्नूनं ते नरकं ब्रजन्ति पुरतः पापिबजादन्यतः । प्राणाः प्राणिषु तन्निवन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने यावान् दुःखभरो नरे न मरणे तावानिह प्रायशा२॥
अर्थः-जो दुष्टमनुष्य नानाप्रकारके छल कपट दगाबाजीसे दूसरे मनुष्योको धन आदिकेलिये ठगते हैं उनको दूसरेपापीजनोंसे पहिले ही नरक जाना पड़ता है क्योंकि (धनं वै प्राणाः) इस नीतिके अनुसार मनुष्योंके धन ही प्राण हैं, यदि किसी रीतिसे उनका धन नष्ट होजावे तो उनको इतना प्रबल दुःख होता है कि जितना उनको मरते समय भी नहीं होता इसलिये प्राणियोंको चाहिये कि वे प्राणस्वरूप दूसरेके धनको कदापि हरण न करै तथा न हरण करनेका प्रयन ही करे ॥ २८ ॥
परस्त्रीसेवनमें क्या २ हानि है इसबातको आचार्य दो श्लोकोंमें दिखाते हैं । चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशोऽतिदाहभ्रमातृष्णाहतिरोगदुःखमरणान्येतान्यहो आसताम् । यान्यत्रैव पराअनाहतमतेस्तदुभूरिदुम्खं चिरं श्वभ्रे भावि यदभिदीपितवपुलोंहागनालिङ्गनात् ॥२९॥
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