Book Title: Karmwad
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाट आचार्य महामन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मुझे इसलिए प्रिय है कि वह सत्य की खोज का आलम्बन है, अवरोध नहीं है। आग्रह अवरोध बनता है। कर्म हमारे अतीत का लेखा-जोखा है। इस विषय में एकांतिक दृष्टि और आग्रह पनपे हैं। इसलिए यह महान् सिद्धान्त उपयोगी कम हुआ है, आवरण अधिक बना। अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धान्त के बिना नहीं की जा सकती। इसलिए यह एक महान् सिद्धान्त है। इसकी अतल गहराइयों में डुबकी लगाना उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, जो अध्यात्म के अंतस् की उष्मा का स्पर्श चाहता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद / आचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक मुनि दुलहराज (c) आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) मूल्य : सत्तर रुपये / संस्करण 2000 / मुद्रक : पवन प्रिंटर्स, दिल्ली-३२ KARAMVAD by Acharya Mahaprajna Rs. 70.00 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति अनेकान्त मुझे इसलिए प्रिय है कि वह सत्य की खोज का आलम्बन है, अवरोध नहीं है। आग्रह अवरोध बनता है। कर्म हमारे अतीत का लेखा-जोखा है। इस विषय में एकांतिक दृष्टि और आग्रह पनपे हैं। इसलिए यह महान् सिद्धांत उपयोगी कम हुआ है, आवरण अधिक बना। ___ अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धांत के बिना नहीं की जा सकती। इसलिए यह एक महान् सिद्धांत है। इसकी अतल गहराइयों में डुबकी लगाना उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, जो अध्यात्म के अंतस् की ऊष्मा का स्पर्श चाहता है। कर्म के विषय में मैंने अनेक बार अनेक दृष्टिकोणों से चर्चा की। उसे एक साथ संकलित कर मुनि दुलहराजजी ने स्वाध्यायी के लिए सुलभ बना दिया। यह एक श्रमसाध्य कार्य है, पर इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। . पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के शासनकालीन पचास वर्ष अमृत-पट्ट महोत्सव के अवसर पर इसकी उपलब्धि अपने आप में एक विशिष्टता होगी। आचार्य महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम आचरण के स्रोत कर्म : चौथा आयाम कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 कर्म का बन्ध . समस्या का मूल : मोहकर्म आवेग : उप-आवेग आवेग-चिकित्सा स्वतंत्र या परतंत्र? कर्मवाद के अंकुश प्रतिबद्धता का प्रश्न . उत्तरदायी कौन? अतीत से बंधा वर्तमान अतीत से मुक्त वर्तमान प्रतिक्रमण . वर्तमान की पकड़ परिवर्तन का सूत्र पर्दे के पीछे कौन? अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो पद-चिह्न रह जाते हैं करे कोई, भोगे कोई * भाव का जादू N . 1 200 205 218 50 242 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्म और पलायनवाद कर्मवाद समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण के स्रोत ज्ञान और अध्यात्म दो हैं। दोनों जरूरी हैं। ज्ञान के विना अध्यात्म का ग्रहण नहीं किया जा सकता और अध्यात्म में उतरे विना ज्ञान की शुद्धता नहीं हो सकती, ज्ञान का प्रस्फुटन नहीं हो सकता। ज्ञान अध्यात्म को बढ़ाता है और अध्यात्म ज्ञान को नये-नये उन्मेष देता है। पश्चिम के दार्शनिकों ने मन का काफी गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने मन के विषय में अनेक खोजें की हैं, मन का पूरा विश्लेपण किया है। मनोविज्ञान की एक पूरी शाखा विकसित हो गयी। प्रश्न होता है कि भारत के सत्य-वेत्ताओं ने क्या मानसशास्त्र का अध्ययन नहीं किया था? इस प्रश्न के उत्तर में हम दो शाखाओं-योगशास्त्र और कर्मशास्त्र-पर ध्यान दें। : योगशास्त्र साधना की व्यवस्थित पद्धति है। इसके अन्तर्गत मन का पूरा विश्लेषण, मन की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं का अध्ययन और उसके व्यवहार का बोध आता है। . कर्मशास्त्र मन की गहनतम अवस्थाओं के अध्ययन का शास्त्र है। कर्मशास्त्र को छोड़कर हम मानसशास्त्र को ठीक व्याख्यायित नहीं कर सकते तथा मानस शास्त्र में जो आज अबूझ-गूढ़ पहेलियां हैं उन्हें समाहित नहीं कर सकते और न अध्ययन की गहराइयों में जा सकते हैं। कर्मशास्त्र के गंभीर अध्ययन का मतलब है-अध्यात्म की गहराइयों में जाने का एक गहरा प्रयत्न। जो केवल अध्यात्म का अनुशीलन करना चाहते हैं किन्तु कर्मशास्त्र पर ध्यान देना नहीं चाहते, वे न अध्यात्म की गहराइयों को ही समझ सकते हैं और न वहां तक पहुंच ही सकते हैं। इसलिए कर्मशास्त्र और योगशास्त्र तथा वर्तमान मानसशास्त्र-तीनों का समन्वित आचरण के स्रोत 1 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन होने पर ही हम अध्यात्म के सही रूप को समझ सकते हैं और उसका उचित मूल्यांकन कर सकते हैं। अध्यात्म को समझने के लिए कर्मशास्त्र को समझना आवश्यक है। यह इसलिए आवश्यक है कि कर्मशास्त्र में हमारे आचरणों की कार्य-कारणात्मक मीमांसा है। हम जो भी आचरण करते हैं, उसके दो कारण होते हैं। एक है बाहरी कारण और दूसरा है भीतरी कारण। बाहरी कारण बहुत स्पष्ट होते हैं। एक आदमी चला जा रहा है। रास्ते में आग जल रही है। आग के निकट आते ही वह अपना पैर खींच लेता है। उसने अपना पैर क्यों खींचा, इसे हम स्पष्टता से समझ सकते हैं। कारण स्पष्ट है। रास्ते में आग थी। पैर नहीं खींचता तो पैर जल जाता। यह बाहरी कारण है। हमारी समझ में आ सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। एक आदमी बीमार है। दवा ले रहा है। बीमार होने के कारण अस्वाभाविक प्रवृत्ति भी कर रहा है। उदास है, खिन्न है, और भी दूसरे-दूसरे आचरण कर रहा है। बीमारी के पीछे जो कारण है वह बाहरी कारण नहीं है। वह आंखों से दिखाई देने वाला कारण नहीं है। वह भीतरी कारण है। उस कारण की खोज करनी होगी। एक बीमार आदमी अस्वाभाविक आचरण कर रहा है, उसके पीछे कारण क्या है? रोग है। रोग का कारण क्या है? वह भीतरी कारण है। उस आंतरिक कारण को खोजने की जरूरत है। जहां आंतरिक कारण होता है वहां खोज का प्रश्न आता है और साथ-साथ विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत होते हैं। बीमार चिकित्सक के पास जाता है। बीमार को देखकर विभिन्न चिकित्सक भिन्न-भिन्न बातें कहते हैं वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकाराः, ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति। भूताभिषंग इति भूतविदो वदन्ति, प्राचीनकर्म बलवद् मुनयो वदन्ति // वैद्य कहता है-तुम्हारे रोग का कारण यह है कि शरीर के कफ, 2 कर्मवाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्त और वात विकृत हो गये हैं। ज्योतिषी कहता है-तुम्हारे ग्रहों की गति विपरीत हो गई है, इसलिए यह रोग है। ___ भूतवादी कहता है-तुम्हारे पर भूत की छाया पड़ गई है, इसलिए यह रोग उभरा है। ___मुनि कहता है-रोग का कारण है अपने किए हुए कर्मों का विपाक। डॉक्टर कुछ और ही कहेगा। वह कहेगा-कीटाणुओं के कारण रोग हुआ है। वहां वात, पित्त और कफ की बात नहीं होगी। रोग कीटाणुज होगा। किसी ओस्ट्रियोपैथी (हड्डियों के विशेषज्ञ) के पास जायेंगे तो वह कहेगा-हड्डियों का संतुलन ठीक नहीं है। पृष्ठरज्जु और अन्यान्य हड्डियों का संतुलन ठीक नहीं है, इसलिए यह रोग उत्पन्न हुआ है। एक ही बीमारी, एक ही रोग, पर उसके कारणों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण मिलेंगे। चिकित्सा की एक शाखा है-एक्यूपंक्चर। उसके विशेषज्ञ कहेंगे कि शरीर में विद्युत् का संतुलन ठीक नहीं रहा, इसलिए बीमारी हुई है। . अभी-अभी रूस के शरीरशास्त्रीय वैज्ञानिकों ने एक सिद्धांत का . प्रतिपादन किया है-मनुष्य के शरीर में जब विद्युत् का संतुलन ठीक नहीं होता तब बीमारियां पैदा होती हैं। वे विद्युत् की धारा के संतुलन द्वारा, वोल्टेज की कमी और अधिकता के संतुलन के द्वारा, चिकित्सा का प्रतिपादन करते हैं। . . रोग एक है। पर उसके कारण की खोज में आते हैं तो दसों प्रकार के विचार सामने आते हैं। इतना निश्चित है कि मनुष्य कार्य की पृष्ठभूमि को खोजता रहा है और कारण को समझने का प्रयत्न करता रहा है। जो आन्तरिक आचरण है, आन्तरिक घटना है, उसके कारण की खोज आन्तस्किता में जाकर कर सकते हैं। हमारे जितने भी आचरण हैं; हम जो भी प्रवृत्ति करते हैं, एक अंगुली हिलाने से लेकर बड़ी-से-बड़ी प्रवृत्ति या आचरण करते हैं, उस आचरण का मूल स्रोत क्या है? कारण क्या है? हम अंगली क्यों हिलाते हैं? हम क्यों बोलते हैं? हम दूसरों के साथ अच्छा या बुरा व्यवहार क्यों करते हैं? हम गुस्सा क्यों करते हैं? प्रेम क्यों करते हैं? जो भी आचरण हैं, उनका मूल स्रोत क्या है? आचरण के स्रांत 3 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कारण क्या है? इस प्रश्न की खोज में कर्मशास्त्र की दिशा का अनावरण हुआ। ___ संसार में विभिन्नता है। विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के विभिन्न आचरण और व्यवहार हैं। सबमें विभिन्नता है, पार्थक्य है। सबमें समता का तारतम्य, शक्ति का तारतम्य, आकृति और प्रकृति का तारतम्य, आचरण और व्यवहार का तारतम्य है। यह विभिन्नता, यह तारतम्य सहज ही यह प्रश्न उपस्थित करता है कि यह क्यों? ऐसा क्यों? .यह विभेद क्यों? यह पार्थक्य क्यों? एकरूपता क्यों नहीं? इस विभिन्नता का कोई-न-कोई हेतु होना चाहिए। यदि कोई हेतु नहीं है, अहेतुक है तो सब समान ही होगा। जो भेद दिखाई देता है, जो अन्तर दिखाई देता है, उसका निश्चित ही कोई-न-कोई हेतु होना ही चाहिए। बिना कारण या हेतु के यह विभिन्नता हो नहीं सकती। चाहे प्रकृति की विभिन्नता हो, चाहे चेतन जगत् की विभिन्नता हो, चाहे जड़ जगत् की विभिन्नता हो, सबके पीछे कोई-न-कोई कारण अवश्य है। मानसशास्त्रियों ने इस विभिन्नता के हेतओं को खोजने का प्रयत्न किया। यह आज के युग की बात है। किन्तु हजारों-हजारों वर्ष पूर्व भी इस विभिन्नता को खोजने का प्रयत्न हुआ था। ___महावीर ने धर्मध्यान के चार प्रकार बतलाए-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। हम इनमें से दो-अपायविचय और विपाकविचय की चर्चा करेंगे। धर्मध्यान के कारणों को खोजने की एक प्रक्रिया है। कोई विपाक हो रहा है, कोई चीज पक रही है। निष्पत्ति सामने आ रही है। विपाक है तो उसका हेतु भी होना चाहिए। परिणाम है तो उसका कारण भी होना चाहिए। यह कारण है-अपाय। अपायविचय है उस कारण की खोज। कोई भी फलित हुआ है तो उसके पीछे कोई-न-कोई अपाय है ही। कोई दोष हो या कोई गुण हो-कुछ-न-कुछ अवश्य है। हम केवल विपाक को ही सब कुछ नहीं मान सकते। हम विपाक को वर्तमान क्षण का पाक, वर्तमान क्षण की बात मान सकते हैं; कि तु उस विपाक के पीछे रहा हुआ जो हेतु है, अपाय है, जो लम्बा अतीत है, उसे भी हमें 4 कर्मवाद . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझना चाहिए। दोनों की खोज साथ-साथ चलती है-अपायविचय और विपाकविचय। एक व्यक्ति का व्यवहार बहुत रूखा है, कठोर है, अशिष्ट है। यह एक घटना है। यह विपाक है, परिणति है। इसके पीछे अपाय क्या है? कारण क्या है? इसे समझे बिना विपाक का निदान नहीं किया जा सकता। यदि कोई सोचे कि विपाक का निदान कर दूं तो वह गलत होगा। निदान नहीं होगा, भ्रांति होगी। निदान होता यदि पहले तो विपाक हो ही नहीं। विपाक में आये ही नहीं। बीज उग गया है। अंकुर फूट पड़ा है। वृक्ष का रूप सामने आ गया है। अब उसका प्रतिकार क्या होगा? अब प्रतिकार नहीं हो सकता, चिकित्सा नहीं हो सकती। फिर तो छेदन ही हो सकता है। फोड़ा पक गया, अब तो वह फूटेगा ही। आज विकास का युग है। आज चिकित्सा की ऐसी शाखा उदघाटित हो गयी है, जो सूक्ष्म फोटोग्राफी के आधार पर, भविष्य में होने वाली बीमारी का पहले ही चित्रांकन कर लेती है, छह महीने बाद, वर्ष या दो वर्ष बाद कौन-सी बीमारी होने वाली है, यह पता चल जाता है। पहले से ही उसकी चिकित्सा कर ली जायेगी, जिससे कि वह शरीर में हो ही नहीं। बहुत अद्भुत बात है। प्राचीन काल में भी यह विद्या ज्ञात थी। पहले से ही बीमारी जान ली जाती और उसके न होने की स्थिति पैदा कर दी जाती। यह पद्धति थी कर्मशास्त्र की। कर्म के विपाक को जान लिया जाता और वह न हो, इसकी व्यवस्था पहले से ही कर ली जाती। . हमें केवल वर्तमान को ही नहीं देखना है। ध्यान के लिए यह बताया जाता है. कि वर्तमान को देखो, वर्तमान के क्षण को देखो, यह भी एक बात है, किन्तु पूरी बात नहीं है। वर्तमान को देखना अच्छा है। मन को शांत करने के लिए बहुत जरूरी है वर्तमान को देखना। किन्तु तथ्यों की समग्र जानकारी के लिए केवल वर्तमान ही पर्याप्त नहीं होता, अतीत को भी देखना जरूरी होता है। जिस अतीत का परिणाम वर्तमान बनता है, जिस अतीत का विपाक वर्तमान बनता है, उस अतीत को समझना भी आवश्यक है। अतीत को समझे बिना वर्तमान के विपाक आचरण के स्रोत 5 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को, वर्तमान की प्रवृत्ति को, वर्तमान की रचना को नहीं समझा जा सकता। उसको समझने का कोई लाभ भी नहीं है। जो वर्तमान का क्षण है, उसकी पहले की संतति को समझना, यह है कर्मशास्त्र को समझ लेना। कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जो अनादि और अनन्त हैं। उनका न आदि है और न अन्त। हमारा अस्तित्व जो है, उसका आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है। कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जो अनादि हैं और सान्त . हैं। उनका आदि नहीं है, किन्तु उनका अन्त अवश्य है। उनके प्रारम्भ का, आदि का हमें पता नहीं है किन्तु वे एक दिन समाप्त अवश्य होंगे। __ अंधकार कव से है, इसका कोई पता नहीं। जब भी दीया जलाया, बिजली जलाई, वह समाप्त हो गया। अंधकार समाप्त होता रहता है। ऐसा भी क्षेत्र मिल जाये जहां आज तक भी सूर्य की रश्मियां नहीं पहुंची, कोई आदमी नहीं पहुंचा है, वहां सदा अंधकार ही रहा है। वहां भी कोई आदमी जाये, दीया जलाये, बिजली जलाये, तो अंधकार समाप्त हो जाता है। अंधकार अनादि है किन्तु वह सान्त है, उसका अन्त होता है, वह समाप्त होता है। जिस व्यक्ति को कभी सम्यकदृष्टि प्राप्त नहीं हुई, जिस व्यक्ति ने कभी संबोधि का अनुभव नहीं किया, जिसकी अविद्या का आवरण कभी समाप्त नहीं हुआ, किन्तु ऐसा कोई योग मिला कि मिथ्यादृष्टि विलीन हो गई, मिथ्यादर्शन समाप्त हो गया, अबोधि मिट गई, अविद्या का आवरण टूट गया। मिथ्यादर्शन का आदि नहीं है किन्तु उसका अन्त अवश्य है। एक बार जिस व्यक्ति को सम्यक्दर्शन हो जाता है, वह रहता ही है, समाप्त नहीं होता। एक बार जिस व्यक्ति का आवरण टूट गया, फिर वह आवरण कभी नहीं आ पायेगा। वह व्यक्ति विद्या के क्षेत्र में चला जायेगा। एक बार भी जिसके मानस की प्राची में संबोधि का सूर्य उग गया, वह कभी अस्त नहीं होगा। आदि तो है, किन्तु अन्त नहीं है। ___ऐसी घटनाएं हैं, जिनका आदि भी है और अन्त भी है। आदमी कितनी बार गुस्सा करता है, कितनी बार क्षमाशील बनता है। हमारे 6 कर्मवाद Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत सारे दैनिक व्यवहार सादि-सान्त होते हैं। उनका आदि भी है और अन्त भी है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। ___ हम उस प्रवाह को सोचें जिसके आदि का हमें कोई पता नहीं है। जो अनादि से चला आ रहा है, उसका अनादि-हेतु है। हमारे प्रत्येक आचरण का, प्रत्येक व्यवहार का अनादि-हेतु है, अनादि-कारण है, जो अनादि काल से चला आ रहा है, जिसका आदि-बिन्दु खोजना हमारे लिए संभव नहीं है, किन्तु उसका अन्त किया जा सकता है। साधना का क्षेत्र इसीलिए तो है। अध्यात्म की साधना किसलिए? वह इसीलिए की जाती है कि अनादि-हेतु को खोजा जाये, उसका अन्त किया जाये। जो हेतु है आचरण के पीछे और आचरण की विसंगतियों के पीछे, उसको खोज निकालना अध्यात्म-साधना का प्रयोजन है। जो कारण हमारे आचरण में विभिन्न प्रकार की विसंगतियां पैदा करता है और व्यवहार में संतुलन, समरसता और एकरूपता नहीं रहने देता तथा विभिन्नता उत्पन्न करता रहता है, वह कारण और हेतु अनादि है। उसका अंत किया जा सकता है। उस बिन्दु को खोजना कर्मशास्त्र का प्रयोजन है। . आधुनिक मानसशात्रियों ने आचरण के मूल स्रोतों की खोज की : और बताया कि हमारे दो प्रकार के आचरण होते हैं-सहजात और अर्जित। आचरण के पीछे कोई-न-कोई प्रवृत्ति होती है। कोई आदत होती है। कोई स्वभाव होता है। एक होता है सहजात स्वभाव और एक होता है अर्जित स्वभाव। सहजात वह है जो मनुष्य जन्म से लेकर आता है। अर्जित वह है जो विभिन्न वातावरण में, विभिन्न प्रकार की परिस्थिति में अर्जित होता है। सहजात स्वभाव या सहजात प्रवृत्ति, अर्जित स्वभाव 'या अर्जित प्रवृत्ति-ये आचरण के दो मूल स्रोत हैं। विभिन्न मानसशात्रियों ने इन स्रोतों की भिन्न-भिन्न संख्या गिनाई है। किसी ने तेरह, किसी ने चौदह और किसी ने एक। ये मौलिक मनोवृत्तियां हैं। काम (सेक्स) मनुष्य की एक मौलिक मनोवृत्ति है। लड़ाई, युद्ध, संघर्ष-यह भी मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है। भूख, समूह में रहना-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। जिजीविषा-जीने की इच्छा-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। आदमी * जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता। भगवान् महावीर ने कहा-सब जीना आचरण के स्रोत 7 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यह सत्य का प्रतिपादन है। ___ महर्षि पतंजलि ने पांच क्लेश माने हैं। उनमें एक है अभिनिवेश। इसका अर्थ है-सभी जीव जीना चाहते हैं। हम वैदिक ऋषियों से सुनते हैं-'जीवेम शरदः शतम्'-हम सौ वर्ष तक जीते रहें। मनुष्य समझदार प्राणी है, चिन्तनशील प्राणी है। वह सोच सकता है, विचार सकता है, अभिव्यक्त कर सकता है। इसीलिए उसने-'जीवेम शरदः शतम्'-सौ वर्ष तक जीने की कामना प्रकट की। जो सामान्य प्राणी हैं, जिनमें चिन्तन का विशेष विकास नहीं है, अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है, जिनकी भाषा स्पष्ट नहीं है, वे ‘जीवेम शरदः शतम्' जैसी भावना व्यक्त नहीं कर सकते। किन्तु उनके अन्तःकरण में भी यह भावना है कि वे जीते रहें, मरें नहीं। यह जिजीविषा प्राणीमात्र की मौलिक मनोवृत्ति है। महत्त्वाकांक्षा, बड़ा बनने की इच्छा-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। एक गाय जंगल में इधर-उधर घूम रही है। वह दो-चार घंटों तक घूमती रहती है। उसके इस आचरण के कारण की खोज करना कठिन नहीं है। उसके घूमने के पीछे भूख की वृत्ति काम कर रही है। यदि उसमें भूख की वृत्ति नहीं होती तो वह घंटों तक जंगल में चक्कर नहीं लगाती। ___ हम जान सकते हैं आचरणों के मूल कारणों को, मूल स्रोतों को और उनके द्वारा प्रत्येक आचरण और व्यवहार की व्याख्या कर सकते हैं। __भगवान् महावीर ने दस संज्ञाओं का प्रतिपादन किया-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा। ये संज्ञाएं आचरणों के मूल स्रोतों को खोजने में बहुत सहायक हैं। - हमारे जितने आचरण हैं, उनके पीछे हमारी दस प्रकार की चेतना काम करती हैं, दस प्रकार की चित्तवृत्तियां काम करती हैं। संज्ञा का अर्थ है-एक प्रकार की चित्तवृत्ति। जिसमें चेतन और अचेतन-दोनों मनों का योग होता है, कॉन्शस माइण्ड और सब-कॉन्शस माइण्ड-दोनों का योग होता है, उसे कहते हैं-संज्ञा या संज्ञान। 8 कर्मवाद Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस प्रकार की संज्ञाओं (चित्तवृत्तियों) को हम तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं पहला वर्ग-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा / दूसरा वर्ग-क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा / तीसरा वर्ग-लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा। पहले वर्ग की मनोवृत्ति प्राणीमात्र में प्राप्त होती है। मानसशास्त्री जिसे भूख की मनोवृत्ति कहते हैं, उसे जैन आचार्य आहारसंज्ञा कहते हैं। सबमें आहारसंज्ञा होती है। इस संज्ञा के कारण प्रत्येक प्राणी आचरण करता है। हमारे आचरण का बहुत बड़ा भाग आहारसंज्ञा से प्रेरित है। दूसरी है-भय की संज्ञा। हमारे बहत सारे व्यवहार भय के कारण होते हैं। गाय कभी-कभी मनुष्य को देखते ही रौद्र रूप धारण कर लेती है। आदमी ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा, गाय का काम भी किसी को चोट पहुंचाना या मारना नहीं है, फिर वह रौद्र रूप क्यों? इसका कारण है कि उसमें अनायास ही भय जाग गया। भय है आत्मरक्षा का। आत्मरक्षा में सबसे पहला आवेश भय जागृत होता है। डर लगता है कि मुझ पर कोई प्रहार न कर दे। भय जागते ही सारे शरीर में कंपन पैदा हो जाता है, तनाव पैदा हो जाता है। उसके पीछे भय की वृत्ति काम कर रही है। ... तीसरी है-मैथुनसंज्ञा। मनोविज्ञान की भाषा में यह सेक्स की वृत्ति है। यह वृत्ति प्रत्येक प्राणी में होती है। - चौथी है-परिग्रहसंज्ञा। यह संग्रह करने की मनोवृत्ति है। आप यह न माने कि केवल मनुष्य ही संग्रह करता है। पशु भी संग्रह करते हैं। पक्षी भी संग्रह करते हैं। मधु-मक्खियां संग्रह करती ही हैं। छोटे-मोटे सभी प्राणी संग्रह करते हैं। जैन तत्त्वविदों ने यहां तक खोज की कि वनस्पति भी संग्रह करती है। वनस्पति में संग्रह की संज्ञा होती है। यह परिग्रह की मनोवृत्ति, यह छिपाने की मनोवृत्ति, यह संग्रह की मनोवृत्ति-प्रत्येक प्राणी में होती है। यह एक वर्ग है चार संज्ञाओं का। . जो दूसरा वर्ग है चार संज्ञाओं का, चार चित्तवृत्तियों का, वह भी प्रत्येक प्राणी में प्राप्त है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जिसमें वह प्राप्त आचरण के स्रोत . 6 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हो। किन्तु थोड़ा-सा अन्तर है। मनुष्य में ये वृत्तियां जितनी विकसित होती हैं उतनी वनस्पति या छोटे प्राणियों में विकसित नहीं होतीं। किन्तु इनका अस्तित्व अवश्य है। वनस्पति में क्रोध की संज्ञा होती है, मान की संज्ञा होती है, माया की संज्ञा होती है और लोभ की संज्ञा होती है। वनस्पति में चारों संज्ञाएं होती हैं। किन्तु वे मनुष्य में जितनी स्पष्ट होती हैं, वनस्पति में उतनी स्पष्ट नहीं होतीं। यह दूसरा वर्ग है चार वृत्तियों का। प्रथम वर्ग की चार वृत्तियों के कारण दूसरे वर्ग की ये चार वृत्तियां विकसित होती हैं, उभरती हैं। क्रोध पैदा होता है रोटी के कारण। रोटी और पैसे के सवाल पर लड़ाइयां होती हैं, झगड़े होते हैं। आहार क्रोध का कारण बन जाता है। कुत्ते को रोटी डाली। दूसरे कुत्ते आ गये। आपस में झगड़ने लगे। रोटी गुस्से का, झगड़े का कारण बन गयी। एक आदमी को अच्छी आजीविका प्राप्त है। वह अच्छे स्थान पर है। दूसरा उस स्थान पर आने का प्रयत्न करता है, पहले वाले की नौकरी छुड़वाने का प्रयास करता है। क्रोध प्रारंभ होता है। मनमुटाव होता। कलह होने लगती है। यह आजीविका या आहार के कारण होता है। एक व्यक्ति की आवश्यकताएं अच्छे ढंग से पूरी होती हैं। दूसरा उसे देखता है। उसकी आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं। पहले व्यक्ति के मन में अहंभाव आ जाता है। अहंकार सदा. दूसरे को देखकर ही आता है। अपने से हीन व्यक्ति को देखकर दूसरे को अहंकार करने का अवसर मिलता है। यदि सामने हीनता न हो तो अहंकार को प्रकट होने का अवसर ही नहीं मिल पाता। कर्म के उदय से भी अहंकार का भाव अचानक जाग जाता है। यह आकस्मिक होता है। उन परमाणुओं का वेदन करना होता है। परन्तु सामान्यतः अहंकार जागता है हीनता को सामने देखकर। दूसरे की हीनता पर अहंकार जागता है। एक आदमी को झाडू लगाना है, दूसरे को नहीं। अहंकार जाग जायेगा। यह मेरे सामने झाडू लगाने वाला है-यह अहंकार का निमित्त बनता है। आजीविका की वृत्ति पर भी अहंकार जागता है। आजीविका माया को भी जगाती है। रोटी और आजीविका के 10 कर्मवाद Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए, न जाने कितने लोग, किस प्रकार की माया का आचरण कर लेते हैं। माया जागती है। लोभ भी जागता है। धनार्जन के लिए कितने लोग किस प्रकार के लोभ का आचरण करते हैं। आहार की वृत्ति के कारण क्रोध आदि चार वृत्तियों की अभिव्यक्ति होती है। भय के कारण भी चारों वृत्तियां पनपती हैं। इसी प्रकार मैथुन और परिग्रह की वृत्ति के कारण भी ये चारों वृत्तियां पनपती हैं, व्यक्त होती हैं। परिग्रह से क्रोध की वृत्ति जागती है। अहंकार तो उसके साथ है ही। जिसके पास अधिक संग्रह है, परिग्रह है, वह निश्चित ही अहंकारी बना रहेगा। माया की वृत्ति परिग्रह के कारण जागती है। लोभ परिग्रह से जुड़ा हुआ है। प्रथम वर्ग की चित्तवृत्तियों में दूसरे वर्ग की चित्तवृत्तियों को जगाने की क्षमता है, उन्हें उभारने की क्षमता है। __. तीसरा वर्ग है-ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा। ओघसंज्ञा का अर्थ है सामुदायिकता की संज्ञा। मनुष्य में समूह की भावना होती है, समूह की चेतना होती है, समूह में रहने की मनोवृत्ति होती है। मानसशास्त्री मेक्समूलर ने मनुष्य की एक वृत्ति का उल्लेख किया है। वह है-यूथाचारिता। इसका अर्थ है समूह में रहने की मनोवृत्ति। इससे ओघसंज्ञा की तुलना की जा सकती है। यह है ओघ चेतना, समष्टि की चेतना, सामुदायिक चेतना। पशुओं में भी यह चेतना है, मनुष्य में भी यह चेतना है। इसीलिए गांव बसा, नगर बसा, समाज बना। समाज में रहने की मनोवृत्ति और समाज का अनुकरण करने की मनोवृत्ति को सामुदायिक चेतना कहते हैं। हम कई बार लोगों को ऐसा कहते हुए सुनते हैं कि 'जो सबको होगा वह हमें भी हो जाएगा। क्या अन्तर पड़ेगा? जब सब ऐसा काम करते हैं, तो मैं क्यों नहीं करूं? जो परिणाम सबको होगा, वह मुझे भी हो जायेगा। मैं अकेला इससे वंचित क्यों रहूं?' यह सामुदायिक चेतना की बात है। यह ओघसंज्ञा है। इसे यूथाचारिता कहा जा सकता है। ___ एक है लोकसंज्ञा। यह वैयक्तिक चेतना है। प्रत्येक प्राणी में कुछ विशिष्टताएं होती हैं। इन विशिष्टताओं के कारण कुछ आचरण होते आचरण के स्रोत 11 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जो आचरण सामुदायिक चेतना के कारण नहीं होते किन्तु अपनी विशिष्टताओं के कारण होते हैं, वे वैयक्तिक चेतना के कार्य हैं। व्यापारी का लड़का व्यापारी, सुनार का लड़का सुनार, खाती का लड़का खाती और किसान का लड़का किसान होता है। प्रायः यह स्थिति बनती है कि पिता का व्यवसाय पुत्र संभाल लेता है। इसके पीछे एक वैयक्तिक विशिष्टता काम करती है। यह समूचे समाज में, समुदाय में नहीं मिलती। यह विशेषता व्यक्तिगत विशेषता होती है और वह उस ओर चला जाता है। यह व्यक्तिगत चेतना है। यह एक विशेष प्रकार की रुचि है। ये दस प्रकार की संज्ञाए हैं। ये व्यवहार और आचरण को प्रभावित करती हैं। इन्हें आचरणों का स्रोत कहा जा सकता है। प्रश्न होता है-क्या ये मूल स्रोत हैं ? प्रश्न और आगे बढ़ गया। उत्तर होगा कि ये स्रोत हैं, किन्तु मूल स्रोत नहीं हैं। गंगा बह रही है। प्रवाह को रोककर बांध बना दिया। बांध के फाटक खोल दिए गये। वहां से पानी का प्रवाह आगे चलता है। वह बांध इस प्रवाह का स्रोत बन जाता है, किन्तु वह मूल स्रोत नहीं है। मूल स्रोत को खोजने के लिए गंगोत्री तक पहुंचना होगा। गंगा का मूल स्रोत है गंगोत्री। यहां से गंगा का प्रवाह प्रारम्भ होता है। ये दस वृत्तियां बीच के बने हुए बांध हैं। इनके फाटक खुले हैं। इनमें से छनकर निकलने वाली चेतना आगे प्रवाहित होती है और हमारे आचरणों को प्रभावित करती है। किन्तु ये मूल स्रोत नहीं हैं। मूल स्रोत की खोज में बहुत आगे जाने की जरूरत है। आज के शरीरशास्त्रियों ने बहुत सूक्ष्म खोजें की हैं। पहले पांच मूल तत्त्व या पांच भौतिक तत्त्व ही मूल कारण माने जाते थे। आज के वैज्ञानिक वैसा नहीं मानते। उन्होंने इतने सूक्ष्म तत्त्व खोज लिये हैं कि ये पांच तत्त्व-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और आकाश तो उनके ही सरंक्षक बन जाते हैं। ये मूल कारण नहीं हैं। मूल कारण कुछ और हैं। प्राचीन शरीर-विशेषज्ञ हृदय, स्नायु-संस्थान, गुर्दा-इनको शरीर के संचालक मानते थे। किन्तु वर्तमान शरीरशास्त्र की खोजों ने यह प्रमाणित 12 कर्मवाद Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दिया कि मूल कारण इनसे भी बहुत आगे हैं। वे हैं हमारे हार्मोन ग्रंथियों के स्राव। हमारे शरीर की विभिन्न ग्रंथियां जो स्राव करती हैं, वे हार्मोन जो निकलते हैं, वे मूल हैं वे आधार हैं। वे शरीर और मन को जितना प्रभावित करते हैं, उतना प्रभावित हृदय, यकृत, स्नायुसंस्थान आदि नहीं करते। हार्मोन की खोज ने, ग्रंथियों के स्राव की खोज ने चिकित्सा जगत् में सचमुच एक क्रांति ला दी, कायाकल्प-सा कर दिया। इस खोज ने मानस-विश्लेषण की और शारीरिक विकास की विधा को दूर तक पहुंचा दिया। ___ग्रंथियां हमारे शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। कंठमणि (थायरायड) शरीर के समूचे विकास को प्रभावित करती है। यदि इसका स्राव ठीक नहीं है तो आदमी बौना-का-बौना रह जाता है। थायरायड से उत्पादित रस का नाम थायरोक्सिन (Thyroxin) है। यह शरीर की पुष्टि, वृद्धि और मन के विकास का घटक रस है। यदि यह रस समुचित रूप से उत्पन्न नहीं होता है तो शरीर कमजोर रह जाता है और बुद्धि तथा मन का विकास नहीं होता। भय और क्रोध . की अवस्था में कंठमणि का स्राव समुचित नहीं होता। इसके फलस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं। पीनियल (Pineal) ठीक काम नहीं करती है तो प्रतिभा का विकास नहीं होता। इस ग्रंथि के स्राव के बिना कोई भी व्यक्ति प्रतिभाशाली नहीं हो सकता। यदि समुचित परिमाण में यह रस प्राप्त नहीं होता है तो शरीर का संतुलन, मन और शरीर तथा प्राणों का नियन्त्रण ठीक नहीं रह सकता। ___एड्रेनल (Adrenal) ग्रंथि का स्राव समुचित नहीं होता है तो भय, चिन्ता. क्रोध उत्पन्न होता है. सारी अस्त-व्यस्तताएं होती हैं। इसका रस बिना निमित्त के भी बन जाता है। उसके प्रभाव से आदमी अकारण ही चिंतित रहने लग जाता है। इस ग्रंथि से निकलने वाला रस एड्रेनलिन (Adrenalin) कहलाता है। शारीरिक स्फूर्ति का यह निमित्त बनता है। जब कभी प्राणी खतरे के छोर पर होता है तब यह ग्रंथि अधिक स्राव करती है और वह रस अधिक मात्रा में रक्त में मिलकर प्राणी को खतरे आचरण के स्रोत 13 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुकाबला करने की शक्ति प्रदान करता है। कभी-कभी होने वाले असाधारण कार्य भी इसी के फलस्वरूप होते हैं। .. गोनैड (Gonads) ग्रंथि से यौन उत्तेजना तथा शारीरिक यौन-चिह्न उत्पन्न होते हैं। कर्म-शास्त्र की भाषा में जिसे हम 'वेद' कहते हैं, उससे इस ग्रंथि का सम्बन्ध है। लिंग-परिवर्तन-स्त्री से पुरुष हो जाना या पुरुष से स्त्री हो जाना-यह सारा इसी ग्रंथि के स्राव पर निर्भर होता है। . ग्रंथियों के स्राव से सम्बन्धित ये खोजें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। शारीरिक ग्रंथियों के स्रावों के परिवर्तन के आधार पर अनेक प्रकार की विभिन्नताएं उत्पन्न होती हैं। किन्तु ये ग्रंथियां या इनके स्राव भी मूल कारण नहीं हैं। इनके पीछे भी कुछ सूक्ष्म कारण हैं। ये जो रस-स्राव हमारी वृत्तियों को, हमारे व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं उनके पीछे भी कोई दूसरा सूक्ष्म कारण और है। मूल स्रोत या महास्रोत कोई दूसरा ही है। उस मूल स्रोत की खोज करने के लिए ही हमारी यह यात्रा है। इस यात्रा में चलते-चलते हम एक बिन्दु पर पहुंचे हैं। उस बिन्दु का, उस मूल स्रोत का, उस गंगोत्री का नाम होगा 'कर्म' / यह हमारे आचरणों का, वृत्तियों का मूलस्रोत है, महास्रोत है। . आज केवल कर्म की पृष्ठभूमि की चर्चा की। अब मूल स्रोत का स्वरूप क्या है-इस पर आगे चर्चा करेंगे। 14 कर्मवाद Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म : चौथा आयाम कुछ समय पहले तक विज्ञान तीन आयामों से परिचित था-लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई। ये हमारे जगत् के तीन आयाम हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के पश्चात् चौथे आयाम की स्थापना हुई। आज का वैज्ञानिक जगत् चार आयामों से परिचित है। चौथा आयाम है-काल की अवधारणा। इससे बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ, अतीत की यात्रा का उद्घाटन हो गया। इससे पीछे की ओर लौटना संभव हो गया। ____ कर्म-शास्त्र के क्षेत्र में चौथे आयाम की बात पहले से ही स्वीकृत थी और पांचवें आयाम की बात भी बहुत स्पष्ट थी। उसमें चौथा आयाम है-अदृश्य और पांचवां आयाम है-अमूर्त।। ___एक तत्त्व ऐसा भी है जिसकी लम्बाई नहीं, चौड़ाई नहीं और ऊंचाई भी नहीं / वह किसी भी उपकरण के द्वारा दृश्य नहीं है। सूक्ष्मतम उपकरण भी उसे नहीं पकड़ पाते, देख नहीं पाते। उसे हम अदृश्य इसलिए कहते हैं कि वह हमारे चर्म-चक्षुओं द्वारा दृश्य नहीं है। वह दृश्य है अतीन्द्रिय शक्तियों के द्वारा। ___पांचवां आयाम हैं-अमूर्त। वह वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से अतीत है। इस अमूर्त के साथ कर्म का सम्बन्ध है, इसलिए हमें पांचवें आयाम तक यात्रा करनी पड़ेगी। _ पहले चौथे आयाम की यात्रा पर चलें। हमारे शरीर में जो ग्रंथियों के स्त्राव हैं, उनका कार्य हमारे स्थूल शरीर में ही होता है। उनका पूरा सम्बन्ध स्थूल शरीर से ही है। ये ग्रंथियां स्थूल शरीर के अवयव हैं। इनसे शरीर और मन प्रभावित होता है। कर्म का सम्बन्ध स्थूल शरीर से नहीं है। उसका सम्बन्ध है सूक्ष्म कर्म : चौथा आयाम 15 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर से। कर्म के पुद्गल बहुत सूक्ष्म हैं। ये ग्रंथियों के स्राव अष्टस्पर्शी-आठ स्पर्श वाले हैं। वे आठ स्पर्श हैं-शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, गुरु, लघु, मृदु और कठोर। कर्म के पुद्गल सूक्ष्म हैं। ये चार स्पर्श वाले हैं। ये चार स्पर्श हैं-शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष। प्रत्येक परमाणु कर्म नहीं बन सकता। वे ही परमाणु कर्म बन सकते हैं, जो सूक्ष्म होते हैं, जिनमें केवल चार ही स्पर्श होते हैं, जो केवल चतुःस्पर्शी होते हैं। स्थूल परमाणु कर्म नहीं बन सकते। स्थूल परमाणुओं में कर्म बनने की और उस अमूर्त की शक्तियों को आवृत करने की क्षमता नहीं हैं। किन्तु उन सूक्ष्म परमाणुओं में वह शक्ति है, जिनमें केवल चार स्पर्श ही होते हैं। हमारी ग्रंथियों के जितने स्राव हैं, उनमें आठों स्पर्श हैं। किन्तु जो कर्म के पुद्गल हैं, वे चार स्पर्श वाले ही होंगे। इस प्रकार पुद्गलों के दो वर्ग हो गए-एक चतुःस्पर्शी पुद्गलों का वर्ग और दूसरा अष्टस्पर्शी पुद्गलों का वर्ग। चतुःस्पर्शी पुद्गल सूक्ष्म हैं। वे किसी भी सूक्ष्मतम उपकरण के द्वारा अदृश्य हैं। आज अनेक ऐसे सूक्ष्म उपकरण आविष्कृत हुए हैं, जिनके द्वारा चर्म-चक्षुओं से नहीं दीखने वाले पदार्थ भी देखे जा सकते हैं। किन्तु कर्म पुद्गल, कर्म के परमाणु इतने सूक्ष्म हैं कि वे किसी भी उपकरण के द्वारा नहीं देखे जा सकते। वे किसी भी उपकरण के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकते। इस भाषा में उन्हें अदृश्य भी कहा जा सकता है। यह सारी अदृश्य जगत् की चर्चा है। यह उस जगत् की चर्चा है, जो हमारी इन्द्रियों का विषय नहीं है, जो हमारे द्वारा आविष्कृत उपकरणों का विषय नहीं है। उसे जानने के लिए विशिष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान चाहिए। वैज्ञानिकों ने आज ऐसे उपकरण बनाये हैं जिनके माध्यम से मृत्यु के समय स्थूल-शरीर से निकलने वाली आत्मा का फोटो लिया जा सकता है। उस समय आत्मा अकेली नहीं होती। उसके साथ सूक्ष्म-शरीर होते हैं। . वैज्ञानिक मानते हैं कि यह आत्मा का फोटो है। आत्मा का फोटो नहीं लिया जा सकता। वह अमूर्त है। अमूर्त को कोई भी उपकरण ग्रहण नहीं कर सकता। किन्तु आत्मा जब स्थूल शरीर को छोड़कर बाहर निकलती 16 कर्मवाद Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, तब उसके साथ सूक्ष्म शरीर अवश्य ही रहते हैं। वे सूक्ष्म शरीर दो हैं-तैजस और-कार्मण / तैजस शरीर है-तेजोमय पुद्गलों का और कार्मण शरीर है-कर्म पुद्गलों का। कर्म का शरीर निश्चित ही उसके साथ रहता है। कर्म शरीर के बिना नया जन्म नहीं होता, नया शरीर प्राप्त नहीं होता। तैजस शरीर का फोटो लिया जा सकता है, केवल आत्मा का फोटो नहीं लिया जा सकता। - कर्म की चर्चा का अर्थ है-अतीत की चर्चा / हमारी वर्तमान की यात्रा से कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध है अतीत की यात्रा से। अतीत में जो हमारी प्रवृत्ति हुई है, अतीत में जो कुछ हमने किया है, उसका सम्बन्ध हमारी आत्मा से स्थापित हो जाता है। यह है वर्तमान के माध्यम से अतीत को समझने का प्रयत्न। . कर्म पौद्गलिक है। महावीर की यह एक महत्त्वपूर्ण स्थापना है। महावीर ही एक अकेले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया कि कर्म पौद्गलिक है। अन्यान्य कर्मवादी दार्शनिकों ने कर्म को वासना के रूप में स्वीकार किया है, संस्कार के रूप में स्वीकार किया है, किन्तु पौद्गलिक रूप में किसी ने स्वीकार नहीं किया। कर्म एक रासायनिक प्रक्रिया है। जैसे हमारी ग्रन्थियों की रासायनिक प्रक्रिया होती है, वैसे ही कर्म की भी रासायनिक प्रक्रिया होती है। कर्म पोद्गलिक पदार्थ है। कर्म न तो कोई वासना है, न कोई संस्कार है। वासना और संस्कार-ये हमारे ज्ञान के क्रम में होने वाली कड़ियां हैं। हम किसी वस्तु को जानते हैं। सबसे पहले अवग्रह होता है-उस वस्तु का सामान्य ग्रहण होता है। अवग्रह के बाद ईहा होती है। गृहीत वस्तु पर विमर्श होता है कि यह वस्तु क्या है? कोई भी नयी वस्तु को हमने देखा, जाना, ग्रहण किया। फिर विमर्श प्रारम्भ होता है कि यह वस्तु क्या है? क्या होनी चाहिए? विमर्श करते-करते हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। अनेक संशयों में से गुजरते हुए, अनेक तर्क-वितर्क की घाटियों को पार करते हुए, जब कोई निश्चित प्रमाण मिलता हैं, निश्चित आधार प्राप्त होता है, तक हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह वस्तु अमुक है। यह अवाय है-निश्चयात्मक ज्ञान है। अब वस्तु के प्रति संशय नहीं कर्म : चौथा आयाम 17 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता. निश्चय हो जाता है कि यह वही है। यह आदमी ही है, यह खंभा ही है, आदि-आदि। निश्चय के पश्चात् धारणा होती है। यह चौथा क्रम है ज्ञान का। जो निश्चय होता है वह हमारी धारणा में स्थिर हो जाता है। वह हमारे स्मृति-कोष्ठों में चला जाता है। धारणा लम्बे समय तक टिक जाती है। अवग्रह में थोड़ा समय लगता है, ईहा में थोड़ा. समय लगता है, अवाय में कुछ ज्यादा समय लगता है, किन्तु धारणा दीर्घकाल तक चलती है। उसका समय सबसे लम्बा है। ग्रहण, विमर्श और निश्चय का कालमान अल्प होता है। धारणा का कालमान दीर्घ होता है। वह वैसी-की-वैसी हजारों वर्षों तक बनी रह सकती है। धारणा का ही एक नाम है-वासना। धारणा का ही एक नाम है-संस्कार। धारणा का ही एक नाम है-अविच्युति। वह च्युत नहीं होती। वह टिकी रहती है। वह वासना बन जाती है। वह संस्कार बन जाती है। वही धारणा, वासना या संस्कार, किसी निमित्त को पाकर जब उदबद्ध होती है तब स्मृति होती है। स्मृति का हेतु है-वासना। स्मृति का हेतु है-संस्कार। स्मृति का हेतु है-धारणा। धारणा अच्छी है या बुरी, इसका कोई प्रश्न नहीं है। धारणा अच्छा परिणाम देती है या बुरा परिणाम-इसका भी प्रश्न नहीं है। वह मात्र स्मृति का कारण बनती है। कोई परिस्थिति, कोई परिवेश, कोई हेतु ऐसा मिला और जो बात स्मृति-कोष्ठ में थी, धारणा-पटल में थी, वह जाग गई और स्मृति के रूप में उभर आयी। हमें ज्ञान हो गया-यह वह है। जो शब्द सुना था, जो दृश्य देखा था, पूरा-का-पूरा चित्र स्मृति के आधार पर हमारे सामने आ जाता है। मनोविज्ञान इसे 'स्मृति-चित्र' कहता है। स्मृति का प्रतिरूप हमारे सामने आ जाता है। जैसा देखा था, जैसा सुना था, वैसा-का-वैसा स्मृति-पटल पर उभर आता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि संगीत के जो मधुर स्वर कभी सुने थे, वे किसी निमित्त को पाकर स्मृति-पटल पर उभरते हैं और तत्काल कानों में से स्वर गूंजने लग जाते हैं। यह केवल स्मृति है। इसी प्रकार जो दृश्य वर्षों पूर्व देखा था, जो स्मृति-पटल पर अंकित था, वह निमित्त के मिलते ही साक्षात्-सा हो जाता है। आकृति दीखने लग जाती है। मार्ग, मकान, बगीचे सब-कुछ 18 कर्मवाद Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीखने लग जाते हैं। ये सारे स्मृति के रूप हैं। ये सारे वासना और संस्कार के कार्य हैं। इनके साथ हम अच्छाई या बुराई को नहीं जोड़ सकते। यह वासना का कार्य नहीं है। संस्कार का भी यह कार्य नहीं है। प्रश्न होता है कि यह कार्य किसका है? __ स्मृति के उभरने के बाद, अच्छाई और बुराई को जोड़ने वाली एक तीसरी सत्ता है। वह है कर्म। कर्म न वासना है, न संस्कार है, न धारणा है और न स्मृति। वह इन सबसे भिन्न है, पृथक् है। वह भिन्न इसलिए है कि ज्ञान के क्रम में कर्म नहीं बनता। केवल ज्ञान का जो क्रम है, कोश जानने का जो क्रम है, वहां कर्म की रचना नहीं होती, कर्म का सम्बन्ध हमारी आत्मा के साथ स्थापित नहीं होता। यह सम्बन्ध कब और कैसे स्थापित होता है, इस प्रश्न पर हमें विचार करना है। ___ महावीर से पूछा गया-'भंते! कर्म का सम्बन्ध कितने स्थानों से होता है?' . महावीर ने कहा-'दो स्थानों से कर्म का सम्बन्ध होता है। एक स्थान है राग का और दूसरा स्थान है द्वेष का। इन दो स्थानों से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है। यह राग और द्वेष से स्थापित होने वाला सम्बन्ध है। कोरे ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं होता, वासना से कोई सम्बन्ध नहीं होता, संस्कार से कोई सम्बन्ध नहीं होता, स्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जब इनकी पृष्ठभूमि में राग नहीं होता, द्वेषं नहीं होता तो कर्म का सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। हम कितना ही जानें, कर्म का सम्बन्ध नहीं होगा। जैसे-जैसे चेतना का विकास होता चला जायेगा, जानने की हमारी क्षमता बढ़ती चली जाएगी, तब भी कर्म का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होगा। कर्म का सम्बन्ध होगा राग से। कर्म का संबंध होगा द्वेष से। ____दो प्रकार की अनुभूतियां हैं। एक है प्रीत्यात्मक अनुभूति और दूसरी है अप्रीत्यात्मक अनुभूति। प्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को राग कहते हैं और अप्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को द्वेष कहते हैं। प्रीति और अप्रीति-इनके अतिरिक्त तीसरी कोई संवेदना नहीं होती। सारी अनुभूतियां, कर्म : चौथा आयाम 16 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारी संवेदनाएं-इन दो अनुभूतियों, इन दो संवेदनाओं में समा जाती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ-यह इन्हीं का विस्तार है। भय, शोक, घृणा, हास्य, वासना (काम-वासना)-ये सारे इन्हीं दो अनुभूतियों के विस्तार हैं, प्रपंच हैं, किन्तु स्वतन्त्र अनुभूतियां नहीं हैं। सारी अनुभूतियां इन दो में समा जाती हैं। जैन आचार्यों ने क्रोध और अभिमान को द्वेषात्मक अनुभूति और माया तथा लोभ को रागात्मक अनुभूति माना है। राग और द्वेष-यह सामान्य वर्गीकरण है। जब विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया, नयों की दृष्टियों से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण का विस्तार हुआ। संग्रह नय की दृष्टि से दो वृत्तियां हैं, दो ही अनुभूतियां हैं-एक है रागात्मक, दूसरी है द्वेषात्मक। व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण में परिवर्तन आ गया। यह फलित हआ कि अभिमान द्वेषात्मक है क्योंकि अभिमान जो है वह दूसरे के गुणों के प्रति असहिष्णुता का प्रतीक है। व्यक्ति दूसरे को सहन नहीं कर पाता इसलिए अभिमान पैदा होता है। यह द्वेष है, अप्रीत्यात्मक संवेदना है। परन्तु एक प्रश्न होता है, क्या मान प्रीत्यात्मक नहीं होता? मान प्रीत्यात्मक भी हो सकता है। दूसरे के प्रति हीनता का भाव है, असहिष्णुता का भाव है, इसलिए तो मान अप्रीत्यात्मक है। किन्तु जब अपने उत्कर्ष की अनुभूति होती है, उस समय वह प्रीत्यात्मक बन जाता है। उत्कर्ष कितना अच्छा लगता है ! मानवीय चेतना जब अपने उत्कर्ष का अनुभव करती है तब वह अनुभूति अप्रीत्यात्मक नहीं होती, वह प्रीत्यात्मक होती है। इसलिए मान प्रीत्यात्मक भी है और अप्रीत्यात्मक भी है। दूसरे की हीनता के प्रदर्शन में वह अप्रीत्यात्मक होता है और अपने उत्कर्ष की अनुभूति में वह प्रीत्यात्मक होता है। __ माया को रागात्मक माना गया है। माया-काल में चेतना की जो अनुभूति होती है वह प्रिय लगती है कि मैंने बहुत समझदारी से काम किया कि वह परास्त हो गया, प्रताड़ित हो गया। उस समय सुखद अनुभव होता है, प्रीति का अनुभव होता है। माया प्रीत्यात्मक होती है। यह एक बात है। 