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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा णिय बं० । तं तु । एवं अपज्जत्त-साधारण ।
६३. थिर० उक्क०हिदिवं० दोगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०पंचसंघ०-दोआणु०--आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-तस-थावर-बादर-मुहुम-पत्तेयसाधार-असुभादिपंच० सिया० संखेज्ज भागणं बं०। ओरालि०-तेजा-कवएण०४-अगु०४-पज्जत्त-णिमि० णि. बं० संखेज्जभागू० । समचदु०-वज्जरिसभा-पसत्थ -सुभगादिपंच सिया० । तं तु० । एवं थिरभंगो सुभ-जसगि० । एवरि जसगित्तीए मुहुम-साधारणं वज्ज ।
६४. तित्थय० उक्क हिदिबं. मणुसगदिपंचग सिया० संखेज्जदिभागहीणं बं० । देवगदि०४ सिया० । तं तु० । पंचिंदियाओ धुविगाओ अथिर-असुभ-सुभग
निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है, जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६३. स्थिर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, प्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण और अशुभादि पाँच इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवा भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, और सुभग आदि पाँचका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्थिर प्रकृतिके समान शुभ और यश कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय सूक्ष्म और साधारण इन दो प्रकृतियों को छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६४. तीर्थङ्कर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। देवगतिचतुष्कका कदा. चित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों तथा अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और अवशकीर्ति
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