________________ जाता, परिभाषा से मुक्त कर वर्तमान के चिन्तन के साथ पढ़ा नहीं जाता और वर्तमान की शब्दावली में प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक एक महान् सिद्धान्त भी अर्थशून्य जैसा हो जाता है। ___ आज के मनोवैज्ञानिक मन की हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं। मनोविज्ञान को पढ़ने पर मुझे लगा कि जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियों ने अध्ययन और विचार किया था, उन्हीं. समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञान के संदर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो उसकी अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं, अनेक अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती हैं। कर्मशास्त्र के संदर्भ में यदि मनोविज्ञान को पढ़ा जाए तो उसकी अपूर्णता को समझा जा सकता. है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकते हैं। . ___ हमारे जगत् में करोड़ों-करोड़ों मनुष्य हैं। वे सब एक ही मनुष्य जाति से संबद्ध हैं। उनमें जातिगत एकता होने पर भी वैयक्तिक भिन्नता होती है। कोई भी मनुष्य शारीरिक या मानसिक दृष्टि से सर्वथा किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं होता। कुछ मनुष्य लम्बे होते हैं, कुछ बौने होते हैं। कुछ मनुष्य गोरे होते हैं, कुछ काले होते हैं। कुछ मनुष्य सुडौल होते हैं, कुछ भद्दी आकृति वाले होते हैं। कुछ मनुष्यों में बौद्धिक मन्दता होती है, कुछ में विशिष्ट बौद्धिक क्षमता होती है। स्मृति और अधिगम क्षमता (Learning Capacity) सबमें समान नहीं होती। स्वभाव भी सबका एक-जैसा नहीं होता। कुछ शान्त होते हैं, कुछ बहुत क्रोधी होते हैं। कुछ प्रसन्न प्रकृति के होते हैं, कुछ उदास रहने वाले होते हैं। कुछ निःस्वार्थ वृत्ति के लोग होते हैं, कुछ स्वार्थपरायण होते हैं। वैयक्तिक भिन्नता प्रत्यक्ष है। इस विषय में कोई दो मत नहीं हो सकता। कर्मशास्त्र में वैयक्तिक भिन्नता का चित्रण मिलता ही है। मनोविज्ञान ने भी इसका विशद रूप में चित्रण किया है। उसके अनुसार वैयक्तिक भिन्नता का प्रश्न मूल प्रेरणाओं के संबंध में उठता है। मूल प्रेरणाएं (प्राइमरी मोटिव्स) सबमें होती हैं, किन्तु उनकी मात्रा सबमें एक समान नहीं होती। किसी में कोई एक प्रधान होती है तो किसी में कोई दूसरी प्रधान होती है। अधिगम क्षमता भी सबमें होती है, किसी में अधिक होती है और किसी 268 कर्मवाद