20 कर्मवाद Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया वंचनात्मक चेतना है। यह दूसरे को ठगने का काम करती है। यह परोपघात है। जो परोपघात होगा वह निश्चित ही अप्रीत्यात्मक होगा, द्वेषात्मक होगा। इस प्रकार माया की अनुभूति केवल प्रीत्यात्मक या रागत्मक ही नहीं है, वह अप्रीत्यात्मक या द्वेषात्मक भी है। ___इसी प्रकार लोभ प्रीयात्मक तो है ही, क्योंकि वह एक आसक्ति है, कुछ लेने की भावना है, अपने लिए अर्जित करने की भावना है। बड़ी प्रियता है उसमें। किन्तु जब दूसरे के स्व को हड़पने के लिए चेतना काम करती है, दूसरे के अधिकारों को छीनने की भावना होती है, दूसरे के अधिकार में आये हुए पदार्थ को छीनने की इच्छा होती है, तब लोभ अप्रीत्यात्मक बन जाता है, परोपघात बन जाता है। ___माया, मान और लोभ-ये तीनों प्रीत्यात्मक भी होते हैं और अप्रीत्यात्मक भी होते हैं। क्रोध ही एक ऐसा है जो कोरा अप्रीत्यात्मक होता है। उसका संबंध है द्वेष से, अप्रीति से। प्रीति से उसका संबंध नहीं जुड़ता। राग से उसका संबंध नहीं जुड़ता। इस प्रकार हमारी सारी अनूभूतियां, हमारी सारी संवेदनाएं प्रीत्यात्मक या अप्रीत्यात्मक-इन दो चेतनाओं में समाहित हो जाती हैं। . इन सारी अनुभूतियों या संवेदनाओं का कारण है-रागात्मक चेतना और द्वेषात्मक चेतना। दो ही कारण हैं। ये ही उन कर्म-पुद्गलों को आकृष्ट करते हैं। इनके अतिरिक्त कोई ऐसी शक्ति नहीं है. जो उन कर्म-पुद्गलों को अपनी ओर आकृष्ट कर सके। केवल इन दो अनुभूतियों में वह शक्ति निहित है जो उन कर्म-पुद्गलों को खींचती है और आत्मा के साथ उनका संबंध स्थापित करती है। ऐसा क्यों होता है? क्या यह आत्मा के लिए इष्ट है? प्रश्न इष्ट और अनिष्ट का नहीं है। यह एक उलझन है, एक चक्र है, जिसका मुंह नहीं निकाला जा सकता। यह एक वलय है। पता नहीं लगाया जा सकता कि इसका आदि कहां है और अंत कहां है? मुंह कहां है और छोर कहां है? यह उलझन है कि क्या आत्मा में राग-द्वेष है, इसलिए कर्म-पुद्गल आ रहे हैं या कर्म आ रहे हैं, इसलिए राग-द्वेष चल रहा है। राग-द्वेष के आधार पर कर्म का प्रवेश और कर्म के आधार पर कर्म : चौथा आयाम 21 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-द्वेष का जीवित रहना, चिरजीवी होना-यह एक वलय है। राग-द्वेष के चिर-जीवन का कारण है कर्म और कर्म के प्रवेश का कारण है-राग-द्वेष। यह एक पूरा चक्र है। यह निरंतर गतिमान् है, कहीं टूटता नहीं। राग-द्वेष से कर्म और कर्म से राग-द्वेष चलता रहता है। यह एक वृत्त है। इसमें सारी स्थितियां पलती जा रही हैं। यही वृत्त हमारे सभी आचरणों का आधार बनता है। यह स्थिति तब तक चलती रहती है, जब तक हम संज्ञातीत चेतना तक नहीं चले जाते, जब तक हमारी चेतना वीतराग नहीं बन जाती, जब तक वीतराग चेतना प्राप्त नहीं होती, संज्ञातीत चेतना उपलब्ध नहीं होती, तब तक संज्ञा की चेतना, राग-द्वेष की चेतना चलती रहती है। यह चक्र निरंतर गतिशील रहता है। हमारे सारे आचरण उससे प्रभावित रहते हैं। हम किसी भी घटना या मानवीय आचरण की केवल परिस्थिति, हेतु या निमित्त के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते। केवल शारीरिक या रासायनिक परिवर्तनों के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते। उनकी व्याख्या के लिए हमें अतीत को देखना होता है। दूसरे शब्दों में, कर्म के विपाक की व्याख्या करने के लिए, हमें कर्म के बीज को देखना होगा। हमें देखना होगा कि इस विपाक या परिणाम का बीज कहां है और क्या है? उसके बिना उसकी पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। कभी-कभी हमें लगता है कि यह आकस्मिक हो गया। किन्तु कुछ भी आकस्मिक नहीं होता। उसके पीछे एक हेतु होता है, एक कारण होता है। छिपा हुआ जो बीज है, वह कारण है। कारण को हम जब तक ठीक नहीं समझ लेते, तब तक उस आचरण का ठीक चित्र प्रस्तुत नहीं कर सकते। एक आदमी सामान्य जीवन जीते-जीते एक असामान्य आचरण कर लेता है। हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं-अरे, वह बहुत बड़ा आदमी था। ऐसा काम वह कर नहीं सकता। उससे ऐसा काम हो नहीं सकता। हम एक आश्चर्य के द्वारा उस व्यक्ति के साथ उस आचरण का संबंध जोड़ना नहीं चाहते, किन्तु तोड़ना चाहते हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है। आप पचास वर्ष के जीवन को देखकर, वर्तमान और आंखों के सामने गुजरने वाले जीवन को देखकर इतना आश्चर्य नहीं कर सकते। यदि 22 कर्मवाद Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा जीवन केवल पचास वर्ष का ही जीवन होता तो सहज ही हमें यह आश्चर्य हो सकता था कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। किन्तु यह आश्चर्य ही एक बिन्दु है और उस बिन्दु पर हम पहुंचकर कुछ रुक सकते हैं तथा अतीत की ओर लौटने को बाध्य हो सकते हैं। तब हमें ज्ञात होता है कि इस व्यक्ति का जीवन पचास वर्ष का ही नहीं है, और पीछे का है। इसका तात्पर्य यह है कि इस व्यक्ति का आचरण, पचास वर्ष में होने वाले जो व्यवहार हैं, उनका प्रतिफलन ही नहीं है किन्तु यह और किसी तत्त्व का प्रतिफलन है, जहां से कि यह फलित हो रहा है। __ अतीत का दर्शन बहुत विचित्र होता है। आप यह न मानें कि वर्तमान का क्षण समाप्त होते ही सब-कुछ समाप्त हो जाता है। संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं-विनाशी और अविनाशी, अनश्वर, नित्य और अनित्य। हम केवल नित्य को ही मानकर न चलें, केवल अनित्य को ही मानकर न चलें। नित्य और अनित्य, नश्वर और अनश्वर, शाश्वत और अशाश्वत-दोनों की संगति के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालें तो हमारे निष्कर्ष सही होंगे; अन्यथा वे निष्कर्ष गलत साबित होंगे। यह नित्य और अनित्य की जो युति है, यह क्षणिक और अक्षणिक की जो युति है, उस युति के आधार पर हम निष्कर्ष निकालें तो वह यह होगा कि जिसका अस्तित्व है, वह कुछ भी नष्ट नहीं होता। विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। पदार्थ भी कभी नष्ट नहीं होता। जो जितना है, वह उतना ही था और उतना ही रहेगा। भगवान् महावीर ने यही कहा-द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता। पर्याय बदलती रहती है। वह परिवर्तनशील है। उसमें रूपांतरण होता रहता है। मूलं कभी नष्ट नहीं होता। सत्ता कभी नष्ट नहीं होती। जिसका अस्तित्व स्थापित है, वह कभी नष्ट नहीं होता। पर्याय भी चिरकालिक होते हैं। वे भी तत्काल नष्ट नहीं होते। ___ हमारे शरीर से तदाकार प्रतिकृतियां निकलती हैं। प्रत्येक प्राणी के शरीर से नहीं, किन्तु प्रत्येक पदार्थ से उसी आकार की प्रतिकृतियां निकलती हैं और वे आकाश में फैल जाती हैं। हमारे चिन्तन की प्रतिकृतियां निकलती कर्म : चौथा आयाम 23 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, उनके चित्र निकलते हैं और वे सब आकाश में फैल जाते हैं। हम बोलते हैं। भाषा के पुद्गल आकाश में फैल जाते हैं और वे हजारों-हजारों वर्षों तक उसी रूप में बने रहते हैं। यही तो आधार बनता है अतीत की यात्रा का। यही चौथे आयाम का आधार बनता है। ___आज हम अपनी चेतना को विकसित करें, अवधिज्ञान और मनःपर्यवं ज्ञान का विकास करें, जिससे कि हजारों वर्ष पहले के शरीर की आकृतियों को देख सकें, उसे साक्षात् कर सकें। हजारों-हजारों वर्ष पहले की जो चिंतन की प्रतिकृतियां हैं, उनको देखकर हम उन विचारों को जान सकें। हजारों-हजारों वर्ष पहले बोली गई भाषा की जो वर्गणाएं हैं, भाषा के जो पुद्गल हैं, उन पुद्गलों को हम सुन सकें। हम देख सकें और पढ़ सकें कि ये भाषा की प्रतिकृतियां हैं, ये मन की प्रतिकृतियां हैं और ये शरीर की प्रतिकृतियां हैं। चेतना के विकास के द्वारा यह संभाव्य है। ऐसा भी संभव है कि कोई वैज्ञानिक सूक्ष्मतम यंत्रों का आविष्कार कर, उनके माध्यम से यह संभव बना सके। वैज्ञानिक जगत् में यह प्रयत्न चल रहा है कि राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि-आदि महापुरुषों की वाणी के पुद्गलों को पकड़कर हम उन्हें साक्षात् सुनें। प्रयत्न चल रहा है। सफल कब होंगे-यह कहा नहीं जा सकता। पर ऐसा होना संभव है। यह असम्भव बात नहीं है। संभव है, क्योंकि आधार निश्चित है। जब भाषा मौजूद है तो प्रश्न भाषा का नहीं रहा, प्रश्न उसे पकड़ने का रहा। यदि हमें पकड़ने का अच्छा माध्यम मिल जाये तो हम शब्दों को सुन सकते हैं, आकृतियों को साक्षात देख सकते हैं। आत्मा को नहीं देख सकते, किन्तु उन महापुरुषों के शरीर की आकृतियों को देख सकते हैं। उनके द्वारा जो सोचा गया था, जो कहा गया था, उसे जान सकते हैं, पढ़ सकते हैं। इसी प्रकार कर्म के जो परमाणु हैं, जो आत्मा के साथ संबंध स्थापित करते हैं और विपाक के बाद वापस चले जाते हैं, वे भी आकाश में भरे हुए हैं। उनके आधार पर भी यह निर्णय लिया जा सकता है कि इस व्यक्ति का यह विपाक है तो इसने अतीत में क्या किया था और किस प्रकार कितनी मात्रा के राग-द्वेष के द्वारा, इन पुद्गलों के द्वारा, 24 कर्मवाद Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के साथ संबंध स्थापित किया था। इनका किस प्रकार का विपाक हुआ-यह भी जाना जा सकता है। ____हमने सुना है, पढ़ा है कि एक व्यक्ति अतीन्द्रियज्ञानी ऋषि-मुनि के पास जाता है और पूछता है- 'भते! अभी मैं यह विपाक भोग रहा हूं। आप मुझे बताएं कि मैंने क्या किया था, जिसका यह विपाक मुझे भोगना पड़ रहा है? यह किसका परिणाम है? तब वे अतीन्द्रियज्ञानी कहते हैं-तुमने अमुक जीवन में अमुक प्रवृत्ति की थी, उसी का यह परिणाम है, विपाक है। - भगवान् महावीर के पास सम्राट् श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार दीक्षित हुआ। वह मुनि बना। जीवन के प्रति कुछ अधीरता हो गई। वह भगवान् के पास आया और बोला-'भंते! आपका साधुत्व आप संभालें। मैं घर जा रहा हूं।' महावीर ने कहा-'मेघकुमार! बहुत आश्चर्य की बात है। आज तुम मनुष्य हो, एक सम्राट् के पुत्र हो, मेरे शिष्य हो। मुनि बन गये, फिर भी थोड़े से कष्ट से घबरा गये! इतने अधीर हो गये! तुम्हें याद नहीं है, हाथी के जन्म में तुमने कितने भयंकर कष्ट सहे थे? भूल गये?' भूला कौन था! कोई भूला नहीं था। बस, जो छिपा पड़ा था उसकी स्मृति दिलाने की जरूरत थी। मेघकुमार को पुनर्जन्म की स्मृति हो गई। हाथी के जन्म में सहे सारे कष्ट चित्रवत् प्रत्यक्ष हो गये। अब सब कुछ ठीक हो गया। ___ हम अतीत से विच्छिन्न होकर केवल वर्तमान की व्याख्या नहीं कर सकते। प्रवृत्ति और परिणाम-इन दोनों को तोड़ा नहीं जा सकता। जो परिणाम आज दृश्य है, उसके पीछे प्रवृत्ति है। परिणाम और प्रवृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम। आज भी प्रवृत्ति अतीत का परिणाम, आज का परिणाम अतीत की प्रवृत्ति। जो वर्तमान क्षण की प्रवृत्ति है, उसके पीछे अतीत का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, इसलिए वह परिणाम भी है और भावी परिणाम का वह हेतु भी है, इसलिए वह प्रवृत्ति भी है, वह परिणाम भी है। वह कार्य भी है और कारण भी। अतीत का कारण उसके पीछे है इसलिए वह कार्य और भविष्य के कार्य का वह हेतु है, इसलिए वंह कारण भी है। कर्म : चौथा आयाम 25 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम वतमान, अतात और भविष्य-इन तीनों की संघटना में जी सकते हैं और सत्य को पकड़ सकते हैं। केवल वर्तमान के द्वारा नहीं पकड़ सकते। साधना का एक सूत्र है-वर्तमान में रहो, वर्तमान में रहना सीखो। बहुत सुन्दर बात है साधना की दृष्टि से। साधना की दृष्टि से वर्तमान में रहना यानी भावक्रिया करना, जिस समय से काम कर रहे हैं, उसी में रहना, न अतीत में जाना, न स्मृति में जाना और न भविष्य में जाना, न कल्पना में जाना। कल्पना की उड़ान भी नहीं करना है और स्मृति के समुद्र में गोते भी नहीं लगाना है। किन्तु वर्तमान के बिन्दु पर खड़े रहना है, स्थिर रहना है। साधना की दृष्टि से बहुत अच्छा है वर्तमान में रहना। हम अतीत के पंख को भी तोड़ डालें और भविष्य के पंख को भी तोड़ डालें। दोनों पंखों को तोड़ डालें। केवल वर्तमान में रहें। किन्तु जहां कार्य-कारण की मीमांसा है, जहां सचाई को उद्घाटित करने का प्रश्न है वहां केवल वर्तमान से काम नहीं चल सकता। वहां अतीत का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि वर्तमान का है। वहां भविष्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है जितना वर्तमान महत्त्वपूर्ण है। काल की अखंडता को लेकर ही हम कार्य, कारण, प्रवृत्ति और परिणाम को जान सकते हैं। काल की अखंडता के द्वारा ही हम उन्हें ठीक से समझ सकते हैं, पकड़ सकते हैं। ____कर्म का सम्बन्ध अतीत से इसलिए है कि वह दीर्घकाल तक आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। वह सम्बन्ध स्थापित करता है और सम्बन्ध स्थापित करने के बाद लम्बे समय तक जुड़ा रहता है। कर्म का सम्बन्ध वर्तमान से इसलिए है कि वह लम्बे समय तक साथ रहने के बाद एक दिन विसर्जित हो जाता है, सदा साथ नहीं रहता। जो आगन्तुक होता है, वह सदा साथ नहीं रहता। सदा साथ वही रह सकता है जो स्थायी है। स्थायी वही रह सकता है जो सहज होता है। जो आया हुआ है, वह सहज नहीं होता। कर्म सहज नहीं होता, वह स्वभाव नहीं है। सहज है चेतना। सहज है आनन्द। सहज है शक्ति। आत्मा का जो स्वाभाविक 26 कर्मवाद Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण है, वह है चैतन्य। कर्म आया हुआ है, सहज नहीं है। वह एक दिन आता है, सम्बन्ध स्थापित करता है और जब तक अपना प्रभाव पूरा नहीं डाल देता, तब तक बना रहता है। जिस दिन अपना प्रभाव डाल दिया, उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वह चला जाता है, विसर्जित हो जाता है। विसर्जित होने का क्षण वर्तमान का क्षण है और आने का क्षण अतीत का क्षण है। विनाश का क्षण वर्तमान का क्षण है और सम्बन्ध स्थापना का क्षण अतीत का क्षण है। इन दोनों क्षणों की हम ठीक व्याख्या करें तो कर्म का पूरा सिद्धान्त हमारी समझ में आ सकेगा। इन दोनों की लम्बाई में हमें कर्म की यात्रा करनी है। कर्म : चौथा आयाम 27 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त। अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध कैसे स्थापित होता है, सहज ही यह प्रश्न. उभरता है। किन्तु अमूर्त और मूर्त में ऐसा विरोध नहीं है कि अमूर्त के साथ और मूर्त का अमूर्त के साथ सम्बन्ध न हो। सम्बन्ध हो सकता है। आकाश अमूर्त है, किन्तु आकाश का योग प्रत्येक पदार्थ को मिलता है। पदार्थों के आधार पर आकाश का विभाजन होता है। तर्कशास्त्र का एक प्रसिद्ध वाक्य है-घटाकाश, पटाकाश। आकाश असीम है। फिर भी एक है घड़े का आकाश, एक है कपड़े का आकाश, एक है मकान का आकाश-न जाने आकाश की कितनी सीमाएं बन जाती हैं पदार्थों के आधार पर। आकाश का अवगाह, आकाश का आधार प्रत्येक पदार्थ को मिलता है। आकाश से सब द्रव्य उपकृत हैं। यदि आकाश नहीं होता, यह शून्य नहीं होता तो कहीं भी रहने का स्थान नहीं होता। अमूर्त का मूर्त के प्रति उपकार है और मूर्त के द्वारा अमूर्त का परिणमन भी होता है, इसलिए यह बात मान्य नहीं हो सकती कि अमूर्त का मूर्त में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। अचेतन और चेतन में भी सम्बन्ध स्थापित होता है। चेतन का अचेतन के प्रति कुछ उपकार है तो अचेतन का भी चेतन के प्रति उपकार है। दोनों एक-दूसरे से उपकृत होते हैं। उपकार की बात को शायद आप स्वीकार कर लें, यह संभव है। किन्तु प्रश्न है-एकात्मकता का। यह एकात्मकता कैसे स्थापित होती है? आत्मा और कर्म में, चेतना और पुद्गल में एकात्मकता कैसे स्थापित हो सकती है? ये एक कैसे बन सकते हैं? एकात्मकता दो विरोधी द्रव्यों में कभी नहीं होती। एकात्मकता नहीं होती, सम्बन्ध हो सकता है। तादात्म्य नहीं . 28 कर्मवाद Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकता, सम्बन्ध हो सकता है। कर्म के पुद्गल कभी चेतन नहीं बन सकते और चेतन कभी कर्म-पुद्गल नहीं बन सकता। उनमें एकात्म-भाव नहीं हो सकता। पुद्गल पुद्गल ही रहेंगे, कर्म कर्म ही रहेंगे, चेतना चेतना ही रहेगी। कर्म-पुद्गलों के द्वारा चेतना के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होगा और चेतना के द्वारा कर्म-पदगलों के स्वरूप में भी कोई परिवर्तन नहीं होगा। दोनों का संयोग हो सकता है। दोनों का सम्बन्ध हो सकता है। संयोगकृत या सम्वन्धकृत परिवर्तन दोनों में होगा। चेतना कर्म-पुद्गलों की निमित्त बनेगी और कर्म-पुद्गल चेतना के निमित्त बनेंगे। परिवर्तन स्वभावगत होता है। कर्तृत्व उपादानगत होता है। चेतना का अपना उपादान है और कर्म-पुद्गलों का अपना उपादान है। उपादान में कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। चेतना के उपादान में, कर्म परिवर्तन नहीं ला सकते और कर्म के उपादान में, पौद्गलिक तत्त्व के उपादान में चेतना कोई परिवर्तन नहीं ला सकती। उपादान अपना-अपना रहेगा। केवल निमित्तों का परिवर्तन होगा। चेतना के उपादान जो हैं, उनको कुछ बदलने में कर्म निमित्त बन सकते हैं और कर्म-पुद्गलों के जो उपादान हैं, उनके कुछ परिवर्तन में चेतना निमित्त बन सकती है। आत्मा के उपादान हैं-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति। आत्मा का मौलिक स्वरूप है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति। ये ही आत्मा के मौलिक उपादान हैं। ये कभी नहीं बदलते। कितने ही कर्म-परमाणु लग जाएं, इनमें परिवर्तन नहीं ला सकते। इनके अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। पुद्गल के उपादान चार हैं-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श। आत्मा का कितना ही निमित्त मिले, पुद्गल का वर्ण कभी समाप्त नहीं होगा, गंध समाप्त नहीं होगी, रस समाप्त नहीं होगा, स्पर्श समाप्त नहीं होगा। आत्मा इनमें परिवर्तन नहीं ला सकती। आत्मा के निमित्त से इन उपादानों की तनिक भी क्षति नहीं हो सकती। __ तो यह प्रश्न होता है कि आत्मा और कर्म में क्या संबंध है? एक-दूसरे पर क्या उपकार है? एक-दूसरे पर क्या प्रभाव है? यह सत्तागत कुछ भी नहीं, उपादानगत कुछ भी नहीं। निमित्त की सीमा में जितना कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 26 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकता है, उतना ही होगा। उसकी भी एक सीमा है। संसार में असीम कुछ भी नहीं है। हर शक्ति की एक सीमा है। हम उसे अनन्त भी कह सकते हैं। अपनी सीमा में आकाश अनन्त है, असीम है। किन्तु जहां आत्मा का अस्तित्व है, वहां आकाश नहीं है। जहां धर्मास्तिकाय का, अधर्मास्तिकाय का और पुद्गलास्तिकाय का अस्तित्व है, वहां आकाश का अस्तित्व नहीं है। वह अपने क्षेत्र में है, अपने अस्तित्व में है। आकाश अपने अस्तित्व में है। किन्तु जहां दूसरे द्रव्यों का अस्तित्व है, वहां आकांश नहीं है। यह अस्तित्व की भी एक सीमा है। पदार्थ की अस्तित्वगत एक सीमा होती है। अस्तित्व की सीमा में सब हैं। अस्तित्व कुछ भी नहीं बदलता। केवल परिधि में सारे परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन परिधिगत होते हैं। परिधियां बदलती रहती हैं, केन्द्र नहीं बदलता। कर्म का निमित्त मिलता है तो अमूर्त मूर्त रूप में व्यवहृत होने लग जाता है। कर्म का निमित्त मिलता है तो चेतन अचेतन रूप में व्यवहत होने लग जाता है। इसीलिए आत्मा को पुद्गल भी कहा जाता है, मूर्त भी कहा जाता है। ___आत्मा अमूर्त है, चेतनामय है, अखण्ड चेतनावान् है-यह हमारी भविष्य की अवधारणा है। यह वह धारणा है जिस दिन सब कर्मों का वियोग हो जाएगा, कर्म परमाणुओं के साथ जो संबंध स्थापित हैं, वे सब टूट जाएंगे, भावकर्म (आस्रव) समाप्त हो जाएंगे और साथ-साथ द्रव्यकर्म (कर्मपुद्गल) भी समाप्त हो जाएंगे, उस स्थिति में आत्मा अखंड ज्योतिर्मय, अखंड चैतन्यमय और पूर्ण सूर्य के रूप में प्रकट होगा। जहां कोई आवरण नहीं होता, अचेतन का कोई संबंध नहीं होता, केवल चेतना और चेतना, उस दिन आत्मा अमूर्त होगा, पूर्ण अमूर्त जहां कि किसी मूर्त का कोई अंश नहीं है। मूर्त ही तो अमूर्त को मूर्त बनाता है। जिस दिन वह मूर्त सर्वथा टूट जायेगा, तब शेष रहेगा अमूर्त, केवल अमूर्त। तब न कोई आकार होगा, न कोई प्रकार होगा, न कोई मूर्त होगा, कुछ भी नहीं, केवल अमूर्त। जिस स्थिति में संसारी आत्माएं हैं, वे अमूर्त नहीं हैं। वे संसार में कब से हैं, यह हम नहीं जानते। उसका हमें कोई पता नहीं है। उस स्थिति में शुद्ध नय की दृष्टि से हम यह नहीं कह सकते कि आत्मा 30 कर्मवाद Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूर्त है और हम यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा अखण्ड चैतन्य वाली है। वह दो का मिला-जुला रूप है। अमूर्त है तो साथ में मूर्त भी जुड़ा हुआ है। वह चेतनावान् है तो साथ में उस पर अचेतन द्रव्य का आवरण भी है। इसलिए चेतना की पूर्ण सत्ता नहीं है। वहां अचेतन का भी कछ अस्तित्व है। आत्मा के साथ भावकर्म का योग है। भावकर्म अर्थात कर्म का चित्त। एक है भावकर्म और दूसरा है द्रव्यकर्म। यह द्रव्यकर्म यानी भावकर्म का एक शारीरिक आकार जो कि भावकर्म का संवादि कार्य करता है, इसे हम द्रव्यकर्म या पौद्गलिक कर्म कह सकते हैं। भावकर्म या द्रव्यकर्म, भावचित्त या पौद्गलिक चित्त-इनमें पूरी संवादिता है, विसंवादिता नहीं। द्रव्यकर्म भावकर्म का प्रतिबिम्ब है। चित्त का जैसा निर्माण होता है, वैसे ही पुद्गल का निर्माण होता है। . चेतना पर कर्म का इतना घना आवरण है कि ज्ञान की शक्ति आवृत हो गई। बहुत आवृत हो गई, केवल जीव का एक अंश बचा उस आवरण से जिससे कि जीव का अस्तित्व सुरक्षित रह सके। वैसे ही कर्म का आकार बना, ठीक उसका संवादी स्थूल शरीर बना और वह एक इन्द्रिय वाला जीव बन गया। एकेन्द्रिय जीव होने का मतलब क्या है? न्यूनतम चेतना का विकास। प्रश्न होता है कि न्यूनतम चेतना का विकास एकेन्द्रिय जीव में ही क्यों होता है? ___ क्योंकि वैज्ञानिक यही मानेगा कि जीव के जिस प्रकार के गुण सूत्र थे, उसी प्रकार के जीव की संरचना हो गई। वैज्ञानिक व्याख्या तो यहां तक पहुंची है। किन्तु कर्मशास्त्रीय व्याख्या बहुत दूर गहराई में चली जाती है। उसके अनुसार चेतना का निर्माण, चित्त या भावकर्म का निर्माण इसलिए हुआ कि उसमें राग-द्वेष बहुत प्रबल हो गए। उस राग-द्वेष की प्रबलता ने ऐसे चित्त का निर्माण किया कि चेतना सघन नींद में चली गयी। इस नींद का पारिभाषिक नाम है-स्त्यानर्द्धि निद्रा। वैसी नींद जिसमें चेतना स्त्यान हो जाती है, जम जाती है, सघन हो जाती है। उस स्थिति में चेतना इतनी प्रगाढ़ निद्रा में चली गई है कि मात्र चेतना का एक छोटा-सा अंश अनावृत बचा और वह भी इसलिए कि जीव का अस्तित्व कभी मिटता नहीं है। यदि वह अंश भी आवृत कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 31 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाये, जम जाये तो संभव है जीव अजीव बन जाये। जीव और अजीव के बीच की भेदरेखा भी तो यही है। वह भी समाप्त हो जाये, यह कभी हो नहीं सकता। इसीलिए चेतना का थोड़ा-सा प्रकाश बचा रहता है। वह प्रकाश उस भावचित्त में बचा। उस भावचित्त ने प्रभावित किया पुद्गलों को, तो सूक्ष्म शरीर भी वैसा ही बन गया, पौद्गलिक चित्त भी वैसा ही बन गया, कर्मचित्त भी वैसा ही बन गया। उसने चेतना के अणु-अणु पर जो ज्ञान के स्रोत थे, अपना आवरण डाल दिया। सब पर आवरण डाल देने पर भावकर्म का संवादी द्रव्यकर्म (पौद्गलिक कर्म) और पौद्गलिक कर्म का (सूक्ष्म शरीर का या कर्म शरीर का) संवादी बना स्थूल शरीर। उसमें एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय का प्रकाश रहा। एक स्पर्शन इन्द्रिय को स्थान मिला, शेष सारी इन्द्रियां समाप्त। आप यह न मानें कि जिसे हम एकेन्द्रिय कहते हैं, वह एक ही इन्द्रिय वाला होता है। उसमें और इन्द्रियों का बोध भी होता है, किन्तु उनका आकार नहीं बनता। आकार इसलिए नहीं बनता कि इन्द्रियों के पूरे विकास की क्षमता उस सूक्ष्म शरीर में नहीं है। सूक्ष्म शरीर में जब इन्द्रिय-विकास की पूरी क्षमता नहीं है, पूरा विकास नहीं है, तो स्थूल शरीर उसका संवादी नहीं होता, उसमें उसके आकार नहीं बनते। आकार के बिना इन्द्रिय-बोध भी स्पष्ट नहीं होता। एकेन्द्रिय जीव में भी पांचों इन्द्रियों का अस्पष्ट बोध होता है। उन्हें स्पष्ट बोध इसलिए नहीं होता कि उन इन्द्रियों के स्थान विकसित नहीं होते। शरीर में इन्द्रियों के जो स्थान हैं, जो कोशिकाएं हैं, वे सक्रिय नहीं होती, विकसित नहीं होती। इसलिए स्पष्ट ज्ञान का अभाव रहता है। यह एक श्रृंखला है-भावचित्त का संवादी होता है पौद्गलिक चित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है स्थूलशरीर / स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और भावशरीर (कर्मशरीर)-इन तीनों में परस्पर संवादिता है। एक जैसा होता है, दूसरा भी वैसा ही होता है और दूसरा जैसा होता है, तीसरा भी वैसा ही होता है। हम इस सचाई को न भूलें कि सूक्ष्म जगत् में जिस प्रकार के हमारे चित्त का निर्माण होता है, जिस प्रकार का भावकर्म होता है, वैसा ही पौद्गलिक कर्म होता है। आत्मा कभी पुद्गल को 32 कर्मवाद Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षित नहीं करती, क्योंकि आत्मा के पास पुद्गल को आकर्षित करने की कोई शक्ति नहीं है। किन्तु एक माध्यम है उसके पास, जिसके द्वारा वह पुद्गल को आकर्षित करती है। वह माध्यम है-भावकर्म या आस्रव। भावकर्म या आस्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये पांच शक्तियां हैं पुद्गलों को आकर्षिक करने वाली। ये हमारे पांच चित्त हैं। एक चित्त है मिथ्यात्व का, एक चित्त है अविरति का, एक चित्त है प्रमाद का, एक चित्त है कषाय का और एक चित्त है योग का। इन पांचों चित्त का निर्माण होता है और समय-समय पर ये चित्त मंद-तीव्र होते रहते हैं। जिस प्रकार ये चित्त होते हैं, उसी प्रकार के द्रव्यचित्तों, पौद्गलिक चित्तों का निर्माण होता चला जाता है और संबंध की संरचना होती चली जाती है। आस्रवों के बिना कर्मों का आकर्षण नहीं हो सकता और न कर्मों का एक विशेष संरचनात्मक रूप ही बन सकता है। हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं और एक विशेष प्रकार का उन्हें रूप देते हैं। ये दोनों काम भावचित्त के बिना या भावकर्म के बिना नहीं हो सकते, इसीलिए हम कर्म पर बहुत चिंतित नहीं होते, किन्तु भावचित्त पर ज्यादा चिंतित होते हैं, भावकर्म पर ज्यादा ध्यान देते हैं। राग-द्वेष का प्रत्येक क्षण कर्म-आकर्षण का या कर्म-बंध का क्षण है। हम साधना की दृष्टि से जब विचार करते हैं, तब इस बात से चिंतित न हों कि कर्म का बहुत आकर्षण होता है या हो रहा है। किन्तु जो राग-द्वेष का क्षण कर्म को आकृष्ट करता है, उसके प्रति जागरूक हों। हम बहुत वार कहते हैं-जागरूक रहें, अप्रमत्त रहें। प्रश्न होता है किसके प्रति जागरूक रहें? किसके प्रति अप्रमत्त रहें? हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें, जिस क्षण में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष का क्षण हिंसा का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही असत्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही चौर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही अब्रह्मचर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही परिग्रह का क्षण है। जितने भी दोष हैं, उन सबका क्षण है राग-द्वेष का क्षण। राग-द्वेष का क्षण ही समूची कर्म-वर्गणाओं के आकर्षण का क्षण है। इसलिए साधना के क्षेत्र में जागरूकता का अर्थ कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 33 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-उस राग-द्वेष के क्षण के प्रति जागरूक रहना जो कर्मों को आकर्षित करता है और अनेक आचरणों के माध्यम से करता है। उस क्षण के प्रति हम जागरूक रहें, तटस्थ रहें, सामायिक करें, समभाव में रहें। जागरूकता का अर्थ इतना ही नहीं है कि हम नींद न लें। नींद नहीं लेने का ही नाम जागरूकता हो तो एक मजदूर जो आट-दस-घंटे कठोर श्रम करता है, वह पूर्ण जागरूक है, जागृत है। वह नींद कहां लेता है? बेचारे को नींद लेने का कोई क्षण ही प्राप्त नहीं होता। वह पूरा जागृत है और पूर्ण जागरूकता से अपने काम में लगा हुआ है। किन्तु साधना की दृष्टि से जागरूक रहने का अर्थ है-किसी भी क्षण में राग-द्वेष को उत्पन्न न होने देना। राग और द्वेष का अक्षण ही तटस्थता का क्षण है। राग और द्वेष का अक्षण ही ध्यान का क्षण है। इसके अतिरिक्त कोई ध्यान नहीं है। हम प्राणायाम करें या प्रेक्षा करें, शरीर को देखें या पदार्थ को देखें अनिमेष दृष्टि रखें या आंख मूंदकर साधना करें-यह ध्यान नहीं है। यह तो. मात्र ध्यान का आलंबन है। ध्यान वह है कि जिसमें राग और द्वेष का कोई क्षण ही न आए। राग और द्वेष के क्षण का न आना ही यथार्थ में ध्यान है। अन्यथा सारी क्रियाएं बाह्य क्रियाएं हैं, केवल शारीरिक क्रियाएं हैं। वे निष्प्राण क्रियाएं हैं। उनसे वह अर्थ सिद्ध नहीं होता जो ध्यान के द्वारा होता है। वे क्रियाएं अधिक-से-अधिक आगे बढ़ती हैं, तो प्राणशक्ति क्रियाएं बन जाती हैं। जो प्राणी को प्रभावित करने वाली या प्राणशक्ति के कुछ चमत्कार दिखाने वाली सिद्ध हो सकती हैं, जो चमत्कार प्रचलित हैं, वे सारे-के-सारे प्राणशक्ति के चमत्कार हैं, प्राणिक चमत्कार हैं। किन्तु जिन क्रियाओं के द्वारा मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन होना चाहिए, आवेगों और संवेगों में परिवर्तन होना चाहिए, जिनके द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, घृणा-इनमें परिवर्तन होना चाहिए वह केवल ध्यान के द्वारा नहीं हो सकता। यदि हम राग-द्वेष के क्षण के प्रति जागरूक नहीं हैं, यदि हम भावकर्म के प्रति जागरूक नहीं हैं तो आने वाले उन पौद्गलिक कर्मों को हम रोक नहीं सकते और उनको रोके बिना, वे आने वाले कर्म अपना प्रभाव 34 कर्मवाद Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाले बिना नहीं रह सकते, निमित्त बने बिना नहीं रह सकते। यदि वे निमित्त बनेंगे तो राग-द्वेष का चक्र चलना बन्द नहीं होगा। ___भावकर्म द्रव्यकर्मों को प्रभावित करते हैं और द्रव्यकर्म (पौद्गलिक कम) भावकर्म को प्रभावित करते हैं। दोनों की एक ऐसी संधि है कि दोनों एक-दूसरे का परस्पर सहयोग करते हैं। दोनों एक-दूसरे को जीवनी-शक्ति दे रहे हैं। दोनों में एक समझौता है। भावकर्म द्रव्यकर्मों को जिला रहे हैं और द्रव्यकर्म भावकों को जिला रहे हैं। साधना में यही करना है कि 'येन-केन प्रकारेण' हम इन दोनों की संधि को छिन्न-भिन्न कर सकें, तोड़ सकें। या हम दोनों में एक ऐसा विभेद पैदा कर दें जिससे कि भावकर्म एक ओर हो जाए और द्रव्यकर्म एक ओर हो जाए। दोनों में ऐसी भेदवृत्ति जाग जाए, जिससे कि अनादिकाल से चली आ रही उनकी संधि में दरार पड़ जाए, हम इस बांध में ऐसा कोई छेद कर दें, जिससे बांध का पानी बह जाए और बांध पूरा खाली हो जाये। ____ यदि साधना के हार्द को हम समझ सकें तो इस प्रक्रिया को करना ही होगा। यह वास्तविकता है कि कर्म के मर्म को समझे बिना कोई साधना के मर्म को समझ नहीं सकता। आज मैं कर्म की चर्चा कर रहा हूं तो वह कुछ साधकों को आश्चर्यकारी लग सकता है और उनके मन में यह प्रश्न भी हो सकता है कि साधना के क्षेत्र में कर्म की 'चर्चा का क्या प्रयोजन है? मैं समझता हूं कि कर्म के रहस्यों को पकड़े बिना साधना के रहस्य को समझा ही नहीं जा सकता। साधना केवल आकाशीय उड़ान नहीं है। यह गहराई में जाने की प्रवृत्ति है, जहां जाकर हम अपने वास्तविक अस्तित्व को पहचान सकते हैं, पकड़ सकते हैं। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि हम मूलस्रोत को पकड़ें। कर्म मूलस्रोत है किन्तु कर्मों का भी मूलस्रोत है-भावकर्म। भावकर्म को समझे बिना साधना की कोई बात समझ में नहीं आ सकती।। _ भावकर्म के द्वारा द्रव्य कर्मों का आकर्षण होता है। भावकर्म है-जैविक रासायनिक प्रक्रिया, जीव में होने वाली रासायनिक प्रक्रिया। भावार्म जैविक रासायनिक प्रक्रिया है और द्रव्यकर्म सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया है। एक जैविक है और एक पौद्गलिक। दोनों में कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 35 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध स्थापित होता है। दोनों प्रक्रियाएं एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं। एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। जैविक रासायनिक प्रक्रिया के साथ सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया का योग है। सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया के साथ जैविक रासायनिक प्रक्रिया का योग है। इसीलिए संबंध स्थापित होता है। यदि दोनों में संबंध न हो तो वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकतीं। चन्द्रमा मनुष्य को प्रभावित करता है। इसकी वैज्ञानिक खोज से पता चला कि मनुष्य के शरीर में अस्सी प्रतिशत जल का भाग है। चन्द्रमा जलीय है, इसीलिए चन्द्रमा का जल के साथ संबंध है। चन्द्रमा के कारण जैसे-जैसे तिथियां घटती-बढ़ती हैं, वैसे-वैसे ज्वार-भाटे का क्रम भी चलता है। यह इस बात का सूचक है कि चन्द्रमा का जल के साथ संबंध है। इसीलिए चन्द्रमा मनुष्य के मन को प्रभावित करता है। ज्योतिषियों ने भी ठीक निर्णय किया था कि मन का स्वामी चन्द्रमा है। चन्द्रमा मन को प्रभावित करता है। जिनमें, कोई संबंध नहीं होता, वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकते। आज जो प्रभावों की खोज हुई है, उससे अनेक नये तथ्य उद्घाटित हुए हैं। काकेसस रूस का एक भाग है। वहां के वैज्ञानिक ने बताया कि काकेसस में जो भूकंप आते हैं, उनका संबंध सौर-विकिरणों से है। जब-जब ठीक समय आता है सौर-विकिरणों का, तब काकेसस में भूकंप शुरू हो जाते हैं। जब सूर्य में विस्फोट होते हैं, तब उसके परिणास्वरूप भूकंप आने शुरू हो जाते हैं। यह सारा संसार संक्रमण का संसार है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में संक्रांत होता है। असंक्रांत कोई नहीं है, अप्रभावित कोई नहीं। हम सब इतने संक्रमणों में से गुजरते हैं और इतने तत्त्वों से प्रभावित होते हैं कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। हम सब प्रभाव-क्षेत्र में हैं। हर बंधी हुई आत्मा, हर कर्मयुक्त आत्मा प्रभाव-क्षेत्र में होती है। वह प्रभाव-क्षेत्र से मुक्त नहीं होती। प्रभाव क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति बाहरी प्रभावों से मुक्त नहीं हो सकता, संक्रमणों से मुक्त नहीं हो सकता। सौरमण्डल से इतने विकिरण आते हैं कि हम उनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। समूचे ज्योतिषशास्त्र का यही आधार है। 