________________ कोई आवेग उत्पन्न हो जाता है तो कभी कोई आवेग। यह सच है। कि परिस्थितियां भी इनकी उत्पत्ति में निमित्त बनती हैं, वातावरण भी . निमित्त बनता है। आवेगों की तरतमता समूचे आध्यात्मिक चेतन के विकास का बोधचक्र है। कषाय-चतुष्टयी-क्रोध, मान, माया और लोभ-के तारतम्य का पहला प्रकार है-अनन्तानुबंधी। अनन्तानुबंधी अनन्त अनुबंध करता है। इतनी संतति पैदा करता है कि जिसका अंत नहीं होता है। संतति के बाद संतति। यह क्रम टूटता ही नहीं या मुश्किल से टूटतो. है। जिस आवेग में संतति की निरंतरता होती है या जिसमें संतति को पैदा करने की अटूट क्षमता होती है, वह अनन्तानुबंधी होता है। कभी ऐसा भी होता है कि एक घटना घटती है। उसका असर होता है. और बात समाप्त हो जाती है। कभी ऐसा भी होता है कि घटना घटित हुई, मन में विचार आया और उस विचार का सिलसिला इतना लम्बा हो गया कि उस मूल विचार से अनेक-अनेक छोटे-बड़े विचार उत्पन्न होते गये। एक के बाद एक विचार आते रहे। उनकी श्रृंखला नहीं टूटी। वह पहला विचार इतनी बड़ी संतति पैदा करता जाता है कि वह कभी समाप्त ही नहीं होता। वह अनन्तानुबंधी है। बहुत सारे कीटाणु ऐसे होते हैं, जिनकी संतति इतनी बढ़ जाती है कि जाल फैल जाता है। वह जाल बहुत बड़ा होता है। वे कीटाणु संतति पैदा करते ही चले जाते हैं। कहीं रुकते ही नहीं। इसी प्रकार जिस आवेग की संतति आगे बढ़ती चली जाती है, वह तीव्रतम आवेग हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। जब तक यह आवेग होता है, तब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता। क्योंकि मूर्छा इतनी सघन होती है कि एक मूर्छा दूसरी मूर्छा को, दूसरी मूर्छा तीसरी मूर्छा को और तीसरी मूर्छा चौथी मूर्छा को उत्पन्न करती चली जाती है। इसका कहीं अंत नहीं आता। सम्यक् देखने का हमें अवसर ही नहीं मिलता। एक के बाद दूसरी गलती, गलतियों को दोहराते चले जाते हैं और दृष्टि में भ्रम छाया का छाया रहता है। यह प्रखरतम आवेग हमारी दृष्टि को विकृत करता है। यह ग्रंथिपात का क्रम है। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता 52 कर्मवाद