Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख
xxxiii प्रकट करने की बजाय इनका उपचार प्रस्तुत किया जाए, जिससे कि समाज में ऐसे विकार प्रविष्ट ही न हों तथा जो विकार प्रविष्ट हो गए हों, वे बढे नहीं और पराने विकारों को परानी बुराइयों को जो समाज में व्याप्त हैं, धीरे-धीरे कारगर ढंग से निकाला जाए।" इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आचार्यप्रवर न केवल कुशल मनोवैज्ञानिक अपितु समाज के उत्तम मनोचिकित्सक भी थे। जिस प्रकार व्यक्ति की बुराई को बार-बार प्रकट करने पर वह नहीं छोड़ता, किन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में आने पर वह छोड़ने के लिए तत्पर हो जाता है, उसी प्रकार समाज को विभिन्न दोषों के दुष्परिणामों से अवगत कराकर उनसे मुक्त कराना ही युगमनीषी करुणानिधान आचार्य श्री का लक्ष्य रहा।
समाज धर्म की दृष्टि से आपने सामूहिक रात्रिभोज एवं उसमें जमीकंद के प्रयोग को अनुचित बताया तथा श्रावकों को प्रतिज्ञा ग्रहण करने के लिए तैयार किया कि वे सामहिक भोज में रात्रिभोजन नहीं करेंगे तथा जमीकन्द का त्याग रखेंगे। आपका मन्तव्य था कि नित्यप्रति न बन सके तो कम से कम समाजधर्म के प्रतीक रूप में जैनों के द्वारा इतनी मर्यादा का निर्वाह तो होना ही चाहिए।
___ महापुरुष बिना किसी भेदभाव के समाज में एकता का स्वरूप देखकर प्रमुदित होते हैं तो समाज में व्याप्त कलह, मनमुटाव आदि को देखकर उनका हृदय अनुकम्पित हो जाता है। सिंवाची पट्टी के 144 गांवों में व्याप्त मनमुटाव के रौद्र रूप को देखकर आपका दिल दहल उठा। ऊनोदरी तप-साधक आचार्य श्री ने समाज के इस भयावह झगड़े को मिटाने का मूक संकल्प करते हुए झगड़ा मिटने तक दुग्ध-सेवन का त्याग कर दिया। आपने बड़ी सूझ-बूझ के साथ पीयूषपाविनी वाणी से समाज के अग्रणी लोगों को कषाय शमन की शिक्षा दी, जिससे संवत् 2022 के बालोतरा चातुर्मास में यह दीर्घकालीन विवाद एवं मनोमालिन्य प्रेम-मैत्री में परिणत हो गया।
आप जहाँ कहीं भी पधारे, वहाँ व्याप्त मनमुटाव, कलह एवं द्वन्द्व को दूर कर आपने समाज में प्रेम एवं एकता का संचार किया। लासलगांव (संवत् 1999), फतहगढ़ (संवत् 2013), पाली (संवत् 2018), किशनगढ़ (संवत् 2019) आदि बीसियों ग्राम-नगरों में कलह-कलुष को धोकर आपने प्रेम एवं मैत्री की सरिता को प्रवाहित किया। आप फरमाते थे- "समाज में एक-दूसरे पर विश्वास आवश्यक है। शरीर में आँख में चूक से कभी पैर में कांटा लग जाय तो क्या पैर आंख पर भरोसा नहीं करेगा? और क्या आँख पैर का कांटा निकालने में सहयोग नहीं करेगी?"इसी प्रकार के भावों से ओतप्रोत आपकी काव्यरचना के कुछ पद द्रष्टव्य हैं
शिक्षा दे रहा जी हमको, देह पिंड सुखदाई। दश इन्द्रिय अरू बीसों अंग में, देखो एक सगाई।। सबमें एक, एक में सबकी. शक्ति रही समाई।
आंख चूक से लगता कांटा, पैरो में दुःखदायी। फिर भी पैर आंख से चाहता, देवे मार्ग बताई।। सबके पोषण हित करता, संग्रह पेट सदाई।
रस कस ले सबको पहुंचाता, पाता मान बड़ाई।। एकता के स्वरूप को परिभाषित करते हुए आप फरमाते थे कि समाज में एकता नारंगी की तरह नहीं खरबूजे की तरह होनी चाहिए। नारंगी बाहर से एक दिखाई देते हुए भी भीतर से अलग-अलग फांक में विभक्त होती है, जबकि खरबूजा बाहर से रेखाओं में विभक्त प्रतीत होता हुआ भी भीतर से एक होता है। आपका औपचारिकता में नहीं, अंतरंगता में विश्वास था। लोक-दिखाऊ एकता उन्हें कतई यथेष्ट नहीं थी।
एकता की स्थापना एवं स्थायित्व के लिए आप फरमाते थे- "समाज में आपको कैंची नहीं सुई बनकर