36 कर्मवाद Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल के विकिरण, चन्द्र के विकिरण, बुद्ध के विकिरण! जितने ग्रह हैं, जितने नक्षत्र हैं, उन सबसे विकिरण आते हैं और हम सब उनसे प्रभावित होते हैं। यदि विकिरणों की बात नहीं होती तो ज्योतिषशास्त्र का आधार ही समाप्त हो जाता। ज्योतिषशास्त्र अवैज्ञानिक नहीं है। यह संभव है कि कोई फलित को ठीक न बता सके। यह सब बताने वाले की अपूर्णता है, न कि ज्योतिषशास्त्र की अवैज्ञानिकता। ज्योतिषशास्त्र की वैज्ञानिकता में कोई संदेह नहीं होता क्योंकि ग्रहों के विकिरणों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। एक व्यक्ति रमणविद्या का ज्ञाता था। एक बार वह राजा की परिषद् में गया और अपना परिचय देते हुए कहा-मैं रमणविद्या का ज्ञाता हूं। मैं भूत, भविष्य-सब कुछ बता सकता हूं। राजा ने एक क्षण तक सोचा। अपनी मुट्ठी बंद कर राजा ने पूछा-अच्छा बताओ, मेरी मुट्ठी में क्या है? उसने अपना गणित किया। ध्यान को एकाग्र किया। उसे लगा कि मुट्ठी में जो है, उसके एक सूंड है, चार पैर हैं, उसका रंग काला है। उसने कहा- 'राजन्! आपकी मुट्ठी में हाथी है।' सारी परिषद् स्तब्ध रह गयी। मुट्ठी में हाथी! .. रमणवेत्ता का फलित गलत नहीं था। मुट्ठी में जो चीज़ थी, उसके एक सूंड थी, चार पैर थे और रंग काला था। सब कुछ सही था। किन्तु वह इस बात को भूल गया कि मुट्ठी में हाथी कैसे आ सकता है? वह यह भूल गया कि कौन-सी चीज़ कहां, कैसे, किस स्थिति में होती है। वह व्यावहारिक ज्ञान को भूल गया। . राजा की मुट्ठी में मक्खी थी। मक्खी के सूंड भी होती है, चार पैर भी होते हैं और काला रंग भी होता है। किन्तु वह मक्खी को भूल गया। उसने हाथी को पकड़ लिया। सूंड़ आदि की दृष्टि से दोनों समान हैं, किन्तु मुट्ठी में समाने की दृष्टि से दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। मक्खी मुट्ठी में समा सकती है, हाथी मुट्ठी में नहीं समा सकता है। ऐसी भूलें होती हैं। जहां विकिरणों की वैज्ञानिकता का प्रश्न है, जहां विकिरणों का मनुष्य पर होने वाले प्रभाव का प्रश्न है, वहां उसकी सचाई को नकारा कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 37 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं जा सकता। हम प्रभाव की दुनिया में जीते हैं। हम प्रभावित होते हैं। द्रव्यकर्म हमें प्रभावित करते हैं, आत्मा को प्रभावित करते हैं और आत्मा भी उनको प्रभावित करती है। दोनों का यह प्रभाव-क्षेत्र बन गया। उस प्रभाव-क्षेत्र में यह सारा का सारा चलता है। उस प्रभाव-क्षेत्र का नाम है-बंध। बंध का मतलब है-आत्मा और कर्म का प्रभाव-क्षेत्र। एक रचना हो गयी। अब प्रश्न होता है कि यह कैसे होता है?, यह कहां से आता है? यह सही है कि यह बाहर से आता है। बहुत दूर से नहीं। समूचे आकाश मंडल में कर्म की वर्गणाएं व्याप्त हैं। एक सूची जितना अंश भी रिक्त नहीं है इन कर्म-वर्गणाओं से। समूचा आकाश खचाखच भरा है। हम यहां बैठे हैं। हमने जिस प्रकार के भावचित्त का निर्माण किया, हमारी जिस प्रकार की रागात्मक-द्वेषात्मक अनुभूतियां हुईं, हम वहीं बैठे-बैठे अपने आस-पास के आकाश-मंडल से उन पुद्गलों को टान लेते हैं। टान लेने के बाद वे पुद्गल हमारे प्रभाव क्षेत्र में आ जाते हैं। क्षणभर पहले जो आकाश में व्याप्त थे, वे अब हमारे प्रभाव-क्षेत्र में आ गये, हमारे संबंध स्थापना की स्थिति में आ गये। उनका हमारे साथ पहले संबंध स्थापित नहीं था। पुद्गल पुद्गल के स्थान में थे और हम अपने स्थान में, आत्मा आत्मा के स्थान में थी। किन्तु जैसे ही भावचित्त बना, आस-पास के पुद्गल आकर्षित हुए या किये गये, वे पुद्गल हमारे आस्रव के द्वारा, भावकर्म के द्वारा, भावचित्त के द्वारा आकर्षित होकर हमारे प्रभाव-क्षेत्र में आ गये। उनके साथ हमारा संबंध स्थापित हो गया। यह है बंध। ___बंध की पूरी रासायनिक संरचना के बारे में भी हमें समझना है। जैसे ही पुद्गल हमारे प्रभाव-क्षेत्र में आते हैं, उनकी एक विशिष्ट संरचना हो जाती है। उसकी चर्चा हम आगे करेंगे। 38 कर्मवाद Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 कम हमारे व्यक्तित्व के दो पहलू हैं। एक है आंतरिक चेतना और दूसरा है बाहरी चेतना। एक है सूक्ष्म और दूसरा है स्थूल। एक है अंतर्वृत्ति और दूसरा है बहिर्वृत्ति। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व इन दो भागों में विभक्त है। मनुष्य बाहरी जगत् में जो कुछ भी करता है, उससे उसका अन्तःकरण प्रभावित होता है, सूक्ष्म जगत् प्रभावित होता है। और सूक्ष्म जगत् में जो घटनाएं घटित होती हैं उनसे स्थूल जगत् प्रभावित होता है, बाहरी पर्यावरण प्रभावित होता है। . हम एक अंगुली भी हिलाते हैं, यह स्थूल जगत् की घटना है, किंतु इससे हमारा सूक्ष्म जगत् भी आंदोलित होता है। सूक्ष्म जगत् में जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका प्रतिबिम्ब या प्रभाव स्थूल जगत् में पड़ता है। वह हमारे बाहरी वातावरण में या शरीर के परिवेश में आ * जाता है। इसलिए व्यक्तित्व की व्याख्या के लिए दोनों पहलुओं को समझना बहुत जरूरी है। ____ प्राणी जिन कर्म परमाणुओं को ग्रहण करता है और अपने साथ संबद्ध करता है, वे कर्म-परमाणु व्यवस्थित हो जाते हैं। स्वीकरण के समय उनकी एक व्यवस्था होती है। पहले उनमें कोई व्यवस्था नहीं होती। जब तक किसी प्राणी के द्वारा वे परमाणु स्वीकृत नहीं होते, तब तक वे कर्म-प्रायोग्य पुद्गल कहलाते हैं। उन परमाणुओं में कर्म के रूप में बदलने की योग्यता होती है, किंतु वे अभी तक कर्म नहीं होते हैं। जब तक आकाश-मंडल में वे परमाणु फैले हुए होते हैं, तब तक वे परमाणु. मात्र हैं, कर्म नहीं हैं। किन्तु उनमें कर्म बनने की योग्यता है। एक बात ध्यान में रहे कि हर परमाणु कर्म नहीं बनता। कर्म वही बनता ___ कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 36 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिस परमाणु में कर्म बनने की योग्यता होती है। परमाणु के विभिन्न प्रकार हैं। एक हाइड्रोजन का परमाणु है, एक ऑक्सीजन का परमाणु है, एक नाइट्रोजन का परमाणु है। अनेक गैसें हैं। उनके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। उनकी अपनी-अपनी क्षमता है। जो कर्म-वर्गणा है, जो परमाणु कर्म के रूप में बदल सकते हैं, उनकी भी अपनी विशिष्टता है। परमाणुओं के पचासों वर्ग हैं, पचासों वर्गणाएं हैं, पचासों समूह हैं। उनकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। किन्तु एक पुद्गल वर्गणा ऐसी है जो कर्म के रूप में बदल सकती है। वही वर्गणा हमारी प्रवृत्ति के द्वारा, हमारी चंचलता के द्वारा आकृष्ट होती है। आकृष्ट होते ही, आकर्षण के क्षण में ही उसकी व्यवस्था शुरू हो जाती है। पहले कोई व्यवस्था नहीं होती। जो परमाणु आते हैं उनका विभाजन प्रारंभ होता है और स्वभाव का निर्माण होने लग जाता है कि कौन से परमाणु किस स्वभाव में काम करेंगे। पहले दो व्यवस्थाएं होती हैं-एक विभाजन की व्यवस्था और दूसरी स्वभाव-निर्माण की व्यवस्था, प्रकृति की व्यवस्था कि उनकी प्रकृति क्या होगी? उनका कार्य क्या होगा? वे क्या करेंगे? इनके साथ-साथ दो व्यवस्थाएं और होती हैं। एक व्यवस्था होती है अनुभाव की, फल देने की क्षमता। उन परमाणुओं में जो रसाणु हैं, जो रस-शक्ति है, रस का परिपाक होता है कि ये परमाणु किस प्रकार के रस का संवेदन करायेंगे और उनसे किस प्रकार का प्रभाव होगा। यह है अनुभाव, फलदान की शक्ति। ___बहुत बार यह प्रश्न होता है कि कर्म का फल मिलता है, पर देता कौन है? देने वाला कौन है? इस प्रश्न पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया। कुछ चिंतकों ने यह प्रतिपादन किया कि फल देने वाली एक सत्ता है। आदमी कर्म करता है, पर वह स्वयं उसका फल भोगना नहीं चाहता। अतः कोई-न-कोई नियामक अवश्य है; नियंता अवश्य है, जो कि फल देता है। यह बात स्वाभाविक-सी लगती है कि आदमी स्वयं अपने आप फल भोगना क्यों चाहेगा? वह अच्छे कर्म का फल भोगना तो अवश्य ही चाहेगा, बुरे कर्म का फल भोगना कभी नहीं चाहेगा। यह कभी उसे इष्ट नहीं होगा कि जो उसने बुरा किया है उसका वह 40 कर्मवाद Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल भोगे। उस स्थिति में यह तर्क बहुत स्वाभाविक लगता है कि कोई फल देने वाला अवश्य ही होना चाहिए। इसका समाधान भी स्थूल व्यवस्था के आधार पर दिया गया कि कोई भी अपराधी अपने आप दंड भुगतना नहीं चाहता। न्यायाधीश या प्रशासक उसे दंड देता है, उसके दंड की व्यवस्था करता है। अपराध के दंड के लिए भी कोई तीसरा व्यक्ति होता है तो विश्व की इस विराट् व्यवस्था के लिए कोई नियामक या नियंता न हो, कोई प्रशासक न हो तो फल देने की व्यवस्था कैसे चल सकती है? इस संदर्भ में यह जो कहा गया कि कोई फल देने वाला होना चाहिए, यह अस्वाभाविक भी नहीं लगता। किन्तु यह तर्क जब मीमांसित होता है, इस पर गहराई से विचार करते हैं तो कुछ और नये तर्क खड़े हो जाते हैं, कुछ और नये प्रश्न उभर आते हैं। वे प्रश्न सचमुच उलझाने वाले प्रश्न हैं। ___ यदि कोई नियंता है, नियामक है, प्रशासक है, फल देने वाला है तो फल देने की बात 'द्वयम्' हो जायेगी, उसका नंबर दूसरा होगा। उससे पहले कर्तृत्व की बात आ जायेगी कि कोई कराने वाला भी है। कर्तृत्व और उसका फलभोग-दोनों जुड़े हुए प्रश्न हैं। यदि कोई कराता है तो फल भोगने वाला भी है और यदि कोई कराने वाला नहीं है तो फल भुगतने वाला भी नहीं है। यदि कोई कराने वाला है तो बहुत बड़ी एक पहेली सामने आती है कि वह एक इतनी विराट् सत्ता होगी जो विराट जगत् में सब कुछ कराये, करा सके, कराने की क्षमता से सम्पन्न हो। वह फिर ऐसा कोई कार्य करायेगी ही क्यों, जिससे प्राणियों को अशुभ फल भोगना पड़े? मनुष्य द्वारा फिर अप्रिय व्यवहार होगा ही क्यों? उसे अप्रिय फल भुगतना ही क्यों पड़ेगा? यह एक जटिल प्रश्न है। यह दूसरों को उलझा देने वाला प्रश्न है। यदि फल भुगताने वाली बात को हम मान भी लें कि कोई एक ऐसी शक्तिशाली सत्ता है जो फल भुगताने में माध्यम बनती है, और वहां कोई न्याय न हो तो उसे शक्ति-संपन्न सत्ता कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि इतनी विसंगतियां, इतने अभाव और अतिभाव के कारण इतनी कठिनाइयां, इतना अन्याय, इतने अत्याचार, इतनी क्रूरताएं, इतने प्रताड़न-इन सबको यदि किसी कर्तृत्व की सत्ता कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 41 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ जोड़ा जाये और उस शक्ति-संपन्न सत्ता के रहते हुए ये सारे घटित हों तो हम उस सत्ता को परम सत्ता कैसे कह सकते हैं? प्रत्येक राज्य-व्यवस्था भी यह कामना करती है कि हमारे राज्य में अच्छी से अच्छी व्यवस्था हो, शोषण, न हो, अत्याचार न हो। इसके लिए वह पूरी व्यवस्था करना चाहती है, पर कर नहीं पाती क्योंकि वह सर्वशक्ति-संपन्न होने का दावा नहीं करती। इसलिए यह उसके वश की बात नहीं है। वह व्यवस्था मात्र करती है कि ऐसी अव्यवस्था न हो। अच्छी सरकार का यह लक्षण होता है कि उसके प्रशासन द्वारा अपराधों में कमी हो, बुराइयों में कमी हो और एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति जो अन्यायपूर्ण व्यवहार या क्रूरतापूर्ण व्यवहार होता है वह कम होता चला जाये। वह सर्वशक्ति-सम्पन्न न होते हुए भी इस प्रकार की व्यवस्था करती है। यदि सर्वशक्ति-सम्पन्न सत्ता हो, सब कुछ करने में समर्थ हो, फिर भी वह इस प्रकार की व्यवस्था न करे कि उसके शासन-काल में, उसके साम्राज्य में, विराट् साम्राज्य में और विश्वव्यापी साम्राज्य में जिसका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता, अपराध भी चले, अन्याय भी चले, क्रूरता भी चले, शोषण भी चले, दमन भी चले और वह सब कुछ चले जो मानवीय सत्ता में चलता है तो फिर यह बहुत चिंतनीय प्रश्न बन जाता है। बादशाह ने बीरबल से पूछा-'बताओ! मेरे में और खदा में क्या अन्तर है?' बीरबल ने कहा-'जहांपनाह! अन्तर बहुत बड़ा है। आप जब मुझसे नाराज होते हैं तो अपनी सल्तनत से मुझे निकाल देते हैं, देश से मुझे निर्वासित कर देते हैं। किन्तु खुदा एक ऐसी हस्ती है जो किसी को अपने देश से नहीं निकाल सकती। खुदा यदि देश-निकाला दे तो कौन कहां जाये? जबकि हम यह मान लेते हैं कि ईश्वर की सत्ता सर्वव्यापी है। इस जगत् का एक कण भी ऐसा नहीं है जहां ईश्वर की सत्ता न हो और यदि देश-निकाला दे दे तो भला कहां जायें?' कृष्ण ने पांडवों से कहा-'मेरे राज्य से चले जाओ। युधिष्ठर आये और बोले-'प्रभो! आप यदि और कुछ आदेश देते तो वह हम सहर्ष मान्य कर लेते, किन्तु आपके राज्य से चले जाने की बात कैसे संभव 42 कर्मवाद Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकती है? आपका राज्य सर्वत्र व्याप्त है। आप हमें बताएं कि हम जायें कहां! हमें स्थान का निर्देश दे दें।' युधिष्ठिर ने बहुत अनुरोध किया। तब कृष्ण ने कहा-'दक्षिण में चले जाओ। पांडु मथुरा में जाकर बस जाओ।' स्थान का निर्देश किया। वे उत्तर से दक्षिण में आ गये। ___ यह तो संभव था। किन्तु राज्य से चले जाओ, यह कैसे संभव हो सकता था! वासुदेव कृष्ण का राज्य बहुत बड़ा था, सर्वत्र था। फिर आदमी जाये तो कहां जाये? ___ईश्वरीय सत्ता का भी बहुत बड़ा प्रश्न है। उसकी सत्ता में वह सब कुछ चलता रहे जो मानवीय सत्ता में चलता है तो सर्वशक्ति-सम्पन्नता का कथन अयथार्थ हो जाता है। इस प्रश्न का समाधान बहुत जटिल है। मैं यह नहीं कहता कि इस प्रश्न को समाहित करने का प्रयत्न नहीं किया गया। प्रयल किया गया। समाधान दिया गया। किन्तु वह समाधान भी असमाधानकारक बन गया। जो समाधान प्रश्न को समाहित करने चला था, उसने अनेक नये-नये प्रश्न खड़े कर दिये। वह वास्तव में समाधानकारक नहीं बना। प्रश्न बना का बना रह गया। डॉक्टर रोगी को स्वस्थ बनाने वाला है और वही यदि रोगी को और अधिक बीमार बनाता चला जाये, उस डॉक्टर को हम बहुत सम्मान नहीं दे सकते। मनुष्य को रोगी बनाने वाला यदि कोई विराट शक्ति-सम्पन्न अस्तित्व हो तो यह समझ में आने वाली बात नहीं है। जब कर्तृत्व की बात फल देने की बात से टकराती है तो नये चिंतन के लिए एक आयाम खुलता है। एक नया आयाम उद्घाटित होता है। ऐसा भी हो सकता है कि जहां कर्तृत्व भी दूसरे का न हो और फल देने की शक्ति भी दूसरे में न हो। दोनों स्वचालित हों। . हम शरीर की व्यवस्था पर ध्यान दें। हमारे शरीर में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं हैं। शरीर के कुछ हिस्से ऐसे हैं जो नाड़ी-संस्थान के द्वारा संचालित हैं। हमारी बहुत सारी क्रियाएं उन्हीं से संचालित हैं। मैं हाथ हिला रहा हूं। यह स्वाभाविक क्रिया नहीं है। यह स्वतः संचालित क्रिया नहीं है। किन्तु यह नाड़ियों की उत्तेजना से होने वाली क्रिया है। मैं श्वास ले रहा हूं। यह किसी के द्वारा नियंत्रित क्रिया नहीं है। यह स्वतः कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 43 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालित क्रिया है। हमारी अनेक क्रियाएं स्वतः संचालित होती हैं और अनेक क्रियाएं प्रेरणा-जनित होती हैं। दोनों प्रकार की क्रियाएं हमारे शरीर में हो रही हैं। हम भोजन करते हैं। भोजन करने के बाद हम उस क्रिया से निवृत्त हो जाते हैं। आगे की सारी क्रियाएं अपने आप होती हैं, स्वतः संचालित होती हैं। हमने खाना खाया। खाने के साथ उसका पचाने वाला रस स्वतः उसके साथ मिल जाता है। नीचे उतरा। पाचन हुआ। छना। रस की क्रिया बनी। रस बना। सारे शरीर में फैला। जो सार-सार था, वह फैला। रक्त बना। क्रियाएं संचालित हुईं। जो असार था, वह बड़ी आंत में गया। उत्सर्ग की क्रिया सम्पन्न हुई। ये सारी क्रियाएं अपने-आप होती चली गयीं। आपको पता ही नहीं चला। न आपने उसके लिए कोई प्रयत्न किया। फिर भी वे क्रियाएं संपन्न हो गयीं। क्या आप कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि अब भोजन को पचाना है, रस बनाना है, मांस बनाना है। नहीं सोचते, कोई प्रयत्न नहीं करते, फिर भी ये सारे कार्य संपन्न होते हैं। जहां जो होना होता है, वह स्वतः होता चला जाता है। जो शक्ति मिलनी है, वह मिल जाती है। जो ऊर्जा में बदलना है, वह ऊर्जा में बदल जाता है। इसी प्रकार हम क्रिया करते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। उस प्रतिक्रिया स्वरूप हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं। यह भी एक प्रकार का आहार है, आहारण है। हम आहार के अर्थ को समझें। उसे सीमित अर्थ में न लें। जो मंह में खाते हैं, वही आहार नहीं है। हमारे शरीर के किसी भी कण के द्वारा, हमारी शारीरिक संरचना के द्वारा जो भी पुद्गल आकृष्ट होते हैं, वह सब आहार है। कर्म-पुद्गलों का ग्रहण भी आहार है। हम उन्हें खींचते हैं, अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वे पुमल आकर हमारे साथ मिल जाते हैं, चिपक जाते हैं। चिपकने के बाद उनमें जो व्यवस्था होती है, वह स्वतः होती है। वह अपने आप होने वाली व्यवस्था है। उन गृहीत पुद्गलों का वर्गीकरण भी हो जाता है। उनका विभाजन भी हो जाता है। उनके स्वभाव का निर्माण भी हो जाता है, जैसे भोजन में खाये गये बहुत प्रकार के पदार्थों के स्वभाव का निर्णय होता है। शरीर को आवश्यकता है प्रोटीन की तो भोजन 44 कर्मवाद Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो प्रोटीन का भाग होता है वह प्रोटीन की पूर्ति कर देता है। चिकनाई की जरूरत होती है, वह स्निग्ध पदार्थों से पूरी हो जाती है। श्वेतक्षार . की जरूरत है वह श्वेतक्षार वाले द्रव्यों से पूरी हो जाती है। जिन तत्त्वों को विटामिनों की जरूरत होती है, वे विटामिन भोजन के माध्यम से पहुंचते हैं और अपना काम प्रारंभ कर देते हैं। बहुत बार अजीब-सा लगता है कि बीमारी है शरीर के किसी हिस्से में, पेट में दवा लेते हैं और वह बीमार हिस्सा स्वस्थ हो जाता है। अंगूठे में दर्द है तो वह अंगूठे में ही लाभ करेगी। वहां वह पहुंच जायेगी। छोटी-सी गोली दी। सिर में दर्द है, अंगूठे में दर्द है, पीठ में दर्द है, तो जहां दर्द है वहीं उस दवा की क्रिया होगी और वह बीमार अवयव स्वस्थ हो जायेगा। प्रश्न होता है कि वह दवा बीमार अवयव तक ही क्यों पहुंचती है? दूसरे अवयव तक क्यों नहीं पहुंचती? आंख में दर्द है तो दवा अंगूठे तक क्यों नहीं पहुंचती? समाधान है कि शरीर में स्वाभाविक व्यवस्था है। जिस अवयव में जिस तत्त्व की जहां कमी है, वह तत्त्व उसी दिशा में स्वतः आकृष्ट हो जायेगा। वह वहीं जायेगा। जिन सेलों में, शरीर के जिन अवयवों में प्रोटीन की कमी है, हम प्रोटीन का भोजन लेते हैं तो वह प्रोटीन उन्हीं सेलों, उन्हीं अवयवों की ओर आकृष्ट होगा। क्योंकि शरीर में आकर्षण की एक व्यवस्था है। हमारे शरीर में नहीं, सारे संसार में आकर्षण और विकर्षण की एक ऐसी व्यवस्था है कि अपनी-अपनी अनुकूलता, अपनी-अपनी सजातीयता के प्रति सब की गति होती है। सजातीय उसे टान लेता है। हमारे कर्म परमाणुओं की भी यही व्यवस्था है। जो परमाणु गृहीत होते हैं वे अपने-अपने सजातीय परमाणुओं के द्वारा खींच लिये जाते हैं और उसी दिशा में वे सक्रिय हो जाते हैं। वे अपना काम करने लग जाते हैं। उनमें फल की शक्ति भी हो जाती है। ये परमाणु इस प्रकार का फल देने में समर्थ हैं, फल देने की व्यवस्था होती है। आंख की ज्योति कम होती है, तब डॉक्टर कहता है कि विटामिन 'ए' का अधिक मात्रा में सेवन करो। यह बात स्पष्ट है कि विटामिन 'ए' में आंख की ज्योति को सहारा देने की क्षमता है। चर्म-रोग होता कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो डॉक्टर विटामिन 'ए' की बात नहीं कहता। वह कहता है-विटामिन 'डी' का सेवन करो। विटामिन 'डी' में यह शक्ति है कि वह चर्मरोगों का निवारण कर सकती हैं विटामिन 'ए' या 'डी' की परिणति का कोई नियामक या नियंता नहीं है। औषधि के सेवन के पश्चात् मनचाहा परिणाम लाना डॉक्टर के हाथ की बात नहीं है। वह परिणाम स्वतः उद्भूत होता है। विश्व के प्रत्येक पदार्थ में, सब परमाणुओं में अपने-अपने प्रकार की एक विशेष सत्ता होती है। जो कर्म परमाणु हमारे द्वारा आकृष्ट होते हैं, उनमें उसी समय एक विशेष प्रकार की क्षमता निर्मित हो जाती है। उस क्षमता का नाम है-रसानुभाव, यानी अनुभाग बन्ध। इसका अर्थ है-फल देने की क्षमता, फल शक्ति। कर्म के सभी परमाणुओं में फलदान की समान क्षमता निर्मित नहीं होती। वह विभिन्न प्रकार की होती है। हम जानते हैं कि विश्व के सभी पदार्थों में एक ही प्रकार की क्षमता नहीं होती। होम्योपैथिक दवाएं अलग-अलग क्षमताओं वाली होती हैं। कुछ हाई पोटेन्सी की होती हैं और कुछ लो पोटेन्सी की। कुछ औषधियां एक लाख पोटेन्सी की होती हैं और कुछ केवल तीस या उससे भी कम पोटेन्सी की। क्षमता के निर्माण में कितना अन्तर होता है। ___गाय के दूध में भी चिकनाई होती है, मैंस के दूध में भी चिकनाई है, तिल्ली और सरसों के तेल में भी चिकनाई है, किन्तु चिकनाई की मात्रा में बहुत अन्तर है। सबमें समान चिकनाई नहीं है। यह शक्ति और मात्रा का जो तारतम्य होता है वह पदार्थ की विशेष संरचना के आधार पर होता है। वैसे ही कर्मों की जो फलदान की शक्ति है, उसमें भी तारतम्य होता है और वह तारतम्य उन कर्म-परमाणुओं की संरचना के कारण होता है। यह संरचना हमारी राग-द्वेष की तीव्रता और मंदता के आधार पर होती है। जिस क्षण में हम कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करते हैं, उस क्षण में यदि राग-द्वेष तीव्र होता है तो उन कर्म-पुद्गलों की फलदान-शक्ति भी तीव्र हो जाती है और यदि राग-द्वेष मंद होता है तो फलदान-शक्ति 46 कर्मवाद Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मंद हो जाती है। यह तीव्रता या मन्दता, यह तारतम्य-यह सब हमारे कषायों, आवेगों और राग-द्वेष के आधार पर होता है। इसलिए साधना का एक बड़ा सूत्र है-जो करो, अनासक्त भाव से करो। आसक्ति को तीव्र मत होने दो। इसका तात्पर्य यह है कि आसक्ति की जितनी तीव्रता होगी, कर्म का फल उतना ही तीव्र होगा। आसक्ति की जितनी मन्दता होगी, कर्म का फल उतना ही मन्द होगा। अनुभव की तीव्रता और मन्दता आसक्ति की तीव्रता और मन्दता पर आधृत है। ___ यह सच है कि साधना करने वाला भी प्रवृत्ति को सर्वथा रोक नहीं सकता और साधना करने वाले के समक्ष प्रवृत्ति को रोकने का प्रश्न नहीं है। साधना करने वाले के लिए खाना भी जरूरी है, श्वास लेना भी जरूरी है. बोलना भी जरूरी है, सोचना भी जरूरी है। जीवन-संचालन की जो क्रियाएं, जो प्रवृत्तियां हैं, वे सारी जरूरी हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता। कोई मौन करता है तो वह आधा घंटा का, दो घंटे का, दस घंटे का, एक दिन का, दस दिन या एक महीने तक का मौन कर सकता है। बारह वर्ष भी मौन रह सकता है। किन्तु आखिर बोलना ही पड़ेगा। बिना बोले काम कैसे चलेगा? बोलने की एक स्वाभाविक व्यवस्था है। उसे तोड़ा नहीं जा सकता। चलने की भी एक व्यवस्था है। वह भी स्वाभाविक है। जीवनभर एक स्थान पर बैठा नहीं रहा जा सकता। ध्यानकाल में एक स्थान पर बैठ सकते हैं, किन्तु पूरे दिन तक तो ध्यान नहीं किया जा सकता। कायोत्सर्ग-काल में कुछ समय तक स्थिर रहा जा सकता है। किन्तु जीवन से मृत्यु-पर्यन्त ऐसा नहीं हो सकता। प्रवृत्ति को छोड़ा नहीं जा सकता। चिन्तन भी एक प्रवृत्ति है। उसे भी रोका नहीं जा सकता। यह ठीक है कि ध्यानकाल में हम निर्विकल्प रह सकते हैं, निर्विकार रह सकते हैं, किन्तु यह सदा-सर्वदा के लिए नहीं हो सकता। क्या चिन्तन के बिना काम चल सकता है? चल नहीं सकता। चिन्तन जरूरी है, गति जरूरी है, क्रिया जरूरी है। शरीर की, मन की और वाणी की प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता। . जब हम कर्म की बात कर रहे हैं तो हमें सूक्ष्म जगत् तक पहुंचना है। प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों के पीछे एक तत्त्व है। उस तक पहुंचने कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 47 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का हम अभ्यास करें। यही वास्तव में साधना है, यही उसकी सार्थकता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति आसक्ति और अनासक्ति से जुड़ी होती है। हम यह अभ्यास करें कि प्रवृत्ति के प्रति आसक्ति न हो या कम हो। प्रवृत्ति हो किन्तु उसके पीछे आसक्ति का, राग-द्वेष का भाव कम हो। प्रवृत्ति के साथ समभाव की धारा जुड़ जाये। फिर चाहे आप प्रवृत्ति करें किन्तु उस प्रवृत्ति के पीछे एक प्रहरी खड़ा मिलेगा और वह आपको सतर्क करता रहेगा। जैसे ही आपने प्रवृत्ति में दोष लाना प्रारम्भ किया, तत्काल कानों में एक ध्वनि गूंज उठेगी-समभाव, तटस्थता, सामायिक, समता। तब आपकी प्रवृत्ति में आने वाला जो दोष है वह अपने आप | नीचे उतर जायेगा, दूर हट जायेगा। प्रवृत्ति के दोषों का प्रक्षालन करने के लिए, उसके दोषों का संशोधन और परिमार्जन करने के लिए हमें जिस बात का अभ्यास करना है वह है समभाव का अभ्यास, समता का अभ्यास, सामायिक का अभ्यास। मनोविज्ञान की भाषा में इसे मार्गान्तरीकरण और उदात्तीकरण कहा गया है।, . प्रवृत्ति का शमन होता है, विलयन होता है, मार्गान्तरीकरण होता है, उदारीकरण होता है। ये चार बातें हैं। पहली बात है शमन की। जो प्रवृत्ति समाज-सम्मत नहीं है, व्यक्ति उसे करना चाहता है, किन्तु सामाजिक प्राणी उस प्रवृत्ति को नहीं करता, उसका शमन करता है। वह अपनी इच्छा को रोक देता है। हर इच्छा की पूर्ति नहीं होती। कोई भी व्यक्ति अपनी प्रत्येक इच्छा पूरी नहीं कर सकता। कुछ पूरी होती हैं, कुछ अधूरी रह जाती हैं, कुछ को छोड़ देना होता है। रास्ते चलते सुन्दर मकान दिखायी दिया। इच्छा हुई कि उस पर कब्जा कर लूं। कब्जा कैसे कर सकता है? नहीं कर सकता। क्योंकि सामाजिक व्यवस्था उसे वैसा करने नहीं देती। मन ललचाया कि इस आलीशान मकान में रहूं, इस पर अधिकार कर लूं, पर वैसा हो नहीं सका। दूसरा है-प्रवृत्ति का विलयन। विलयन भी दबाने की प्रवृत्ति है। कुछ प्रवृत्तियां ऐसी होती हैं, जो मन में उभरती हैं, किन्तु एक दूसरी प्रवृत्ति की बात सामने आ जाती है, तब वह छूट जाती है। एक प्रवृत्ति दूसरे में विलीन हो जाती है, उसका विलयन हो जाता है। 48 कर्मवाद Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा है-प्रवृत्ति का मार्गान्तरीकरण। इसका अर्थ है-प्रवृत्ति का रास्ता बदल देना, दिशा बदल लेना। फ्रायड की भाषा में मूल प्रवृत्ति है-कामशक्ति। फ्रायद के समूचे मनोविज्ञान में केन्द्रीय शक्ति है-कामशक्ति। उनका प्रतिपादन है कि इनका मार्गान्तरीकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति किसी सुन्दर स्त्री को देखता है, उसके प्रति आकृष्ट होता है, किन्तु वह प्राप्त नहीं होती। इच्छा और अधिक तीव्र होती है, फिर भी वह प्राप्त नहीं होती। तब वह अपने मन की दिशा बदल देता है। कोई कलाकार बन जाता है, कोई चित्रकार बन जाता है, कोई लेखक बन जाता है, कोई कवि बन जाता है। कोई कुछ और कोई कुछ बन जाता है। मानसिक विश्लेषण के अनुसार एक निष्कर्ष निकाला गया कि बहुत बड़े-बड़े कलाकार, बड़े-बड़े, कवि जो हुए हैं वे सब मार्गान्तरीकरण के कारण हुए हैं। ___ चौथा है-प्रवृत्ति का उदात्तीकरण। कर्मशास्त्र की भाषा में उसे क्षयोपशम कह सकते हैं। यह क्षयोपशम की क्रिया है। जो मोह है, जो आसक्ति है, जो राग-द्वेष है, उनके दोषों का परिशोधन करने की यह प्रक्रिया है, परिमार्जन करने की प्रक्रिया है। इसलिए जैन आचार्यों ने दो शब्दों का प्रयोग किया-प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग। राग अच्छा नहीं है, बुरा है। किन्तु धर्म के प्रति राग, गुरु के प्रति राग, इष्टदेव के प्रति राग-यह सब प्रशस्त राग है। जैन आगमों में एक बहु-व्यवहृत शब्द है-'धम्माणुरागरत्ते'-धर्मानुरागरत-धर्म के अनुराग में रत। यह सब प्रशस्त राग हैं। इसका तात्पर्य है कि राग के जो दोष थे, जो तीव्रता थी, उसका परिशोधन कर दिया। आसक्ति की मात्रा को कम कर दिया। मात्रा इतनी कम कर दी कि वह राग दोषमुक्त नहीं रहा। राग का उदात्तीकरण हो गया। यह उदात्तीकरण की प्रक्रिया क्षयोपशम की प्रक्रिया है, जिसमें कर्मों के कुछ दोषों को सर्वथा क्षीण कर दिया गया और कुछ दोषों का उपशमन कर दिया गया। इसमें एक प्रकार की शुद्धता जैसी स्थिति निर्मित हो गयी। यह उदात्तीकरण है, राग का संशोधन है, आसक्ति का संशोधन है। दमन की बात साधना की बात नहीं। इच्छाओं का दमन ही करना ... कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 46 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो तो फिर साधना की बात व्यर्थ है। उसके लिए साधना करने की आवश्यकता नहीं है। दमन हर किसी व्यक्ति को करना ही पड़ता है। कोई भी व्यक्ति अपनी सारी आकांक्षाओं, सारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता। वह नियंत्रित है सामाजिक बंधनों से। दंड का क्षेत्र, व्यवस्था का क्षेत्र और राजनीति का क्षेत्र-यह सब दमन का क्षेत्र है। सर्वत्र बन्धन-ही-बन्धन है। समाज का बंधन, परिवार का बंधन, राज्य का बन्धन। सर्वत्र घेरे-ही-घेरे हैं। दमन करने के अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है। साधना का प्रयोजन है-मार्गान्तरीकरण, उदात्तीकरण / साधना का मार्ग दमन का मार्ग नहीं है। वह है उदात्तीकरण का मार्ग। या तो हम उदात्तीकरण करें या मार्ग बदल दें। आंख का काम है-देखना। आंख रूप को देखती है। रूप के प्रति या तो राग उत्पन्न होगा या द्वेष। दो ही बातें होंगी-या तो प्रीत्यात्मक अनुभूति होगी या अप्रीत्यात्मक अनुभूति होगी। तो फिर हम क्या करें-यह प्रश्न होता है। समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि हम मार्गान्तरीकरण करें, दिशा बदल दें। बाहर को न देखें, भीतर की ओर देखने का प्रयत्न करें। प्रेक्षा करें, प्रकंपनों की प्रेक्षा करें। प्रेक्षा मार्गान्तरीकरण का उपाय है। मार्ग इस प्रकार बदलें कि जो आकर्षण बाहर की ओर होता था वह आकर्षण भीतर की ओर हो जाये। उत्सुकता बदल जाये। उत्सुकता रहती है बाहर को देखने की। घटना घटित होती है, व्यक्ति उत्सुक हो जाता है। साधना की सबसे बड़ी बात है-आकर्षण की धारा को बदल देना। जब बाहर में अनुत्सुकता होती है तब भीतर का आकर्षण बढ़ता है, उत्सुकता बढ़ती है। पतंजलि ने इसे 'प्रत्याहार' कहा है। प्रत्याहार मार्गान्तरीकरण का उपाय है। इन्द्रियों की दिशाओं को बदलो। मन की दिशाओं को बदलो। वे बहिर्गामी न रहें, अन्तर्मुखी बन जाएं। . साधना का मुख्य सूत्र है-मार्गान्तरीकरण। गौतम ने पूछा-भगवन्! धर्म-श्रद्धा से क्या प्राप्त होता है? भगवन् ने कहा-गौतम! धर्म-श्रद्धा से अनुत्सुक्ता पैदा होती है। जब धर्म के प्रति श्रद्धा घनीभूत होती है, आकर्षण होता है, उत्सुकता होती है तब अनुत्सुकता पैदा होती है। जो उत्सुकता बाहर की ओर 50 कर्मवाद Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौड़ती थी, बाहर को सुनने, बाहर को देखने, बाहर को चखने, सारी-की-सारी प्रवृत्ति. बहिर्गामी हो रही थी, जैसे ही साधना का विकास हुआ, साधना के मार्ग में आये, दिशा बदल जाती है, उत्सुकता समाप्त हो जाती है। यह अनुत्सुकता भीतर की उत्सुकता बन जाती है। जब भीतर उत्सुकता जागती है तब बाहर की उत्सुकता समाप्त हो जाती है। यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया साधना के विकास की प्रक्रिया है। उदात्तीकरण क्षयोपशम की प्रक्रिया है। हम कर्मों का शोधन करें। शोधन कर प्रवृत्ति के साथ होने वाले दोष को मिटा दें। प्रवृत्ति के साथ राग और द्वेष की जो धारा जुड़ रही है, और वह राग-द्वेष जो निरंतर हमारे कर्मों में फल देने की क्षमता पैदा कर रहा है, जो हमारे विचारों को प्रभावित कर रहा है, उसे हम क्षीण कर दें। उस धारा को मोड़ दें। उसे उपशांत कर दें। इस उदात्तीकरण की प्रक्रिया के द्वारा हम उस बिन्दु पर पहुंच जाएं, जहां प्रवृत्ति तो है किन्तु उसके सारे दोष समाप्त हैं। जो दोष उसके साथ जुड़ते थे, वह धारा समाप्त है। यह है साधना की सार्थकता। कर्मों में जो फलदान की शक्ति है उसे कम करने के लिए साधना की जाती है। उसके अभ्यास से एक मार्ग मिल जाता है। वह साधना की समाप्ति नहीं है, प्रारंभ है। इस यात्रा का प्रारंभ करने वाला जो भी प्रवृत्ति करता है वह पहले जैसी प्रवृत्ति नहीं रहती। अब उस प्रवृत्ति के साथ आसक्ति का, राग-द्वेष का वह प्रवाह नहीं जुड़ता जो पहले जुड़ता था। या तो उसका मार्ग बदल जायेगा यह वह सर्वथा निरुद्ध हो जायेगा। यदि हम इस तथ्य को ठीक समझ लें तो कर्म के फलदान की शक्ति को भी समझ लेंगे, साधना की सार्थकता को समझ लेंगे। कर्म में जो फलदान की शक्ति है, वह स्वाभाविक है, स्वयं की व्यवस्थागत है। इसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। किसी व्यवस्थापक की अपेक्षा नहीं है। यह स्वतः संचालित व्यवस्था है। इसमें कोई विचार की आवश्यकता नहीं है कि फल कैसे देना है? एक आदमी घृणा करता है, ईर्ष्या करता है, असहिष्णुता का बर्ताव करता है। उसको क्या फल देना है, किसी को सोचने की जरूरत नहीं कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 2 51 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आज का मनोविज्ञान कहता है कि कोई बुरी बात सोचता है तो उसके अल्सर हो जाता है। ईर्ष्या, घृणा आदि से अनेक बीमारियां होती हैं। कैंसर भी हो जाता है। जो मानसिक बीमारियां हैं, उनका सम्बन्ध हमारे स्नायु-संस्थान से है। वे पैदा हो जाती हैं। उनका सम्बन्ध हमारी मानसिक क्रिया से है। कोई व्यवस्थापक नहीं है, व्यवस्था करने वाला नहीं है। जैसे ही एक हुआ, दूसरा हो जायेगा। दोनों का सम्बन्ध है। फल देने के लिए किसी नियंता की आवश्यकता नहीं। उसमें अपने आप में क्षमता है। हम उस क्षमता को समझें। हम आसक्ति के द्वारा, राग-द्वेष के द्वारा, कषायों के द्वारा उन कर्म-परमाणुओं में ऐसी संरचना न होने दें, ऐसी फलशक्ति उत्पन्न न होने दें जिसका परिणाम बुरा हो, जो हमें भी भोगना पड़े। 52 कर्मवाद Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म का बन्ध मन दो प्रकार का है-वेतन मन और अवचेतन मन। चेतन मन जो कुछ करता है वह सब वर्तमान का ही नहीं होता किन्तु उसमें अवचेतन मन का हिस्सा होता है। उसका प्रभाव होता है। यह स्वीकृति उपलब्ध तथ्यों की स्वीकृति है। यदि सूक्ष्म में जाएं तो कर्मशास्त्र की वह स्वीकृति भी प्राप्त हो सकती है कि मनुष्य जो काम करता है वह केवल वर्तमान परिवेश, वर्तमान परिस्थिति से प्रभावित होकर ही नहीं करता, प्रभाव का जो हेतु है वह बहुत सूक्ष्म में और बहुत दूर तक चला जाता है। वह हेतु है कर्भ-शरीर या पूर्व-अर्जित कर्मसमूह। उससे प्रभावित होकर ही मनुष्य काम करता है। दबी हुई इच्छाएं, दबी हुई आकांक्षाएं अवचेतन मन में चली जाती हैं और जब वे जागृत होती हैं तो चेतन मन प्रभावित होकर काम करने लग जाता है। इस मनोविज्ञान की भाषा को हम कर्मशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार बदल दें कि पूर्व-अर्जित कर्म जब उदय में आते हैं, अपना फल देना शुरू करते हैं तब स्थूल मन उनसे प्रभावित होता है और वह उनके अनुसार ही व्यवहार और आचरण करने लग जाता है। दो काल हैं-एक क्रिया का काल, प्रवृत्ति का काल और दूसरा कर्म-बन्ध का काल। जब कोई प्रवृत्ति होती है, उसी क्षण कर्म का बंध हो जाता है। प्रवृत्ति का फल मिल जाता है। प्रवृत्ति का फल है कर्मों का अर्जन। वह तत्काल प्राप्त हो जाता है। क्रिया के साथ-साथ फल होता है। क्योंकि प्रत्येक क्रिया परिणाम को साथ लिये चलती है। परिणाम पीछे नहीं होता, तत्काल होता है। क्रिया और परिणाम में इतना अंतराल कर्म का बन्ध 53 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हो सकता कि आज हम क्रिया करें और उसका परिणाम सौ वर्ष बाद या हजार वर्ष बाद हो। एक आदमी धन कमाने की प्रवृत्ति करता है। उसका परिणाम-धन की प्राप्ति या अप्राप्ति-तत्काल हो जाता है। धन का अर्जन हो गया, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका पूरा उपभोग भी तत्काल हो जाता है। परिणाम तत्काल मिल जाता है किंतु परिणाम का उपभोग लंबे समय तक होता रहता है। अर्जन उसी क्षण होता है, उपभोग होता रहता है। कर्म का बंध, कर्म परमाणुओं का अर्जन क्रिया का परिणाम है। वह अर्जन तत्काल हो जाता है। यह कभी नहीं होता कि क्रिया अभी हो रही है और कर्म का बंध कभी बाद में होगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्म का बंध तत्काल हो जाता है। उसी क्षण में हो जाता है। किन्तु जो अर्जित हो गया, जो संगृहीत हो गया, वह कब तक साथ रहेगा-इसका स्वतंत्र नियम है। यह नहीं होता कि जिस क्षण में किया, उसी क्षण में वह आया और अपना फल देखकर चला गया। ऐसा नहीं होता। अर्जन का काल क्षण-भर का है और उपभोग का काल बहुत लंबा है। प्राणी दीर्घ काल तक अर्जित कर्मों का उपभोग करता रहता है। प्राणी ने जो अर्जित किया, जिन कर्म-परमाणुओं का संचय किया, वे कर्म-परमाणु जिस क्षण में संचित होते हैं उसी क्षण में फल देने में समर्थ नहीं होते। प्रवृत्ति या आस्रव का मुख्य फल होता है कर्मों का अर्जन। वह प्रवृत्ति-काल में ही हो जाता है। किंतु जो अर्जित कर्म-पुद्गल हैं वे कब सक्रिय होंगे, कब तक सक्रिय रहेंगे, इसका नियम अर्जन के नियम से भिन्न होता है। तत्काल सक्रियता नहीं होती। आज बच्चा जन्मा। वह कानून की दृष्टि से सम्पत्ति का अधिकारी तो हो गया किंतु उसे पूरा अधिकार तब होगा जब वह नाबालिक अवस्था को पार कर जायेगा, सवयस्क बन जायेगा। जब तक वह सवयस्क नहीं हो जाता, तब तक उस संपत्ति का संरक्षण कोई गार्जियन करेगा। बच्चे को कार्यकारी स्वामित्व प्राप्त नहीं होगा। उसे जन्मजात स्वामित्व प्राप्त है, किंतु कार्यकारी स्वामित्व वयस्क होने पर ही मिलेगा। ठीक यही नियम कर्म-जगत् में लागू होता है। कर्म का जो बंध 54 कर्मवाद Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है, कर्म-परमाणुओं का जो अर्जन हुआ है, वह आज ही कार्यकारी नहीं होगा। कुछ काल तक वे कर्म-परमाणु सत्ता में रहेंगे, उदय में नहीं आयेंगे। वह सत्ताकाल अबाधाकाल कहलाता है। इसका तात्पर्य है कि वे कर्म-परमाणु अस्तित्व में हैं किंतु अभी कार्यकारी नहीं हैं। वे कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। अपना परिणाम प्रदर्शित करने की क्षमता उनमें प्रकट नहीं हुई है। वे अस्तित्व में हैं, किंतु वे अव्यक्त रूप में पड़े हुए हैं। बीज बोया गया। वह अस्तित्व में है किन्तु वह अभिव्यक्त नहीं हुआ, अंकुर के रूप में प्रकट नहीं हुआ। अंकुर के फूटने में थोड़ा समय लगेगा। अंकुर फूटेगा तब वह पौधा बनेगा, आगे, बढ़ेगा, ऊपर आयेगा। बीज भूमि में बोया गया, यह बंध का काल है। बंध के बाद होता है-सत्ता का काल। जब तक कर्म सत्ताकाल में रहेगा, तब तक वह कार्यकारी नहीं होगा। वह अपना परिणाम नहीं दे सकेगा। सब कर्मों का अपना-अपना अस्तित्व-काल होता है। जब यह अस्तित्व-काल या सत्ताकाल या अबाधाकाल पूरा होता है तब कर्म विपाक की स्थिति में आता है और अपना फल देने लगता है। फल-दान कब तक होता है, इसकी भी एक मर्यादा है, सीमा है; उस मर्यादा को कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जाता है-स्थितिकाल। यह कर्म-बंध की चौथी अवस्था या व्यवस्था है। - पहली अवस्था है कर्म-परमाणुओं के आने की, उनके संग्रह की। इसे 'प्रदेश बंध' कहा जाता है। दूसरी अवस्था है कर्म-परमाणुओं के स्वभाव-निर्माण की। कौन-सा कर्म किस स्वभाव का होगा, इस अवस्था को 'प्रकृति-बंध' कहा जाता है। - तीसरी अवस्था है-कर्म-परमाणुओं से रस-शक्ति के निर्माण की। कौन-से कर्म में कितनी रस-शक्ति है, इस अवस्था को 'अनुभाग बंध' कहा जाता है। ____ चौथी अवस्था है-कर्म-परमाणुओं के स्थिति-काल की। कौन-सा कर्म आत्मा के साथ कितने समय तक रह पायेगा, इस अवस्था को 'स्थिति-बंध' कहा जाता है। कर्म का बन्ध 55 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये चारों अवस्थाएं कर्म-बंध के साथ ही निष्पन्न हो जाती हैं। कर्म के स्थितिकाल के अनुसार उसका सत्ताकाल होता है। जब वह पूरा हो जाता है तब एक-एक निषेक का, परमाणु-पुंज का प्रकटीकरण होने लगता है और प्राणी फल भोगने लगता है। जब सारे परमाणुज समाप्त हो