________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀!܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
www.kobatirth.org
पचनन्दिपञ्चविंश्नतिका । वध्यालं सापि यस्मिन्ननुमृगवनितामांसापण्डस्यलोभादाखेटेऽस्मिनतानामिहकिमुनकिमन्यत्रनो यद्विरूपम्
अर्थः-जिस बिचारीमृगीके सिवाय देहके दुसरा कोई धन नहीं है तथा जो सदा बनमें ही भ्रमण करती रहती है और जिसका कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है तथा जिसको खंभावसे ही भय लगता है तथा जो केवल तृणकी ही खानेवाली है और किसीका जो लेशमात्र भी अपराध नहीं करती ऐसी भी दीन मृगी को केवल मासटुकडेके लोभी तथा शिकारके प्रेमी, जो दुष्टपुरुष विनाकारण मारते हैं उनको इस लोक- | में तथा परलोकमें नानाप्रकारके विरुद्ध कार्योंका सामना करना पडता है अर्थात् इसलोकमें तो वे दुष्टपुरुष रोग शोक आदि दुःखोका अनुभव करते हैं तथा परलोकमें उनको नरक जाना पड़ता है ॥ २५ ॥
मालिनी। तनुरपि यदि लमा कीटिका स्याच्छरीरे भवति तरलचक्षुर्व्याकुलो यः स लोकः। कथमिह मृगयाप्सानन्दमुत्खातशत्रो मृगमकृतविकारं ज्ञातदुःखोऽपि हन्ति ॥२६॥
अर्थः-आचार्य महाराज कहते हैं कि जो मनुष्य शरीरसे किसीप्रकार कीड़ी आदिके संबन्ध हो जाने सेही अधीर होकर जहांतहां देखने लग जाता है (अर्थात् उसको वह चिंउटी आदि का संबन्ध ही पीडा का पैदा करनेवाला होजाता है) तथा जो दुःखका भलीभांति जाननेवाला है वह मनुष्य भी शिकार में आनन्द मानकर निरपराधदीनमृगको हथियार उठाकर मारता है? यह बड़ा आश्चर्य है।
भावार्थः-बिना जाने किसी कार्य करने में आश्चर्य नहीं किन्तु जो भलीभांति अपने तथा परके दुःखको जानता है फिर ऐसा दुष्टकाम करता है उसकेलिये आश्रर्य है ॥ २१ ॥
शाल विक्रीड़ित। यो येनैव हतः स हन्ति वहुशो हन्त्येव यैर्वञ्चितो नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेप्यत्र च ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
५॥
For Private And Personal