Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख
उनकी व्यथा दूर करने में किया जाय तो लाभ का कारण है। अपव्यय का उपयोग स्वधर्मि-वात्सल्य में भी लाभ का निमित्त बन सकता है।"
माताओं पर बहत बडा दायित्व है। भावी पीढ़ी की प्रथम शिक्षक माता ही होती है। उसके द्वारा प्रदत्त संस्कार बालक के विकास को निर्धारित करते हैं। आचार्य श्री का मानना था कि संतति से मोह का संबंध न रखकर माता को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। बहिनें अनेक अंधविश्वासों से आक्रान्त रहती हैं, वे पद-पद पर अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त रहती हैं। इसलिए वे अनेक देव-देवियों की पूजा तथा ढोंगी-पाखण्डी संन्यासियों के चक्कर में फंस जाती हैं। धर्म का सही स्वरूप यदि वे समझ लें तो इस प्रकार की मिथ्या मान्यताओं के भंवर-जाल से बचा जा सकता है। बालकों को सही संस्कार देने के लिए भी माताओं की धार्मिक योग्यता का विकास अपेक्षित है।।
दहेजप्रथा पर कुठाराघात करते हुए फरमाया- "सुनता हूँ कि जैन समाज के सदस्यों में और समाज के अग्रगण्य कहलाये जाने वाले लोगों में दहेज की कुप्रथा ने भयंकर रूप से गहरा घर कर रखा है। दहेज की कुप्रथा के रूप में बढे हए मानव के लोभ से कभी कलवघओं को आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है, कभी लोभियों। के द्वारा सताया जाता है। इस प्रथा के कारण अनेक घरों में 25-25 वर्ष की कुंवारी कन्याएँ मिलेंगी। दयालु जैन कुल में जन्म ग्रहण करने वाले भाई-बहिन डोरे और बीटी के लिए, टीके और दहेज के लिए बोलते हुए और आग्रह करते हुए शरमाते नहीं। आप स्वयं ही सोचिए कि यह आपकी कैसी दया है? समाज के अग्रणी लोग एवं स्वाध्यायी जन प्रतिज्ञा कर लें कि वे अपने बच्चे-बच्चियों के लिए बीटी, डोरा या दहेज आदि कछन तो लेंगे और न देंगे ही।"आपने अनेक प्रसंगों पर स्वाध्यायियों एवं जैन समाज के बंधुओं को दहेज का ठहराव और दहेज की मांग न करने की प्रतिज्ञा कराई। प्रदर्शन एवं लोभ-लालच के कारण बढ़ती इस बुराई का निकन्दन हो, इसके लिए गुरुदेव ने युवकों को भी प्रेरणा करते हुए फरमाया कि नवयुवक दहेज, टीके आदि की कुप्रथाओं को नष्ट करने का यदि दृढ़संकल्प कर लें तो यह निकन्दन असम्भव नहीं। आपने अपने प्रवचनों में फरमाया- "यदि समाज कुछ प्रतिज्ञाओं में आबद्ध होकर चले तो बहुत कुछ सुधार हो सकता है। जैसे- 1. दहेज की न कोई मांग करनी और न ही किसी से करवानी 2. दहेज का किसी भी प्रकार का कोई प्रदर्शन नहीं करना। 3. दहेज कम मिलने पर कोई आलोचना अथवा चर्चा नहीं करनी।"
मृत्यु के पश्चात् कई दिनों तक रोना एवं मृत्युभोज या स्वामिवत्सल करना अज्ञान, अशिक्षा और असम्यक् सोच का परिणाम है। कई बार मुंह ढाकने एवं रोने की प्रथा नाटकीय ढंग से चलती है। जो जैन भाई आत्मा का पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं और यह भी जानते हैं कि गया हुआ वापस नहीं आता तो फिर व्यर्थ का विलाप घर के वातावरण को दूषित ही करता है तथा आहत व्यक्ति की पीड़ा अधिक गहरी होती जाती है। मस्तिष्क उस घटना से उभर नहीं पाता। आचार्य श्री अपने प्रवचनों में इन बुराइयों के निवारण हेतु प्रेरणा करते रहते थे। रोने की लोकरूढ़ि पर आपने फरमाया- "यह कैसी रीति है कि जो महिलाएं थोड़ी देर पहले बैठी हुई आपस में बातें करती होती हैं, वे आगन्तुक महिला को रोते देखकर रोना प्रारम्भ कर देती हैं।"गुरुदेव ने इसे अनर्थदण्ड मानकर त्यागने का उपदेश दिया।
__ अखाद्य-भक्षण, अपेय-पान, अगम्य-गमन आदि विभिन्न बुराइयों का निकन्दन भी उन युगमनीषी को अभीष्ट रहा। आपका चिन्तन सकारात्मक था। नकारात्म सोच वालों को आगाह करते हुए आप फरमाते-"मैं समाज के भीतर की कमजोरियों को, बुराइयों को नंगे रूप में बाहर प्रस्तुत करना समाज की शक्ति में, समाज के मानस में दुर्बलता लाने का कारण समझता हूँ। इसके विपरीत मैं यह सोचता हूँ कि इन दुर्बलताओं को बाहर