जायेंगे, कर्म-स्थिति समाप्त हो जायेगी तब कर्म अपना फल प्रदर्शित कर शेष हो जायेंगे, नष्ट हो जायेंगे, आत्मा से विलय हो जायेंगे। इसे कर्म-क्षय कहा जाता है। ये चार अवस्थाएं हैं। इनके घटक हैं-राग और द्वेष। हमारी रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति के द्वारा ये घटित होती हैं। हम अपनी चंचलता के द्वारा कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करते हैं। कषाय के द्वारा उन कर्म-परमाणुओं को टिकाकर रखते हैं। आकृष्ट करना और टिकाकर . रखना-ये दो बातें हैं। आकर्षण होता है मन, वचन और शरीर में चंचलता के द्वारा और उनका टिकाव होता है कषाय के द्वारा। वे कषाय के द्वारा बांधकर रखे जाते हैं। कषाय जितना तीव्र होगा, उतने ही दीर्घकाल तक कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपके रहेंगे। कर्म-परमाणुओं को चिपकाये रखना कषाय का काम है और उन्हें आकृष्ट करना चंचलता का काम है। क्या यह हमारा साधना का सूत्र नहीं बन सकता? क्या यह साधना का आधार नहीं बन सकता? यह साधना का सूत्र बन सकता है, आधार बन सकता है। हमारी साधना के दो आधार-बिंदु हैं-चंचलता को रोकना और कषाय को कम करना, राग-द्वेष को कम करना। तटस्थ होना, समभाव में रहना, स्थिर रहना-ये ही साधना के दो सूत्र हैं। समूचे कर्मशास्त्र को साधना के संदर्भ में समझें तो दो बातें बहुत ही स्पष्ट ही हो जाती हैं कि चंचलता के द्वारा कर्म-परमाणु खींचे जाते हैं और कषाय के द्वारा वे टिके रहते हैं और अपना फल देते हैं। फल की तीव्रता और मंदता कषाय के आधार पर होती है। दीर्घकाल की स्थिति और अल्पकाल की स्थिति कषाय के आधार पर होती है। स्थिति और फलदान की शक्ति-ये दोनों कषाय पर निर्भर हैं। कषाय ही कर्म-स्थिति को 56 कर्मवाद Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटता-बढ़ाता है और कषाय ही फलदान की शक्ति में तीव्रता या मंदता लाता है। कर्म का आकर्षण केवल चंचलता के आधार पर होता है। __कर्म को रोकना है तो हमें उसी क्रम से चलना पड़ेगा कि पहले चंचलता कम होती चली जाये, स्थिरता की मात्रा बढ़ती चली जाये। कायोत्सर्ग इसीलिए किया जाता है कि शरीर की चंचलता कम हो, समाप्त हो। हम श्वास की प्रेक्षा करते हैं, श्वास को मंद करते हैं, श्वास को सूक्ष्म करते हैं, इसीलिए कि चंचलता कम हो जाये। काया की चंचलता कम हो। श्वास काया का ही एक हिस्सा है। वह शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर की चंचलता को कम करने के लिए श्वास का संयम करते हैं। मन को स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं. निर्विचार और निर्विकल्पना की साधना करते हैं कि चंचलता कम हो। मौन करते हैं ताकि वाणी की चंचलता कम हो। जब वाणी की चंचलता कम होती है, मन की चचंलता कम होती है और शरीर की चंचलता कम होती है तो कर्म-परमाणुओं का आना कम हो जाता है। - दूसरी बात है-काया की जो थोड़ी-बहुत प्रवृत्ति शेष रहती है, वचन की अल्पमात्रा में प्रवृत्ति शेष रहती है औन मन की भी यत्किंचित् प्रवृत्ति रहती है, उसके साथ भी आसक्ति न जुड़े, राग-द्वेष का भाव न जुड़े। तटस्थता का विकास हो, समता का विकास हो ताकि अवशिष्ट चंचलता या प्रवृत्ति के द्वारा जो भी कर्म-परमाणु आकृष्ट हों वे लम्बे समय तक हमारे साथ न टिक सकें और अपना तीव्र अनुभव, तीव्र प्रभाव हमारे ऊपर न डाल सकें। इससे साधना का कोई भी आयाम शेष नहीं रहता। समूची साधना इसमें समा जाती है। साधना का सार यही है-चंचलता को रोकना और समभाव में रहना। साधना की समूची धारा इन दो तटों के बीच बहती है। ये दो ही तट हैं साधना के। कोई भी साधना की ऐसी धारा नहीं है जो इन दो तटों को तोड़कर, इन दो तटों का अतिक्रम कर प्रवाहित होती हो। यदि कोई ऐसी धारा है तो वह मोक्ष की, स्वतन्त्रता की साधना नहीं है। और कुछ साधना हो सकती है। वह वीतरागता की साधना नहीं है, और कुछ हो सकती है। वैसे तो प्रत्येक प्रवृत्ति साधना है। कोई भी प्रवृत्ति साधना के बिना नहीं होती। __कर्म का बन्ध 57 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक प्रवृत्ति को निष्पन्न करने के लिए साधना अपेक्षित होती है। कोई भी कार्य साधना के बिना नहीं होता। कोई भी कार्य साध्य के बिना नहीं होता। प्रत्येक प्रवृत्ति में साध्य, साधन और साधना-तीनों होते हैं। आप कोई भी प्रवृत्ति करें, उसका साध्य होगा कि आप उसको क्यों करना चाहते हैं। उसका साधन होगा कि आप किन-किन साधनों से उसे निष्पन्न करना चाहते हैं। उसकी साधना भी होगी कि आपको उसकी निष्पत्ति में कैसे तपना-खपना होगा। __ हम जिस संदर्भ में साधना की चर्चा कर रहे हैं, वह अन्यान्य साधनाओं से कुछ भिन्न है। हमारी समूची साधना की धारा दो तटों के बीच में ही बहे। एक तट है-स्थिरता का और दूसरा तट है-समता का, वीतरागता का, अकषाय भाव का, राग-द्वेष की न्यूनता का। इन दो तटों के बीच साधना की धारा बहे, यही काम्य है। फिर चाहे हम कोई भी प्रवृत्ति करें या निवृत्ति करें, काम करें या न करें, बोलें या न बोलें, सोचें या न सोचे, खाएं या न खाएं। हम कुछ भी करें, उन दोनों तटबंधों को इतना मजबूत बनाएं रखें कि उनमें कहीं दरार न होने पाये, छेद न होने पाये, और पानी इधर-इधर छितरे बिना तटबंधों के बीच में बहता रहे। प्रश्न होता है कि कर्म के आकर्षण की प्रक्रिया और संश्लेष की प्रक्रिया के पीछे हेतु क्या है? ये दोनों प्रवृत्तियां दो आस्रवों के द्वारा होती हैं। एक आस्रव का नाम है-योग और दूसरे आस्रव का नाम है-कषाय। योग आस्रव और कषाय आस्रव-ये दो आस्रव हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आकर्षण और कर्मों का संश्लेष होता है। चंचलता स्पष्ट है, कषाय उतना स्पष्ट नहीं है। चंचलता स्पष्ट दीखती है, कषाय भीतर छिपा रहता है। वह दिखाई नहीं देता। हमें गूढ़ में जाना होगा, रहस्य में जाना होगा। हमें कहीं-कहीं रहस्यवादी भी बनना होगा और जो छिपा हुआ है, उसके तल तक पहुंचना होगा। मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं१. अदस् (Id) मन। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अधिशास्ता (Super Ego) मन। पहला विभाग है 'अदस्' मन। इस विभाग में आकांक्षाएं पैदा होती हैं। जितनी प्रवृत्त्यात्मक आकांक्षाएं और इच्छाएं हैं, वे सब मन में पैदा होती हैं। इसमें अचेतन का भाग अधिक है, चेतन का भाग कम। दूसरा विभाग है 'अहं' मन। समाज-व्यवस्था से जो नियंत्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएं यहां नियंत्रित हो जाती हैं, और वे कुछ परिमार्जित हो जाती हैं। उन पर अंकुश-जैसा लग जाता है। मन में जो आकांक्षा या इच्छा पैदा हुई, 'अहं मन' उसे क्रियान्वित नहीं करता। तीसरा विभाग है 'अधिशास्ता' मन। यह अहं पर भी अंकुश रखता है और उसे नियंत्रित भी करता है। - चंचलता अपने आप नहीं होती। चंचलता के पीछे कोई-न-कोई आकांक्षा होती है। हम अपने आप नहीं बोलते। बोलने की जरूरत होती है, आकांक्षा उत्पन्न होती है, कोई विकल्प पैदा होता है, तब हम बोलते हैं। मैं कई बार मौन करने के विषय में सोचता हूं। यह देखकर मुझे अजीब-सा लगता है कि आदमी मौन करता है और प्रवृत्ति इतनी करता है कि शायद बोलने वाला भी नहीं करता या बोलते हुए भी नहीं करता। बड़ा विचित्र लगता है। वाणी का मौन है, किन्तु संकेतों से इतनी प्रवृत्ति कर देना कि शायद बोलने वाला भी न करे। यह मौन नहीं है। मौन का मतलब केवल नहीं बोलना ही नहीं है। उसका मतलब है कि बोलने की अपेक्षा कम हो जाये। जिससे हमें बोलने की प्रेरणा मिलती है, हम बोलने के लिए बाध्य होते हैं, उन अपेक्षाओं का कम हो जाना मौन है, न कि वाणी का प्रयोग बंद कर समूचे शरीर को हिला देना, संकेतों से प्रवृति करना मौन है। ... कुछ लोग मौंन भी कर लेते हैं और 'ऊ-ऊं' आदि अव्यक्त ध्वनि से अपना काम भी निकाल लेते हैं। यह कैसा मौन? ___आकांक्षा का कम होना, प्रयोजन का कम होना, इच्छाओं का कम होना, अपेक्षाओं का कम होना चंचलता का अपने आप कम होना है। चंचलता अपने आप नहीं होती। घूमने वाली चीज अपने आप नहीं घूमती। उसे घुमाने वाला दूसरा कोई-न-कोई होता है। चक्का घूमता है, चाहे कर्म का बन्ध 56 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवा से, चाहे बिजली से और चाहे और किसी साधन से। वह अपने आप नहीं घूमता, किसी प्रेरणा से घूमता है। चंचलता अपने आप नहीं होती। चंचलता की तह में कुछ और होता है। ___पारिभाषिक शब्दावली में चंचलता को योग कहा जाता है। यह योग आस्रव है। योग आस्रव अपने आप प्रवृत्त नहीं होता, उसके पीछे कोई अपेक्षा होती है। वह अपेक्षा है-अविरति। अविरति अर्थात् छिपी हुई चाह। वह छिपी हुई ज्वाला है, आग है। आग भभक रही है। चाह है। सुख को पाने की चाह और दुःख को मिटाने की चाह। प्रिय को पाने की चाह और अप्रिय को मिटाने की चाह। अनुकूल को प्राप्त करने की चाह और प्रतिकूल को समाप्त करने की चाह। सुख-सुविधा को पाने की चाह और कष्ट को मिटाने की चाह। यह जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है, इसे मनोविज्ञान की भाषा में 'अदस् मन' कहा गया है। कर्मशास्त्र की भाषा में यह अविरति आस्रव है। अविरति का अर्थ है-विरति का अभाव। अभी तक चाह मिटी नहीं है, प्यास बुझी नहीं है, अतृप्ति है। कंठ अभी तक सूखा-ही-सूखा है। कितना ही पानी पी लिया, पर अभी तक कंठ सूखे हैं। प्यास बुझी नहीं। सारे संसार का पानी पी लिया, पर प्यास बुझी नहीं। यह अमिट चाह। अमिट चाह का जो स्रोत. है, उसे अविरति आस्रव कहा गया है। इसकी मात्रा जितनी अधिक होगी, चंचलता अधिक बढ़ेगी। चंचलता यदि स्वाभाविक होती तो सब प्राणियों में समान होती। कुछ लोग बरामदे में बैठे हैं। सड़क पर बाजे बजते हैं। कुछ खड़े होकर सड़क पर देखने लग जाएंगे, कुछ शांत बैठे रहेंगे। यह अन्तर क्यों? जिनमें अविरति प्रबल है; चाह प्रबल है, उत्सुकता प्रबल है, वे देखने को दौड़ेंगे, भागेंगे, प्रयत्न करेंगे, सुनना चाहेंगे। जिनमें अविरति कम है, चाह कम है, उत्सुकता कम है, वे अपने आप में शांत बैठे रहेंगे। अन्तर्वृत्ति होकर बैठे रहेंगे। वे बहिर्वृत्ति नहीं रहेंगे। वे बाहर नहीं भागेंगे। यह आकर्षण का काम होना सहजभाव में अन्तर्वृत्ति होना है। मानसशास्त्र में दो प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख है-अन्तर्वृत्ति और बहिर्वृत्ति। कामशक्ति जब आगे की ओर बढ़ती है, व्यक्ति बहिर्वृत्ति हो 60 कर्मवाद Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। बाहर की ओर दौड़ने लग जाता है। जब कामशक्ति की प्रत्यावृत्ति होती है, डिप्रेशन होता है तो व्यक्ति भीतर में सिमट जाता है। उसकी बाहरी वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। ठीक हम इसी कर्मशास्त्रीय भाषा का प्रयोग करें कि अविरति जब तीव्र होती है तब पुरुष बाहर की ओर भागता है। उसकी आकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि वह सारे संसार को अपनी मुट्ठी में बन्द करने का प्रयत्न करता है और सब कुछ बाहर-ही-बाहर देखता है। उसे सब कुछ बाहर-ही-बाहर दीखता है। जब यह अविरति कम होती है, व्यक्ति अपने भीतर सिमटना शुरू हो जाना है। जब भीतर सिमटना शुरू होता है तो आकांक्षाएं कम होती हैं, चंचलता अपने आप कम हो जाती है। एक संस्कृत कवि ने कहा है आशा नाम मनुष्याणां, काचिदाश्चर्यशृंखला। यया बद्धाः प्रधावन्ति, मुक्तास्तिष्ठन्ति पशुवत् // आशा नाम की एक सांकल है। यह अद्भुत सांकल है। लोहे की सांकल से आदमी को बांध दो, वह चल नहीं पायेगा। सांकल को खोल दो, वह चलने लग जायेगा। किन्तु आशारूपी सांकल से आदमी को बांध दो, वह दौड़ने लग जायेगा। सांकल को खोल दो, वह पंगु की तरह बैठ जाएगा। कितनी उल्टी बात है! एक सांकल वह है जिसमें * बंधा आदमी चल नहीं सकता, सांकल से मुक्त होते ही वह दौड़ने लग जाता है। एक सांकल वह है जिससे बंधा आदमी दौड़ने लगता है और मुक्त होने पर एक पैर भी नहीं चल पाता। कितनी अद्भुत बात है! __चंचलता पैदा करने वाला, सक्रियता पैदा करने वाला, भटकाने वाला जो तत्त्व है, वह है अविरित। यह एक ऐसी प्यास है जिसे हम अभी तक बुझा नहीं पाये। इतना भोग कर भी बुझा नहीं पाते। चंचलता का यही बड़ा स्रोत है। एक प्रश्न आता है कि जब हम इतना जान गए कि चंचलता का स्रोत है आकांक्षा, इच्छा, अतृप्ति, फिर भी उसे बुझा नहीं पाते। यह क्यों? आदमी जान ले, फिर क्यों नहीं बुझा पाये? इसका भी एक कारण है। यह भ्रम है कि आदमी ने जान लिया। वह अभी कर्म का बन्ध 61 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक जान नहीं पाया है। इसका कारण है-मिथ्या दृष्टिकोण। हमारा दृष्टिकोण ही कुछ ऐसा बना हुआ है कि जिससे प्यास बुझती है उससे दूर भागते हैं और जिससे प्यास भभकती है उसे इसलिए पी रहे हैं कि प्यास बुझ जाये। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है मूढात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम्। . यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः // . .. - 'मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है उससे अधिक कोई भयानक वस्तु संसार में नहीं है। मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, जिससे दूर भागता है, उससे बढ़कर शरण देने वाली वस्तु संसार में नहीं है।' खतरनाक वस्तु में विश्वास करना और खतरा मिटाने वाली वस्तु से दूर भागना, यह कब होता है? यह तब होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, मोह प्रबल हो। जब राग-द्वेष की प्रबलता होती है, कषाय की प्रबलता होती है, तब ऐसा होता है। जब तक मिथ्यादृष्टि दूर नहीं होगी, तब तक हम यह समझ नहीं पायेंगे। कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में महावीर से पूछा गया-भंते! कर्म का बन्ध कैसे होता है? उसकी प्रक्रिया क्या है? भगवान् ने कहा-जब ज्ञानावरण कर्म विशिष्ट, उदयावस्था में होता है, तब दर्शनावरण कर्म का उदय होता है। जब जानने पर आवरण आता है, तब देखने पर भी आवरण आ जाता है। जब दर्शन का आवरण होता है, तब दर्शनमोह कर्म का उदय होता है। जब दर्शनमोह का उदय होता है, तब मिथ्यात्व आता है। उसके अस्तित्व में नित्य को अनित्य, सुख को दुःख, अनित्य को नित्य और दुःख को सुख मनाने की बात घटित होती है तब व्यक्ति जो दुःख के साधन हैं, उन्हें सुख के साधन तथा जो सुख के साधन हैं, उन्हें दुःख के साधन मानने लग जाता है। तब वह प्यास को बुझाने वाले साधनों को प्यास लगाने वाले तथा प्यास लगाने वाले साधनों को प्यास बुझाने वाले साधन माननं लग जाता है। सारी बात उलट जाती है। जब तक यह मिथ्यात्व का बन्धन नहीं टूटता, तब तक कर्म का चक्र टूट नहीं सकता। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। 62 कर्मवाद Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादृष्टि के अस्तित्व-काल में, यह जानते हुए भी कि प्यास है और प्यास बुझाने के साधन भी हैं, हम उन्हीं साधनों को ढूंढ़ते हैं, जिनसे प्यास और अधिक बढ़ जाती है। यह इसलिए होता है कि उसकी तह में मिथ्यात्व अवस्थित है। मिथ्या दृष्टिकोण, मति का विपर्यय, बुद्धि का विपर्यास-सत्य को विपरीत ग्रहण करने के लिए बाध्य करता है। ___जब तक मिथ्यात्व रहेगा, तब तक आकांक्षाएं रहेंगी, प्यास बनी-की-बनी रहेगी। जब तक प्यास बनी रहेगी, तब तक प्रमाद भी होता रहेगा, भ्रांति होती रहेगी, विस्मृति होती रहेगी। विस्मृति, जैसे-हमने एक बार जान लिया कि धन सुख का साधन नहीं है। यह तथ्य स्मृतिपटल पर अंकित है, किन्तु जैसे हम कार्यक्षेत्र में उतरेंगे, कर्मक्षेत्र में प्रवेश करेंगे, तब इस बात को भूल जाएंगे कि धन, संपत्ति, ऐश्वर्य सुख के साधन नहीं हैं। हम यह मानने लग जाएंगे या हमें ऐसा लगने लगेगा कि संसार में कोई सारभूत वस्तु है तो वह धन है, संपत्ति है, ऐश्वर्य है। शेष सब कुछ असार-ही-असार है, व्यर्थ है, मिथ्या है। धन है तो सब कुछ है, धन नहीं है तो कुछ भी नहीं। धन ही सार है, यही सारभूत है, पदार्थ है। अब प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों होता है? इसका समाधान यह है कि हम भूल जाते हैं, विस्मृति हो जाती है, प्रमाद उभर जाता है। इसलिए ऐसा होता है। जब तक ये चार तत्त्व-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-अस्तित्व में रहते हैं, तब तक चंचलताओं को रोका नहीं जा सकता। चंचलता के चक्र को धीमा नहीं किया जा सकता। वह चक्र इतनी तेजी से घूमने लगता है कि उसका अनुमान करना भी कठिन हो जाता है। व्यक्ति ध्यान करने के लिए बैठता है तो कभी आकांक्षाओं का ज्वार आता है, कभी प्रमाद का अन्धकार छा जाता है, कभी कषाय की आग भभक उठती है और वह ध्यान से भटक जाता है। ध्यान छूट जाता है और वह संकल्प-विकल्प के जाल में फंस जाता है। उस जाल में ऐसी समाधि लगेगी कि वास्तविक समाधि का छोर छूट जायेगा। यह इसलिए होता है कि हम शोधन करते हुए नहीं आ रहे हैं। हमारी वृत्तियों का शोधन नहीं हो पाया है। कर्म का बन्ध 63 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की सफलता के लिए हमें इन कर्मशास्त्रीय रहस्यों को समझना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। हम मिथ्या दृष्टिकोण को छोड़ें, सम्यक् दृष्टिकोण को अपनाएं, अविरति को छोड़ें और विरति को ग्रहण करें, प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में आएं और कषाय की आग को शांत कर चलते जाएं। इतना होने पर चंचलता अपने आप कम होती रहेगी। ___लोग पूछते हैं-पहले ही क्षण में मन चंचल है। उसे शांत कैसे करें, ऐसा कोई जादू नहीं है कि पहले ही क्षण में मन शांत हो जाए। मन को शांत करने की एक प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया में से गुजरें, मन शांत हो जायेगा। वह प्रक्रिया है-मिथ्या दृष्टिकोण, अविरति, प्रमाद और कषाय को उपशांत करते जाएं, मन शांत हो जायेगा। इन चारों को क्षीण करते जाएं, क्षीण करने की साधना करें, एक दिन ऐसा आयेगा कि मन शांत हो रहा है, हो गया है, वाणी शांत हो रही है, हो गयी है, शरीर शांत हो रहा है, हो गया है। हम इस प्रक्रिया को दृढ़ता से पकड़ें और उसको करते चले जाएं। उसमें से गुजरें, क्रमशः हम अपने लक्ष्य में सफल होते जाएंगे। हम तात्कालिक लाभ पाने के लिए यह न सोचें कि अभी सब कुछ हो जाये, साधना के पहले क्षण में ही सिद्धि मिल जाये। यह न कभी हुआ है, न होता है और न होगा। हम प्रक्रिया करते चले जाएं। निराश न बनें। ___हम श्वास-प्रेक्षा या शरीर-प्रेक्षा कर रहे हैं, उसका पूरा अर्थ सबकी समझ में आये या न आये, किन्तु यह निश्चित है कि हम एक प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं और उसके द्वारा उन चारों के चक्रव्यूह को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। प्रश्न होता है कि हम अनुप्रेक्षा के अभ्यासकाल में चिन्तन करते हैं, चिन्तन करना, प्रेक्षा में मन को इधर से उधर घुमाना, चंचलता को मिटाने का उपाय कैसे हो सकता है? प्रश्न सही है। हम अनुप्रेक्षा के समय चंचलता को नहीं मिटा रहे हैं, उसके लिए प्रयल भी नहीं कर रहे हैं। हम एक प्रकार की चंचलता के सामने दूसरे प्रकार की चंचलता खड़ी कर रहे हैं। महर्षि पतंजलि ने कहा है-'वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् / एक पक्ष को तोड़ना है तो दूसरे प्रतिपक्ष को पैदा करो। अशुभ को तोड़ना है 64 कर्मवाद Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो शुभ को पैदा करो। छोड़ना दोनों को है-शुभ को भी छोड़ना है और अशुभ को भी छोड़ना है। पाप को भी छोड़ना है और पुण्य को भी छोड़ना है। किन्तु अशुभ को छोड़ने के लिए शुभ का संकल्प करें। बुरे को छोड़ने के लिए अच्छे का संकल्प करें। बुरी आदत छोड़ने के लिए अच्छी आदत डालें। अन्यथा बुरी आदत छूटेगी नहीं। एक बार छूट भी जायेगी तो वह पुनः पकड़ लेगी। हमने देखा, एक आदमी को तम्बाकू सूंघने की आदत थी। दिन में सौ-पचास बार वह तम्बाकू सूंघता था। न उसे उस तम्बाकू में दुर्गंध ही आती और न उसे उस आदत के प्रति घृणा ही थी। एक दिन उसे वह बात समझ में आ गयी और उसने उस आदत को छोड़ने का संकल्प कर लिया। अब वह तम्बाकू को सूंघना छोड़, इत्र को सूंघने लगा। इत्र को सूंघना उसकी आदत बन गयी और वह तम्बाकू की आदत छूट गयी। बुरी आदत को बदलने के लिए अच्छी आदत डाली जाती है। एक प्रकार की चंचलता को मिटाने के लिए हम दूसरे प्रकार की चंचलता का सहारा ले रहे हैं। पुरानी चंचलता को मिटाने के लिए नयी चंचलता को अपना रहे हैं। ऐसा करते-करते एक दिन ऐसा भी आयेगा कि सारी चंचलता मिट जायेगी, समाप्त हो जायेगी। कर्म का बन्ध 65 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का मूल : मोहकर्म कुछ व्यक्ति नहीं जानते कि उन्हें क्या करना है? कुछ व्यक्ति जानते हैं पर करने में समर्थ नहीं होते। कुछ व्यक्ति जानते हैं किन्तु सही-सही नहीं जानते। कुछ करते हैं, पर सही ढंग से नहीं करते। इस प्रकार अनेक समस्याएं हैं और प्रत्येक व्यक्ति को किसी-न-किसी समस्या का सामना करना पड़ता है। ये समस्याएं क्यों हैं? इनका हेतु क्या है? कर्मशास्त्र में इन प्रश्नों पर विमर्श किया गया और इनका समाधान भी दिया गया। ज्ञान की दूसरी शाखाएं, जो स्नायविक, उत्तेजना तथा परिस्थिति के कारण मानवीय आचरण की व्याख्या करती हैं, वे शरीर से आगे नहीं जातीं। यह उनका विषय भी नहीं है। उनका विषय शरीर से प्रतिबद्ध है। मानसशास्त्र ने मनोविश्लेषण किया और मानसिक समस्याओं के बारे में विचार भी किया, उनका समाधान भी किया। किन्तु वह समाधान परिस्थिति और परिस्थिति-जनित स्नायविक उत्तेजना-इन दो में समाहित हो जाता है। वह इन दो से आगे नहीं जाता। वह अवचेतन मन तक जाता है। किन्तु अवचेतन मन में भी ऐसा क्यों होता है, इसका कोई सही समाधान प्राप्त नहीं होता। ____ कर्मशास्त्र ने इनके मूल कारणों पर भी विचार किया है, परिस्थितियों पर भी विचार किया है। उसने परिस्थितियों को अस्वीकार नहीं किया है, क्योंकि परिस्थितियां निमित्त बनती हैं। निमित्त को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किन्तु जो घटना होती है, उसका मूल हेतु क्या है, इसके विमर्श में जब हम जायें तो पता चलेगा कि प्रत्येक समस्या के पीछे किसी-न-किसी कर्म की कोई प्रेरणा है। 66 कर्मवाद Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम अज्ञान को लें। आदमी नहीं जानता। किसी कर्मशास्त्री से पूछो तो वह कहेगा-यह आदमी नहीं जानता। इसका मूल कारण है। ज्ञानावरण कर्म का उदय। इस व्यक्ति की चेतना को ज्ञान का आवरण प्रभावित कर रहा है, इसलिए इसके ज्ञान का विकास नहीं हो पा रहा है। मानसशास्त्री का उत्तर दूसरा होगा। वह कहेगा-इस व्यक्ति का मस्तिष्क विकसित नहीं है, इसलिए इसमें ज्ञान का विकास कम है। मानसशास्त्री शरीर के आधार पर कारण ढूंढ़ेगा और उन कारणों का विश्लेषण करेगा। ___ एक प्रश्न होता है कि मस्तिष्क विकसित क्यों नहीं हुआ? इसका भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कारण अवश्य है। यह कारण छिपा हुआ है सूक्ष्म शरीर में। वह स्थूल शरीर में प्रकट नहीं है। उस व्यक्ति के ज्ञान के आवरण का इतना प्रबल उदय है कि ज्ञान का संवाहक अवयव बना ही नहीं या बना है तो अधूरा है। ज्ञानावरण के कारण ही मस्तिष्क विकसित नहीं हुआ है। अमनस्क जीवों (Non Vergetta) में पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क नहीं होते। समनस्क जीवों (Vergetta) के पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क होते हैं। फिर भी उनका विकास समान नहीं होता। ज्ञानावरण-विलय के तारतम्य के आधार पर वह तरतमतायुक्त होता है। ___ एक व्यक्ति जानता है। उसमें ज्ञान है। पर वह करने में समर्थ नहीं है। अपने आपको अकर्मण्य पाता है। कर्मशास्त्र कहेगा-इसका भी कारण है। वह कारण है-अन्तराय कर्म का उदय। वह कर्म उस व्यक्ति की शक्ति को बाधित कर रहा है, उसे स्खलित कर रहा है। वह कर्म शक्ति का प्रतिघात कर रहा है, उसमें अवरोध उत्पन्न कर रहा है। वह उसकी कर्मजा शक्ति में सहयोगी नहीं दे रहा है, बाधा पहुंचा रहा है। ___ दो प्रकार की क्षमता है-योग्यात्मक क्षमता और क्रियात्मक क्षमता। योग्यात्मक क्षमता आत्मा का गुण है। क्रियात्मक क्षमता आत्मा और शरीर के योग से निष्पन्न होती है। कर्मशास्त्र की भाषा में योग्यात्मक क्षमता को ‘लब्धिवीर्य' और क्रियात्मक क्षमता को 'करणवीर्य' कहा जाता है। समस्या का मूल : मोहकर्म 67 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस व्यक्ति में 'लब्धिवीर्य' नहीं होता, शक्ति का मूलतः विकास ही नहीं होता, वह कुछ कर ही नहीं पाता। वह कितना ही चाहे, कर नहीं सकता। जिस व्यक्ति में लब्धिवीर्य है, किन्तु करणवीर्य नहीं है, क्रियात्मक क्षमता नहीं है तो शक्ति की उपलब्धि होने पर भी वह कुछ नहीं कर पाता। जिसमें दोनों हैं, वही व्यक्ति कुछ कर पाता है। ___ कर्मशास्त्र के इस महत्त्वपूर्ण बिन्दु को समझने के लिए हमें आत्मा और शरीर, मन और शरीर-दोनों के योग को ठीक से समझना होगा। मन का शरीर पर प्रभाव होता है और शरीर का मन पर प्रभाव होता है। आत्मा का शरीर पर प्रभाव होता है और शरीर का आत्मा पर प्रभाव होता है। केवल आत्मा या केवल शरीर से वे सारे कार्य नहीं हो सकते जो हमारे व्यक्तित्व की व्याख्या करने वाले होते हैं। केवल आत्मा से वे ही कार्य निष्पन्न होते हैं जो आत्मा के मूलभूत कार्य हैं। वे हैं-चैतन्य का पूर्ण विकास, आनन्द का पूर्ण विकास, शक्ति का पूर्ण विकास अर्थात् अनन्त चैतन्य, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति की प्राप्ति। वह चैतन्य जिसका एक कण भी आवृत नहीं होता, वह आनन्द जिसमें कभी विकार नहीं आता, जिसमें कभी शोक की लहर नहीं आती, वह अखण्ड आनन्द, अव्याबाध आनन्द, वह शक्ति जिसमें कोई बाधा नहीं होती, कोई स्खलना नहीं होती, कोई रुकावट नहीं होती। यह केवल आत्मा में ही हो सकता है। किन्त जहां शरीर है और शरीर के द्वारा जो चैतन्य प्रकट हो रहा है, वह अखण्ड नहीं होगा। शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाला आनन्द भी अव्याबाध नहीं होगा। शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली शक्ति भी अव्याहत नहीं होगी। माध्यम के द्वारा जो भी प्रकट होता है, वह कभी पूर्ण नहीं होता। माध्यम का अर्थ होता है-बैसाखी। अपने पैरों से चलने वाला व्यक्ति जिस शक्ति का अनुभव करता है, बैसाखी के सहारे चलने वाला व्यक्ति वैसी शक्ति का कभी अनुभव नहीं कर करता। बैसाखी का सहारा तभी लेना पड़ता है, जब पैरों में शक्ति की कमी होती है। यदि पैरों में शक्ति पूरी हो तो बैसाखी निरर्थक है। मनुष्य माध्यम का सहारा तब लेता है जबकि पूरक की जरूरत होती है। आंखों की शक्ति न्यून होती है, तब चश्मा लगाना पड़ता है। वह शक्ति का 68 कर्मवाद . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरक होता है। देखने की शक्ति न्यून न हो तो चश्मा आवश्यक नहीं लेता, माध्यम की आवश्यकता नहीं होती। - आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम है शरीर। शरीर के माध्यम से ही आत्मा की शक्तियां अभिव्यक्त होती हैं। चैतन्य की अभिव्यक्ति, आनन्द की अभिव्यक्ति, शक्ति की अभिव्यक्ति-ये सारी अभिव्यक्तियां शरीर के माध्यम से होती हैं। __चैतन्य की अभिव्यक्ति के साधन हैं-इन्द्रियां, मन और बुद्धि। आनन्द की अभिव्यक्ति का माध्यम है-अनुभूति। शक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम है-शरीर / हाथ, पैर आदि सारे अवयव शक्ति की अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। इन्द्रियां भी शक्ति की अभिव्यक्ति के मार्ग हैं। शक्ति के बिना कुछ भी नहीं होता। चैतन्य की अभिव्यक्ति भी शक्ति के बिना नहीं हो सकती, आनन्द की अभिव्यक्ति भी शक्ति के बिना नहीं हो सकती। शक्ति का माध्यम सबके साथ जुड़ा हुआ है। सभी अभिव्यक्तियों का माध्यम है शरीर। इसीलिए मन से शरीर प्रभावित होता है और शरीर से मन प्रभावित होता है। चैतन्य का विकास हो गया, किन्तु इन्द्रियों का जो आकार बना है, इन्द्रियों के जो गोलक बने हैं, स्वस्थ नहीं हैं, तो चैतन्य की शक्ति काम नहीं आयेगी, उसका उपयोग नहीं हो पायेगा, जैसे-तैसे वह अनुपयोगी ही बनी रहेगी। आनन्द का विकास है, किन्तु अभिव्यक्ति का माध्यम ठीक नहीं है तो वह कार्यकर नहीं होगा। शरीर भी ठीक होना चाहिए, उसके अनुरूप होना चाहिए और इन्द्रियों के गोलक स्वस्थ और सक्षम होने चाहिए, तभी उनमें शक्तियां अभिव्यक्त हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। बिजली का प्रवाह निरंतर गतिशील है। यदि बल्ब ठीक है तो वह अभिव्यक्त हो जायेगी, प्रकाश फैल जायेगा। यदि बल्ब ठीक नहीं है तो बिजली रहते हुए भी उसमें अभिव्यक्ति नहीं होगी, प्रकाश नहीं होगा, अंधेरा नहीं मिटेगा। माध्यम ठीक होना चाहिए, तभी अभिव्यक्ति हो सकती है। ___ हम यह विस्मृत न करें कि शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को प्रभावित करता है। शरीर भी प्रभाव का निमित्त बनता समस्या का मूल : मोहकर्म 66 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और मन भी प्रभाव का निमित्त बनता है। किन्तु निमित्त का मूलस्रोत है-कर्म। कुछ मानते हैं कि परिस्थिति के कारण ऐसा होता है। किन्तु उसमें हमें अपवाद भी मिलते हैं। कई बार ऐसा अनुभव होता है कि वातावरण शान्त है, मन शान्त है, कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है, फिर भी मन में अचानक उदासी छा जाती है, मन चिंता से भर जाता है, वह शोकाकुल हो जाता है। कभी-कभी अचानक मन हर्ष से विभोर हो जाता है। यह सब सकारण हो तो बात समझ में आ सकती है। कोई हास्यास्पद घटना घटित हो और हंसी आ जाये या चिन्ता पैदा करने वाली घटना घटित हो और मन चिन्ता से भर जाये, यह बात समझ में आ सकती है। किन्तु अकारण ही मन में हर्ष या विषाद पैदा हो, यह आश्चर्य में डाल देती है। जब हर्ष, विषाद, चिंता या शोक का कोई प्रत्यक्ष हेतु नहीं दीखता, तब अचंभा होता है। कर्मशास्त्र ने इन अहेतुक आवेगों पर भी विचार किया और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि निमित्तों के मिलने पर या परिस्थितियों के होने पर हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब भय-वेदनीय कर्म का प्रबल उदय होता है और वे कर्म-परमाणु इतनी प्रबलता से उदय में आते हैं, शोक या चिन्ता पैदा हो जाती है। जब शोकवेदनीय-कर्म के परमाणु तीव्रता से उदय में आते हैं, तब बिना कारण ही मन में शोक छा जाता है। क्रोध-वेदनीय के प्रबल उदय से अकारण ही व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। इस प्रकार के क्रोध को 'अप्रतिष्ठित क्रोध' कहा गया है। अप्रतिष्ठित क्रोध का अर्थ है-अकारण उत्पन्न होने वाला क्रोध। उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, कारण नहीं है, निमित्त नहीं है। उसका हेतु कर्म के उदय की प्रबलता मात्र है। क्रोध-वेदनीय के परमाणु एक साथ इनती प्रबलता से उदय में आ गये कि व्यक्ति बैठे-बैठे ही गुस्से में आ गया। दैनंदिन के जीवन में हम ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। सब कुछ सकारण ही नहीं होता, अकारण भी बहुत कुछ होता है। अनेकान्त की स्वीकृति के अनुसार प्रत्येक कार्य के पीछे बाह्य कारण की अनिवार्यता नहीं है। कहीं-कहीं कारण स्वगत भी होता है, अलग 7 कर्मवाद Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण नहीं मी होता। अर्थात् वहां कार्य और कारण दो नहीं होते। अचानक उभरने वाले क्रोध में कोई बाहरी कारण नहीं होता, उसका कारण स्वयं में समाहित है। क्रोध-वेदनीय का उदय ही क्रोध का कारण है। अन्य कोई कारण नहीं है, कोई परिस्थिति नहीं है, कोई निमित्त नहीं है। ऐसा भी घटित होता है। कर्म-शास्त्रीय व्याख्या के सन्दर्भ में हम परिस्थितिवाद को सार्वभौम सिद्धान्त के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। यह निमित्त का अस्वीकार नहीं है, परिस्थिति का अस्वीकार नहीं है। जैसी परिस्थिति होती है, व्यक्ति वैसा ही बन जाता है। इस बात में सचाई है, किन्तु पूरी सचाई नहीं है। जब हम सापेक्षवाद के आधार पर चिंतन करते हैं तो पूरी सचाई की बात किसी एक बात में हो ही नहीं सकती। वह सब अपूर्ण सत्य है। परिस्थितिवाद मिथ्या नहीं है। कर्मवाद में परिस्थिति का भी स्थान है, निमित्त का भी स्थान है। किन्तु परिस्थिति ही सब कुछ है या परिस्थिति ही व्यक्ति को निर्मित करती है या हमारा प्रत्येक आचरण या व्यवहार परिस्थिति से ही प्रभावित होकर घटित होता है-ऐसा मानना भ्रामक होगा। यदि परिस्थितिवाद की एकान्ततः स्वीकृति होती है तो उसके चक्र को कभी तोड़ा नहीं जा सकता, वह कभी टूट नहीं सकता। वह आगे से आगे घूमता रहता है। एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि इस परिस्थिति के चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता तो फिर कर्म-चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है? यह भी तो एक चक्र है। क्योंकि प्रत्येक घटना के पीछे यदि कर्म का हाथ है और हर घटना कर्म के द्वारा ही प्रभावित होकर घटित होती है तो फिर इस कर्म-चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है? ___ कर्म की स्वीकृति भी एकान्तिक नहीं है। सब कुछ कर्म से ही घटित होता है, यह स्वीकृति उचित नहीं है। सब कुछ कर्म से नहीं होता। कुछ ऐसी भी स्थितियां हैं; जो कर्म से प्रभावित नहीं भी होतीं। व्यक्ति का पूरा व्यक्तित्व कर्म से प्रभावित नहीं होता। ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती हैं, जो कर्म से प्रभावित नहीं होती। ___एक व्यक्ति अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है। उसका मिथ्यादर्शन अनादि है। वह प्रत्येक तत्त्व को मिथ्यादृष्टि से देखता है। सत्य के प्रति उसकी समस्या का मूल : मोहकर्म 77 . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि सही नहीं है। जब अनादिकाल से ऐसा हो रहा है तो वह मिथ्यात्व के चक्र को कैसे तोड़ पायेगा? किन्तु आत्मा में एक ऐसी शक्ति है, जो पूर्णरूपेण कर्म से कभी प्रभावित नहीं होती। यदि कर्म का पूरा साम्राज्य भी हो जाये तो भी वह उसे कभी मिटा नहीं सकता। उसे तोड़ नहीं पाता। कर्म का साम्राज्य, मोह का साम्राज्य इसीलिए स्थापित होता हैं और तब तक चलता है, जब तक कि आत्मा अपनी शक्ति के प्रति जागृत न हो जाये, जानने का क्षण प्राप्त न हो जायें। किसी भी राष्ट्र में विदशी शासन तब तक चलता है, जब तक उस देश या राष्ट्र की जनता जागृत नहीं हो जाती। दुनिया के किसी नी राष्ट्र के इतिहास में यही हुआ है। विदेशी शासकों ने तब तक शासन केया, जब तक कि वहां की जनता जाग न गयी या वहां की जनता को जगाने वाला कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं हो गया। जिस क्षण जनता . नाग जाती है या जगाने वाला व्यक्ति, प्राण फूंकने वाला व्यक्ति प्राप्त हो जाता है तब विदेशी शासन चल नहीं सकता, उसकी जड़ें हिल जाती हैं, उसे अपनी सत्ता समेट लेनी पड़ती है। ___ काल की भी एक शक्ति है जो कर्म से प्रभावित नहीं होती। एक काल आता है, एक समय आता है, एक क्षण ऐसा आता है कि उस क्षण में काललब्धि के कारण आत्मा सहज रूप में जग जाती है। उसमें अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता का भाव आ जाता है। उस क्षण में मिथ्यात्व का साम्राज्य, मोह का साम्राज्य पहली बार हिल उठता है और धीरे-धीरे उसकी जड़ें टूटने लगती हैं। यदि सब कुछ ही कर्म के द्वारा निष्पन्न होता, कर्म की पूर्ण सत्ता होती, कर्म का सार्वभौम साम्राज्य होता तो कभी इस चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता। हम इस बात को याद रखें कि यदि सब कुछ परिस्थिति के द्वारा नहीं होता है तो सब कुछ कर्म के द्वारा भी नहीं होता है। इस दुनिया में किसी को अखंड साम्राज्य या एकछत्र शासन प्राप्त नहीं है। सबके लिए अवकाश है। काललब्धि को भी अवकाश है। इसी काललब्धि के द्वारा कुछ विशिष्ट घटनाएं घटित ोती हैं। हम एक घटना को समझें। यह घटना है। -वनस्पति जीवों के 72 कर्मवाट Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षयकोष से निकलकर विकासशील जगत् में आना। प्राणी-जंगत् की दो राशियां हैं। एक है व्यवहार-राशि और दूसरी है अव्यवहार-राशि। अव्यवहार-राशि वनस्पति का वह खजाना है, जो कभी समाप्त नहीं होता। उसमें अनन्त-अनन्त जीव रहते हैं। यह जो दृश्य जगत् है, इसमें जितने भी जीव आते हैं, वे सब अव्यवहार-राशि से निकलकर आते हैं। अव्यवहार-राशि सूक्ष्म जीवों की राशि है। यह अक्षयकोष है। यह कभी समाप्त नहीं होता। अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होता। दूसरी राशि है-व्यवहार-राशि। यह स्थूल प्राणियों का जगत् है। जो कोई भी जीव मुक्त होता है, वह व्यवहार-राशि से मुक्त होता है। अव्यवहार-राशि में पड़ा हुआ जीव कभी मुक्त नहीं होता। वहां से कोई मुक्ति की ओर नहीं जाता। मुक्त होने के लिए उसे व्यवहार-राशि में आना पड़ता है। हमारे चैतन्य का जितना विकास होता है, वह व्यवहार-राशि में ही होता है। अव्यवहार-राशि. में किसी का विकास नहीं होता। वहां केवल एक इन्द्रिय, एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होती है। वे सब वनस्पति के जीव हैं, यह वनस्पति के जीवों का अनन्त कोष है। इससे जीव निकलते हैं पर यह कभी खाली नहीं होता। यहां केवल एक इन्द्रिय की चेतना का विकास होता है। आगे विकास नहीं होता। न मन का विकास, न अन्य इन्द्रियों का विकास और न बुद्धि का विकास। कोई विकास नहीं। केवल स्पर्शन इन्द्रिय -त्वचा का विकास। प्रगाढ़ मूर्छा, प्रगाढ़ निद्रा। जो चैतन्य प्राप्त है, उसका सूचक है स्पर्शन इन्द्रिय और कुछ भी नहीं। इस अव्यवहार-राशि से कुछ जीव व्यवहार-राशि में आते रहते हैं। क्यों आते हैं-यह एक प्रश्न है। यदि कर्म ही सब कुछ होता तो वे वहां से निकल ही नहीं पाते। किन्तु काललब्धि, काल की शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलकर व्यवहार-राशि में आ जाते हैं। काल की शक्ति असीम होती है। उसी शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलते हैं। यदि कर्म के आधार पर निकलते तो जैसे दस-बीस निकलते हैं. वैसे ही सौ-हजार जीव भी निकल आते। लाख और करोड़ भी निकल आते। अनन्त भी निकल आते। किन्तु वे कर्म की शक्ति से नहीं निकलते। वे निकलते हैं काल की शक्ति से, काललब्धि से। समस्या का मूल : मोहकर्म 73 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-राशि के जीवों की दो श्रेणियां हैं-एक है कृष्णपक्ष और दूसरी है शुक्लपक्ष। कुछ जीव हैं कृष्णपक्ष वाले और कुछ जीव हैं शुक्लपक्ष वाले। जैसे चन्द्रमा के दो पक्ष होते हैं-कृष्ण और शुक्ल, काला और सफेद। वैसे ही हमारे जीवन के भी दो पक्ष हैं-कृष्ण और शुक्ल, काला और सफेद। कृष्णपक्ष हमारे अनिष्ट कर्मों का सूचक है, अनिष्ट वातावरण का सूचक है, तामस वृत्तियों का सूचक है। शुक्लपक्ष हमारे विकास का सूचक है, बंधनमुक्ति की ओर अग्रसर होने का सूचक है। ' जो व्यक्ति कृष्णपक्ष में है, वह आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता। आध्यात्मिक विकास वही व्यक्ति कर सकता है, जो शक्लपक्ष में है। उसका जो वातावरण है, उसकी जो ओरा है, आभा-मंडल है, पर्यावरण है, वह शुक्ल हो जाता है। उस व्यक्ति के आसपास शुक्लता का वातावरण छा जाता है। वह व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है। उसका विकास प्रारम्भ हो जाता है। एक प्रश्न उभरता है कि कोई भी जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में क्यों आता है? कैसे आता है? इसका कोई हेतु नहीं है। कर्म एकमात्र कारण नहीं है। कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आने का हेतु है-काललब्धि। काल की शक्ति में ऐसा होता है। जैसे परिस्थिति की एक शक्ति है, वैसे काल की भी शक्ति है। इसी प्रकार स्वभाव की भी एक शक्ति होती है। आध्यात्मिक विकास के बीज प्रत्येक जीव में विद्यमान हैं। किन्तु कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक विकास का स्वभाव ही नहीं होता। उनमें चैतन्य तो होता है, चैतन्य के विशिष्ट विकास की क्षमता उनमें नहीं होती। आप पूछ सकते हैं कि क्यों नहीं होती? इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। कर्मशास्त्र की व्याख्या में इसका कोई समाधान नहीं है। इसका एक ही उत्तर हो सकता है, एक ही समाधान हो सकता है कि उन जीवों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे चैतन्य का विकास नहीं कर पाते। उसमें चैतन्य का विकास नहीं होता। यह स्वभाव की शक्ति का उदाहरण है। जैसे काल की अपनी शक्ति है, वैसे ही स्वभाव की अपनी शक्ति है। जैसे परिस्थिति की अपनी शक्ति है; वैसे ही कर्म की शक्ति है। 