________________ आकर्षित नहीं करती, क्योंकि आत्मा के पास पुद्गल को आकर्षित करने की कोई शक्ति नहीं है। किन्तु एक माध्यम है उसके पास, जिसके द्वारा वह पुद्गल को आकर्षित करती है। वह माध्यम है-भावकर्म या आस्रव। भावकर्म या आस्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये पांच शक्तियां हैं पुद्गलों को आकर्षिक करने वाली। ये हमारे पांच चित्त हैं। एक चित्त है मिथ्यात्व का, एक चित्त है अविरति का, एक चित्त है प्रमाद का, एक चित्त है कषाय का और एक चित्त है योग का। इन पांचों चित्त का निर्माण होता है और समय-समय पर ये चित्त मंद-तीव्र होते रहते हैं। जिस प्रकार ये चित्त होते हैं, उसी प्रकार के द्रव्यचित्तों, पौद्गलिक चित्तों का निर्माण होता चला जाता है और संबंध की संरचना होती चली जाती है। आस्रवों के बिना कर्मों का आकर्षण नहीं हो सकता और न कर्मों का एक विशेष संरचनात्मक रूप ही बन सकता है। हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं और एक विशेष प्रकार का उन्हें रूप देते हैं। ये दोनों काम भावचित्त के बिना या भावकर्म के बिना नहीं हो सकते, इसीलिए हम कर्म पर बहुत चिंतित नहीं होते, किन्तु भावचित्त पर ज्यादा चिंतित होते हैं, भावकर्म पर ज्यादा ध्यान देते हैं। राग-द्वेष का प्रत्येक क्षण कर्म-आकर्षण का या कर्म-बंध का क्षण है। हम साधना की दृष्टि से जब विचार करते हैं, तब इस बात से चिंतित न हों कि कर्म का बहुत आकर्षण होता है या हो रहा है। किन्तु जो राग-द्वेष का क्षण कर्म को आकृष्ट करता है, उसके प्रति जागरूक हों। हम बहुत वार कहते हैं-जागरूक रहें, अप्रमत्त रहें। प्रश्न होता है किसके प्रति जागरूक रहें? किसके प्रति अप्रमत्त रहें? हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें, जिस क्षण में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष का क्षण हिंसा का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही असत्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही चौर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही अब्रह्मचर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही परिग्रह का क्षण है। जितने भी दोष हैं, उन सबका क्षण है राग-द्वेष का क्षण। राग-द्वेष का क्षण ही समूची कर्म-वर्गणाओं के आकर्षण का क्षण है। इसलिए साधना के क्षेत्र में जागरूकता का अर्थ कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 33