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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
वेश्याओंसे दुसरानरक संसार में है ! यह बात सर्वथा झूठ है । भावार्थः — वेश्या ही नरक है ॥ २३ ॥
॥१४॥
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आर्या ।
रजकशिलासदृशीभिः कुक्कुरकर्परसमानचरिताभिः । गणिकाभिर्यदि सङ्गः कृतमिह परलोकवार्ताभिः ॥ २४ ॥
अर्थः-- जो वेश्या धोवीकी कपड़ेपछीटने की शिलाके समान है अर्थात् जिसप्रकार शिलापर समस्त प्रकारके कपड़े लाकर पछीटे जाते हैं उसही प्रकार इस वेश्याकेसाथ भी समस्त निकृष्टसे निकृष्ट जातिके मनुष्य आकर रमण करते हैं अथवा दूसरा इसका आशय यह भी है कि जिस प्रकार शिला पर समस्त प्रकार के कपड़ोंके मैलका संचय होता है उसही प्रकार वेश्यारूपी शिलापर भी नाना जातियों के मनुष्य के वीर्यरूपी मैलका समूह इकठ्ठा होता है तथा जो वेश्या कुत्ताओंके लिये कपालके समान हैं अर्थात् जिस प्रकार मरे हुवे मनुष्य के कपाल पर लड़ते लड़ाते नानाप्रकार के कुत्ते इकट्ठे होते हैं उसहीप्रकार इस वैश्या परभी नाना जातियोंके मनुष्य आकर टूटते हैं तथा नानाप्रकार के परस्परमें कलह करते हैं इसलिये ऐसी निकृष्टवेश्याओंके साथ यदि कोई पुरुष संबन्ध करे तो समझलेना चाहिये कि उसका परलोक उत्तम हो चुका ।
भावार्थ:- जो मनुष्य वेश्याओंके साथ संबन्ध करते हैं उनके इहलोक तथा परलोक दोनों सर्वथा बिगड़ जाते हैं ||२४||
अब आचार्य दो श्लोकोंमें शिकार व्यसन का निषेध करते हैं। या दुर्देहैक वित्ता वनमधिवसति त्रातृसंवन्धहीना भीतिर्यस्याः स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति ।
स्रग्धारा ।
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