74 कर्मवाद Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि कर्म का सार्वभौम साम्राज्य नहीं है। हम इस धारणा को निकाल दें कि जो कुछ होता है, वह सब कर्म से ही होता है। कर्म की ही सार्वभौमता स्वीकार करता मिथ्या दृष्टिकोण है। सच यह है कि सब कुछ कर्म से नहीं होता। जो घटनाएं कर्म से होने योग्य होती हैं, कर्म की सीमा में आती हैं, वे ही कर्म के द्वारा घटित होती हैं। सब घटनाएं कर्म के द्वारा घटित नहीं होतीं। आज एक ऐसा स्वर चल पड़ा है कि 'भई! क्या करें, ऐसे ही कर्म किये थे, कर्म का ऐसा ही योग था।' हर घटित घटना के लिए, चाहे वह शुभ हो या अशुभ, अच्छी हो या बुरी, हम यही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि कर्म के कारण ही ऐसा घटित हुआ है, कर्म का ही प्रताप है, प्रभाव है, अन्यथा ऐसा नहीं होता। यह भ्रान्ति है, बहुत बड़ा भ्रम है। हम एकाधिकार किसी के हाथ में न सौंपें / प्रकृति के साम्राज्य में अधिनायकवाद नहीं है। जागतिक निगम में कोई अधिनायक नहीं होता। कोई अधिनियन्ता नहीं होता। वहां किसी को एकाधिकार प्राप्त नहीं है। कुछ शक्तियां काल में निहित हैं, कुछ स्वभाव में, कुछ परिस्थिति में और कुछ कर्म में। कुछ शक्तियां हमारे अपने पुरुषार्थ में निहित हैं। इस पुरुषार्थ में कर्म को बदल देने की भी शक्ति होती है। हमारी शक्ति का प्रतीक है पुरुषार्थ। हमारी क्षमता का प्रतीक है पुरुषार्थ। हम इसके द्वारा कर्म को भी बदल डालते हैं। कर्मशास्त्र का यह भी एक नियम है कि कर्मों को बदला जा सकता है। एकाधिकार किसी को प्राप्त नहीं है। यहां सबका मिला-जुला अधिकार है। एकाधिकार नहीं, बंटा हुआ है सारा अधिकार। ___ यदि कर्म ही सब कुछ होता, कर्म को ही एकाधिकार प्राप्त होता तो कोई भी प्राणी अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में नहीं आता, अविकसित प्राणियों की श्रेणी से विकसित प्राणियों की श्रेणी में नहीं आता। ___ यदि कर्म ही सब कुछ होता तो प्राणी साधना की अयोग्य स्थिति से या अपनी अविकसित चैतन्य की भूमिका से आध्यात्मिक चेतना की विकसित भूमिका में नहीं आता। समस्या का मूल : मोहकर्म - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि कर्म ही सब कुछ होता तो प्राणी बंधन को तोड़कर कभी मुक्त नहीं होता। कर्म ही सब कुछ नहीं है। कर्म के अतिरिक्त भी अनेक तथ्य हैं, जो अपनी-अपनी सीमा में कार्यकारी होते हैं। अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आना, अविकास से विकास की ओर बढ़ना, चैतन्य की अविकसित भूमिका से ऊर्ध्वारोहण कर विकसित चैतन्य की भूमिका को प्राप्त करना, बंधन तो तोड़कर मुक्ति की ओर अग्रसर होना, आवरण से अनावरण की ओर बढ़ता, परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्रता को प्राप्त करना, तभी संभव है जब काललब्धि का पूरा परिपाक हो जाता है। अन्यथा प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा रह जाता है कि जब सौ व्यक्ति मुक्त हो सकते हैं तो सब मुक्त क्यों नहीं हो सकते? सब मुक्त हो सकते हैं। मुक्त होने का सबको अधिकार है। किन्तु सब मुक्त नहीं हो सकते। जिनकी काललब्धि पक चुकी है, वे ही मुक्त हो पाते हैं। शेष काललब्धि के परिघाक की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसमें सब कुछ पुरुषार्थ से होता है, ऐसा भी नहीं। सब कुछ कर्म से होता है, ऐसा भी नहीं। कर्म का एकछत्र साम्राज्य नहीं है, इसीलिए कर्म के व्यूह को तोड़ा जा सकता है। मोह का भी एकछत्र साम्राज्य नहीं है, इसीलिए मोह के चक्रव्यूह को भी तोड़ा जा सकता है। ___हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करता है-मोहकर्म। एक अज्ञान और एक मोह-ये प्रभावक तथ्य हैं जीवन के। ज्ञानावरण कर्म के कारण हम सही जान नहीं पाते। अन्तराय कर्म के कारण हम शक्ति का उपयोग नहीं कर पाते और दर्शनावरण कर्म के कारण सही नहीं देख पाते। मोह कर्म के कारण जानते हुए भी, देखते हुए भी, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग करते हुए भी सही-सही आचरण नहीं कर पाते। दृष्टि में कोई विकार उत्पन्न करता है तो वह मोहकर्म करता है। आचरण की विकृति मोहकर्म के कारण होती है। मोहकर्म केन्द्रीय कर्म है। आगम सूत्रों में इसे सेनापति की संज्ञा दी गयी है। जैसे सेनापति के मर जाने पर सेना भाग जाती है, वैसे ही मोहकर्म के नष्ट हो जाने 76 कर्मवाद Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर शेष सारे कर्म टूट जाते हैं। मोह को सहयोग देने वाले दो तथ्य हैं। एक है-ममकार और दूसरा है अहंकार। ये दो सेनानी हैं। ___अनात्मीय वस्तुओं में आत्मीयता का अभिनिवेश ममकार है। जो आत्मीय नहीं है, उसमें आत्मीयता का भाव रखना ममकार है। जैसे-शरीर मेरा, पिता मेरा, माता मेरी, भाई मेरा, बहन मेरी, पत्नी मेरी, पुत्र मेरा। सबसे पहले ममकार होता है शरीर के प्रति। यह सबसे निकट का है। फिर पिता, माता आदि के प्रति ममकार होता है। यह दूसरे नंबर में है। तीसरे में घर मेरा, नौकर मेरा, धन मेरा, हाथी मेरा, ऊंट मेरा, घोड़ा मेरा। इनमें ममकार होता है। फिर यह ममकार बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ जाता है, इसकी सीमा इतनी विस्तृत हो जाती है कि इसमें हजारों-हजारों वस्तुएं आ जाती हैं। सीमा के विस्तार का कहीं अंत नहीं आता। कर्म आदि कारणों से प्राप्त अवस्थाओं को 'मैं' मान लेना अहंकार है। जो 'मैं' नहीं है, आत्मा नहीं है, उसे आत्मा मान लेना अहंकार है। जैसे अनात्मीय को आत्मीय मान लेना 'ममकार' है, वैसे ही अनात्म को आत्म मान लेना 'अहंकार' है। जैसे-मैं धनी हूं। अब धन कौन और मैं कौन? जो आत्मीय नहीं, उसे आत्मीय मान लिया। ये सारी अवस्थाएं वैभाविक हैं, अनेक कारणों से उत्पन्न हैं। हम कभी कहते हैं- 'मैं रोगी हूं और कभी कहते हैं-'मैं स्वस्थ हूं। यह रोगी होना भी 'मैं' नहीं है और स्वस्थ होना भी 'मैं' नहीं है। प्रसन्न होना भी 'मैं नहीं है और नाराज होना भी मैं नहीं है। मैं धनी हूं, मैं निर्धन हूं, मैं प्रसन्न हूं, मैं अप्रसन्न हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं बड़ा हूं, मैं छोटा हूं-ये सब अहंकार हैं। आत्मा जो है, वह न बड़ा है और न छोटा। न रोगी है और न स्वस्थ। न प्रसन्न है और न अप्रसन्न। न सुखी और न .. दुःखी। फिर भी अहंकार के कारण ये सब कुछ आरोपण चलते हैं। . दृष्टिकोण और आचरण-दोनों में विकृति के बीज अंकुरित होते रहते हैं। समस्या का मूल : मोहकर्म 77 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवेग : उप-आवेग मानसशास्त्र के अनुसार आवेग छह हैं-भय, क्रोध, हर्ष, शोक, प्रेम और घृणा। आवेगों का जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव है। सारे मानवीय आचरणों की व्याख्या आवेगों के आधार पर की जाती है। किस प्रकार के आवेग में किस प्रकार की स्थिति बनती है, यह स्पष्ट है। एक व्यक्ति का मुक्का उठा और हमने समझ लिया कि वह गुस्से में है। आवेग के आते ही एक प्रकार की स्थिति बनती है, अनुभूति होती है। उसका प्रभाव स्नायु-तंत्र पर पड़ता है, पेशियों पर होता है। एक प्रकार की उत्तेजना पैदा हो जाती है। उत्तेजना के अनुरूप सक्रियता आ जाती है। पेशियां उसी के अनुसार काम करने लग जाती हैं। आवेग का प्रभाव हमारे स्नायु-तंत्र पर, पेशियों पर, रक्त पर और रक्त के प्रवाह पर, फेफड़ों पर, हृदय की गति पर, श्वास पर और ग्रंथियों पर होता है। भय का आवेग आते ही स्नायविक तरंग उठती है। वह मस्तिष्क तक उस संदेश को ले जाती है। उत्तेजना पैदा हो जाती है। वह पाचन-संस्थान को भी प्रभावित करती है। पाचन अस्त-व्यस्त हो जाता है। उत्तेजना मांसपेशियों तक पहुंचती है। वे सक्रिय हो जाती हैं। एड्रिनल ग्रंथि का स्राव अधिक होता है, उसके कारण व्यक्ति में कुछ साहसिक कार्य करने की क्षमता जागृत हो जाती है। वह साहसिक बनकर प्रहार करने की स्थिति में आ जाता है। यह सारा शारीरिक परिवर्तन आवेग के कारण होता है और फिर बाहर से उसके लक्षण भी दिखाई देने लग जाते हैं, जिनके आधार पर हम समझ सकते हैं कि व्यक्ति भयभीत है, क्रोधी है। आवेगों के कारण शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन, शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन और अनुभूति में परिवर्तन होता है। इन 7 कर्मवाद Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारी बातों के साथ एक बात और जोड़ दें कर्मशास्त्र की। आवेगों के कारण बहुत सारी बातें होती हैं। इसके साथ एक बात पहले जोड़ दें और एक बात पीछे जोड़ दें। पहले यह जोड़ें कि भय परिस्थिति से उत्पन्न नहीं है, परिस्थिति से उद्भूत है। उत्पन्न होना अलग बात है और उद्भूत होना अलग बात है। परिस्थिति से भय उद्भूत हुआ, जागृत हुआ, जो सोया हुआ था, वह जाग उठा। किन्तु वह उत्पन्न हुआ है मोह के कारण। भय-वेदनीय मोह के कारण भय उत्पन्न होता है। उस व्यक्ति में ऐसे परमाणु संचित हैं जो किसी निमित्त का सहारा पाकर उत्पन्न हो जाते हैं। यह पहले जोड़ने वाली बात है। एक बात बाद में जोड़ें। जो डरता है, जो भयभीत है, वह भय के कारण केवल शारीरिक या मानसिक परिवर्तन ही नहीं करता किन्तु दूसरे परमाणुओं का संग्रह भी करने लग जाता है और इतने परमाणु संग्रहीत कर लेता है जो मोह को और अधिक पोषण देते हैं। कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म के चार आवेग माने हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। इन्हें 'कषाय-चतुष्टयी' कहा जाता है। ये चार मुख्य आवेग हैं। कुछ उप-आवेग हैं। उनकी संख्या सात या नौ है। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद-ये सात या वेद को स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद में हम विभक्त करें तो उप-आवेग नौ हो जाते हैं। इन्हें 'नौ कषाय' कहा जाता है। ये पूरे कषाय नहीं हैं। कषायों के कारण होने वाले 'नौ कषाय' हैं, मूल आवेगों के कारण होने वाले उप-आवेग हैं। ईर्ष्या करना, आदर देना आदि-आदि आवेग हैं या नहीं-यह प्रश्न होता है। कर्मशास्त्र में भी आवेग के रूप में स्वीकृत नहीं हैं। मानसशास्त्र में भी ये आवेग नहीं माने गये हैं। मानसशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार ईर्ष्या आदि मूल आवेग नहीं हैं। ये सम्मिश्रण हैं, मिश्रित आवेग हैं। इनमें अनेक आवेगों का एक साथ मिश्रण हो जाता है। ये मूल नहीं हैं। कर्म-शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भी ये मिश्रित हैं, मूल नहीं हैं। उसके अनुसार मूल आवेग चार और उप-आवेग सात या नौ हैं। . उप-आवेग क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे तीव्र नहीं हैं। इनमें आवेग : उप-आवेग 76 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी बहुत तारतम्य है। यह मोह-परिवार ही हमारी दृष्टि को प्रभावित . करता है, हमारे चरित्र को प्रभावित करता है। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। जैसा दृष्टिकोण, वैसा आचार। आचार का और दृष्टिकोण का गहरा संबंध है। दृष्टिकोण विकृत होता है तो आचार विकृत होता है। दृष्टिकोण सम्यक् होता है तो आचार सम्यक् होता है। उसके सम्यक् होने की अधिक संभावना होती है। ऐसा तो नहीं है कि दृष्टिकोण के सम्यक् होने के साथ-ही-साथ सारा-का-सारा आचार सम्यक् हो जाये। आचार का क्रमिक विकास होता है। पहले दृष्टिकोण सम्यक् होगा, फिर आचार सम्यक् होगा। जो भौतिक जीवन जीना पसंद करते हैं, वे केवल बौद्धिक विकास की चिंता करते हैं और वे बौद्धिक विकास को ही सर्वोपरि मानते हैं। जो आध्यात्मिक जीवन पसंद करते हैं, वे आध्यात्मिक चेतना के विकास की चिंता करते हैं। वे बौद्धिक विकास को आवश्यक मानते हुए भी सर्वोपरि नहीं मानते। जब तक आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता, जीवन का परम साध्य उपलब्ध नहीं होता, उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम देखते हैं, कुछ बड़े-बड़े विद्वान हैं पर वे बहत ही अशान्त हैं। वे प्रताड़ित और धधकता हुआ-सा जीवन जीते हैं। वे ज्ञानी हैं। ज्ञान होने पर भी उनका मन शान्त नहीं है। उनके पास समस्याओं का समाधान नहीं है। यह क्यों? इसका एकमात्र हेतु है कि उनमें विद्या का विकास तो हो गया, किन्तु आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हुआ। उनमें केवल बौद्धिक चेतना विकसित है। जब केवल बौद्धिक चेतना का विकास होता है और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तो समझ लेना चाहिए कि वह जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। यह संकट का और भय का सबसे बड़ा बिन्दु है। बौद्धिक चेतना के विकास का संबंध है मस्तिष्क से। मस्तिष्क की शक्तियां प्रखर होती हैं, तब बौद्धिक क्षमताएं जाग जाती हैं। कर्मशास्त्र की भाषा में बौद्धिकता का विकास ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। ज्ञान का आवरण जितना हटता है, उतनी ही बौद्धिक क्षमताएं 80 कर्मवाद Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकसित होती हैं। आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है मोहकर्म के विलय से। कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जाता है कि जब मोहकर्म उपशान्त होता है, क्षीण होता है, तब आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है। आध्यात्मिक विकास की पूरी गाथा मोह के विलय से जुड़ी हुई है। मोह प्रबल है तो आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो सकता, चाहे फिर वह कितना ही बड़ा विद्वान् बन जाये, वैज्ञानिक बन जाये या और कुछ बन जाये। बडे-बडे बौद्धिक लोग भी आत्महत्या कर अपनी प्रखर बौद्धिक जीवन-लीला को समाप्त कर देते हैं। उनमें अन्तर्द्वन्द्व होता है। वे उसको समाहित नहीं कर पाते। जो मानसिक समस्याएं एक सामान्य मनुष्य में होती हैं, वे सारी-की-सारी एक बड़े-से-बड़े बौद्धिक में हो सकती हैं। वे समस्याएं उसको इसलिए प्रताड़ित करती हैं, इसलिए आत्महत्या करने को बाध्य करती हैं कि उनमें बौद्धिक चेतना का तो पूर्णरूपेण विकास होता है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना सुषुप्त है, विकसित नहीं है, जागृत नहीं है। जब तक आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं हो जाता, तब तक समस्याओं के व्यूह को नहीं तोड़ा जा सकता। उनके प्रवाह को नहीं रोका जा सकता। ___बौद्धिक और आध्यात्मिक, इन दोनों के विकास का हमारे जीवन में एक पूरा वृत्त बनता है। दोनों का समन्वय होना चाहिए। इन दोनों की समन्विति ही जीवन का सर्वोच्च विकास है। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए मोह को समझना जरूरी है। ____ मोह का मूल है-राग और द्वेष। राग और द्वेष के द्वारा एक चक्र घूम रह्य है। वह चक्र है आवेग और उप-आवेग का। राग और द्वेष है, इसीलिए क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार मूल आवेग उत्पन्न होते हैं। राग और द्वेष है, इसीलिए हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), काम-वासना-ये सारे उप-आवेग उत्पन्न होते हैं। इन सबके मूल में राग और द्वेष है। आवेगों की पृष्ठभूमि में ये दो अनुभूतियां काम करती हैं। जब तक ये अनुभूतियां हैं, तब तक आवेग और उप-आवेग की. उत्पत्ति को नहीं रोका जा सकता। यह चक्र घूमता रहता है। कभी आवेग : उप-आवेग 81 . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई आवेग उत्पन्न हो जाता है तो कभी कोई आवेग। यह सच है। कि परिस्थितियां भी इनकी उत्पत्ति में निमित्त बनती हैं, वातावरण भी . निमित्त बनता है। आवेगों की तरतमता समूचे आध्यात्मिक चेतन के विकास का बोधचक्र है। कषाय-चतुष्टयी-क्रोध, मान, माया और लोभ-के तारतम्य का पहला प्रकार है-अनन्तानुबंधी। अनन्तानुबंधी अनन्त अनुबंध करता है। इतनी संतति पैदा करता है कि जिसका अंत नहीं होता है। संतति के बाद संतति। यह क्रम टूटता ही नहीं या मुश्किल से टूटतो. है। जिस आवेग में संतति की निरंतरता होती है या जिसमें संतति को पैदा करने की अटूट क्षमता होती है, वह अनन्तानुबंधी होता है। कभी ऐसा भी होता है कि एक घटना घटती है। उसका असर होता है. और बात समाप्त हो जाती है। कभी ऐसा भी होता है कि घटना घटित हुई, मन में विचार आया और उस विचार का सिलसिला इतना लम्बा हो गया कि उस मूल विचार से अनेक-अनेक छोटे-बड़े विचार उत्पन्न होते गये। एक के बाद एक विचार आते रहे। उनकी श्रृंखला नहीं टूटी। वह पहला विचार इतनी बड़ी संतति पैदा करता जाता है कि वह कभी समाप्त ही नहीं होता। वह अनन्तानुबंधी है। बहुत सारे कीटाणु ऐसे होते हैं, जिनकी संतति इतनी बढ़ जाती है कि जाल फैल जाता है। वह जाल बहुत बड़ा होता है। वे कीटाणु संतति पैदा करते ही चले जाते हैं। कहीं रुकते ही नहीं। इसी प्रकार जिस आवेग की संतति आगे बढ़ती चली जाती है, वह तीव्रतम आवेग हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। जब तक यह आवेग होता है, तब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता। क्योंकि मूर्छा इतनी सघन होती है कि एक मूर्छा दूसरी मूर्छा को, दूसरी मूर्छा तीसरी मूर्छा को और तीसरी मूर्छा चौथी मूर्छा को उत्पन्न करती चली जाती है। इसका कहीं अंत नहीं आता। सम्यक् देखने का हमें अवसर ही नहीं मिलता। एक के बाद दूसरी गलती, गलतियों को दोहराते चले जाते हैं और दृष्टि में भ्रम छाया का छाया रहता है। यह प्रखरतम आवेग हमारी दृष्टि को विकृत करता है। यह ग्रंथिपात का क्रम है। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता 52 कर्मवाद Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि जब आवेग प्रबल होता है, तब ग्रंथिपात होता है। यह आवेग आने के बाद जाता नहीं। जब क्रोध अनन्तानुबंधी की कोटि का होता है, तब वह सहजता से नहीं जाता। वह चट्टान की दरार जैसा होता है। चट्टान में दरार पड़ गयी, वह फिर मिटती नहीं। अमिट बन जाती है। एक रेखा बालू पर खींची जाती है और एक रेखा पानी पर खींची जाती है। पानी की रेखा तत्काल मिट जाती है, मिट्टी की रेखा कठिनाई से मिटती है, फिर भी वह चट्टान की दरार की भांति कठिन नहीं होती। आवेग की भी ये चार स्थितियां, अवस्थाएं होती हैं-तीव्रतम, तीव्रतर, मंद और मंदतर। कर्मशास्त्र की भाषा में इनके चार नाम हैं तीव्रतम-अनन्तानुबंधी तीव्रतर-अप्रत्याख्यानी मंद-प्रत्याख्यानी . मंदतर-संज्वलन। प्रथम कोटि का आवेग दृढ़तम होता है। उस स्थिति में राग-द्वेष की गांठ इतनी कठोर होती है कि सम्यक्दृष्टि प्राप्त नहीं होती, सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करने की तैयारी नहीं होती। उसके उदय से भौतिक जीवन इतना मूर्छामय, इतना प्रगाढ़ निद्रामय हो जाता है कि व्यक्ति सत्य को देखने का प्रयत्न ही नहीं करता, जागृति के बिन्दु पर पहुंचने का प्रयत्न ही नहीं कर पाता। जीवन में केवल मूर्छा व्याप्त रहती है। दृष्टि मूर्छित रहती है। यथार्थ हाथ नहीं लगता। निंदियाई आंखों से आदमी ठीक देख नहीं पाता, नशे में आदमी देख नहीं पाता, उसे यथार्थ का बोध नहीं होता, क्योंकि वह मत्त है, सुप्त है। जब तक आवेग की यह अवस्था बनी रहती है, राग-द्वेष की ग्रंथि तीव्र होती है, तब तक सत्य का दर्शन नहीं होता। सम्यक् दर्शन उसे प्राप्त नहीं होता। वह मिथ्या-दृष्टि होता है। उसका दर्शन मिथ्या होता है। तत्त्व का विपर्यय होता है। जीवन में सारा विपर्यय ही विपर्यय होता है। इस तीव्र आवेग की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया होती है कि व्यक्ति के चिंतन-मनन को विकृत कर देती है। चिंतन-मनन विपर्यस्त हो जाता है। जब उस आवेग की तीव्रता कम होती है, उसका परिशोधन होता है, उसका तनुभाव होता आवेग : उप-आवेग 83 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह क्षीण होता है, तब दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यान) प्राप्त होती है। अनन्तानुबंधी अवस्था का विलय होते ही दृष्टिकोण सम्यक् हो जाता है। यह साधना की पहली भूमिका है। यह आध्यात्मिक चेतना के विकास की पहली भूमिका है। कर्मशास्त्र की भाषा में इस भूमिका का नाम है-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान। यह सत्य को जानने की भूमिका है। यहां अतत्त्व की बुद्धि नहीं रहती। असत्य में सत्य का भाव नहीं रहता। व्यक्ति जो जैसा है, उसे वैसा जानने लग जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है। सत्य उपलब्ध हो जाता है। ___आवेग की दूसरी अवस्था विद्यमान रहती है, तब आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए जिस प्यास को बुझाना चाहिए, जो प्यास बुझ जानी चाहिए, जो अनन्त आकांक्षा है, अनन्त प्यास है, वह बुझती नहीं। बोध यथार्थ हो जाता है कि यह प्यास है और ऐसी प्यास है जो बुझती नहीं। कितना ही पीयो, वह नहीं बझेगी। जितना पीते हैं, उतनी ही वह प्यास प्रज्वलित होती रहती है। बुझती नहीं। बुझाने का मार्ग प्राप्त नहीं है। क्योंकि आवेग की दूसरी अवस्था विद्यमान है। वह पथ प्राप्त नहीं करने देती। उससे प्रभावित होकर व्यक्ति प्यास बुझाने के मार्ग को स्वीकार ही नहीं करता। आवेग की यह ग्रन्थि उसे वैसा करने नहीं देती। उस ग्रन्थि का ऐसा स्राव होता है, जो उस प्यास को बुझाने के रास्ते पर मनुष्य को चलने ही नहीं देता। चेतना ऐसी बन जाती है कि व्यक्ति जानते हुए भी कर नहीं पाता। ___कई बार हम लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि वह मार्ग बहुत अच्छा है। पर हम चल नहीं सकते। ध्यान बहुत अच्छा है, पर हम उसे कर नहीं पाते। निकम्मा कौन बैठे? काम बहुत है। व्यस्तता बहुत है। इच्छा ही नहीं होती कि ध्यान किया जाये। कभी इच्छा नहीं होती कि साधना की जाये, थोड़ी-सी निवृत्ति की जाये। यद्यपि ध्यान भी एक प्रवृत्ति है, साधना भी एक प्रवृत्ति है, फिर भी उसमें मन नहीं लगता। मन उसी प्रवृत्ति में लगता है, जिसको हम रात-दिन करते आ रहे हैं। वह भी सकारण होता है। इसका मूल कारण है-दूसरे आवेग की विद्यमानता। जैसे-जैसे आध्यात्मिक चेतना का क्रम बढ़ता है, वह दूसर। 84 कर्मवाद Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवेग घुलता जाता है, उसका शोधन होता जाता है, तब व्यक्ति में विरति की ओर बढ़ने की भावना होती है। इस आवेग का नाम है-अप्रत्याख्यान। पहला आवेग टूटता है, तब भेदज्ञान की उपलब्धि होती है। मैं शरीर से भिन्न हूं, मैं शरीर नहीं हूं-यह बोध स्पष्ट हो जाता है। मैं शरीर हूं-यह अस्मिता है। अस्मिता एक क्लेश है। भेदज्ञान होते ही अस्मिता मिट जाती है, क्लेश मिट जाता है। इसके मिटते ही दूसरा संस्कार निर्मित हो जाता है। मैं शरीर नहीं हूं', 'मैं शरीर से भिन्न हूं'-यह भी एक संस्कार है। यह प्रतिप्रसव है, अर्थात् उस संस्कार को मिटाने वाला संस्कार है। शरीर के साथ अभेदानुभूति, 'अहमेव देहोऽस्मि' का जो भाव है, मैं शरीर हूं, मैं देह हूं-यह जो भाव है, यह मिथ्या दृष्टिकोण है। वह समाप्त हो जाता है। उसे समाप्त करने के लिए दूसरे संस्कार का निर्माण करना होता है। 'मैं शरीर नहीं हूं'-यह प्रतिप्रसव है, प्रतिपक्ष का संस्कार है। जैसे ही आवेग की दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यानावरण) उपशान्त या क्षीण होती है, तब उस रास्ते पर चलने की भावना निर्मित हो जाती है। तब मन में भावना होती है कि विरति का, त्याग का रास्ता अच्छा है, प्यास बुझाने वाला है, इस पर अवश्य चलना चाहिए। कर्मशास्त्र की भाषा में देशविरति गुणस्थान उपलब्ध हो जाता है। यह आध्यात्मिक विकास की पांचवीं भूमिका है। ____ आध्यात्मिक विकास के क्रम में जब हम आगे बढ़ते हैं, अभ्यास करते-करते जैसे मोह का वलय टूटता जाता है, उसका प्रभाव मंद होता जाता है, तब तीसरी ग्रन्थि खुलती है। इस ग्रन्थि का नाम हैप्रत्याख्यानावरण। यह आवेग की तीसरी अवस्था है। इसके टने से विरति के प्रति व्यक्ति पूर्ण समर्पित हो जाता है। जो चलना प्रारम्भ किया था, अब उसके लिए पूर्ण समर्पित हो जाता है। यह आध्यात्मिक विकास की छठी भूमिका है। इस भूमिका में व्यक्ति साधु बन जाता है, संन्यासी बन जाता है। पांचवीं भूमिका गृहस्थ साधकों की है और छठी भूमिका मुनि-साधकों की है। दोनों साधना के इच्छुक हैं, दोनों साधना-पथ के आवेग : उप-आवेग 5 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथिक हैं। दोनों ने चलना शुरू किया है। वे उस यात्रा के लिए समर्पित हो चुके हैं। एक व्यक्ति गृहस्थ-जीवन में साधना करता है और एक व्यक्ति मुनि जीवन में साधना करता है। गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आ जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, एक छलांग नहीं है। कहीं-कहीं, कभी-कभी आकस्मिक घटना भी घटित होती है, छलांग भी लगती है। हमारे विकास के क्रम में भी छलांगें होती हैं। विकास के एक क्रम में चलते-चलते ऐसी छलांग आती है कि व्यक्ति को नयी उपलब्धि प्राप्त हो जाती है, नया प्रजनन हो जाता है, नया घटित हो जाता है। यह छलांग है। किन्तु गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आ जाना कोई छलांग नहीं है। इसमें निश्चित क्रम की व्यवस्था है। कोई गृहस्थ होकर साधना का प्रारम्भ करता है और कोई मुनि बनकर साधना की यात्रा पर चलता है। इसके पीछे भी मोह के आवेगों का सिद्धान्त काम करता है। जिस व्यक्ति के मोह का कुछ विलय हुआ है एक निश्चित मात्रा में, तो उस व्यक्ति के मन में साधना का भाव जागृत होता है। जिस व्यक्ति के मोह का अधिक विलय हुआ है, उस व्यक्ति के मन में साधना के प्रति समर्पित हो जाने की बात प्राप्त होती है। भगवान् महावीर ने साधु-जीवन की जो व्यवस्था की, वह नयी व्यवस्था थी। उन्होंने यह व्यवस्था दी कि जैन शासन में जो भी प्रव्रजित होगा, वह जीवन-भर के लिए मुनि बनेगा, कुछ समय के लिए नहीं। उसे यावज्जीवन मुनिव्रत को पालने की प्रतिज्ञा करनी होगी। बौद्धों में दूसरी व्यवस्था है। बौद्ध-शासन में भिक्षु बनने वाले के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह यावज्जीवन भिक्षु ही बना रहे। वह दो वर्ष, पांच वर्ष, बीस वर्ष तक अर्थात् सावधिक भिक्षु रह सकता है। यह तथ्य मनोवैज्ञानिक-सा लगता है। बुद्ध ने ऐसा स्तर बतला दिया कि आज साधना के लिए चले, भिक्षु बने, जब तक संभव हुआ, तब तक भिक्षु बने रहे, जब इच्छा हुई, तब पुनः लौट आये। किंतु महावीर ने जो यावज्जीवन की व्यवस्था की, वह मनोवैज्ञानिक भूमिका से भी परे की बात है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य है। उन्होंने इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि में कहा कि जो साधना के प्रति पूर्ण समर्पित 86 कर्मवाद Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता, वह भिक्षु कैसे हो सकता है? जिसका वह संकल्प ही नहीं कि मैं जीवन-भर मुनि बना रहूंगा, वह लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित कैसे हो सकता है? जिस व्यक्ति की पृष्ठभूमि में मोह-विलय की इतनी प्रेरणा नहीं कि वह साधना के प्रति सदा के लिए समर्पित हो जाये, वह गृहस्थ-साधु हो सकता है, किन्तु गृहत्यागी अनगार साधु कैसे हो सकता है? इस मोह-विलय के तारतम्य के आधार पर, इस कर्म की प्रेरणा की वास्तविकता के आधार पर महावीर ने यह अनिवार्य बात जोड़ी कि कोई मुनि बनेगा तो वह आजीवन के लिए बनेगा, यावज्जीवन के लिए होगा, अल्पकाल के लिए नहीं। क्योंकि जब प्रत्याख्यानावरण का विलय नहीं है, तो मुनित्व आ नहीं सकता। मुनित्व और श्रावकत्व की हमारी व्यावहारिक कल्पना है। सम्यक् दर्शन की भी एक व्यावहारिक कल्पना है। जहां संघ और समाज होता है, संगठन होता है, वहां व्यवहार भी चलता है। किन्तु व्यवहार व्यवहार होता है, उसमें वास्तविकता बहुत कम होती है। निश्चय वास्तविक होता है। निश्चय सत्य की उपलब्धि निश्चय के द्वारा होती है। निश्चय को हम छोड़ दें और केवल व्यवहार पर चलें तो जो सत्य उपलब्ध होना चाहिए वह उपलब्ध नहीं होता। अनेकांत दर्शन के दो पक्ष हैं-व्यवहार और निश्चय। अनेकांत का पंछी निश्चय और व्यवहार-इन दोनों पंखों को फड़फड़ाकर उड़ता है। एक पंख से वह उड़ नहीं पाता। एक पंख उसका काटा नहीं जा सकता, न व्यवहार को काटा जा सकता है और न निश्चय को काटा जा सकता है। . जब हम व्यवहार की भाषा में चलते हैं, तब जीव आदि नौ पदार्थों को जानना सम्यक्दर्शन माना जाता है। श्रावक के व्रतों को स्वीकार कर लिया, यह हो या पांचवां गुणस्थान अर्थात् श्रावकत्व, देशविरति की प्राप्ति। पांच महाव्रतों को स्वीकार कर लिया, छठा गुणस्थान आ गया, सर्वविरति की अवस्था प्राप्त हो गयी। यह है व्यवहार की भाषा का स्वीकार। किंतु जब हम कर्मशास्त्रीय भाषा में सोचते हैं, निश्चय की भाषा में सोचते हैं, तब हमें कहना होगा कि आवेग चतुष्टय (क्रोध, आवेग : उप-आवेग 87 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान, माया, लोभ) की तीव्रतम अवस्था (अनन्तानुबंधी) का विलय होने पर सम्यक्दर्शन उपलब्ध होता है। जिस व्यक्ति में आवेग की वह तीव्रतम अवस्था क्षीण या उपशांत नहीं होती, उसे सम्यक्दर्शन उपलब्ध नहीं होता, फिर चाहे वह कितनी ही बार नौ पदार्थों को रट जाये और उनको कंठस्थ कर उच्चारण करता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक यथार्थ में व्यक्ति देश-विरति श्रावक नहीं बन सकता, चाहे फिर वह कितनी ही बार त्याग हो दोहराता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की तीसरी अवस्था (प्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक वह मुनि-साधक नहीं बन सकता, फिर चाहे वह कितनी ही बार दीक्षित क्यों न हो जाये। जब तक व्यक्ति में आवेग की चौथी अवस्था (संज्वलन) का क्षय नहीं होता, तब तक व्यक्ति वीतराग नहीं बन सकता, वह चारित्र की उत्कृष्ट कोटि-यथाख्यात को नहीं पा सकता। हम अंतरंग और बहिरंग-दोनों पर ध्यान दें,। केवल बहिरंग साधना पर्याप्त नहीं है। जब तक कषाय का विलय नहीं होगा, अंतरंग का स्पर्श नहीं होगा, तब तक आध्यात्मिक चेतना उपलब्ध नहीं होगी। बहिरंग साधना से व्यवहार की पूर्ति तो हो सकेगी, किंतु आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पायेगा। ___ कर्मशास्त्र के रहस्यों को समझे बिना हम आध्यात्मिक विकास के सूक्ष्म रहस्यों को नहीं समझ सकते। उन सूक्ष्म रहस्यों को समझे बिना आध्यात्मिक चेतना के अंतरंग पथ को नहीं पकड़ सकते। इसलिए हमें कर्मशास्त्र की गहराइयों में उतरकर उसके रहस्यों को पकड़ना होगा। वीतराग की ओर बढ़ने के लिए जो एक बाधा बनी रहती है, वह है आकांक्षा। व्यक्ति कभी पूजा का आकांक्षा हो जाता है, कभी उसकी इच्छा प्रिय वस्तुओं को भोगने की ओर अग्रसर होती है, कभी अनुकूलता चाहता है, मनोज्ञता चाहता है, अमनोज्ञता से बचना चाहता है। यह सब आशंसा से उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति 'जहावाई तहाकारी' नहीं होता, जैसा कहता है, वैसा करने वाला नहीं होता, कहता कुछ है और करता कुछ है, यह स्थिति जब तक समाप्त नहीं होती, तब 88 कर्मवाद Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक अध्यात्म की उच्च भूमिका प्राप्त नहीं होती। जो कह दिया, वैसा ही करना है, यह चेतना जब पूर्णतः जागृत नहीं होती, तब कभी-कभी चलते-चलते शिथिलता आ जाती है। कभी वह शिथिलता वातावरण से उत्पन्न होती है और कभी अन्यान्य कारणों से। जब ये चारों आवेग नष्ट हो जाते हैं, इनकी चारों अवस्थाएं क्षीण हो जाती हैं, तब वीतरागता की स्थिति आती है, तब चारित्र यथाख्यात बन जाता है। उस अवस्था में किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य के प्रति शैथिल्य नहीं आता। तब कहने और करने में, करने और कहने में तनिक भी अंतर नहीं रह जाता। कोई भी शक्ति उसमें अंतर नहीं ला सकती। चाहे मनुष्यकृत कष्ट प्राप्त हों, तिर्यंचकृत कष्ट प्राप्त हों या दैवी उपसर्ग प्राप्त हों, चाहे मरने का प्रसंग आये या जीने का, चाहे आकर्षक पदार्थों का अंबार लगा हो या. नीरस पदार्थ पड़े हों, व्यक्ति की चेतना में कोई अंतर नहीं आता। वह आत्मा के साथ एकात्मक हो जाता है, एकरूप हो जाता है। वह यथाख्यात चारित्र इतना अप्रकम्प होता है कि वहां छिपाव की बात सर्वथा समाप्त हो जाती है। वह छद्मरहित अवस्था होती है। भीतर से एक प्रकार की नग्नता जैसी अवस्था हो जाती है। कोई छिपाव या आवरण नहीं रहता। - यह हमारी आध्यात्मिक चेतना का विकास-क्रम है। यह सारा का सारा मोह के विलय के आधार पर होता है। मोह जितना प्रबल होता है, हमारी मूर्छा उतनी ही प्रबल हो जाती है। हमारी मूर्छा जितनी प्रबल होती है, उतना ही हमारा आचार विकृत होता चला जाता है और हमारा दृष्टिकोण भी मिथ्या होता चला जाता है। एक मार्ग है मोह की प्रबलता का और दूसरा मार्ग है मोह की दुर्बलता का या मोह के विलय का। पहले मार्ग से चलते हैं तो आध्यात्मिक चेतना मूर्छित होती चली जाती है और दूसरे मार्ग से चलते हैं तो आध्यात्मिक चेतना विकसित होती चली जाती है। हम किस प्रकार मोह को क्षीण करें, यह साधना का केन्द्र-बिन्दु है। मोह को शांत करें, राग-द्वेष को कम करें और इस प्रकार जीवन जीयें कि कषाय कम होता चला जाये, राग-द्वेष कम होता रहे, यह जैसे कर्मशास्त्रीय मीमांसा है, वैसे ही अध्यात्मशास्त्रीय मीमांसा है। ___ आवेग : उप-आवेग 86 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे अध्यात्मशास्त्रीय मीमांसा है, वैसे ही स्वास्थ्यशास्त्रीय मीमांसा है, मानसशास्त्रीय मीमांसा है। इन आवेगों का केवल हमारी आध्यात्मिक चेतना पर ही प्रभाव नहीं होता, किन्तु हमारे मन पर, मन की शांति पर और स्वास्थ्य पर भी प्रभाव होता है। आज की मनोवैज्ञानिक खोजों ने विषय को बहुत उजागर कर दिया कि आवेगों का व्यक्ति के मन पर कितना असर होता है और आवेगों के कारण कितने प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। यह विषय पहले भी अज्ञात नहीं था। प्राचीन आचार्यों ने यह स्पष्टता से प्रतिपादित किया है कि आवेगों से रोग उत्पन्न होते हैं। वात, पित्त और कफ की विषमता से ही बीमारियां होती हैं। आवेगों के द्वारा वात, पित्त और कफ विकृत होते हैं और तब रोग सरलता से आक्रमण कर देते हैं। प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में इन विषयों की विशद जानकारी प्राप्त होती है। किन्तु वर्तमान में जो मानसशस्त्रीय खोजें हुई हैं, उनसे इस विषय पर चामत्कारिक प्रकाश पड़ता है। मनस्चिकित्साशास्त्र कुछ अद्भुत बातें प्रस्तुत करता है। हम मानते हैं कि बीमारियां शरीर में पैदा होती हैं। डॉक्टर कहते हैं कि कीटाणुओं के द्वारा बीमारियां उत्पन्न होती हैं। किंतु मनस्-चिकित्साशास्त्र कुछ और ही कहता है। उसका कहना है कि सत्तर-अस्सी प्रतिशत बीमारियां मानसिक आवेगों के कारण होती हैं। क्रोध, ईर्ष्या, भय, लालच-ये बीमारी के उत्पादक हैं। बहुत सारी बीमारियां ग्रंथियों के स्राव के कारण बढ़ती हैं, अवांछनीय रासायनिक प्रक्रिया होती है। इस दृष्टि से भी ये आवेग घातक हैं। ये आवेग कर्म की परंपरा को तो आगे बढ़ाते ही हैं, किंतु शरीर के लिए भी लाभदायक नहीं हैं। हमें कर्मशास्त्र को केवल जानना ही नहीं है, उसके रहस्यों को जानकर उनसे लाभ उठाना है। वह है आवेग का नियंत्रण। आवेगों पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए। कर्मशास्त्र की भाषा में आवेग-नियंत्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन और क्षयीकरण। उपशमन मनोविज्ञान की भाषा में इसे दमन की पद्धति कहा गया है। एक व्यक्ति 60 कमवाद Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवेगों का दमन करता चला जाता है। मन में जो भी इच्छा उत्पन्न हुई, जो भी आवेग आया, उसे रोक लिया, शान्त कर दिया, दबा दिया। वह दबाता चला जाता है और दमन करते-करते अध्यात्म-विकास की ग्यारहवीं भूमिका तक जा सकता है। यह भी ऊंची भूमिका है। इसका नाम है-उपशांत मोह। इसे ग्यारहवां गुणस्थान कहा जाता है। इस भूमिका में मोह उपशांत हो जाता है। इतना उपशांत कि व्यक्ति वीतराग हो जाता है। यह दमन का रास्ता है, विलय का नहीं। इसलिए कुछ ही समय पश्चात् ऐसी स्थिति बनती है कि दबा हुआ कषाय उभरता है और उससे ऐसा झटका लगता है कि ग्यारहवीं भूमिका में गया हुआ साधक नीचे लुढ़क जाता है और फिर वह उन्हीं आवेगों से आक्रांत हो जाता है। - दमन की पद्धति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किन्तु यह व्यक्ति को लक्ष्य तक नहीं पहुंचा पाती। क्षयोपशमन ___ यह दूसरी पद्धति है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे उदात्तीकरण की पद्धति कहा गया है। इसे मार्गान्तरीकरण भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-रास्ता बदल देना, उदात्त कर देना, परिष्कृत कर देना, परिमार्जन कर देना। क्षयोपशमन का अर्थ है-कुछ दोषों का उपशमन हुआ और कुछ क्षीण हुए। इसमें उपशमन और क्षय साथ-साथ चलते हैं। क्षयीकरण यह तीसरी पद्धति है। इसका अर्थ है-पूर्ण क्षीण कर देना, समाप्त कर देना, विलय कर देना। इसमें उपशमन नहीं होता। जो भी आया, उसे नष्ट कर दिया। यह नष्ट करते हुए चलने की पद्धति है। यह है सर्वथा आगे बढ़ जाने की पद्धति। ऐसा करने वाला व्यक्ति पूर्णतः आगे ही बढ़ता चला जाता है। उसकी आध्यात्मिक चेतना की भूमिका प्रशस्त होती चली जाती है। आवेग : उप-आवेग 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवेगों का उपशमन होता है, आवेगों का क्षयोपशमन होता है और आवेगों का क्षयीकरण होता है। मानसविज्ञान की दृष्टि से भी यह सम्मत तथ्य है कि आवेगों पर नियंत्रण होना चाहिए। अनियंत्रित आवेग व्यक्ति को ही नहीं, समाज को भी हानि पहुंचाते हैं। क्रोध उत्पन्न होता है। उसे रोकना जरूरी है। किन्तु अंतर इतना ही आता है कि उसे कैसे रोकें? यहां कर्मशास्त्र का अध्यात्मशास्त्रीय पक्ष आ जाता है। यह उसका साधना पक्ष है। अध्यात्मशास्त्र और कर्मशास्त्र जुड़े हुए हैं। इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता। ___ हमने यह जान लिया कि यह संसार का चक्र आवेग के द्वारा चल रहा है। आवेगों के द्वारा मानसिक अशांति का चक्र चल रहा है। आवेगों के द्वारा बहुत सारी बीमारियां उत्पन्न होती हैं। परन्तु एक प्रश्न आता है कि हम इन आवेगों से कैसे बचें? कर्मशास्त्र इस प्रश्न का समाधान नहीं देता। क्या घटित होता है, यह कर्मशास्त्र के द्वारा उपलब्ध हो गया। अब उन आवेगों के उपशमन के लिए, उनके क्षयीकरण के लिए हमें क्या करना चाहिए-यह बोध अध्यात्मशास्त्र से प्राप्त होगा। इस बिन्दु पर कर्मशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र मिल जाते हैं। मोह का विलय कैसे करें, आवेगों का विलय कैसे करें, इसकी चर्चा हम अध्यात्मशास्त्रीय बिन्दु के द्वारा करेंगे। 62 कर्मवाद Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवेग-चिकित्सा कुशल चिकित्सक वह होता है जो रोग, रोग के हेतु, आरोग्य और आरोग्य के हेतु-इन चारों को जानकर रोग की चिकित्सा करता है। कुशल साधक वह होता है जो कर्म, कर्म के बीज, कर्म-मक्ति और कर्म-मक्ति के हेत को जानता है। कुशल साधक वह होता है जो बंध, बंध के हेतु, बंध-मुक्ति और बंध-मुक्ति के हेतु को जनता है। जो इन सबको भली-भांति जानकर कर्म की चिकित्सा करता है, वह कुशल साधक होता है। कर्म जानना उसके लिए इसलिए जरूरी है कि उसको जाने बिना आध्यात्मिक विकास नहीं होता। उसकी आध्यात्मिक चेतना के विकास में जो बाधक है, वह है कर्म। अब यदि वह अपने बाधक तत्त्व को नहीं जानता तो अपनी बाधा मिटा नहीं सकता। आध्यात्मिक चेतना का विकास कर नहीं सकता। इसलिए कर्म को जानना जरूरी है। दूसरे शब्दों में, बंध को जानना जरूरी है। बंध या कर्म को जानना ही पर्याप्त नहीं है। उसके हेतु को जाने बिना कुछ नहीं होता। यदि कर्म या बंध के हेतु को नहीं जाना जाता तो कर्म या बंध को समाप्त नहीं किया जा सकता। कर्म का बीज है-राग-द्वेष। जब तक राग और द्वेष को नहीं जाना जाता, तब तक राग और द्वेष से होने वाले जीव के परिणामों को, जीव की विविध परिणतियों को नहीं जाना जा सकता। कर्म की चिकित्सा नहीं हो सकती। इसलिए कर्म को जानना जरूरी है, कर्म-बीज को जानना भी जरूरी है। दोनों को जान लिया किन्तु यदि कर्म-मुक्ति और कर्म-मुक्ति के हेतु को नहीं जाना तो कर्म की चिकित्सा नहीं हो सकती। कर्म-मुक्ति का हेतु है-संवर और निर्जरा। जब ध्यान के द्वारा संवर आवेग-चिकित्सा 6 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (निरोध) की स्थिति उपलब्ध होती है और तपस्या के द्वारा निर्जरा हो जाती है, तब कर्म की ठीक चिकित्सा होती है। ___इसलिए कुशल साधक को कर्म, कर्म के हेतु, कर्म-मुक्ति और कर्म-मुक्ति के हेतु-इन चारों को जानना बहुत आवश्यक है। इनको जाने बिना वह अपनी साधना में विकास नहीं कर सकता।... हमारे आवेग कर्मों का आस्रव निरंतर करते रहते हैं-कर्मों के आने के द्वारों को खोलते रहते हैं। उन द्वारों को कैसे बंद किया जाये? आवेगों को कैसे शान्त किया जाये, यदि मोह के आवेग शान्त होते हैं, मोह की आवृत्तियां शान्त होती हैं, कम होती हैं तो दबाव अपने आप कम होने लग जाता है। साधक के सामने यह ज्वलन्त प्रश्न है कि उन आवेगों को, मोह की आवृत्तियों को शांत कैसे किया जाये? आवेगों को शान्त करने का प्रश्न केवल साधकों के सामने ही नहीं है किन्तु चिकित्सकों के सामने भी है। क्योंकि आवेगों को शान्त किये बिना जीवन भी स्वस्थ नहीं चल सकता। आवेग बुरी आदतों के उत्पादक हैं। स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें शान्त करना आवश्यक होता है। चिकित्सकों ने भी अपनी सीमा में आवेग-शान्ति के उपाय खोजे हैं। जितने आवेग हैं, उन सबके केन्द्र हमारे मस्तिष्क में हैं। जिनके माध्यम से ये आवेग अभिव्यक्त होते हैं, वे सब केन्द्र हमारे मस्तिष्क में हैं। उन केन्द्रों को समाप्त करने से आवेग शान्त हो जाते हैं। क्रोध का एक केन्द्र है, एक बिन्दु है। उस बिन्दु को समाप्त कर देने पर क्रोध आना बन्द हो जाता है। मद्रास में 'ब्रेन इन्स्टीट्यूट' है। यह भारत का बहुत बड़ा केन्द्र है। यहां के डॉक्टरों ने कुछ ऑपरेशन किये। उन्होंने कुछ खोजें कीं। उन्होंने बताया कि मदिरा पीने की आदत ऑपरेशन के द्वारा छुड़ाई जा सकती है। मस्तिष्क में एक केन्द्र है, जो मादक वस्तुओं के प्रति आकृष्ट होता है। उसकी उत्तेजना को समाप्त कर दिया जाये तो फिर मादक वस्तुओं के सेवन की आदत समाप्त हो जाती है, भावना समाप्त हो जाती है। उन्होंने ऐसे ऑपरेशन किये हैं और उनमें सफल हुए हैं। उनका यह निष्कर्ष है कि अनेक आवेग, अनेक उत्तेजनाएं, चिड़चिड़ा स्वभाव, कलह करने की वृत्ति, इन सबको मस्तिष्क के अमुक-अमुक केन्द्रों के ऑपरेशन के 64 कर्मवाद Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा ठीक किया जा सकता है। उनको मिटाया जा सकता है। . हमारे मस्तिष्क में कई प्रकार की तरंगें पैदा होती हैं-अल्फा, बीटा, गामा आदि-आदि। ये तरंगें हमारे में विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों को उत्पन्न करती हैं। कई प्रकार की अन्य तरंगें भी हैं, जिनका विकास यौगिक पद्धति के द्वारा किया जा सकता है। उनका अध्ययन और परीक्षण भी किया जा सकता है। ____ आज की चिकित्सा पद्धति ने इतना विकास कर लिया कि वह ऑपरेशन के द्वारा या बिजली के झटके देकर, विभिन्न आवेगों को, विभिन्न आदतों को मिटाने में सक्षम है। आवेग के केन्द्र को समाप्त कर देने पर वह जीवन-भर फिर कभी सक्रिय नहीं हो सकता। काम-वासना का आवेग, कषाय का आवेग, भय का आवेग, आदि-आदि सभी आवेगों को समाप्त करने में आज का चिकित्सा विज्ञान सक्षम है। चिकित्सा की सीमा है-हमारा दृश्य शरीर, औदारिक शरीर। शरीर का मुख्य भाग है मस्तिष्क। इसके माध्यम से चिकित्सक इस परीक्षण में लगे हुए हैं कि किस प्रकार आवेगों के केन्द्रों को सुधार कर मनुष्य को आवेगों के प्रहारों से बचाया जा सकता है। यह शरीरशास्त्रीय और चिकित्साशास्त्रीय खोजों का निष्कर्ष है। - अब हम अध्यात्मशास्त्रीय निष्कर्षों पर भी विचार करें। क्या बिना ऑपरेशन के भी इन आवेगों को शान्त किया जा सकता है? मस्तिष्क के विशेष केन्द्र-बिन्दुओं और विशेष स्नायुओं को काटे बिना ही क्या उत्तेजनाओं, वासनाओं और आदतों को शांत किया जा सकता है? इन प्रश्नों पर प्राचीन काल से अध्यात्म के साधकों ने, अध्यात्म के तत्त्ववेत्ताओं ने जो अनुसंधान किये हैं, जो परीक्षण और प्रयोग किये हैं, उन पर हमें एक दृष्टि डाल देनी चाहिए। . अध्यात्म-तत्त्ववेत्ताओं ने कहा कि यह सब आत्मिक प्रक्रिया के द्वारा भी हो सकता है। आत्मिक प्रक्रिया में सबसे पहली बात हैस्वरूपानुसंधान-अपने स्वरूप का संधान। हम एक बात को न भूलें कि हमारे सामने एक ही प्रकाशकिरण है और वह है हमारा स्वतंत्र अस्तित्व। हमारा स्वतंत्र स्वभाव है, अस्तित्व है और उसको अभी मिटाया नहीं आवेग-चिकित्सा 5 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता। उस स्वभाव को कभी भी दबाया नहीं जा सकता। उस स्वभाव को कभी भी पूर्णतः आच्छन्न नहीं किया जा सकता। चाहे हजार बार कर्मों का आक्रमण हो, हजार बार कर्म के पुद्गलों की रासायनिक प्रक्रियाएं आवृत्तियां करती रहें, फिर भी उसे पूर्णतः विकृत नहीं किया जा सकता, न पूर्णतः शक्तिहीन किया जा सकता है। यही हमारे लिए प्रकाश की पहली रश्मि है। यदि यह नहीं होती तो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो पाते। किन्तु हमारे पास वह स्वतंत्रता है, जिसके द्वारा ही परिवर्तन की सारी बातें संभव हो सकती हैं। सबसे पहली बात है अपने स्वरूप का संधान। जिस व्यक्ति में यह सम्यक्-दृष्टि जाग जाती है, अपने स्वरूप के संधान की बात चेतना पर उतर आती है, वह व्यक्ति आवेगों में परिवर्तन करने में सक्षम हो जाता है। स्वरूप के संधान का अर्थ है-भेदज्ञान की प्राप्ति। आध्यात्मिक भूमिका में परिवर्तन का यह पहला बिन्दु है। जब यह भेदज्ञान जाग जाता है, वहां से परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। हम बदलना शुरू कर देते हैं। इससे इतना आंतरिक परिवर्तन, इतना रूपांतरण आ जाता है, व्यक्ति इतना रूपांतरित हो जाता है कि पहले का व्यक्ति और भेदज्ञान या सम्यक्-दृष्टि प्राप्त होने के बाद का व्यक्ति, एक ही व्यक्ति नहीं रह जाता। उसके व्यक्तित्व का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। जीवन को देखने का कोण बदल जाता है। पहले जिस दृष्टि से पदार्थ को देखता था, उसी दृष्टि से अब पदार्थ को नहीं देखता। जिस दृष्टि से अपने को पहले देखता था, उसी दृष्टि से अब अपने को नहीं देखता। अपने को देखने का दृष्टिकोण और पदार्थ को देखने का दृष्टिकोण-दोनों बदल जाते हैं। दृष्टिकोण के परिवर्तन से आवेगों पर करारी चोट होती है, तीव्र प्रहार होता है। जिस दृष्टिकोण के आधार पर आवेगों को पोषण मिल रहा था, उस दृष्टिकोण के बदल जाने पर आवेगों को वह पोषण मिलना बंद हो गया, जीवन-रस प्राप्त होना बंद हो गया। आवेगों को सिंचन मिलता है अहंकार के द्वारा, ममकार के द्वारा। जब तक अहंकार और ममकार हैं, तब तक आवेग पुष्ट होते रहेंगे, बढ़ते रहेंगे, फलते-फूलते 66 कर्मवाद Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेंगे। जैसे ही दृष्टिकोण बदलता है, अहंकार और ममकार की गांठ टूट जाती है और तब आवेगों को जीवन-रस, पोषण-रस मिलना बंद हो जाता है। उनका आधार ही समाप्त हो जाता है। इसलिए आवेगों की चिकित्सा का पहला सूत्र है-दृष्टिकोण का परिवर्तन, सम्यक्-दृष्टि की प्राप्ति। ___ इसका दूसरा सूत्र है-विपाक की प्रेक्षा, विपाक को देखना। यह भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। हम विपाक की प्रेक्षा नहीं करते, उसे नहीं देखते। इसीलिए उच्छृखल प्रवृत्तियां चलती हैं। यदि हम प्रवृत्ति के विपाक पर ध्यान दें और यह देखने का प्रयत्न करें कि इसका विपाक क्या होगा, क्या विपाक हो रहा है तो उच्छृखल प्रवृत्तियां या आवेग नहीं चल सकते। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, वह जो कुछ करता है और वह विमर्श करता चलता है कि मेरे आचरण का, मेरे कार्य का क्या परिणाम होगा, क्या विपांक होगा, तो वह बहुत ही विवेक और संतुलन के साथ काम करेगा। यदि वह परिणाम और विपाक से आंख मूंदकर कार्य करता चला जाता है तो उससे वे काम भी हो जाते हैं जो अनिष्टकर/हानिकर होते हैं। विश्व में जितने भी अवांछनीय कार्य हुए हैं, होते हैं, वे परिणाम की ओर से आंख मूंद लेने के कारण ही हुए हैं, होते हैं। विपाक-प्रेक्षा की चेतना जागृत न होने के कारण ही. वे होते हैं। प्रेक्षा की चेतना जागृत हो तो अवांछनीय कार्य, अनिष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती। विपाक की प्रेक्षा ध्यान का एक अंग है। जैन दर्शन में धर्म्यध्यान के चार प्रकार बतलाए गए हैं-आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय। इनमें तीसरा है-विपाक विचय। विपाक का विचय-विपाक-प्रेक्षा, विपाक-दर्शन। बहुत गहरे में जाकर हम देखते हैं कि अभी किस कर्म का विपाक हो रहा है। बीमारी में किस . कर्म का विपाक हो रहा है। क्रोध आया, यह किस कर्म का विपाक़ है, उसे हम देखते हैं, विपाक की अनुचिंतना करते हैं, विपाक का विचय करते हैं, वहां हमारे मानस की स्थिति बदल जाती है, वह बिलकुल रूपांतरित हो जाती है। कर्म आठ हैं और आठ कर्मों के अनेक विपाक हैं। इन्द्रिय-ज्ञान आवेग-चिकित्सा 67 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शक्ति तथा मन के ज्ञान की शक्ति को आवृत्त करना ज्ञानावरण कर्म का विपाक है। ज्ञानावरण कर्म जब विपाक में आता है, तब वह हमारी ज्ञान की शक्तियों को ढांक देता है। ____ दर्शनावरण कर्म का विपाक होता है, तब हमारी देखने की शक्ति आवृत्त हो जाती है। नींद आती है, गहरी नींद आती है, इतनी गहरी नींद कि जिस नींद में आदमी दिन में की हुई कल्पनाओं को क्रियान्वित कर डालता है। इतनी प्रगाढ़ निद्रा कि आदमी नींद में ही मीलों चला जाता है, काम कर डालता है, किसी को पीट डालता है, कुछ तोड़ डालता है, फिर घर में आकर बिस्तर पर लेट जाता है। इतना होने पर भी उसकी नींद नहीं टूटती। ऐसी नींद में एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है और उस शक्ति से प्रेरित होकर व्यक्ति असंभव कार्य भी कर डालता है। ऐसा दर्शनावरण कर्म के विपाक से होता है। मोह कर्म का विपाक होता है तब राग-द्वेष का चक्र चलने लगता है, विभिन्न प्रकार के आवेग उत्पन्न होते हैं, विभिन्न प्रकार की वासनाएं उभरती हैं, भय जागता है तथा अन्यान्य आवेग भी कार्यरत हो जाते हैं। ___कर्मों के विपाक का यह चक्र अविश्रांत गति से घूमता रहता है। कभी कोई विपाक जागता है और अभी कोई। इनकी निरंतरता टूटती नहीं। क्या हम इन विपाकों को निरस्त कर सकते हैं? नहीं, इन्हें निरस्त नहीं किया जा सकता। किन्तु इनको हम रोक सकते हैं। एक प्रक्रिया है-कर्म को न बांधने की, कर्म के बीज को समाप्त करने की। कर्म का बंधन न हो, इसमें हम जारूक रहें, अप्रमत्त रहें। यह भी साधना की एक प्रक्रिया है। साधना की एक प्रक्रिया यह भी है कि जो विपाक आने वाले हैं, उनके प्रति हम पहले से ही जागरूक हो जाएं। उन विपाकों को हम बदल दें। अथवा हम उन विपाकों को आने ही न दें। कर्मों को हमने बांध दिया। कर्म बंध गए। हमारे ही अज्ञानवश, प्रमादवश, हमारी ही भूलों के कारण वे कर्म आकर चिपक गए। वे परिणाम देने वाले हैं। उनका विपाक-काल है। हम जागरूक हो जाएं। हम जाग जाएं। 68 कर्मवाद Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी प्रमाद की नींद टूट जाए। हमारी चेतना की कुछ रश्मियां आलोकित हो जाएं। यह असंभव नहीं है, बहुत संभव है। असाध्य कार्य नहीं है, साध्य कार्य है। हम उन कार्यों को बीच में ही बदल दें, उनकी शक्ति में ऐसा परिवर्तन ला दें कि उनका विपाक न हो सके। यह बहुत ही महत्त्व की बात है। इस पर हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। . विपाक होता है कारणों से। निमित्तों के बिना विपाक नहीं हो सकता। प्रज्ञापना सूत्र में इसका सुन्दर विवेचन प्राप्त है। विपाक के लिए पांच शर्ते हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव। जब ये पांचों बातें पूरी होती हैं, तब कर्म का विपाक हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता। इसी आधार पर कर्म की चार प्रकृतियां मानी गयी हैं-क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी भावविपाकी और भवविपाकी। यदि इन चारों को हम ठीक से समझ लें और कर्मशास्त्र के रहस्यों को गहराई में जाकर पकड़ लें तो बहुत कुछ परिवर्तन ला सकते हैं। यदि कर्म के हेतुओं में और बंधे हुए कर्मों में कोई भी परिवतन नहीं किया जा सकता तो साधना का कोई अर्थ नहीं हो सकता, वह अर्थ-शून्य हो जाती है। फिर हमारे लिए साधना का प्रयोजन ही क्या? हम क्यों इतना पुरुषार्थ करें? क्यों प्रेक्षा करें? क्यों आंखें मूंदकर घंटों तक ध्यान करें? यदि हम कुछ बदल न सकें तो ये सारे प्रयत्न व्यर्थ हैं, शून्य हैं। किन्तु ऐसा नहीं है। साधना के द्वारा हम बदल सकते हैं। यह हमारी बहुत बड़ी क्षमता है कि हम साधना के माध्यम से उन विपाकों में परिवर्तन ला सकते हैं। किन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है, जब हम कर्मशास्त्र की गहराई में जाकर कर्मों की प्रकृतियों और स्वभावों को ठीक-ठीक समझ लें और यह उपाय भी जान लें कि उनमें कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है। __पुद्गल का एक परिणाम है-वेदनीय कर्म। वेदनीय कर्म की दो प्रकतियां हैं-सातवेदनीय और असातवेदनीय। सुख का भी वेदन होता है और दुःख का भी वेदन होता है। प्रीत्यात्मक अनुभूति भी होती है और अप्रीत्यात्मक अनुभूति भी होती है। असात वेदनीय का उदय क्यों होता है? उसके उदय के अनेक कारण हैं। एक कारण है-पुद्गल / पुद्गल का ऐसा कोई स्पर्श हुआ, कोई ऐसी चोट लगी कि पैर में दर्द हो गया। आवेग-चिकित्सा 66 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असातवेदनीय का उदय हो गया। मन उसमें ही जाता है, साधना में नहीं जाता। मन की सारी ऊर्जा पैर की ओर ही बहने लग जाती है। साधना का वह स्पर्श भी नहीं कर पाती। असातवेदनीय के उदय का एक कारण है-पटुगल का परिणाम। जैसे-बहत खा लिया, भूख से अधिक भोजन कर लिया। अजीर्ण हो गया। पेट में दर्द प्रारम्भ हो गया। अब सारा मन उसी ओर भागता है, विपाक की ओर जाता है, साधना की ओर नहीं जाता। पुद्गल के परिणाम के कारण जो असात का विपाक होता है, उसे हम बदल सकते हैं। इसलिए यह कहा जाता है-अधिक मत खाओ। भोजन की मात्रा का ज्ञान करो। साधना के क्षेत्र में भोजन पर ध्यान देने की बात भी महत्त्वपूण बन जाती है। साधना करने वाले व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि कब खाए? क्यों खाए? कितना खाए और कैसे खाए? दही खूब खा लिया और ध्यान के लिए बैठ गया। ध्यान में नींद सताने लगी। यह दर्शनावरणीय कर्म का विपाक है। इसमें दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का कारण बना. हमारा भोजन। इसलिए ऐसा भोजन न किया जाये जो असातवेदनीय या दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का निमित्त बने। बहुत तेज मिर्च-मसाले खा लिये, तामसिक भोजन किया और साधना में बैठ गये। मन में उत्तेजनाएं उभरने लगीं, विकृतियां पैदा होने लगीं, ध्यान से मन हट गया। तो हमने भोजन की परिणति के द्वारा विपाक को निमंत्रित कर दिया। इसलिए यह आवश्यक है कि हम विपाकों के निमित्तों पर भी ध्यान दें। उपादान का महत्त्व है तो निमित्त का भी कम महत्त्व नहीं है। अपने स्थान पर वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कैसे बैलें, क्या खाएं, कैसे खाएं, कितना खाएं, किस वातावरण में रहें-ये सारी बातें बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं। कुछ बातें हमारे वश की होती हैं और कुछ हमारे नियंत्रण से बाहर की होती हैं। जैसे-वर्षा का मौसम है। आकाश बादलों से आच्छन्न है। ऐसे वातावरण में दर्शनावरणीय कर्म के उदय को मौका मिल जाता है। नींद आने लगती है। यह हमारी भूल का परिणाम नहीं है। हमने अधिक खाया, अवांछनीय भोजन किया और नींद ने आ घेरा। यह हमारी भूल का परिणाम है। हमने अपनी भूल के कारणं कर्म के विपाक को 100 कर्मवाद Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त प्रदान कर दिया। दोनों प्रकार से विपाक का उदय होता है। एक प्राकृतिक वातावरण या अन्य कारण से तथा दूसरी हमारी भूल या प्रमाद के कारण से। निमित्त मिलते ही विपाक उदय में आ जायेगा। उस स्थिति में हम क्या करें? उस स्थिति में हम.कष्ट-सहिष्णुता बनने का अभ्यास करें। साधना के लिए आवेगों को कम करने के लिए कष्ट-सहिष्णु का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है। जो कष्ट-सहिष्णु नहीं होता, कठिनाइयों को नहीं झेल सकता, वह न साधना ही कर सकता है और न कर्म के चक्र-व्यूह को ही तोड़ सकता है। ____ भगवान् महावीर ने धर्म के दो लक्षण बताए। उन्होंने कहा-धर्म का पहला लक्षण है-अहिंसा, राग-द्वेष का न होना। धर्म का दूसरा लक्षण है-परीषह-सहन, कष्टों को सहने की क्षमता। जीवन में द्वंद्व आते हैं। कभी सुख आता है और कभी दुःख। कभी अनुकूलता रहती है और कभी प्रतिकुलता। कभी प्रियता की संवेदना होती है और कभी अप्रियता की। कभी प्रशंसा होती है और कभी निंदा। कभी उपब्धि होती है और कभी हानि। ये जो सारे द्वंद्व आते हैं, इनको सहन करने वाली तितिक्षा की चेतना जब तक जागृत नहीं होती, तब तक न साधना होती है और न आवेग ही कम होते हैं। ऐसी स्थिति में कर्म के व्यूह को भी नहीं तोड़ा जा सकता। इसलिए हमारी दोनों प्रकार की शक्तियां जागृत होनी चाहिए। एक है अ-राग की शक्ति और एक है अ-द्वेष की शक्ति-अराग चेतना और अद्वेष चेतना। वीतराग के साथ-साथ तितिक्षा की चेतना भी जागृत होनी चाहिए। यदि तितिक्षा नहीं है तो राग भी आ सकता है और द्वेष भी आ सकता है। अनुकूलता में राग आएगा। राग को सहने की भी शक्ति होनी चाहिए। अनुकूलता को सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। मन के अनुकूल कोई घटना घटित होती है, उसे यदि हम सहन नहीं कर सकते तो मन में राग पैदा हो जाएगा, आवेग पैदा हो जाएगा। बहुत हर्ष होना, अध्यात्म की दृष्टि से ही अवांछनीय नहीं है, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वांछनीय नहीं है। यह अकालमृत्यु का कारण बन जाता है। . एक आदमी बहुत गरीब था। लाटरी में उसे दो लाख रुपये मिले। आवेग-चिकित्सा 101 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी ने आकर कहा-भाई! तुम तो निहाल हो गये। तुम्हारे नाम की लाटरी में दो लाख रुपये उठे हैं। उसने कहा-दो लाख! यह कहते ही वह धड़ाम से नीचे गिरा और इस लोक से चल बसा।. . अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहन करने के लिए तितिक्षा की चेतना जागृत होनी चाहिए। कोई व्यक्ति बड़ी-से-बड़ी स्थिति में है। उसको बड़ी-से-बड़ी उपलब्धि है। सारे अनुकूल संयोग हैं। अकस्मात.सब छिन जाते हैं। सत्ता छिन जाती है, अधिकार छिन जाते हैं। संपदा नष्ट हो जाती है, परिवार बिखर जाता है। उस स्थिति में प्रतिकूलता को सहने की चेतना यदि जागृत नहीं होती तो व्यक्ति दिग्भ्रान्त हो जाता है। जिसकी यह चेतना जागृत होती है, उसके लिए अनुकूलता या प्रतिकूलता में कोई अन्तर नहीं आता। __जैन आगमों में नमि राजर्षि का एक उदाहरण आता है। व्यवहार की दुनिया में वह शायद मान्य न हो, किन्तु वह उस चेतना का प्रतीक है, वह उस चेतना का दिग्दर्शक है, जिस चेतना के बिन्दु पर पहुंचकर व्यक्ति की तितिक्षा की चेतना इतनी जागृत हो जाती है कि उसके लिए कोई भी प्रकम्पन शेष नहीं रहता। न. राग का प्रकंपन होता है और न द्वेष का प्रकंपन होता है। नमि राजर्षि से कहा गया-आपका अंतःपुर जल रहा है। उसमें आग लग गयी है। लपटें आकाश को छू रही हैं। आपका प्रासाद जल रहा है, आपका नगर जल रहा है। नमि राजर्षि ने कहा-मैं सख से जी रहा हूं, सुख से रह रहा हूं। किसका अंतःपुर! किसका प्रासाद! किसका नगर! मेरा कुछ भी नहीं है। मिथिला के जलने पर भी मेरा तो कुछ भी नहीं जल रहा है। यह कितना अव्यावहारिक कथन लगता है। कितनी करुणाहीन बात लगती है। कोई करुणावान व्यक्ति ही ऐसा कह सकता है? परम कोटि का क्रूर व्यक्ति ही ऐसी बात कह सकता है। किन्तु हम बहुत बार भूमिका-भेद को समझे बिना भयंकर भूल कर बैठते हैं। वह भी हमारी भयंकर भूल होगी, यदि हम नमि राजर्षि की स्थिति की क्रूरता से परिपूर्ण मानें। यह उस तितिक्षा की, उस परम चेतना की स्थिति है, जहां पहुंचकर 102 कर्मवाद Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक अनुकूलता और प्रतिकूलता के प्रकंपनों से परे हो जाता है। वह 'चेतना इतनी अप्रकम्प हो जाती है कि जहां केवल चेतना ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। राग और द्वेष न हों, इसलिए चेतना में तितिक्षा का विकास होना चाहिए। यदि द्वंद्वों को सहन करने की चेतना का विकास नहीं होता है तो राग और द्वेष अवश्य होते हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता। इस प्रकार वीतराग चेतना और तितिक्षा की चेतना-दोनों प्रकार की चेतनाओं का विकास करके ही हम कर्म-विपाकों में परिवर्तन ला सकते हैं। यदि तितिक्षा की चेतना विकसित होती है तो मोहनीय कर्म का विपाक नहीं हो सकता, आवेग नहीं हो सकता। आवेग तभी होता है, जब तितिक्षा की चेतना विकसित नहीं होती। अहंकार और ममकार-शून्य चेतना विकसित नहीं होती। इसलिए आवेग आते हैं। हम प्रतिपक्ष की चेतना को विकसित करें। क्रोध है तो मैत्री की चेतना को विकसित करें। मैत्री के संस्कारों को सुदृढ़ बनायें। मैत्री के संस्कार दृढ़ होंगे तो क्रोध का आवेग अपने आप कम होता चला जाएगा। प्रतिपक्ष की भावना साधना का बहुत बड़ा सूत्र है। दशवैकालिक सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्ष भावना का सुन्दर निरूपण प्राप्त है। यदि क्रोध के आवेग को मिटाना है, कम करना है तो उपशम के संस्कार को पुष्ट करना होगा, क्रोध का प्रतिपक्ष है-उपशम। उपशम का संस्कार जितना पुष्ट होगा, क्रोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जायेगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। मान का प्रतिपक्ष है मृदुता। माया के आवेग को नष्ट करना है तो ऋजुता के संस्कार को पुष्ट करो। ऋजुता और मैत्री में कोई अन्तर नहीं है। मैत्री ऋजुता का ही प्रतिफलन है। जब ऋजुता है तो किसी के साथ शत्रुता हो ही नहीं सकती। शत्रुता से पूर्व कुटिलता आती है। शत्रुता कुटिलतापूर्वक ही होती है। बिना कुटिलता के शत्रुता नहीं होती। जब छिपाने की बात, ठगने की बात आयेगी तभी किसी के साथ अमैत्री का भाव होगा। जहां छिपाने जैसा कुछ भी नहीं है, सरलता-ही-सरलता है, पारदर्शी स्फटिक-सा जीवन है, वहां शत्रुता हो ही नहीं सकती। माया आवेग-चिकित्सा 103 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रतिपक्ष है ऋजुता। लोभ के आवेग को नष्ट करना है तो सन्तोष को विकसित करें, उसे पुष्ट करें। आवेगों को मिटाने के लिए प्रतिपक्ष के संस्कारों को पुष्ट करना है। जब तक प्रतिपक्ष का संस्कार पुष्ट नहीं होता, आवेगों का तनुभाव नहीं किया जा सकता, उन्हें पतला नहीं किया जा सकता, क्षीण नहीं किया जा सकता। जब तक आवेग क्षीण नहीं होतें, उन्हें तोडा नहीं जा सकता। उन्हें इतना क्षीण कर देना होता है कि एक ही झटके में वे टूट जाएं। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार आवेग हैं। इनकी प्रतिपक्षी भावनाओं को पुष्ट करने से ये आवेग शांत हो जाते हैं। उनका विपाक बन्द हो जाता है। भय, काम-वासना, घृणा आदि आवेगों के लिए प्रतिपक्ष की भावना जरूरी है। साधना में प्रतिपक्ष भावना का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसके बिना आवेगों से छुटकारा नहीं मिलता। हमारी अभय की भावना जितनी पुष्ट होगी, भय का आवेग क्षीण हो जायेगा। चेतना की भावना, चैतन्य का अनुसन्धान जितना पुष्टं होगा, काम-वासना उतनी ही क्षीण हो जायेगी। एकत्व का विकास होगा तो घृणा अपने आप मिट जायेगी। इस प्रतिपक्ष को पुष्ट करें। यह हमारा कर्तव्य है, पुरुषार्थ है, संकल्प है। जैसे कर्म के अनिष्ट विपाक में कुछ निमित्त होते हैं, वैसे ही कर्म के इष्ट विपाक में भी कुछ निमित्त होते हैं। किसी के ज्ञानावरण कर्म का विपाक है। वह चाहता है कि ज्ञानावरण का विपाक कम हो। इसके लिए भी कुछ साधन हैं। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं। ब्राह्मी आदि बूटियां हैं, जिनके सेवन से ज्ञान-विकास में सहायता मिलती है। . मन की एकाग्रता में भी कुछ पदार्थ सहयोगी हैं, कुछ निमित्त बनते हैं। आप ध्यान करने बैठते हैं। उस समय यदि आपके हाथ में पारे की गोली होती है तो आपको एकाग्र होने में सुगमता हो सकती है। ध्यान-काल लम्बा हो सकता है। साधना की कुछेक प्रक्रियाओं में रुद्राक्ष का भी प्रयोग होता है। उसका भी एक अर्थ, प्रयोजन है। जैसे मन पदार्थ को प्रभावित करता है, वैसे ही पदार्थ भी मन को प्रभावित करता 104 कर्मवाद Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इष्ट और अनिष्ट-दोनों प्रकार के कर्म-विपाकों में पुद्गलों का योग रहता है। पौद्गलिक परिणतियां उन विपाकों को बढ़ा भी सकती हैं और कम भी कर सकती हैं। ___एक आदमी मदिरा पीता है। मदिरा मोह-कर्म के विपाक में निमित्त बनती है। मूर्छा आ जाती है। क्या ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसके सेवन से हमारी जागृति बन जाए, मोह-कर्म का विपाक कम हो जाए? ऐसे पदार्थ हैं। ऐसा हो भी एकता है। यदि एक वस्तु के सेवन से काम-वासना को उत्तेजना मिलती है तो क्या ऐसी वस्तु नहीं हो सकती, जिसके सेवन से काम-वासना शांत हो जाए? ऐसे पदार्थ हैं। पदार्थों का अभाव हमारी जानकारी का हो सकता है। जब परीक्षा का समय आता है, तब अनुभवी माता-पिता अपने बच्चों को ऐसी औषधियों का सेवन करवाते हैं, जिनसे बच्चों की बुद्धि, स्मरण-शक्ति तीव्र होती है और वह उनकी परीक्षा में सहयोगी बन जाती है। _ ध्यान-काल में शक्ति का व्यय होता है। मस्तिष्क की शक्ति बहुत खर्च होती है। हमारे मस्तिष्क की विद्युत् को बहुत काम करना पड़ता है। अधिक ऊष्मा पैदा हो जाती है। व्यय अधिक होता है। मैंने एक होम्योपैथिक चिकित्सक से पूछा कि शक्ति-संतुलन को बनाये रखने के लिए क्या अमुक पदार्थ का सेवन उचित होगा? उसने कहा-बहुत ही उचित रहेगा। जो शक्ति खर्च होती है, वह इस पदार्थ से मिल जाएगी। शक्ति का सन्तुलन बना रहेगा। ध्यान में सहयोग मिलेगा। ___ सरदारशहर के सेठ सुमेरमलजी दूगड़ के सुपुत्र भंवरलालजी एक कुशल चिकित्सक थे। वे बहुत ही अनुभवी थे। मुझसे एक दिन कहा-आपको मस्तिष्क की शक्ति का अधिक व्यय करना पड़ता है। लिखना, पढ़ना और चिन्तन-मनन अधिक करना पड़ता है। इन कार्यों में मस्तिष्क की शक्ति का बहुत व्यय होता है। आप अभी से यह ध्यान रखें कि शक्ति का संतुलन बना रहे, जितना व्यय हो, वह पूरा होता रहे। अन्यथा कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। उन्होंने कुछ उपाय भी सुझाए। उन्होंने कहा-आप सूखे आंवलों का सेवन करें, काली मिर्च का सेवन करें। कभी-कभी मुक्ता का सेवन करते रहें, जिससे कि जो मस्तिष्कीय आवेग-चिकित्सा 105 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति खर्च होती है, वह पूरी होती रहे। ____ मैंने समय-समय पर इनका उपयोग किया और बहुत लाभ उठाया। पुद्गल जैसे कर्म के विपाक में निमित्त बनते हैं, वैसे ही कर्म के क्षयोपशम में भी निमित्त बनते हैं। कर्म का विपाक भी निमित्तों के बिना नहीं हो सकता। हम निमितों की बात को न भूलें। .. आवेगों के उपशमन में जैसे हमारी परिणतियों को बदलने की जरूरत है, वैसे ही निमित्तों को जानने और उनको बदलने के प्रयोग की भी जरूरत है। 106 कर्मवाद Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्र या परतंत्र? द्रव्य का अपना-अपना स्वभाव होता है। स्वभाव कभी भी निर्मूल नहीं होता, उसे कभी निरस्त नहीं किया जा सकता। विभाव स्वभाव को कुछ विकृत भी कर सकता है, आवृत भी कर सकता है, किन्तु निरस्त नहीं कर सकता, शून्य नहीं कर सकता। आवेग चैतन्य का स्वभाव नहीं है। वह चैतन्य के साथ उत्पन्न मूढ़ता है। वह मोह है, विकृति है, किन्तु स्वभाव नहीं है। इसीलिए यह संभावना शेष रहती है कि आवेग को निरस्त किया जा सकता है। उस योग को दूर किया जा सकता है जो आकर जुड़ गया है। उसे काटा जा सकता है। उसे काटने के अनेक उपाय हैं, अनेक साधन हैं। उन सब साधनों में महत्त्वपूर्ण साधन है-चैतन्य का अनुभव, संवर शुद्ध उपयोग। जब हम चैतन्य के अनुभव में होते हैं तब संवर की स्थिति होती है, हमारा संवर होता है। जब चैतन्य का अनुभव होता है तब कोई आवेग हो नहीं सकता। आवेग तब होता है जब हमारा चैतन्य का अनुभव लुप्त हो जाता है। जब चैतन्य पर मूर्छा छा जाती है, जब चैतन्य पर ढक्कन आ जाता है तब आवेग को उभरने का अवसर मिलता है। जब चैतन्य की अनुभूति होती है तब आवेग आ ही नहीं सकता। . ___ हमारी साधना का सूत्र है-चैतन्य का सतत अनुभव। जब चैतन्य के अनुभव की स्थिति निरंतर बनी रहती है तब हमारा संवर पुष्ट होता रहता हैं। संवर के आते ही द्वार बन्द हो जाएगा। चैतन्य का अनुभव होते ही सब द्वार बन्द हो जाएंगे। कोई द्वार खुला नहीं रहेगा। सब द्वार बन्द, सब खिड़कियां बन्द। उस समय न आवेग आ सकता है, न उत्तेजना आ सकती है और न वासना आ सकती है। कुछ भी नहीं स्वतंत्र या परतंत्र? 107 . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ सकता। सब विच्छिन्न हो जाते हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा कि साधना का चरम शिखर है-'अयोग' वहां सब योग समाप्त हो जाते हैं। यह 'अयोग' शब्द बड़ा जटिल है! सभी आचार्यों ने शब्द चुना-'योग'। उन्होंने कहा-योग की साधना करो। भगवान् महावीर ने कहा-'नहीं, अयोग की साधना करो। योगों को समाप्त करो, संबंधों को तोड़ो।' इससे क्या होगा? इससे सब कुछ घटित हो जायेगा। क्योंकि पाना कुछ भी नहीं है। बाहर से लेना कुछ भी नहीं है। हम सब अपने आप में परिपूर्ण हैं। कुछ भी उपादेय नहीं है। बाहर ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो अपने लिए हितकर हो। बाहर जितनी वस्तुएं हैं उन्हें छोड़ना ही हितकर है। सब संबंधों को तोड़ना, अयोग करना ही हितकर है। अंतिम शिखर है-अयोग। जब सम्यक्त्व का संवर हो जाता है, व्रत का संवर हो जाता है, अप्रमाद का संवर हो जाता है, अकषाय का संवर हो जाता है तब अंतिम शिखर आता है-अयोग संवर। जहां हमने सारे संबंध काट डाले वहां अयोग हो जाता है। वहां पूर्ण विकास हो जाता है, परमात्मा की पूर्ण स्थिति उपलब्ध हो जाती है। अयोग संवर के घटित होते ही, जो पौद्गलिक संबंध आत्मा के साथ हैं, वे सब एक साथ विच्छिन्न हो जाते हैं। जब चैतन्य का अनुभव प्राप्त होता है तब योग टूटने शुरू होते हैं। मूढ़ता का गहन वलय टूटने लग जाता है। कर्मों के जितने संबंध हमने स्थापित किये हैं वे सारे-के-सारे चैतन्य की विस्मति के कारण हुए हैं। जब-जब चैतन्य की विस्मृति होती है तब-तब कोई-न-कोई पुद्गल हमारे साथ जुड़ जाता है और अपना प्रभाव जमा लेता है। हम जब अपने चैतन्य के अनुभव में होते हैं, जब हम अपना होश संभालते हैं, तब उन पुद्गलों को प्रभाव मंद होने लग जाता है, वह लुप्त होने लग जाता है। पुद्गल धीरे-धीरे खिसकने लग जाते हैं, दूर होने लग जाते हैं। उस समय हमारा अस्तित्व उजागर होता है। बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? स्वतंत्रता और परतंत्रता का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। 108 कर्मवाद Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों सापेक्ष कथन हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। हम चैतन्यवान् हैं। हमारा स्वभाव सभी द्रव्यों से विलक्षण है। किसी भी द्रव्य का स्वभाव चैतन्य नहीं है, हमारा स्वभाव चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। किन्तु चैतन्य का अनुभव जब-जब विस्मृत होता है, इस चैतन्य की आग पर जब-जब कोई राख आ जाती है, जब-जब यह जलती हुई आग उस राख से ढक जाती है तब-तब हम परतंत्र हो जाते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता का उत्तर सापेक्ष दृष्टि से ही दिया जा सकता है। इसका निरपेक्ष उत्तर नहीं हो सकता। __ हमने कोई क्रिया की, कर्म किया, निश्चित है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। ऐसी एक भी क्रिया नहीं है जिसकी प्रतिक्रिया न हो। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। क्रिया करने में आदमी स्वतंत्र है, किन्तु प्रतिक्रिया में वह परतंत्र है। 'कडेण मूढो पूणो तं करेई'-जो किया है उससे मोह पैदा होता है। व्यक्ति मूढ़ हो जाता है और वह फिर उसे दोहराता है। एक बार आदमी कोई काम कर लेता है, दूसरी बार उस काम को दोहराना जरूरी हो जाता है क्योंकि उसका संस्कार बन जाता है। उस संस्कार के आधार पर दूसरी बार वैसी परिस्थिति आने पर वैसा करने की प्रेरणा मिलती है। वह हमारी मानसिक आदत बन जाती है। फिर उसको दोहराने का. मन होता है। व्यक्ति मूढ़ बनकर उस क्रिया को दोहराता जाता है, करता जाता है। तब हम परतंत्र हो गये। हमने कुछ किया, एक संस्कार निर्मित हो गया, एक आदत बन गयी, फिर वह करना ही पड़ेगा। यह परतंत्रता की बात है। हम परतंत्र हैं, पर स्वतंत्र भी हैं। हमारी चैतन्य-शक्ति, हमारी संकल्प-शक्ति इतनी प्रबल है कि वह यदि जाग जाए कि यह काम करना ही नहीं है, इतना दृढ़ संकल्प हो जाए तो फिर संस्कार कितना ही प्रबल हो, हम उसे एक झटके में ही तोड़ डाल सकते हैं। - स्वतंत्रता और परतंत्रता-दोनों को सापेक्ष दृष्टि से ही समझा जा सकता है। एक आदमी नारियल, खजूर या ताड़ के वृक्ष पर चढ़ गया। चढ़ने में वह स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा से ऊपर चढ़ गया। अब उतरने में वह स्वतंत्र नहीं है। क्यों? चढ़ने की एक क्रिया है। अब चढ़ गया स्वतंत्र या परतंत्र? 106 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो उतरना भी पड़ेगा। चढ़ने में वह स्वतंत्र है, पर उतरने में परतंत्र है। अब उसे उतरना इसलिए पड़ेगा कि वह चढ़ गया। चढ़ने का परिणाम है उतरना। उतरना कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है। मोहम्मद साहब के एक शिष्य का नाम था अली। उसने एक बार पूछा-हम काम करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? मोहम्मद साहब ने कहा-'अपने बायें पैर को उठाओ। उसने अपना बायां पैर ऊपर उठा लिया। फिर मोहम्मद साहब ने कहा-'अच्छा, अब अपने दायें पैर को उठाओ।' अली असमंजस में पड़ गया। बायां पैर पहले से ही उठाया हुआ है। अब दायां पैर ऊपर कैसे उठाया जाए? उसने कहा-'साहब! यह कैसे संभव हो सकता है कि मैं दायां पैर भी ऊपर उठा लूं?' मोहम्मद साहब ने कहा- 'एक पैर उठाने में तुम स्वतंत्र हो, दूसरा पैर उठाने में स्वतंत्र नहीं हो, परतंत्र हो। स्वतंत्रता और परतंत्रता-दोनों सापेक्ष हैं। उन्हें निरपेक्ष समझना भूल है। आदमी अपने कर्तृत्व में स्वतंत्र है, पर परिणाम भोगने में परतंत्र हैं। कर्तृत्वकाल में हम स्वतंत्र हैं, पर परिणाम-काल में हमें परतंत्र होना पड़ता है। विकास करने में हम स्वतंत्र हैं। हमारा जितना विकास होता है उसमें हमारा स्वतंत्र कर्तत्व बोलता है। उसमें हम स्वतंत्र हैं। किसी भी कर्म के द्वारा हमारा विकास नहीं होता। कर्म के द्वारा हमारे विकास का अवरोध होता है। आप सोचेंगे कि शुभ नामकर्म के द्वारा अच्छा फल मिलता है, अच्छा नाम होता है, पदार्थों की उपलब्धि होती है, यश मिलता है। यह कोई आत्मा का विकास नहीं है। ये सब पौद्गलिक जगत् में घटित होने वाली घटनाएं हैं। इनसे आत्मा का विकास नहीं होता। आत्मा का स्वभाव है-चैतन्य। आत्मा का स्वभाव है-आनन्द। आत्मा का स्वभाव है-शक्ति। चैतन्य का विकास, आनन्द का विकास, शक्ति का विकास, किसी भी कर्म के उदय से नहीं होता। कर्म इन सब प्रकार के विकासों को रोकता है, बाधा डालता है, अवरोध उत्पन्न करता है। कोई भी पुद्गल विकास का मूल हेतु नहीं बनता। ___हमारे चैतन्य का विकास, हमारे आनन्द का विकास, हमारी शक्ति का विकास, हमारा पूर्ण जागरण इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। 110 कर्मवाद Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे स्वतंत्र होने का स्वयंभू प्रमाण है कि हमारा विकास होता है और हमारा विकास इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। यदि हम स्वतंत्र नहीं होते तो यह विकास कभी नहीं होता। कर्मों के उदय से बाधाएं उपस्थित होती रहती है। हमारा विकास कभी नहीं होता। विकास इसलिए होता है कि हमारी स्वतंत्र सत्ता है, हमारा स्वतंत्र उपादान है। __मिट्टी घड़ा बनती है। यह कोई कुंभकार की अंगुलियों का चमत्कार नहीं है। मिट्टी में घड़ा बनने का उपादान है। उसमें उपादान है तभी वह घड़ा बनती है। इस निर्मिति में दूसरे-दूसरे अनेक निमित्त भी सहायक हो सकते हैं। परन्तु मिट्टी का घड़े के रूप में परिवर्तित होने का मूल है उपादान। उपादान को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। दूसरे-दूसरे साधन सहायक-सामग्री बन सकते हैं परन्तु वे सब मिलकर भी उपादान को उत्पन्न नहीं कर सकते। उपादान को उत्पन्न करने की शक्ति किसी में नहीं है। ___उपादान वही होता है जो द्रव्य का घटक होता है। कर्म में यह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा में ज्ञान के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, आनन्द के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, शक्ति के पर्यायों को उत्पन्न कर सके। कर्म ये कभी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सब कर्म के स्वभाव नहीं हैं। चैतन्य, आनन्द और शक्ति-ये आत्मा के उपादान हैं। इसलिए आत्मा ही उनका घटक है। आत्मा में ही यह शक्ति है कि वह अपने पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है इसीलिए उसका स्वतंत्र कर्तृत्व है, अबाधित कर्तृत्व है। यह हमारे स्वतंत्र कर्तृत्व का पक्ष है। ___ एक दूसरा पक्ष और है। आत्मा के साथ राग-द्वेष का परिणाम जुड़ा हुआ है। राग-द्वेष की धारा प्रवाहित है, इसलिए आत्मा के साथ परमाणुओं का संयोग होता है। वे परमाणु जुड़ते हैं, आत्मा को प्रभावित करते हैं। वे आत्मा के कार्य का प्रभावित करते हैं, आत्मा के कर्तृत्व को प्रभावित करते हैं। यह इसलिए होता है कि आत्मा के साथ शरीर का योग है। प्रभाव का आदि-बिन्दु है-शरीर। हमारी परतंत्रता का आदि-बिन्दु है-शरीर। आत्मा के साथ शरीर है, इसलिए हम परतंत्र हैं। स्वतंत्र या परतंत्र? 111 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम स्वतंत्र कहां हैं? शरीर है इसलिए भोजन चाहिए। आत्मा को कभी भोजन की आवश्यकता ही नहीं है। उसे कभी भूख नहीं लगती। चैतन्य को कभी भूख नहीं लगती है। भूख लगती है पुद्गल को, शरीर को। शरीर है, इसलिए भूख है, भूख है इसलिए भोजन है। भूख है इसलिए प्रवृत्ति का चक्र चलता है। यदि भूख न हो तो आदमी की सारी प्रवृत्तियां सिमट जायें। एक भूख है, इसलिए आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है-व्यवसाय करना पड़ता है। धंधा करना पड़ता है, नौकरी करनी पड़ती है, न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। आदमी रोटी के लिए, पेट की आग को बुझाने के लिए बहुत कुछ करता है, सब कुछ करता है। शरीर है, इसलिए काम-वासना है। शरीर का सारा चक्र काम के द्वारा संचालित है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को पैदा करता है। यह पैदा करने वाली शक्ति है-काम। आहार की वृत्ति है, काम-वासना की वृत्ति है, यह हमारी परतंत्रता है। इन सारी परतंत्रताओं में राग-द्वेष का चक्र चल रहा है। शुद्ध चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। राग-द्वेष-युक्त चैतन्य है, इसलिए हम परतंत्र हैं। दो पक्ष है। एक पक्ष है-स्वतंत्रता का और दूसरा पक्ष है-परतंत्रता का। चैतन्य की ज्योति सर्वथा लुप्त नहीं होती, इसलिए हमारी स्वतंत्रता की धारा भी सदा प्रवाहित रहती है। हम शरीर, कर्म और राग-द्वेष से बंधे हुए हैं, इसलिए हमारी परतंत्रता की धारा भी सतत प्रवाहित रहती है। हमारा व्यक्तित्व स्वतंत्रता और परतंत्रता का संगम है। उसे किसी एक ही पक्ष में नहीं बांटा जा सकता। उसे निखालिस सोना नहीं बनाया जा सकता। सूर्य कितना ही प्रकाशवान हो किन्तु दिन और रात का भेद नहीं मिटाया जा सकता। कितने ही बादल छा जाएं, अंधकार छा जाये, वे सब सूर्य को ढंक दें, पर दिन दिन रहेगा और रात रात। दिन और रात का भेद समाप्त नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता चलती है तो परतंत्रता भी चलेगी। परतंत्रता चलती है तो स्तंत्रता भी चलेगी। स्वतंत्रता का घटक है-शुद्ध चैतन्य और परतंत्रता का घटक है-राग-द्वेषयुक्त चैतन्य। 112 कर्मवाद Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न होता है कि क्या जो कुछ भी घटित होता है वह सब कर्म से नियंत्रित ही है? उसी का परिणाम मात्र है? यदि ऐसा है तो फिर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। कोई झूठ बोलता है, कोई चोरी करता है, कोई डाका डालता है, तो यह सब करने वाले का दोषी नहीं है, क्योंकि यह सब पूर्ववर्ती कर्म का परिणाम है। इसमें किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। किसी पर चोट की और उसे यह समझाया कि भाई! यह तुम्हारे पूर्वार्जित कर्म का ही परिणाम है, कर्म का ही योग है-ऐसा कहकर चोट करने वाला बच सकता है। वह दोषी नहीं हो सकता। पूर्ववर्ती कर्म ही तो उससे ये सारी क्रियाएं करवा रहे हैं तो फिर वह क्या करे? यह सारा भ्रम है। हर अपराधी अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करता है, उससे बच निकलने का प्रयास करता है। वह अपने आपको निर्दोष मानता है। वह कह सकता है-मैंने कुछ भी नहीं किया। सब कुछ कर्म करवाता है। जैसा कर्म है वैसा करना ही पड़ता है। . यह धारणा सही नहीं है कि जो कुछ घटित होता है वह सब कर्म से ही होता है। व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता भी है। ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती हैं जो पहले के कर्मों से नियंत्रित नहीं होती। - स्थानांग सूत्र में रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बतलाए गए हैं 1. निरंतर बैठे रहना। 2. अहितकर भोजन करना। अति भोजन करता। 3. अति निद्रा। 4. अति जागरण। 5. मन का निरोध करना। 6. प्रस्रवण का निरोध करना। 7. पंथगमन। 8 भोजन की प्रतिकूलता। 6 कामविकार। इन कारणों से रोग की उत्पत्ति हो सकती है। किन्तु इनमें एक भी कारण ऐसा नहीं है जिसे हम पूर्व कर्म-कृत कह सकें। अधिक आहार स्वतंत्र या परतंत्र? 113 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रोग पैदा होता है, अधिक नींद लेने से रोग पैदा होता है और अधिक जागरण से भी रोग पैदा होता है। आहार, नींद और जागरण-ये हमारे क्रिया-पक्ष हैं। ये किसी कर्म के उदय नहीं हैं। कोई भी कर्म इनमें काम नहीं करता। हमारा व्यवहार ही इनमें काम करता है। इन सब घटनाओं से यह प्रमाणित होता है कि पूर्व कर्म ही इनका घटक नहीं है। उत्तरवर्ती क्षण का कारण पूर्ववर्ती क्षण ही नहीं होता। वही उसका उत्तरदायी नहीं होता। उसका अपना स्वतंत्र भी कुछ है। ... अकाल-मृत्यु के सात कारण बतलाए गए हैं१. राग-स्नेह और भय आदि का तीव्रता। 2. शस्त्र-प्रयोग। 3. आहार की न्यूनाधिकता। 4. आंख, कान आदि की तीव्रतम् वेदना। 5. पराघात-गढ़े आदि में गिरना। 6. सांप आदि का स्पर्श। 7. आन-अपान का निरोध। अकाल-मृत्यु के ये सात कारण हैं। मृत्यु का समय नहीं है, किन्तु अकाल में ही मृत्यु की घटना घटित हो जाती है। इन कारणों में एक कारण है-स्पर्श। कोई जा रहा है। रास्ते में सांप ने काट लिया। वह मर गया। एक आदमी शांत बैठा है। ऊपर से भारी चीज उस पर आकर गिरी और वह मर गया। भारी पत्थर ऊपर से अचानक गिरा और दो-चार व्यक्ति उसके नीचे दबकर मर गये। यह सब अकाल-मृत्यु है। यह किसी-न-किसी निमित्त से घटित होती है, किन्तु इसमें कोई कर्म कारण नहीं बनता। आकाश में दो विमान टकरा गये। पांच सौ आदमियों की तत्काल मृत्यु हो गई। विमानों की टक्कर किसी कर्म के योग से नहीं हुई। आकस्मिक घटना घटी और पांच सौ आदमी मृत्यु की गोद में सो गये। ऐसी आकस्मिक घटनाओं की व्याख्या हम कर्म के आधार पर नहीं कर सकते। ___ प्रतिप्रश्न होता है कि क्या रोग का होना किसी भी कर्म से संबंधित नहीं है? अकाल मृत्यु का होना क्या किसी भी कर्मे से संबंधित नहीं 114 कर्मवाद Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? संबंधित है। इसे हमें समझना है। ये घटनाएं कर्म के सहारे घटित नहीं होतीं। रोग होना एक घटना है। रोग हुआ। एक घटना घटित हुई। उसका कारण है अमनोज्ञ भोजन। दूषित आटा मिला, विष-मिश्रित पदार्थ मिला, रोग हो गया। बीमारी हो गई। इसे हम संयोग कहेंगे। रोग होना असातवेदनीय कर्म का उदय है। अहितकर भोजन करने से वह उदय में आ गया, विपाक में आ गया। किन्त जो अहितकर भोजन खाया वह असातवेदनीय कर्म के उदय से नहीं खाया। इसे हम और स्पष्टता से समझें। यदि अहितकर भोजन असातवेदनीय कर्म के उदय से खाया गया हो तो हम कह सकते हैं कि कर्म के कारण यह परिणाम भोगना पड़ा। किन्तु संयोगवश अहितकर भोजन खाने में आ गया। उसे हम कर्म का परिणाम नहीं मान सकते। अहितकर भोजन करना और अहितकर भोजन करने से रोग होना, इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। अहितकर भोजन की घटना कर्म के कारण नहीं हुई, किन्तु उस घटना के घटित होने के कारण कर्म का विपाक हो गया। विमान की दुर्घटना आयुष्यकर्म के कारण घटित नहीं हुई किन्तु विमान की दुर्घटना हुई इसलिए आयुष्य कर्म की उदीरणा हो गयी। आयुष्य कर्म की उदीरणा होना और विमान का दुर्घटनाग्रस्त होना-ये दो बातें हैं। इनका परस्पर संबंध नहीं है। विमान की दुर्घटना हुई इसलिए आयुष्य समाप्त हो गया-यह संबंध हो सकता है। किन्तु उससे पहले इस घटना के साथ आयुष्य कर्म का संबंध नहीं है। __ प्रश्न होता है कि क्या ऐसा हो सकता है? क्या सैकड़ों आदमियों का आयुष्य एक साथ समाप्त हो सकता है? हां, ऐसा हो सकता है। आयुष्य कर्म के दो प्रकार हैं-सोपक्रम आयुष्य और निरुपक्रम आयुष्य। कुछेक कारणों से आयुष्य कर्म में परिवर्तन हो सकता है, वह है सोपक्रम आयुष्य। जहां कोई भी निमित्त काम नहीं देता, आयुष्य कर्म में परिवर्तन लाने में कोई निमित्त सक्षम नहीं होता, वह है निरुपक्रम आयुष्य। इतना शक्तिशाली होता है यह आयुष्य कर्म कि निमित्त का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसमें इतनी तीव्र ऊर्जा और शक्ति होती है कि सारे निमित्त नीचे रह जाते हैं, वह ऊपर तैरता रहता है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं स्वतंत्र या परतंत्र? 115 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाया जा सकता। आयुष्य का जितना कालमान होता है, उसके पूरे होने पर ही प्राणी की मृत्यु होती है, पहले-पीछे नहीं। इसमें किसी भी निमित्त से उस प्राणी की मृत्यु संभव नहीं होती। ऐसी घटनाएं घटित होती हैं, ऐसे निमित्त मिलते हैं कि एक साथ हजारों मनुष्य मर जाते हैं। यह सब सोपक्रम आयुष्य का खेल है। निमित्त से कर्म विपाक में आ जाता है। . . असातवेदनीय कर्म का बंध हुआ। उसका परिणाम यह है कि वह व्यक्ति को प्रतिकूल संवेदन करायेगा। उसके विपाक से प्रतिकूल संवेदन होगा। प्रतिकूल संवेदन किस रूप में होगा-यह सब निमित्तों पर आधारित है। किस काल, देश, क्षेत्र में होगा, यह अनेक बातों पर आधारित है। ___दो आदमी हैं। एक मद्रास का है और दूसरा राजस्थान का। मद्रास के आस-पास रहने वाले व्यक्तियों में एक बीमारी पायी जाती है। अनेक व्यक्तियों के पैरों में सोथ आ जाती है। वे हाथी के पैर जैसे हो जाते हैं। राजस्थान में ऐसा नहीं है। राजस्थान में लू चलती है। यहां के लोगों, के घुटनों में दर्द रहता है। शीतप्रधान देश में शीत-जन्य बीमारियां अधिक होती हैं और उष्ण-प्रधान देश में उष्णता-जन्य बीमारियां अधिक होती हैं। सारी घटनाओं में द्रव्य, क्षेत्र और काल का प्रभाव रहता है। सभी प्रदेशों के आदमियों को असातवेदनीय कर्म को भुगतना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य का भौगोलिक और द्रव्यगत कारण भिन्न-भिन्न होता है। उसी के अनुसार कर्मों का विपाक भुगतना होता है। जहां भौगोलिक भिन्नता और द्रव्यगत भिन्नता आती है वहां असातवेदनीय कर्म के भोगने में भी भिन्नता आ जाती है। लू लगने की बीमारी यदि असातवेदनीय कर्म के कारण ही हो तो यह क्यों होता है कि राजस्थान के आदमी को ही ल लगे और मद्रास वाले को न लगे। कर्म के क्षेत्र में यह पक्षपात नहीं होना चाहिए। फिर जैसे कुछ लोग ईश्वर पर पक्षपात का आरोप लगाते हैं कि ईश्वर ने एक को ऐसा बना दिया और एक को वैसा, वही पक्षपात का आरोप कर्म पर लगाया जायेगा। किन्तु यह पक्षपात नहीं है। यह अन्तर आता है भौगोलिकता के कारण। जहां गर्मी का प्रकोप होता है तथा अन्यान्य कुछ कारण और मिलते हैं, वहां लू लगती है। जहां गर्मी नहीं है, अन्यान्य 116 कर्मवाद Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण नहीं हैं, वहां लू लगती है। लू लगना या न लगना कर्म के अधीन नहीं है। किन्तु लूं लगती है, इसके कारण असातवेदनीय कर्म का उदय हो जाता है। सर्दी में ब्रोंकाइटिस आदि बीमारियां होती हैं। उनके कारण असातवेदनीय कर्म का उदय होता है। ठंडे देश का आदमी गोरा होगा, उष्ण देश का आदमी काला और कुछ देशों के आदमी उजले होंगे। गोरा होना, काला होना और उजला होना-यह नामकर्ण के कारण नहीं है किन्तु इसमें भौगोलिकता और प्रादेशिकता का निमित्त है। बहुत सारी घटनाएं ऐसी हैं जिनके कारण कर्म का विपाक होता है किन्तु कर्म के विपाक के कारण ये घटनाएं घटित नहीं होती। दो शब्द हैं-कर्म और नो-कर्म। नो-कर्म वह है जो कर्म तो नहीं है किन्तु कर्म का सहायक है। भौगोलिकता, वातावरण, पर्यावरण, परिस्थितियां-ये सारे नो-कर्म हैं। ये कर्म नहीं, कर्म के उदय में सहायक तत्त्व हैं। हम यह तथ्य हृदयंगम कर लें कि प्रत्येक घटना कर्म से ही घटित नहीं होती। इसलिए हम पूर्णरूप से परतंत्र नहीं हैं। यदि प्रत्येक क्रिया कर्म से ही घटित होती-विमान की दुर्घटना हो वह भी कर्म से, दो मोटरों की टहराहट हो वह भी कर्म से, अतृप्ति हो वह भी कर्म से, सारे प्राकृतिक प्रकोप हों वे भी कर्म से-यदि ऐसा होता है तो कर्म का वैसा ही साम्राज्य हो जायेगा जैसा ईश्वर का सारा साम्राज्य माना जाता है। उसका भी सर्व-शक्ति-संपन्न साम्राज्य हो जायेगा। कर्म ही सब कुछ हो जायेगा। फिर हम चाहे ईश्वर को माने या कर्म को-कोई अन्तर नहीं होगा। केवल नाम का अन्तर होगा। किन्हीं लोगों ने सर्व-शक्ति-सम्पन्न सत्ता को ईश्वर कह दिया और किन्हीं ने सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता को कर्म कह दिया। सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कर्म सर्व-शक्ति-संपन्न सत्ता नहीं है। उसकी अपनी सीमा है। वह आत्मा पर प्रभाव डालता है किन्तु उसी आत्मा पर प्रभाव डलता है जिसमें राग-द्वेष है। राग-द्वेष-रहित चेतना पर कर्म का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रभाव वह अपनी सीमा में ही डालता है। दूसरे क्षेत्रों में वह अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। कर्म की सार्वभौम सत्ता नहीं है। स्वतंत्र या परतंत्र? 117 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमित ही उसकी सत्ता है और सीमित ही उसका प्रभाव है। इसलिए हम स्वतंत्र भी हैं। स्वतंत्र हैं इसीलिए आवेगों को शांत करने की हमारी मनोवृत्ति है, कामना है। हम आवेगों को शांत कर सकते हैं-इसीलिए हमारी साधना है। यदि हम आवेगों को शांत नहीं कर सकते तो साधना व्यर्थ है। यदि हम यह मानते ही चले जायें कि जैसा कर्म में लिखा है वही होगा, साधना लिखी है तो साधना आ जायेगी, अधिक बोलना लिखा होगा तो अधिक बोलेंगे, झगड़ा करना लिखा होगा तो झगड़ा करेंगे-तब तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। जैसा लिखा है वैसा होगा। किन्तु यह भ्रांति है। . साधना का मूल सूत्र यही है कि कर्म ही सब कुछ नहीं है। साधना का मूलं प्रयोजन है कि आत्मा अपने स्वरूप में आ जाये, जाग जाये, जागरण की एक चिनगारी भी मिल जाये। बस, इतना पर्याप्त है। यह मार्ग मिल जाये तो फिर साधक बिना रोक-टोक आगे बढ़ सकता है, आत्मा को पूर्ण अनावृत करने में सक्षम हो सकता है। 118 कर्मवाद Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद के अंकुश कर्म का केन्द्र-बिन्दु है-मू। साधना का केन्द्र-बिन्दु है-जागृति। आदमी मूर्छित है। कितने काल से मूर्छित है इसका पता भी नहीं लगाया जा सकता। उसकी मूढ़ता अनादिकाल से है। इस घोर तमिस्रा का आदि-बिन्दु अज्ञात है। प्रकाश की कोई रेखा फूटे, यह साधना के द्वारा ही संभव है। कोई काललब्धि ऐसी हो सकती है कि व्यक्ति को जागरण मिल जाये या ऐसा कोई निमित्त मिल सकता है जिससे जागृति का कोई बिन्दु स्फुटित हो जाये, कोई प्रकाश की किरण फूट जाये। मूर्छा और जागृति-दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। मूर्छा जागृति नहीं है और जागृति मूर्छा नहीं है। ___ अध्यात्म-शास्त्र का सूत्र है-जागृति और कर्म-शास्त्र का सूत्र है-मूर्छा। मूर्छा को तोड़ना और जागृत होना-ये दो बातें हमारे सामने हैं। जैसे-जैसे मूर्छा टूटती है, वैसे-वैसे जागृति बढ़ती है। मूर्छा आस्रव है और जागृति संवर है। एक आस्रव है। वह उसे लाता है जो नहीं चाहिए। आस्रव द्वार है। इससे सब-कुछ आता है। वह आता है जो वांछनीय नहीं है, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं है। किन्तु द्वार खुला है, इसलिए आ रहा है। उसे रोका नहीं जा सकता। संवर का अर्थ है-द्वार का बन्द हो जाना। आस्रव है-राग-द्वेषात्मक परिणति। जीव का जो राग-द्वेषात्मक परिणाम होता है, वह आस्रव बन जाता है। जब चैतन्य का अनुभव जागृत होता है वह स्वयं संवर बन जाता है। संवर है चैतन्य का अनुभव। मूर्छा एक बिन्दु है तमोमय, अंधकारमय। जब मूर्छा सघन होती है तब जागृति अंधकारमय हो जाती है। वह बिन्दु लुप्त हो जाता है। कर्मवाद के अंकुश 116 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब जागृति का बिन्दु उभरता है, थोड़ा-सा प्रकाश आता है तब मूर्छा का सघन बिन्दु धुंधलाने लगता है। राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि का भेद होता है। यह पहली बार होता है। अपूर्वकरण के द्वारा। अपूर्वकरण अर्थात् चित्त की ऐसी निर्मलता जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुई थी। जो पहले कभी प्राप्त नहीं होता वह अपूर्व होता है। जो एक बार प्राप्त हो गया वह अपूर्व नहीं होता। जो घटना पहली बार घटित होती है, वह अपूर्व होती है। यहां राग-द्वेष की गांठ पहली बार टूटने लगती है। जागृति का एक बिन्दु उभरता है। जो सघनतम अंधकार था वह टूटता है। जैसे-जैसे हमारे चैतन्य का अनुभव आगे बढ़ता है, प्रकाश फैलता है, वैसे-वैसे मूर्छा का बिन्दु कमजोर होता जाता है। जब चैतन्य का अनुभव स्पष्ट होता है तब सम्यक्त्व संवर बन सकता है। चैतन्य का अनुभव और स्पष्ट होता है तब आकांक्षाएं समाप्त होने लगती हैं। अमिट प्यास भी बुझने लगती है, तब व्रत संवर होता है। चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है तब प्रमाद समाप्त होने लगता है, अप्रमाद संवर की स्थिति निर्मित होने लगती है। चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है, कषाय भी समाप्त हो जाता है तब अकषाय संवर की स्थिति बनती है। पूर्ण प्रकाश की स्थिति, वीतरांगता की स्थिति आ जाती है। राग-द्वेषात्मक परिणाम के द्वारा जो आस्रव हो रहा था, वह समाप्त हो जाता है और चैतन्य का पूर्ण अनुभव जागृत हो जाता है। सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि मोह के उपशांत या क्षीण होने पर संवर होता है। पर संवर कैसे होता है? उसकी प्रक्रिया क्या है? इस पर हमें गहराई से विचार करना चाहिए। संवर साधना के द्वारा ही हो सकता है। साधना के अनुभवों के द्वारा ही यह ज्ञात हो सकता है कि संवर कैसे हो सकता है? मैं कहूं कि संवर करें, आस्रव रुक जायेगा, मूर्छा का सघन वलय टूट जायेगा। बात तो बहुत सीधी-सी लगती है। पर संवर कैसे हो, यह प्रश्न इतना सीधा नहीं है। साधना के क्षेत्र में चार शब्द प्रचलित हैं-संयम, चारित्र, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान। संयम करें। इन्द्रियों का संयम करें, मन का संयम करें, वासनाओं का संयम करें। चारित्र अर्थात् आचरण। हम शुद्ध आचरण करें। संयम संवर 120 कर्मवाद Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रक्रिया है। चारित्र संवर की प्रक्रिया है। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान होता है। तीन क्षण हैं-एक है अतीत का क्षण, एक है वर्तमान का क्षण और एक है भविष्य का क्षण। बीता हुआ क्षण अतीत है, आने वाला क्षण भविष्य है और इन दोनों के बीच का क्षण वर्तमान है। संवर वर्तमान के क्षण में होता है। जिसने अतीत का प्रतिक्रमण और भविष्य का प्रत्याख्यान किया तो प्रत्युपन्न क्षण, जो क्षण उत्पन्न हो रहा है, उस क्षण में अपने आप संवर हो जाएगा। जो आस्रव चल रहा है, उसका प्रतिक्रमण करें। उस आस्रव से आप अपने स्वभाव में लौट आएं। अपने चैतन्य के अनुभव को छोड़कर आप राग-द्वेष के अनुभव में चले गये थे, अब राग-द्वेष के अनुभव को छोड़कर पुनः चैतन्य के अनुभव में आ जाएं, संवर हो जायेगा। राग-द्वेष के अनुभव से वापस लौट आना एक प्रतिक्रमण है। आप संकल्प करें कि आप राग-द्वेष के क्षण में नहीं जाएंगे। जब यह संकल्प दृढ़ हो जाता है तब राग-द्वेष के अनुभव से आप लौट आते हैं। पुनः आप उस अनुभव में नहीं जाएंगे। दोनों ओर से राग-द्वेष का अनुभव समाप्त हो जायेगा। यह बीच का क्षण वर्तमान का क्षण, अतीत और भविष्य के वीच का क्षण, चैतन्य के अनुभव का क्षण हो जायेगा, संवर हो जाएगा। असंयम के द्वारा आस्रव के द्वार खुलते हैं। मन का असंयम, इन्द्रियों का असंयम, शरीर का असंयम होता है तब द्वार खुलते हैं। अनियंत्रित स्थिति में खुलना स्वाभाविक है, उच्छृखलता स्वाभाविक है। जब उच्छृखलता होती है, खुलना होता है तब किसी का भी आना स्वाभाविक बन जाता है। उस समय संवर नहीं हो सकता। हमने संयम किया। संयम का कार्य है, जो आ रहा था उसे रोक दिया। चारित्र का कार्य है, जो पहले था उस खजाने को खाली कर दिया। असंयम क्यों होता है? हमने कुछ विजातीय द्रव्य का संचय कर रखा है। वह अपने साथियों को नियंत्रित करता है। हमने अपने ही रागद्वेष के कारण असंयम को पाला और असंयम ने मोह का संग्रह किया, मुर्छा का संयम किया, कषाय को प्रबल बनाया। वही मूर्छा और वही मोह दूसरे-दूसरे कर्म परमाणुओं के लिए स्वागत का द्वार खुला रख रहा है। आओ, आओ, एकत्र हो जाओ। कर्मवाद के अंकुश 121 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जो मूच्छा का, मोह का, असंयम का प्रयत्न चल रहा है, उसके कारण इतने कर्म-परमाणु आये हैं कि हमारी आत्मा के, हमारी अखंड चेतना के एक-एक कण पर, एक-एक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त परमाणु चिपके बैठे हैं। एक-दो नहीं, अनन्त-अनन्त परमाणु। अब इन्हें निकालें तो भी कैसे? इन्होंने अपना पूरा अधिकार, अपनी पूरी सत्ता जमा ली है। ये सहजतया वहां से हटना नहीं चाहते। जिसका अधिकार था, वह चैतन्य सो गया। उसका अधिकार छिन गया। जिसका कोई अधिकार नहीं था, उसने ऐसा अधिकार जमा लिया कि मानो चैतन्य तो है ही नहीं, सब कुछ पुद्गल-ही-पुद्गल है। जड़ता-ही-जड़ता है। इसलिए हमें यह संदेह भी हो जाता है कि आत्मा है या नहीं? आत्मा की वास्तविक सत्ता है या नहीं? चैतन्य का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं है? यह संदेह किसी को नहीं है। भौतिकता है या नहीं, यह संदेह किसी को नहीं। क्योंकि पुद्गल, का भौतिकता का इतना प्रबल साम्राज्य जम गया है कि उनकी प्रबलता में जो एकमात्र अपौद्गलिक पदार्थ था, वह दब गया। एकमात्र चेतन तत्त्व था, जो जड़ नहीं था, अचेतन नहीं था, वह लुप्त-सा हो गया। विश्व में एक मत ही चल पड़ा कि चैतन्यवाद की कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। सब कुछ जड़-ही-जड़ है, जड़वाद ही चल रहा है। इस प्रकार जड़वाद की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गयी। ऐसा क्यों हुआ? इसका मूल कारण रहा है-असंयम, आस्रवं। असंयम ने आस्रव को बल दिया। उपचय होता गया। खजाना भरने लगा। भर गया। जब तक जमे हुए खजाने को रिक्त नहीं किया जाता और नवागंतुक के मार्ग को रोका नहीं जाता, तब तक अपने स्वभाव के अनुभव की बात सफल नहीं हो सकती। संवर कैसे होगा? चैतन्य का अनुभव कैसे होगा? अपने अस्तित्व का अनुभव कैसे होगा? चैतन्य का अनुभव, अस्तित्व का अनुभव, संवर-ये सब एक ही हैं। संवर का अर्थ ही है-अपने चैतन्य का अनुभव, अपने अस्तित्व का बोध। यह तब तक संभव नहीं, जब तक चय को रिक्त नहीं किया जाता और द्वार को बंद नहीं किया जाता। चय को रिक्त करने का कार्य चारित्र का है। हमाने राग-द्वेष के परिणमन तथा 122 कर्मवाद Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन, वाणी और शरीर की चंचलता के द्वारा ही विजातीय पदार्थों को अपनी ओर खींचा है, उन्हें आकर्षित किया है और उनका संग्रह किया है। जब तक मन, वाणी और शरीर की चंचलता समाप्त नहीं हो जाती, तब तक जो उपचित है, उसे रिक्त नहीं किया जा सकता, खाली नहीं किया जा सकता। क्योंकि कुछ खाली होगा तो नया संग्रह उसका स्थान ले लेगा। यह क्रम अबाधगति से चलता रहेगा। ___इस स्थिति में पहला काम यह होगा कि हम अपने आचरण को समतामय बनाएं। भगवान महावीर ने समता पर सर्वाधिक बल दिया। हम समझते हैं कि जीव मात्र पर समभाव रखना ही समता है, यही धर्म है। यह एक बात है। यह धर्म है ही। किन्तु इसका और गूढ़ अर्थ है। समता का मूल तात्पर्य है अराग का क्षण, अद्वेष का क्षण। हमारे जीवन में ऐसे क्षण बीतें जिनमें न राग हो और न द्वेष हो, वीतरागता का क्षण हो, यह वीतरागता का क्षण ही वास्तव में समता है। जब वीतराग भाव होगा तब सब प्राणियों के प्रति, सब जीवों के प्रति अपने आप समता का भाव होगा। उसमें विषमता रहेगी ही नहीं। किसी भी पदार्थ के प्रति, चाहे फिर वह चेतन हो या अचेतन, उच्चावचभाव समाप्त हो जाता है। न घृणा हो सकती है, न अहंकार हो सकता है, न बड़प्पन का भाव हो सकता है और न छुटपन का भाव हो सकता है। कुछ भी नहीं हो सकता वीतरागता के क्षण में। वही आचरण सबसे बड़ा है जो समतापूर्ण हो। समता ही महान् आचरण है। जिस आचरण में समता नहीं है अर्थात् तटस्थता नहीं है, मध्यस्थता नहीं है, निष्पक्षता नहीं है, राग-द्वेष की प्रचुरता है, वह महान् आचरण नहीं हो सकता। वह सामान्य होगा, सामान्य व्यक्ति का आचरण होगा। महान् आचरणं वही होगा जो पूर्ण तटस्थ, मध्यस्थभाव से परिपूर्ण और राग-द्वेष का परिणतियों से शून्य है। उसका न इधर झुकाव है और न उधर झुकाव है। दोनों पलड़े सम हैं। यह है समता का आचरण। जब समता का आचरण होता है तब विजातीय तत्त्व उखड़ने लगते हैं। जो तत्त्व विषमता के कारण बद्धमूल हो रहे थे, उनकी जड़ें हिल उठती हैं, उनकी सत्ता खिसकने लगती है वे एक-एक कर वहां से हटने लगते कर्मवाद के अंकुश 123 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। भरा हुआ खजाना खाली होने लगता है। एक ओर से यह रिक्त करने का कार्य चलता है, तब दूसरी ओर से यह कार्य भी आवश्यक हो जाता है कि रिक्त स्थान में नये सदस्य आकर न बैठ जायें। जो रिक्त हुआ है, बड़े कड़े परिश्रम से जो खाली हुआ है, वह फिर भर न जाये। पुराने जा रहे हैं, नये न आ जायें। हमारे चरित्र का निर्माण समता के तत्त्वों से हुआ। भरा हुआ रिक्त होने लगा। अब हमने सीमाओं की घेराबंदी करनी प्रारम्भ की, अपना संयम करना प्रारम्भ किया। मन को रोका, इन्द्रियों को रोका, शरीर और वाणी की चंचलता को भी रोका। जबरदस्त घेराबंदी की, संयम किया। अब नये अन्दर नहीं आ सकते। पुराने भागते गए, भागते गए। इस स्थिति में हमारा संयम सधा, हमारा चारित्र बना और संवर निष्पन्न हो गया। यह संवर की प्रक्रिया है। तत्त्व की व्याख्यामात्र से संवर नहीं होता। वह होता है साधना के द्वारा। वह होता है अभ्यास के द्वारा। आप जानते जाएं, रटते जाएं कि कर्म की अमक प्रकृतियों के क्षयोपशम के द्वारा संवर हो जायेगा, कभी संवर नहीं होगा। संवर तब होगा जब प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान तथा संयम और चारित्र-ये चारों तत्त्व हमारी साधना के अंग बनेंगे। जब संवर होता है तब मूर्छा का सघन वलय अपने आप टूटने लगता है और एक दिन पूर्ण जागरण की स्थिति उपलब्ध हो जाती है। उस अवस्था में केवल जागरण-ही-जागरण रहता है। ___कर्मशास्त्र को व्याख्यायित करने का और उसे समझने का यही परिणाम है, यही निष्कर्ष है कि यदि हम साधना करना चाहें तो हमें चैतन्य के अनुभव में आना होगा। हम ऐसे क्षण बिताएं जिनमें चैतन्य का अनुभव हो, केवल अपने अस्तित्व का अनुभव हो, राग-द्वेष का अनुभव न हो। कब- बिताएं? आचार के क्षणों में, व्यवहार के क्षणों में। हम कोई भी आचरण करें, किसी के साथ कोई व्यवहार करें, उन क्षणों में हम समता में रहें, समता का अनुभव करें। संवर स्वतः निष्पन्न होगा। हम सतत जागृत रहें। मन में या व्यवहार में राग-द्वेष की परिणति होते ही तत्काल उससे लौट आएं और संकल्प-शक्ति को जागृत करें। हमारा ऐसा दृढ़ संकल्प बने कि जिससे भविष्य में राग-द्वेष की परिणति 124 कर्मवाद Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हो, राग-द्वेषमय क्षण न बीते। संवर की साधना स्वयं निष्पन्न होगी। यही साधना की पूरी सार्थकता है। तब साधना देशकालातीत साधना बन जाती है। अभी हमारी साधना देशकालातीत नहीं है। हमारी साधना देशबद्ध और कालबद्ध है। देशबद्ध और कालबद्ध साधना का परिणाम भी तात्कालिक होता है। साधना वह होनी चाहिए जो देश और काल से आबद्ध न हो, उनसे बंधी हुई न हो। आप किसी भी देश में चले जायें, किसी भी काल में चले जायें, किसी भी काल में रहें किन्तु चैतन्य के अनुभव की एक ज्योति, एक प्रकाश रेखा जो फूटी है वह विकसित हो, आगे से आगे बढ़ती जाए। कभी भी वह बुझे नहीं। वह लौ और वह प्रकाशरेखा कभी भी दूर न जाए। इस ओर हमारा प्रयत्न हो। इससे पूर्व कर्म-बंध के सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जा चुकी है। अब कर्म-मुक्ति के कुछ सूत्र प्रस्तुत कर रहा हूं। कर्म-मुक्ति का सबसे बड़ा सूत्र है-संवर और तप। तपस्या के विषय में कुछ सोचें। जिनको खपाना है, जिनको दूर करना है, उनमें पहला तत्त्व है मूर्छा का। सबसे पहला माध्यम है-देहासक्ति। यहां से मूर्छा प्रारंभ होती है। भगवान् महावीर ने तप के बारह सूत्र बतलाए। उनमें पहला है-अनशन। मत खाओ। दूसरा है-ऊनोदरी। कम खाओ। तीसरा है-रस-परित्याग। रसों को छोड़ी। जिवेन्द्रिय पर संयम रखो। चौथा है-वृत्तिसंक्षेप। खाने के विविध प्रयोग करो। पांचवां है-कायक्लेश। शरीर को साध लो। इतने कष्ट-सहिष्णु बन जाओ, आसनों के द्वारा इतनी शक्ति पैदा कर लो कि जिससे कोई भी स्थिति आये तो शरीर उसे झेल सके। ये पांच सूत्र देहासक्ति से मुक्त होने के सूत्र हैं। आहार की आसक्ति भी देहासक्ति है। यह देहासक्ति का ही एक परिणाम है। जब ये पांच सूत्र सध जाते हैं। तब देहासक्ति टूट जाती है। ___ जब यह हो जाता है तब प्रतिसंलीनता की बात आती है। यह कर्म-मुक्ति का छठा सूत्र है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-इन्द्रियों को अंतर्मुखी बनाना। जिस रास्ते से इन्द्रियां बाहर जा रही हैं, उसे बन्द कर दो। नया मार्ग खोल दो। मार्गान्तरीकरण कर दो। जो इन्द्रियां केवल बाहर कर्मवाद के अंकुश 125 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर दौड़ रही हैं, जो मन बाहर की ओर भटक रहा है, उन इन्द्रियों को भीतर ले आओ, मन को भीतर ले आओ यह अंतप्रवेश की प्रक्रिया है। हम कहते हैं-शरीर को देखो। इसका तात्पर्य है कि शरीर के भीतर जो प्रकम्पन हो रहे हैं उन्हें देखो। इन्द्रियों की यह आदत बन गयी है कि वे बाहर-ही-बाहर देख रही हैं, देखना चाहती हैं। इस आदत को बदलो। एक नयी आदत का निर्माण करो। वह आदत भीतर-ही-भीतर देखे। बाहर देखने में जो आनंद आता है उससे कई गुना आनंद आता है भीतर देखने में। बाहर देखने के पश्चात् आदमी को बहुत बार अनुताप भी होता है। पर मुझे नहीं लगता कि भीतर देखने वाले को भी अनुताप हुआ हो। शरीर की प्रेक्षा करने वालों से मैंने कई बार पूछा कि शरीर प्रेक्षा करने में तुम्हें व्यर्थता का अनुभव तो नहीं हो रहा है? किसी ने नहीं कहा कि हमें व्यर्थता का अनुभव हो रहा है, अनुताप हो रहा है। यह प्रेक्षा की प्रक्रिया, दर्शन की प्रक्रिया, देखने की प्रक्रिया बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जो आस्रव हैं, कर्म-आगमन के द्वार हैं, वे ही संवर के द्वार हैं। दर्शन की प्रक्रिया के द्वारा हम उन द्वारों को बंद कर देते हैं। देहासक्ति को तोड़ना, शरीर को साधना और इन्द्रियों के रास्ते को बदलना-ये प्राथमिक द्वार हैं। साधक के लिए प्रवेश-द्वार हैं। इन्हें बहिरंग भी कहा गया है। जब तक हम प्रवेश नहीं करेंगे, तब तक भीतर में रहने का प्रश्न ही नहीं होगा। सातवां सूत्र है-प्रायश्चित का। मन में विचार आते रहते हैं। मन में विचार आया, तत्काल उसको साफ कर दो। यदि तत्काल साफ नहीं किया, जागरूक नहीं रहे, उस विचार को पाल लिया तो गांठ बन जाएगी, ग्रंथिपात हो जायेगा। विचार आज का हो, किन्तु उसका परिणाम हजार वर्ष बाद भी भोगना पड़ सकता है। न जाने कब उसे भुगतना पड़े। यदि उसी समय उसका प्रक्षालन कर दिया, उसे धो डाला तब तो जो कर्म परमाणु आए थे, वे टूट जायेंगे। वे गांठ नहीं बन पायेंगे। अगर सावधानी नहीं रही, जागरूकता नहीं रही, गांठ पड़ गई तो निश्चित ही उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। इसीलिए प्रायश्चित का सूत्र दिया गया। 126 कर्मवाद Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित करते रहो ताकि गांठ न पड़ने पाए। ___आठवां सूत्र है-विनय। मन में अहं नहीं होना चाहिए। अहंकार और ममकार, ये दो बाधाएं हैं। साधना में कोई अहंकार नहीं होना चाहिए। साधक अत्यन्न विनम्र और मूदु रहे। नौवां सूत्र है-वैयावृत्य। इसका अर्थ है-साधना करने वालों का सहयोग करना। केवल स्वार्थी मत बनो। जो साधना करना चाहते हैं, उनके लिए, अपने से जो कुछ बन पड़े, करो। यह वैयावृत्य है, सेवा है। दसवां सूत्र है-स्वाध्याय। स्वाध्याय का अर्थ है-पढ़ना, ज्ञान प्राप्त करना। वह ज्ञान प्राप्त करो जो तुम्हारी आत्मा को जागृत करे। केवल पुस्तकीय ज्ञान पर्याप्त नहीं है। कर्म-बंधन से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान प्राप्त करो। ऐसा ज्ञान प्राप्त करो जो मूर्छा के बंधनों से छुटकारा दिला सके। ___ ग्याहरवां सूत्र है-ध्यान। नहीं पढ़ना है तो अपने आप में लीन हो जाओ। ध्यान लीन होने की प्रक्रिया है। ध्यान के माध्यम से तुम सत्य तक पहुंच जाओगे, सत्य को पा लोगे, सत्य का साक्षात् कर लोगे। ____बारहवां सूत्र है-व्युत्सर्ग। इसका अर्थ है-छोड़ना। मैंने कहा भी था कि महावीर की साधना का सूत्र है-अयोग की साधना। सब सम्बन्धों को तोड़ दो। संब विसर्जित कर दो। जो कुछ हो उसका विसर्जन कर दो। शरीर का व्युत्सर्ग और कर्म का व्युत्सर्ग। यह सारी तपस्या की प्रक्रिया है। इसके बारह सूत्र हैं। कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया के दो तत्त्व हैं-एक है संवर और दूसरा है तपस्या या निर्जरा। ___महर्षि पतंजलि ने बतलाया कि क्रियायोग के द्वारा क्लेशों को कम . किया जा सकता है। तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान-यह क्रियायोग है। ___ भगवान् महावीर की भाषा में संवर और निर्जरा के द्वारा आस्रवों को क्षीण किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के द्वारा कर्म-मुक्ति घटित होती है और व्यक्ति सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है। कर्मवाद के अंकुश 127 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम कर्म-बंधन की प्रक्रिया से चले थे और कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया तक पहुंच गये। बंधन के क्षण से मुक्ति के क्षण तक आ गये। अब हम कर्म संबंधी दो-चार बिन्दुओं पर और ध्यान दें, जो सारी चर्चा का निष्कर्ष होगा। प्रश्न होता है कि कर्म का अस्तित्व है या नहीं? यह कहा जाता . है कि संसार में बहुत विविधता है और इस विविधता का एक हेतु कर्म है। किन्तु विविधता का हेतु केवल कर्म ही नहीं है, और भी अनेक कारण हैं। चैतन्य जगत् में विविधता है। चैतन्य जंगत् में घटित होने वाली विविध घटनाओं का एक बड़ा निमित्त है कर्म। यदि परमाणु नहीं होते, कर्म का बंध नहीं होता तो ये विविधताएं नहीं होतीं। सब कुछ समान ही होता। सब आत्मा के स्वभाव में होते। सब एक-जैसे होते, कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई विविधता नहीं होती। विभक्ति होना, विभाजन होना-यह कर्म के अस्तित्व का बहुत बड़ा प्रमाण है। __ कर्म के अस्तित्व का दूसरा कारण है-मनुष्य के रागात्मक और द्वेषात्मक परिणाम। यदि मनुष्य में राग और द्वेष नहीं होता तो कर्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं होता। रागात्मक और द्वेषात्मक परिणाम इसलिए होते हैं कि मनुष्य कर्म से बंधा है। बंधन चैतन्य का मूल स्वभाव नहीं है। यह स्वभाव का अतिक्रमण है। स्वभाव से विरोधी कार्य जो हम कर रहे हैं, उनका प्रेरक तत्त्व है कर्म। तीसरा कारण है-चंचलता। यदि कर्म नहीं होते तो चंचलता नहीं होती। सक्रियता तो होती, चंचलता नहीं होती। सक्रियता पदार्थ का लक्षण है। कोई भी पदार्थ निष्किय नहीं होता। सब सक्रिय होते हैं। सक्रियता पदार्थ का लक्षण है। चंचलता पदार्थ का लक्षण नहीं है। ___ हमने अपने कर्म-अणुओं द्वारा अपने पर एक शरीर का बंधन डाल रखा है। एक सूक्ष्म शरीर का और एक स्थूल शरीर का। उसी शरीर के द्वारा यह सारी चंचलता हो रही है। शरीर है इसलिए मन की चंचलता है। शरीर है इसलिए वाणी की चंचलता है। ये सब मूलतः शरीर की चंचलता के कारण चंचल हैं। कर्म के कारण ये शरीर और शरीर के 128 कर्मवाद Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण यह चंचलता। इसलिए यह स्वीकार करने में बहुत सुविधा है कि कर्म है। चौथा कारण है-पुद्गल और जीव का परस्पर प्रभाव। ये एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है। पुद्गल मन को प्रभावित करता है, शरीर को प्रभावित करता है। जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम और पुद्गल में ऐसा गठबंधन है, ऐसी संधि है कि जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम पुद्गल को सहयोग देते हैं और पुद्गल राग-द्वेषात्मक परिणाम को सहयोग देता है। दोनों एक-दूसरे से संबद्ध हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। चेतना का, आत्मा का इस प्रकार दूसरे से प्रभावित होना इस बात का साक्षी है कि कर्म का अस्तित्व है। ____ हम पहले यह चर्चा कर चुके हैं कि कर्म की सार्वभौम सत्ता नहीं है, सर्वशक्ति-संपन्न सत्ता नहीं है। यह बहुत ही नियंत्रित तत्त्व है। हम साधना के क्षेत्र में या व्यवहार के क्षेत्र में भी यह भूल कर बैठते हैं और कह देते हैं कि हमसे साधना हो नहीं सकती, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है। व्यवहार के क्षेत्र में भी हम कह देते हैं-मैं यह काम नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है। हमने बस मान लिया कि कर्म ही सब कुछ है। कर्म ही सब कुछ नहीं है। वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह सब कुछ हो जाए। हमने भूल-वश उसे सब कुछ होने का स्थान दे दिया। ___हम जब साधना की दृष्टि से कर्म-शास्त्र पर विचार करते हैं तब हमें इन दो-चार बातों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। ___पहली बात-कर्म पर भी अंकुश है। वह कोई निरंकुश सत्ता नहीं है। उस पर सबसे पहला अंकुश यह है कि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व है। यदि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता तो फिर कर्म सब कुछ होता जाता है। किन्तु आत्मा का स्वतंत्र स्वभाव है और वह चैतन्य कभी भी अपने स्वभाव को तोड़ने नहीं देता, नष्ट होने नहीं देता। इसलिए कर्म आत्मा पर एकाधिकार नहीं जमा सकता। कर्म आत्मा पर कितना ही प्रभाव डाले पर वह उस कर्मवाद के अंकुश 126 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर एकछत्र शासन नहीं कर सकता। जब आत्मा के चैतन्य स्वभाव का जागरण होता है तब कर्म की सत्ता डगमगा जाती है। कितना ही गहरा अंधकार हो, एक छोटी-सी प्रकाश की रेखा आती है, तब वह समाप्त हो जाता है। उसका एकछत्र-सा लगने वाला शासन नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। प्रकाश के सामने अंधकार टिक नहीं सकता। जब तक प्रकाश नहीं होता, तब तक ही अंधकार रहता है। जब तक चैतन्य का जागरण नहीं होता, जब तक ही कर्म टिकता है। जैसे ही चेतना जागी, कर्म अपने आप समाप्त होने लग जाता है। ___दूसरी बात है-परिवर्तन का सिद्धांत। विश्व में कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो परिवर्तनशील न हो। जो नित्य है वह अनित्य भी है और जो अनित्य है वह नित्य भी है। सब परिवर्तनशील हैं। भगवान् महावीर ने कर्म-शास्त्र के विषय में कुछ ऐसी नयी धारणाएं दी जो अन्यत्र दुर्लभ हैं या अप्राप्य हैं। उन्होंने कहा-कर्म को बदला जा सकता है। वैज्ञानिकों में एक शताब्दी तक ये धारणाएं चलती रहीं कि लोहा, तांबा, सोना, पारा-ये सारे मूल तत्त्व हैं, इनको एक-दूसरे में बदला नहीं जा सकता। उन्होंने मूल तत्त्व सौ माने। उनको एक-दूसरे में नहीं बदला जा सकता। किन्तु बाद में खोजों ने यह प्रमाणित कर दिया कि ये सब मूल तत्त्व नहीं हैं। उनको एक-दूसरे में बदला जा सकता है। हजारों वर्ष पहले यह निश्चित मान्यता थी कि पारे से सोना बनाया जा सकता है, पारे को सोने में बदला जा सकता है। आज का विज्ञान भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा है कि पारे से सोना बनाया जा सकता है। प्राचीन रसायन-शास्त्रियों ने पारे से सोना बनाने की अनेक विधियों का उल्लेख किया। जैन-ग्रन्थों में भी उनका यत्र-तत्र वर्णन प्राप्त है। ___वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि पारे के अणु का भार 200 होता है। उसे प्रोटोन के द्वारा तोड़ा जाता है। प्रोटोन का भार 1 होता है। प्रोटोन से विस्फोटित करने पर वह प्रोटोन पारे में घुल-मिल गया और पारे का भार 201 हो गया। 201 होते ही अल्फा का कण निकल जाता है। उसका भार चार है। चार का भार कम हो गया। शेष 167 भार का अणु रह गया। सोने के अणु का भार 167 और पारे के अणु 130 कर्मवाद Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भार भी 167 / पारा सोना हो गया। वैज्ञानिकों ने इसे सिद्ध कर दिखा दिया। इस पद्धति से बनाया गया सोना महंगा पड़ता है। इसलिए इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया गया। किन्तु बात प्रामाणिक हो गई कि पारे से सोना बनता है। - महावीर ने कहा-तुम्हारी साधना प्रबल हो, तुम्हारी समता मजबूत हो तो पुराने बंधे हुए कर्मों का कितना ही उपचय हो, वह टूटने लग जाता है। पारा सोना बन गया। नये पाप कर्म तीव्र नहीं बंधेंगे, यह तो एक बात हो गई। जो पुराना संचय है, जो असत् है वह सत् में बदल जाता है, अशुभ शुभ में बदल जाता है, पाप पुण्य में बदल जाता है। यह नयी बात महावीर ने कही कि कर्मों को बदला जा सकता है। कर्मों की उदीरणा की जा सकती है। कर्म कब उदय में आएगा? कर्म का भंडार कब खाली होगा? यह अनन्तकाल की बात हो जाती है। किन्तु महावीर ने कहा-अपने परिणामों की ऐसी श्रेणी निर्मित करो जिसमें न राग हो और न द्वेष हो। कर्मों की उदीरणा करो, बंधे हुए कर्मों को खींचो और तोड़ते जाओ। विपाक की प्रतीक्षा मत करो। पहले ही उन्हें समाप्त करते जाओ। यह परिवर्तन का सिद्धांत कर्म पर बहुत बड़ा अंकुश है। . तीसरी बात-विपाक की सापेक्षता। कोई भी विपाक निरपेक्ष नहीं होता। वह देश, काल, भाव, पुद्गल, पुद्गल-परिणाम-इन सबके माध्यम से होता है। साधना के द्वारा हम निमित्तों को दूर करें, जो विकास में बाधक बनते हैं। हम ऐसे निमित्तों को विकसित करें, जो कर्म के विपाक को दूर कर सकें। विपाक निमित्तों से होता है। यह विपाक की सापेक्षता कर्म पर अंकुश है। - साधना करने वाला व्यक्ति, जिसमें साधना की थोड़ी-सी भी रुचि जाग ज़ाए वह कर्मशास्त्र के इन गूढ़तम रहस्यों को जाने और जानने के बाद अध्यात्म-शास्त्र के द्वारा आध्यात्मिक चेतना को पूर्णतः जागृत कर साधना में सफल बने। . कर्मवाद के अंकुश 131 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबद्धता का प्रश्न स्वतंत्रता और परतंत्रता की चर्चा नयी नहीं है। वह सदा चलती रही है, आज भी हम करते हैं। परतंत्रता के कारणों पर विचार करने से लगता है कि परतंत्रता का एक मुख्य कारण है-वातावरण, परिस्थिति। आदमी वातावरण से इतना प्रभावित होता है कि वह अनचाहा कार्य भी कर लेता है। वह नहीं चाहता कि अमुक कार्य करूं। परन्तु परिस्थिति की परतंत्रता या वातावरण की बाध्यता उससे वह कार्य करा डालती है। ऐसा एक बार नहीं, हजारों बार होता है। एक व्यक्ति के जीवन में नहीं, हजारों व्यक्तियों के जीवन में होता है। आदमी अपने उत्तरदायित्व को बहुत हल्का कर देता है इस उत्तर से कि जब परिस्थिति ही ऐसी थी तो मैं कैसे बच सकता था? छोटे क्षेत्रों की बात छोड़ दें, बड़े-बड़े क्षेत्रों में भी यही चर्चा है। भयंकर अस्त्रों का अंधाधुंध निर्माण हो रहा है। निर्माताओं से पछा जाए कि यह निर्माण क्यों हो रहा है तो उत्तर मिलेगा कि इसका निर्माण ध्वंस के लिए नहीं हो रहा किन्तु परिस्थिति की बाध्यता से किया जा रहा है। यदि हम इनका निर्माण न करें तो दूसरे राष्ट्र युद्ध में उतर जाएंगे। अस्त्रों का निर्माण शक्ति-संतुलन के लिए हो रहा है। कितना अच्छा तर्क है और उसमें परिस्थिति की बाध्यता है। वातावरण दो प्रकार का होता है-बाहर का वातावरण और भीतर का वातावरण। मनोवैज्ञानिकों ने इस विभाजन को स्वीकारा है। बाह्य वातावरण के कुछ उद्दीपक होते हैं। उनके कारण बाह्य वातारण वैसा बन जाता है। इसी के आधार पर आदमी के व्यवहार में परिवर्तन आता है। आदमी का व्यवहार आन्तरिक वातावरण में परिवर्तन करता है, 132 कर्मवाद Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाड़ी-संस्थान में परिवर्तन करता है। नाड़ी-संस्थान में परिवर्तन होता है तो आन्तरिक व्यवहार में परिवर्तन होता है। एक चक्र चलता है उद्दीपकों से लेकर आन्तरिक वातारण तक। ___ काव्यशास्त्र में उद्दीपकों की बहुत चर्चा है। वे स्थायीभाव, सात्विकभाव और संचारीभाव के नाम से पहचाने जाते हैं। ___बाहर के उद्दीपक हमारे आन्तरिक वातावरण को उद्दीप्त कर देते हैं। एक आदमी बिलकुल शांत बैठा है। किसी ने आकर कहा-अरे बेवकूफ! यहां क्यों बैठे हो? बस, शांति भंग हो जाती है। जो इतने समय तक शांत लग रहा था, अब वह ज्वालामुखी बन गया। यह ज्वाला कहां से आयी? आग कहां से आयी? एक शब्द ने, अप्रिय वचन ने शीतलप्रसाद को ज्वालाप्रसाद बना दिया। एक ही शब्द से उसकी शीतलता समाप्त हो गई। भीतर क्रोध तो था, पर उद्दीपन के अभाव में वह प्रकट नहीं हो रहा था। उद्दीपन मिला और वह प्रकट हो गया। सारे आवेग सदा प्रकट नहीं रहते। यदि वे प्रकट रहें तो आदमी जी नहीं सकता। आवेगों में वह कैसे जी सकता है? आवेग शांत हों तभी आदमी शांति से जी सकता है। आवेगों के अस्तित्व में जीवन दूभर बन जाता है। जब उद्दीपक आते हैं तब सारा वातावरण गर्म हो जाता है, ज्वालामुखी फूट पड़ता है। व्यवहार बदल जाता है। आकृति बदल जाती है। मुद्रा बदल जाती है। शांत अवस्था की आकृति और मुद्रा भिन्न होती है। जैसे ही क्रोध आता है, आंखें लाल हो जाती हैं, भृकुटि तन जाती है, चेहरा तमतमा जाता है और समूचा शरीर कांप उठता है। प्रकृति के साथ-साथ आकृति बदल जाती है। आकृति बदलती है तो प्रकृति बदल जाती है और प्रकृति बदलती है तो आकृति बदल जाती है। दोनों बदल जाते हैं। यह कैसे होता है? उद्दीपन के साथ वातावरण बदलता है और वातावरण के साथ व्यवहार बदलता है। बाह्य व्यवहार बदलता है तो आन्तरिक व्यवहार भी बदल जाता है। गुस्सा आया। आदमी गाली बकने लगा। आगे बढ़ा तो हाथ उठ गए। मारने दौड़ा। यह परिवर्तन क्यों आया व्यवहार में? मनोवैज्ञानिकों ने इस पर प्रचुर मीमांसा की है कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का परिवर्तन होता है बाह्य वातावरण. प्रतिबद्धता का प्रश्न 133 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा। यह एक तथ्य है बाह्य वातावरण। यह मनुष्य के व्यवहार और आचरण को बदल देता है। हम इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। - एक अच्छे घराने का व्यक्ति था। उसे कोई ऐसे वातावरण का संयोग मिला कि वह शराब पीने लग गया। धीरे-धीरे शराब पीने की आदत बन गई। वह प्रतिदिन शराब के नशे में धुत्त रहता। जब व्यसन आता है तब आदमी में दूसरों को कहने की क्षमता कम हो जाती है। निर्लज्जता होती है तो वह कह देता है, अन्यथा कहने में संकोच करता है। उस व्यक्ति का लड़का सिगरेट पीने लगा। उसका पोता बीड़ी पीने लग गया। एक दिन दादा ने अपने पोते को बुलाकर कहा-'बेटे! बीड़ी पीना अच्छा नहीं है, बुरी बात है। यह व्यसन है। अभी इसकी आदत डाल लोगे तो आगे दुःख भोगना पड़ेगा। इस व्यसन से स्वास्थ्य भी बिगड़ता है।' पोता बच्चा ही था, उसने सुना। दो क्षण मौन रहा। फिर वह बोला-'दादा! शराब पीना ज्यादा बुरा है या बीड़ी पीना?' यह सुनकर दादा अवाक् रह गया। बच्चे को क्या उत्तर दे? एक शब्द ने इतना असर किया कि उसकी शराब छूट गई। हम शब्द से, रूप से, गंध से, रस से और स्पर्श से प्रभावित होते हैं। वातावरण का सर्जन करने वाले जितने घंटक तत्त्व हैं उन सबसे हम प्रभावित होते हैं। सारी घटनाएं हमें प्रभावित करती हैं। लड़ाई हमें प्रभावित करती है। मनुष्य का व्यवहार उसकी स्वतंत्र इच्छा और प्रेरणा से संचालित नहीं है। उस पर वातावरण का गहरा असर होता है, परिस्थिति का असर होता है। ऐसी बहुत कम घटनाएं होंगी, ऐसे कम आदमी होंगे, जिन पर वातावरण या परिस्थिति का प्रभाव न पड़ता हो, जो इन दोनों के प्रभावों से मुक्त हों और इनसे अलग हटकर अपना काम करते हों। साधक के लिए भी यह निर्देश-सूत्र है कि जब तक साधना परिपक्व न हो जाए, तब तक उसको वातावरण से बचना चाहिए, परिस्थिति से बचना चाहिए। एक शिविरार्थी मेरे पास आकर बोला-'स्त्री और पुरुष में इतना भेद क्यों किया जाए? स्त्रियों को अलग और पुरुष को अलग क्यों 134 कर्मवाद Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखा जाए? इससे तो मैं पुरुष हूं-यह धारणा पुष्ट होगी और मैं स्त्री हूं' यह धारणा भी पुष्ट होगी। साधना है इस भेद को मिटाने के लिए। तो फिर हम उलटे क्यों चल रहे हैं? यह रेखा क्यों बनाई गई कि यहां स्त्रियां बैठेंगी और यहां पुरुष बैठेंगे? कोई कहीं बैठे, कहीं रहे, साथ रहे, न रहे, क्या फर्क पड़ता है? साधना करनी है तो सबको साथ-साथ रहना चाहिए। ___ मैंने कहा-यह आदर्श की बात तो अच्छी है और जो साधना में आगे तक पहुंच चुका है उसके लिए ठीक बात है। साधना के चरमबिन्दु पर पहुंच जाने के बाद न कोई पुरुष होता है और न कोई स्त्री। कर्म-सिद्धान्त में दो शब्द व्यवहृत हैं-वेदक और अवेदक। वेद तीन हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। जहां ये तीनों समाप्त हो जाते हैं, इनकी अनुभूति समाप्त हो जाती है, तब अवेद अवस्था प्राप्त होती है। जब वेद पूरा समाप्त हो जाता है, उसका अनुभव नामशेष हो जाता है तब पुरुष पुरुष नहीं रहता और स्त्री स्त्री नहीं रहती। वहां केवल प्राणी रहता है, प्राण रहता है, चेतना रहती है। वहां पुरुषत्व और स्त्रीत्व समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में कोई कठिनाई नहीं होती। . महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत अपनी बहन से साक्षात्कार करने के लिए गए। बहन उनसे भी अधिक पहुंची हुई साधिका थी। संत तो अभी-अभी बने ही थे। वे बहन के आश्रम में पहंचे। वह उस समय निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही थी। संत ने देखा और मुड़ गए। बाहर आकर खड़े हो गए। जब बहन स्नान से निवृत्त हो गई, तब भीतर गए और उससे मिले। बहन बोली-एक बार तुम भीतर आये ही थे, फिर बिना मिले बाहर क्यों चले गए? संत ने कहा-'आया तो था, पर तुम निर्वस्त्र स्नान कर रही थी, इसलिए तत्काल बाहर चला गया।' साधिका बहन बोली-'अभी तक तुम्हारे मन में यह भेद बना हुआ है कि यह पुरुष है, यह स्त्री है। तुम क्या साधना करोगे?' .. यह उच्च अवस्था की बात हो सकती है। पर आज साधु बना साधक बना और आज ही हम उस आदर्श की कल्पना करें तो उचित नहीं होगा। अभी पुरुषों में पुरुषत्व भी जागृत है और स्त्रियों में स्त्रीत्व प्रतिबद्धता का प्रश्न 135 . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जागृत है। स्थिति तो वैसी-की-वैसी है। मंजिल दूर है। वहां पहुंचकर इस भेद को मिटाया जा सकता है। जब तक भीतर में आन्तरिक वातावरण विद्यमान है, बाहरी वातावरण और बाहरी उद्दीपन विद्यमान है, तब तक उस उच्च स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह व्यवहार्य भी नहीं बन सकती। तब तक विधि-विधान, मर्यादाएं और रेखाएं बहुत जरूरी हैं। यदि रेखाएं न हों तो बौद्ध-संघ की-सी स्थिति बन सकती है। बुद्ध ने भिक्षुणियों का संघ बनाया। संघ बनाया पर व्यवस्था नहीं दी। इसका परिणाम यह आया कि बुद्ध का संघ भ्रष्ट होता चला गया। व्यवस्था टूट गई। दूसरी ओर भगवान् महावीर ने साध्वियों को दीक्षा दी। साध्वी-संघ बना, पर व्यवस्थाएं इतनी अच्छी दी कि आज भी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का यह जैन-संघ निर्दोष रूप से चल रहा है। __ हम इस बात को न भूलें कि हमारा व्यवहार जो उद्दीपक है, उसका पूरा विवेक बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारी चेतना इतनी स्वतंत्र नहीं बन गई है कि वह उद्दीपकों से प्रभावित न हो। जब तक उद्दीपकों का प्रभाव पड़ता रहता है, तब तक व्यवहार भिन्न प्रकार से ही करना होगा। इसीलिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन सबके लिए विधि-विधान किए गए। अहिंसा की भी विधि है। जो वीतराग अवस्था तक पहुंच गया है, उसके लिए कोई मर्यादा नहीं है। वह बंधा हुआ नहीं होता, अतः उसके लिए कोई विधि नहीं होती। आचारांग का एक महत्त्वपूर्ण सूक्त है-'कुशले पुण णो बद्धे णो मुक्के'-जो कुशल वीतराग हो जाता है, वह किसी बंधन से बंधा हुआ नहीं होता। वह न बंधा हुआ होता है और न मुक्त। बंधन और मोक्ष-दोनों उसके लिए समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि ये दोनों सापेक्ष शब्द हैं। जो वीतराग स्थिति में पहुंच जाता है, उसके लिए इन सापेक्ष शब्दों का कोई उपयोग नहीं रहता। वह दोनों-बंधन और मुक्ति से परे हो जाता है। परन्तु जब तक व्यक्ति 'कुशल' नहीं हो जाता, तब तक वह बंधा हुआ रहता है। वह स्व-अनुशासन से भी बंधा हुआ रहता है। ___प्रेक्षा-ध्यान की उपसंपदा के पांच सूत्र हैं। उनमें एक सूत्र है-प्रतिक्रियाविरति। प्रत्येक व्यक्ति के मन पर बाहरी उद्दीपनों का प्रभाव 136 कर्मवाद Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ता है। उसके कारण ही भिन्न-भिन्न प्रकार के आचरण होते हैं। ध्यान साधना के द्वारा ऐसी स्थिति का निर्माण हो जाए कि उद्दीपन उद्दीपन न रहें, प्रभावहीन हो जाएं। मन पर उनका कोई प्रभाव न पड़े। यह है प्रतिक्रिया विरति। इस स्थिति में ही बाहरी व्यवस्था टूट सकती है। कोई भी वस्तु अपने आप में उद्दीपक नहीं होती। गाली क्रोध का उद्दीपक तत्त्व है। पर जिस व्यक्ति का मन शान्त और पवित्र हो गया, उसके लिए गाली में उद्दीपकता नहीं रहती। वह समाप्त हो जाती है। ऐसे शांत व्यक्ति को गाली दें, उसे क्रोध नहीं आएगा, परन्तु उसमें करुणा जागेगी। ऐसा क्यों होता है? यह उलटा परिणाम क्यों होता है? इसका कारण है कि उस व्यक्ति के लिए गाली की उद्दीपकता समाप्त हो जाती है। ___आचार्य भिक्षु कहीं जा रहे थे। सामने एक आदमी मिला। आचार्य भिक्षु को देख उसने वंदना की। उनके चेहरे को ध्यान से देखकर पूरा-आपका नाम? 'मेरा नाम भीखण है।' उसने आश्चर्य के साथ कहा-'कौन! तेरापंथी भीखन!' _ 'हां, तेरापंथी भीखन।' . 'बहुत बुरा हुआ। 'क्या बुरा हुआ?' 'आपका मुंह देख लिया। अब मुझे नरक में जाना पड़ेगा।' भीखन को यह सुनकर क्रोध आना चाहिए था, पर वे मुसकराकर बोले-'अरे! यह तो बताओ, तुम्हारा मुंह देखने वाले की क्या गति होगी?' 'मेरा मुंह देखने वाला सीधा स्वर्ग जाएगा।' उसने कहा। - आचार्य भिक्षु बोले- 'मैं तो इस बात को नहीं मानता कि किसी का मुंह देखने से कोई स्वर्ग में जाता है या कोई नरक में जाता है। पर तुम्हारे कथानुसार तो यह सिद्ध हो गया कि मैंने तुम्हारा मुंह देखा है इसलिए मैं स्वर्ग में जाऊंगा और तुम"। मेरे लिए तो अच्छा ही हुआ। एक कटु बात को इस प्रकार विनोद से टाल देना प्रत्येक के बूते की बात नहीं होती। एक साधक व्यक्ति ही इस प्रकार के प्रसंगों पर शांतचित्त रह सकता है। आध्यात्मिक साधना के द्वारा चेतना रूपान्तरित प्रतिबद्धता का प्रश्न 137 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाती है और तब उद्दीपकों में उद्दीपकता नष्ट हो जाती है। उस समय न गाली उद्दीपक बनती है, न मार और प्रहार उद्दीपक बनता है। ये सारे उद्दीपक प्रसन्नता को उद्दीपित करने वाले बन जाते हैं। ____एकनाथ पर एक व्यक्ति ने इक्कीस बार थूका और वे अविचलित रहते हुए इक्कीस बार गोदावरी में स्नान करने गए और उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। क्या सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसा शांत रहना संभव है? सामान्य भूमिका में जीने वाला व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। किन्तु जिसकी चेतना बदल जाती है, वही व्यक्ति इतना शान्त रह सकता है। आदमी वातावरण से बंधा हुआ है, परतंत्र है। यह भी हम जानते हैं कि आदमी कितना स्वतंत्र है, उद्दीपकों से कितना मुक्त है और वातावरण से कितना अप्रभावित रहता है। दोनों पक्ष हैं। एक पक्ष है आदमी की स्वतंत्रता का और एक पक्ष है आदमी की परतंत्रता का। जब तक चेतना परिष्कृत या परिमार्जित नहीं होती, तब तक आदमी परतंत्रता का जीवन जीता है। जब चेतना परिष्कृत और सुसंस्कृत हो जाती है तब आदमी स्वतंत्रता का जीवन जीने लग जाता है। ये दोनों पहलू-स्वतंत्रता और परतंत्रता-वातावरण से जुड़े हुए हैं। मनुष्य की परतंत्रता का एक कारण रासायनिक प्रभाव भी है। शरीर में अनेक प्रकार के रसायन बनते हैं। मस्तिष्क रसायनों का प्रचुर उत्पादन करता है। वह रसायनों का 'सुपर प्लांट है। ग्रंथियां रसायन पैदा करती हैं। पिच्यूटरी ग्लैण्ड बारह प्रकार के रसायन निर्मित करती है। अन्यान्य ग्रन्थियां भी रसायनों की निर्मात्री हैं। रसायन दो प्रकार के होते हैं-बाहरी रसायन और भीतरी रसायन। दोनों प्रकार के रसायन आदमी के व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं। किसी व्यक्ति में क्रोध, भय, घृणा का आवेग उभरता है तो एक मनोवैज्ञानिक कहेगा कि आवेगों का दायित्व मनुष्य पर नहीं है। भीतर के रसायन इसके लिए उत्तरदायी हैं। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि प्रत्येक,आदमी एक प्रकार से रासायनिक जीवन जी रहा है। अभी-अभी 138 कर्मवाद Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक नयी खोज हुई है। अमेरिका के राष्ट्रीय मानव स्वास्थ्य के वैज्ञानिक डॉ. सीवेनपाल ने कहा-'आज तक हम नहीं जानते थे कि चिंता पैदा करने वाले रसायन कौन-से हैं, किन्तु अब हमें वे रसायन ज्ञात हो गए हैं। हम चिंता मिटाने वाले रसायनों को तो पहले से ही जान चुके थे, पर अब उनको पैदा करने वाले रसायनों का भी पता लगा लिया है। मनोचिकित्सक ऐसी दवा देता है कि चिन्ता में डूबा हुआ आदमी सुख और शान्ति का अनुभव करने लग जाता है। अब ऐसा इंजेक्शन दिया जा सकता है कि शान्त और सुखी आदमी क्षण-भर में चिन्ताग्रस्त होकर दःखी हो जाए। आदमी स्वतंत्र कहां है? एक दवा से वह चिन्तातुर होकर चिन्ता के महासागर में डूब जाता है और दूसरी दवा से वह चिंता से मुक्त होकर आनन्द के महासमुद्र में डुबकियां लेने लग जाता है। एक प्रयोग से आदमी में खाने की लालसा उभर आती है और दूसरे प्रयोग से उसमें खाने के प्रति अरुचि हो जाती है। यह सारा विद्युत् प्रकंपनों के द्वारा होता है। आज रसायनों के विषय में इतनी विशद जानकारी प्राप्त हो गई है कि व्यक्ति को कैसा बनाया जाए, यह सारी कला रासायनिकविदों के हाथ में है। आज वे प्रयोगशाला में बैठे-बैठे व्यक्ति के भाग्य पर नियंत्रण करते हैं। यह बहुत अच्छा नहीं हुआ, बुरा हुआ है। यदि यह बात वैज्ञानिकों के हाथ में आ गई और राजनीतिज्ञों ने इसका उपयोग करना शुरू कर दिया तो फिर वे अपने विपक्ष वालों को कभी चिंतामुक्त नहीं होने देंगे। उन्हें चिन्ता में डाले रखेंगे। चिन्ता की स्थिति में, वे विरोध करना भूल जाएंगे। किसी बहाने उनको पकड़कर ऐसा इंजेक्शन दे देंगे कि वे बेचारे जीवन भर चिन्ताग्रस्त होकर सड़ते रहें। यह बात अच्छी नहीं है, पर है सच। ___ आदमी रसायनों से बनता-बिगड़ता है। बाहर के रसायन खोजे गए हैं जो आदमी के चरित्र को प्रभावित करते हैं। भीतर के रसायन भी कम प्रभावित नहीं करते। उनका गहरा प्रभाव होता है। शरीरशास्त्रीय दृष्टि से भी कहा जा सकता है कि जितने आवेग, उतने ही रसायन। कर्मशास्त्र में इसे 'रसविपाक' कहा जाता है। रसविपाक कहें या रसायन-दोनों में कोई अन्तर नहीं है। जहां कर्म का विपाक होता है प्रतिबद्धता का प्रश्न 136 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां रस आता है। एक पूरी प्रक्रिया है। प्रवृत्ति या भाव या अध्यवसाय से कर्मशरीर में एक स्पंदन होता है। वहां से एक तरंग चलती है। वह तरंग सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर में आती है। फिर आगे बढ़ती है और स्थूल शरीर में आती है। स्थूल शरीर में अनेक केन्द्र बने हुए हैं। वहां आकर वह तरंग रसायन पैदा करती है और तब वे रसायन हमारे आचरण को प्रभावित करते हैं। यह जटिलता है। कितना परतंत्र है आदमी! अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का रसायन सीधा रक्त के साथ मिलता है और आदमी उन रसायनों से प्रभावित जीवन जीता है। उन ग्रन्थियों के मुंह तो है नहीं। वे नलिका-विहीन ग्रन्थियां हैं। उनका स्राव सीधा रक्त में जा मिलता है। ___ एक आदमी सिद्धान्त की लम्बी-चौड़ी बातें करता है पर स्वयं आचरण नहीं कर पाता। यह ज्ञान और आचरण की दूरी, कथनी और करनी की दूरी या निर्लज्जता या ढिठाई आन्तरिक रसायनों के कारण होती है। वह कहता कुछ है और करता कुछ है, क्योंकि पिच्यूटरी का स्राव ठीक नहीं हो रहा है। जब तक पिच्यूटरी का स्राव समुचित नहीं होता, तब तक अन्तर्दृष्टि नहीं जागती और इसके बिना कथनी और करनी की दूरी मिट नहीं सकती। कुछ वर्ष पहले की बात है। अहिंसा पर सभा हुई और उसके अध्यक्ष बने बड़ौदा के नरेश गायकवाड़। अहिंसा विषय पर अनेक भाषण हुए। एक युवक भी बोला। उसका वक्तव्य बहुत प्रभावशाली रहा। उसने कहा-हिंसा का विरोध होना चाहिए और अहिंसा का विकास होना चाहिए। खान-पान की शुद्धि के विषय में उसका कथन सचोट था। लंबे समय तक बोलता रहा। पसीने से तर-बतर हो गया। उसने अपनी जेब से रूमाल निकाला पसीना पोंछने के लिए और विडंबना देखिए कि उस रूमाल के साथ उसकी जेब से एक अंडा भी आ गिरा पृथ्वी पर। गिरते ही वह फूट गया। ऐसे लोगों की कमी नहीं है दुनिया में जो वक्तव्य देने में माहिर होते हैं, पर आचरण करने में क्लीव। उनका एक पक्ष उजागर होता है, पर आचरण का पक्ष अत्यन्त कमजोर होता है। यह दूरी क्यों होती है? यदि मनोवैज्ञानिक, शरीरशास्त्री, रसायनविद् और वायोकेमिक विद्वान् 140 कर्मवाद Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पूछा जाए तो वे सब यही कहेंगे कि दूरी का कारण मनुष्य नहीं है, यह सारा रसों के स्राव से होता है। स्राव संतलित नहीं हैं, इसलिए ये सारी गड़बड़ियां होती है। दो पहलू हैं हमारे सामने। एक है स्वतंत्रता का पहलू और दूसरा पहलू है परतंत्रता का पहलू। आदमी बहुत परतंत्र है अपने शरीर के भीतर पैदा होने वाले रसायनों के कारण तथा बाहर से आने वाले रसायनों के कारण। प्राचीन भारत में वाजीकरण, कामोद्दीपन आदि अनेक उद्देश्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के रसायन बनाए जाते थे और उनका प्रयोग भी होता था। आज भी यत्र-तत्र उन रसायनों के प्रयोग होते हैं। अच्छा आदमी रसायनों के प्रयोग से बुरा बन जाता है और बुरा आदमी अच्छा बन जाता है। आदमी के अच्छे बनने और बुरे बनने में भीतरी और बाहरी-दोनों प्रकार के रसायनों का हाथ होता है। इतना परतंत्र है आदमी! इतना बंधा हुआ है रसायनों से आदमी!। हमारी परतंत्रता का एक पहलू है रासायनिक प्रतिबद्धता। जीवन का दूसरा पहलू है-स्वतंत्रता का। जब साधना के द्वारा चेतना बदलती है तब रसायनों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। जहर का कार्य है मार डालना। क्या जहर मीरा को मार सका था? मीरा ने जहर का प्याला पीया कोई असर नहीं हुआ। भयंकर सर्प चंडकौशिक क्या महावीर को मार सका? उसकी फुफकार से आदमी राख का ढेर हो जाता था। उसने महावीर को कई बार डसा, पर व्यर्थ। महावीर पर कोई असर नहीं हुआ। - दक्षिण की एक घटना है। दो मुनि एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। एक चरवाहा पेड़ के नीचे बैठा था। इतने में एक काला नाग निकला। चरवाहा डरा और तत्काल पेड़ पर चढ़ गया। उसने सोचा दो आदमी आंखे बन्द कर निश्चल खड़े हैं। इन्हें सांप डस लेगा। वह सोच ही रहा था कि काला नाग फुफकारता हुआ उन दोनों मुनियों की ओर बढ़ा और अत्यन्त रोष में दोनों के डंक लगाए। रोष बढ़ता गया और उसने तीन-तीन बार उन्हें काटा। अंत में थककर चला गया। चरवाहा देख रहा था। उसने सोचा, सांप ने डंक मार दिया है। अब ये दोनों बेचारे परलोकधाम पहुंचने ही वाले हैं। बेचारे! बेचारे! वह देखता. रहा प्रतिबद्धता का प्रश्न 141 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर दोनों जैसे पहले खड़े थे, वैसे ही निश्चल खड़े हैं। न कोई हलन-चलन है, न कोई विक्षोभ है और न कोई रोष है। कुछ समय बीता। ध्यान संपन्न हुआ। दोनों ने आंखें खोलीं। चरवाहा वृक्ष से नीचे उतरा। उसने कहा-'मुनि महाराज! एक काला नाग आया था, आपको पता है?' 'नहीं, हम नहीं जानते। 'आपको उसने तीन बार डंक लगाए, क्या दर्द नहीं हुआ?' - 'हम नहीं जानते, काटा होगा!' 'आप पर जहर का असर नहीं हुआ? आप मरे नहीं?'' 'अरे भाई! हम यहां थे ही नहीं। किसको काटा हम नहीं जानते।' 'ओह! मेरे सामने सांप ने आपके शरीर पर डंक लगाए। यह सब मैंने अपनी खुली आंखों से देखा है। उस समय मेरा मन कांप रहा था। करुणा आ रही थी और आप कहते हैं हमें तो पता नहीं है। आश्चर्य! आश्चर्य! ___भाई! हम शरीर में नहीं थे। नाग ने शरीर को काटा होगा, हमें ज्ञात नहीं है।' जब शरीर की पकड़ होती है, तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड़ जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। शरीर की पकड़ छूटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी तो शरीर का भान नहीं रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभावित रहेगा। जब प्राण और चेतना-दोनों भीतर चले जाते हैं, उनका समाहार हो जाता है तब शरीर पड़ा है, उसे सांप काटे, कोई भी काटे, कुछ असर नहीं होगा चेतना पर। यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपान्तरित होती है प्रेक्षा के द्वारा। वह परिष्कृत और परिमार्जित होती है ज्ञाता-द्रष्टा भाव के द्वारा। उस स्थिति में दोनों प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता। यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा में। यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है। ____ आज रासायनिक और वातावरण की दृष्टि से हमने स्वतंत्रता और परतंत्रता के पहलू पर विचार किया। अब एक बहुत बड़ा आयाम हमारे सामने है कर्म की दृष्टि से। कर्म की दृष्टि से हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र, इस पर हमें चर्चा करनी है। 142 कर्मवाद Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरदायी कौन? एक खेत में गाय चर रही थी। मालिक खेत की रखवाली कर रहा था। उसने गाय को निकालने का प्रयत्न किया। गाय बोली-'मुझे क्यों निकाल रहे हो?' ___'तुम मेरा खेत खाये जा रही हो, फिर मैं क्या खाऊंगा? किसी के खेत में घुसना और खड़ी फसल खा लेना अच्छा नहीं है।' 'मैं बहुत दूर से आयी हूं। 'कहां है तुम्हारा निवास-स्थान?' 'मेरा घर है स्वर्ग। 'यहां क्यों आयी हो?' 'मैंने अनाज को देखा, मन ललचा गया, इसलिए उसे खाने चली आयी। तुम मुझे मत निकालो। खाने दो।' 'तो फिर मैं क्या खाऊंगा?' ___'चिन्ता मत करो, मेरे साथ चलो स्वर्ग में। मैं तुम्हें भरपेट लड्डू खिलाऊंगी। किसान मान गया। गाय उसे साथ लेकर स्वर्ग में गई और उसे खूब लड्डू खिलाए। किसान ने लड्डू कभी खाए नहीं थे। उसे लड्डू स्वादिष्ट लगे। वह बोला-'गाय माता! तुम रोज मेरे खेत में आना। भरपेट अनाज खाना और मुझे रोज यहां ले आना। * गाय ने यह समझौता स्वीकार कर लिया। गाय रोज खेत में आती और किसान रोज स्वर्ग में जाता। यह क्रम कुछ दिनों तक चला। एक दिन घरवाले खेत में आए और खेत को देखकर आश्चर्यचकित उत्तरदायी कौन? 143 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह गए। खेत आधा खाया जा चुका था। ___उन्होंने घर-स्वामी से पूछा-'खेत की यह अवस्था कैसे हुई? अभी तो फसल कटी ही नहीं और खेत आधा खाली हो गया। क्या हुआ?' ___ 'मैं नहीं जानता।' _ 'कैसे नहीं जानते? तुम रखवाले हो खेत के। तुम. उत्तरदायी हो। उत्तर दो कि फसल कहां गई?' - उसने सारी कहानी कह सुनाई। ___घरवाले बोले-'तुम बड़े स्वार्थी निकले। खेती में सबका हिस्सा है। तुम अकेले-अकेले स्वर्ग में जाते हो और लड्डू खा आते हो। अब ऐसा नहीं हो सकेगा?' दूसरा दिन उगा। स्वर्ग से कमधेनु गाय आयी। आते ही वह फसल खाने लगी। किसान ने कहा-'अब मुसीबत आ गई है। अब तुम फसल नहीं खा सकोगी।' 'क्यों?' 'घर के सभी सदस्य लड्डू खाने के लिए ललचा रहे हैं।' 'सबको ले चलो स्वर्ग में। सबको लड्डू खिलाऊंगी।' घरवाले राजी हो गए। तीसरे दिन गाय आयी। किसान ने गाय की पूंछ पकड़ ली। शेष सदस्य एक-दूसरे की टांग पकड़े, किसान की टांग पकड़कर लटक गए। गाय आकाश में उड़ी और स्वर्ग की ओर चल पड़ी। कुछ समय बीता। एक व्यक्ति के मन में विकल्प उठा कि स्वर्ग के लड्डू कितने बड़े होते हैं? हम उन्हें खा सकेंगे या नहीं? वह विकल्प के फंदे में फंस गया। अपने आपको रोक नहीं सका। वह बोला-'बाबा! हम सबको स्वर्ग में ले जा रहे हो। वहां हमें लड्डू खिलाओगे। पर यह तो बताओ कि लड्डू कितने-कितने बड़े हैं?' बाबा को भी ध्यान नहीं रहा। वह भी विकल्प में उलझ गया। उसने गाय की पूंछ छोड़ दी और हाथ फैलाकर बोला-'इतने-इतने बड़े हैं स्वर्ग में लड्डू। ___ पूंछ को छोड़ते ही, सभी एक साथ धड़ाम से जमीन पर आ गिरे। 144 कर्मवाद Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब प्रश्न होता है कि नीचे गिराने में कौन उत्तरदायी है? क्या पूछने वाला उत्तरदायी है अथवा उत्तर देने वाला उत्तरदायी है? यह एक जटिल प्रश्न है। प्रत्येक आचरण और व्यवहार में प्रश्न उभरता है कि उत्तरदायी कौन? यदि उत्तरदायी का स्पष्ट निर्णय हो जाता है तो अनेक समस्याओं का समाधान प्राप्त हो जाता है। उत्तरदायी के निर्णय में भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से सोचते हैं, कहते हैं। मनोवैज्ञानिक कहेगा कि व्यवहार के विषय में उत्तरदायी है आनुवंशिकता, वातावरण और परिस्थिति। समूचे व्यवहार और आचरण के लिए ये तीन तत्त्व उत्तरदायी नहीं हैं। आदमी का कोई उत्तरदायित्व नहीं है। प्रस्तुत प्रसंग में 'लड्डू कितने बड़े हैं'-'यह. प्रेरक तत्त्व उत्तरदायी है। ___रसायनशास्त्री कहेगा कि हमारे आचरण के लिए उत्तरदायी हैं शरीरगत केमिकल्स, रसायन। नाड़ीतन्त्र और ग्रन्थितन्त्र में पैदा होने वाले रसायन उत्तरदायी हैं। आदमी का उत्तरदायित्व समाप्त हो गया। इसीलिए अनेक लोग कहते हैं-व्यक्ति क्या करे? उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचता / रसायन उसे जैसे चलाते हैं, वैसे ही वह चलता है। ईश्वरवादी कहते हैं-ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। सारा उत्तरदायित्व आता है ईश्वर पर। धार्मिक व्यक्ति कहता है-आचरण और व्यवहार का पूरा दायित्व है कर्म पर। कर्म उत्तरदायी है। . कुछ दार्शनिक कहते हैं-काल उत्तरदायी है। कुछ कहते हैं-स्वभाव उत्तरदायी है और कुछ कहते हैं-नियति उत्तरदायी है। इस प्रकार पांच मुख्य दार्शनिक धारणाएं हैं-कालवाद, स्वभाववाद, ईश्वरवाद, नियतिवाद और कर्मवाद। पांचों पांच भिन्न-भिन्न तत्त्वों को उत्तरदायी मानते हैं। - कालवादी कहता है, काल के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। सब कुछ काल करता है। जब काल का परिपाक होता है, तब सब कुछ घटित हो जाता है। आज का जन्मा बच्चा आज ही विद्वान्, योद्धा या व्यापारी नहीं बन जाता। जैसे-जैसे काल बीतेगा, उसमें ये योग्यताएं अभिव्यक्त होती जाएंगी। प्रत्येक कार्य का कर्तृव्व काल में निहित है। उत्तरदायी कौन? 145 . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनने में और व्यवहार में उचित भी लगता है। काल के परिपाक के बिना कुछ भी नहीं होता। आज ही बीज बोया और आज ही आम का वृक्ष उग आएगा, कभी संभव नहीं। उसका उगना, आम का लगना और पकना, कालसापेक्ष होता है। काल ही सब कुछ है। मौत आती है तो काल से आती है और जीवन चलता है तो काल से चलता है। काल का एक पूरा चक्र है। सर्दी के मौसम में सैकड़ों लोग ज्वरग्रस्त हो जाते हैं और गर्मी में सैकड़ों लोग लू से संतप्त हो जाते हैं। यह ऋतु का चक्र है, काल का प्रभाव है। जिस समय जो-जो ऋतु होती है, उस समय वैसा ही प्रभाव होने लग जाता है। सर्दी में लू क्यों नहीं लगती? गर्मी में सर्दी-जकाम अधिक क्यों नहीं होता? सर्दी में भिन्न प्रकार की बीमारियां होती हैं और गर्मी में भिन्न प्रकार की बीमारियां होती हैं तथा वर्षा में भिन्न प्रकार के रोग होते हैं। काल के प्रभाव से ये बीमारियां ही नहीं होती, मनुष्य के मनोभाव भी बदलते रहते हैं। सर्दी में एक प्रकार का मनोभाव होता है तो गर्मी में दूसरे प्रकार का मनोभाव होता है। मनुष्य के जीवन की घटनाओं के साथ, ज्योतिर्विज्ञान का गहरा संबंध जुड़ा हुआ है। आज वह विज्ञान विस्मृत-सा हो रहा है, अन्यथा इस विज्ञान के आधार पर प्रत्येक घटना ही जानकारी सहज-सुगम हो जाती है। ज्योतिर्विज्ञान कालविज्ञान है। यह काल से जुड़ा हुआ विज्ञान है। एक आदमी बीमार है। दवा दी। कोई असर नहीं हुआ। क्यों? इसका भी पुष्ट कारण है। प्रत्येक औषधि ज्योतिर्विज्ञान के साथ जुड़ी हुई है। वहां बताया गया है, कौन व्यक्ति किस समय में, किस नक्षत्र में औषधि को तोड़े और किस नक्षत्र में उसे लाये? प्रातः, मध्याह्न में या सायं? प्रत्येक के साथ काल का संबंध है। काल की सीमा को विस्मृत कर देने का ही यह परिणाम है कि आज औषधि उतना लाभ नहीं कर रही है जितना लाभ करना चाहिए था। काल नियामक तत्त्व है। कुछ स्वभाववाद को मानते हैं। उनके अनुसार सब कुछ स्वभाव 146 कर्मवाद Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स धाटत हाता ह। वस्तु का जसा स्वभाव होता है वैसा ही परिणाम होता है। प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है। अग्नि का अपना स्वभाव है और पानी का अपना स्वभाव है। स्त्री का अपना स्वभाव है और पुरुष का अपना स्वभाव है। स्वभाव के अनुसार सारा परिवर्तन होता है, घटनाएं घटित होती हैं। कुत्ते का स्वभाव है भौंकना। कुत्ता चाहे फिर बालोतरा का हो, दिल्ली का हो या मास्को और न्यूयार्क का हो। स्वभाव व्यापक होता है। चींटी का अपना स्वभाव होता है तो मक्खी का अपना स्वभाव होता है। यह स्वभाव है, इसे सिखाया नहीं जाता। सर्वत्र इसमें एकरूपता मिलती है। इसलिए प्रत्येक घटना के लिए उत्तरदायी है स्वभाव। यह स्वभाववादी की धारणा है। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि व्यक्ति कुछ नहीं करता। वह अत्यन्त असहाय है। उसका अपना कुछ भी स्वतन्त्र कर्तृत्व नहीं है। जो कुछ होता है, वह सब नियति के अधीन है। नियति का अर्थ ठीक से नहीं समझा गया। लोग इसका अर्थ भवितव्यता करते हैं। जो जैसा होना होता है, वह वैसा हो जाएगा-यह है भवितव्यता की धारणा, नियति की धारणा। नियति का यह अर्थ गलत है। इसी आधार पर कहा गया-'भवितव्यं भवत्येव गजमुक्तकपित्थवत्-जैसा होना होता है वैसा ही घटित होता है। हाथी कपित्थ का फल खाता है और वह पूरा-का-पूरा फल मलद्वार से निकल जाता है, क्योंकि भवितव्यता ही ऐसी है। नारियल के वृक्ष की जड़ों में पानी सींचा जाता है और वह ऊपर नारियल के फल में चला जाता है। यह भवितव्यता है। यह नियतिवाद माना जाता है। पर ऐसा नहीं है। नियति का अर्थ ही दूसरा है। नियति का वास्तविक अर्थ है-जागतिक नियम, सार्वभौम नियम, यूनिवर्सल लॉ। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। वह सब पर समान रूप से लागू होता है। वह चेतन और अचेतन-सब पर लागू होता है। उसमें अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं होती। नियम सबके लिए होता है। सम्राट् बिम्बसार के समय में ऐसी कोई घटना घटी कि नगर के अनेक घरों में अचानक अग्नि लग जाती। सभी परेशान थे। सम्राट् ने यह घोषणा करवायी कि जिसके घर में आग उत्तरदायी कौन? 147 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की यह घटना घटे, उसे वह रात श्मशान में बितानी होगी। आदेश आदेश था। जिसके घर में आग लग जाती है, उसे श्मशान में रात बितानी पड़ती। एक दिन ऐसा हुआ कि सम्राट के महल में आ लग गई। घोषणा के अनुसार सम्राट ने श्मशान में जाने की तैयारी की। सामन्तों ने निवेदन किया कि आप सर्वेसर्वा हैं। आप श्मशान में न जाएं। सम्राट बोला-'नियम नियम है। वह सबके लिए है। मैं इसका अपवाद रहना. नहीं चाहता।'. एक आश्रम के अधिष्ठाता ने नियम बनाया-कोई भी आश्रमवासी यदि चार बजे के बाद उठेगा, उसे आश्रम के सभी वृक्षों को सींचना होगा। वह निरपवाद नियम बन गया। एक दिन आश्रम के अधिष्ठाता आचार्य स्वयं विलम्ब से उठे। नियम के अनुसार वे वृक्षों में पानी देने लगे। अन्यान्य आश्रमवासियों ने कहा-'गुरुदेव! यह काम हम कर लेंगे। आप पधारें।' आचार्य ने कहा- 'मैं नियम का अपवाद नहीं हूं। मैंने ही तो यह नियम बनाया था और मैं ही इसका अपवाद बन जाऊं, यह नहीं हो सकता। जिस नियम में कोई अपवाद नहीं होता, वह है नियति। जिसमें अपवाद होता है, वह नियति नहीं, सामान्य नियम होता है। नियति है सार्वभौम नियम, यूनिवर्सल लॉ। हमारे जीवन-चक्र के हजारों शाश्वत नियम हैं। जगत् के हजारों शाश्वत नियम हैं। उनमें अपवाद नहीं होता। मृत्यु एक नियति है। क्या कोई इसका अपवाद बना है आज तक? कोई नहीं बना और न बन सकेगा। जो जन्मता है, वह मरता है। जिसने जन्म लिया है, वह आज या कल अवश्य मरेगा। जो जीवनधर्मा है वह मरणधर्मा है। यह नियति है, निश्चित है। जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। गीता में कहा है-'जातस्य ही ध्रुवो मृत्युधुवं जन्म मृतस्य च।' जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरे हैं उनका जन्म भी निश्चित है। जन्म और मरण-दोनों अनिवार्य नियति हैं। वे नियति हैं। प्रत्येक प्राणी की यह नियति है। यदि हम 'मरण' शब्द को छोड़ दें तो अचेतन में भी नियति है। कोई भी अचेतन द्रव्य शाश्वत नहीं है। वह बदलता रहता है। एक परमाणु भी एक रूप में नहीं रहता। उसे बदलना ही पड़ता है। चेतन जगत् में जन्म और मृत्यु होती है और 148 कर्मवाद Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेतन जगत् में जन्म और मृत्यु न कहकर, उत्पाद और व्यय होता है। इसका अर्थ है उसका एक रूप बनता है, दूसरा नष्ट हो जाता है। एक रूप का उत्पाद होता है और दूसरे का व्यय होता है, नाश होता है। उत्पाद और व्यय का चक्र, जन्म और मृत्यु का चक्र, रूपान्तरण का चक्र नियति है। वे शाश्वत नियम, जो चेतन और अचेतन पर घटित होते हैं, उन सारे नियमों का अर्थ है नियति। नियतिवाद बहुत बड़ी बात है। नियतिवादी जो कहते हैं-'जैसा नियति में है, वैसा होगा', यह त्रुटिपूर्ण प्ररूपणा है। इसमें अनेक बड़े-बड़े दार्शनिक चूके हैं। उन्होंने नियति-सार्वभौम नियम को सामान्य नियम के रूप में स्वीकार कर लिया, इसीलिए नियति का सिद्धान्त भ्रामक बन गया। नियति के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए हमें यह मानना पड़ेगा कि नियम दो प्रकार के होते हैं 1. मनुष्यों द्वारा कृत नियम। 2. सार्वभौम नियम। मनुष्यों द्वारा कृत नियम नियति नहीं है। नियति वह है जो प्राकृतिक नियम है, स्वाभाविक और सार्वभौम नियम है। जो नियम जागतिक है, सब पर लागू होता है, वह है नियति। हम नियति के पंजे से नहीं छूट सकते। प्रत्येक व्यक्ति नियति से जुड़ा हुआ है, नियति के साथ चल रहा है। कोई भी इसका अपवाद नहीं है। ____ चर्चा बहुत गहरी है, पर आवश्यक है। जैन दर्शन में दो राशियां मानी गई हैं-एक व्यवहार राशि और दूसरी अव्यवहार राशि। इसका अर्थ है कि हमारी इस सृष्टि में अनन्त-अनन्त जीव ऐसे हैं जो वनस्पति संसार को छोड़कर दूसरी योनि में नहीं गए। वह वनस्पति जगत् जीवों का अक्षय स्थल है। उसमें से जीव उत्क्रमण करते हैं, और अन्यान्य विकसित योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। पर ऐसे भी उसमें अनन्त जीव हैं जो आज तक उस योनि से बाहर नहीं आए। वे वहीं जन्मते हैं और मरते हैं। फिर वहीं जन्मते हैं और मरते हैं। यह क्रम अनन्तकाल से चल रहा है। जो जीव उस वनस्पति योनि से कभी मुक्त नहीं होते उत्तरदायी कौन? 146 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे अव्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं और जो जीव वहां से निकलकर अन्यान्य योनियों में जाते हैं वे व्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं। अव्यवहार राशि का तात्पर्य है कि जिनमें व्यवहार नहीं है, भेद नहीं है विभाग नहीं है। सब एक समान। ___अनन्तकाय जीव निगोद कहलाते हैं। वे एक साथ जन्म लेते हैं और एक साथ मरते हैं। वे एक साथ श्वास लेते हैं और एक साथ आहार करते हैं। इतना बड़ा साम्यवाद है कि मनुष्य उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। वहां अव्यवहार है, कोई व्यवहार नहीं, कोई भेद नहीं। वहां न कोई शासक है और न कोई शासित, न कोई स्वामी और न कोई सेवक। सब समान। वहां से निकलते ही जीव व्यवहार राशि में आ जाता है, व्यवहार में आता है, विभाग में आ जाता है। अव्यवहार राशि में सब जीवों के एक ही इन्द्रिय होती है। कोई भी जीव दो इन्द्रियों वाला नहीं होता। यहां से निकलते ही कोई दो इन्द्रिय वाला और कोई अधिक इन्द्रिय वाला हो जाता है। विभाग. बढ़ते जाते हैं। प्रश्न होता है कि वह वहां से क्यों निकलता है? कैसे निकलता है? अव्यवहार से व्यवहार में कैसे आता है? इसका उत्तर नहीं दिया गया। लगता है यह केवल नियति है, स्वाभाविक नियम है, सार्वभौम नियम है। इसका उत्तर इतना ही है कि ऐसा होता है। क्यों होता है-यह अप्रश्न है यहां। तर्क एक तत्त्व अवश्य है, पर वह सार्वभौम सत्ता नहीं है। वह ईश्वर नहीं कि सर्वत्र व्याप्त हो। तर्क सर्वत्र लागू नहीं होता। कहा भी गया है-“स्वभावे तार्किका भग्नाः'–स्वभाव में तर्क स्खलित हो जाता है। वह वहां लागू नहीं होता। अतर्क के स्थान में तर्क का प्रयोग समस्या पैदा करता है। जो व्यक्ति तर्क की मर्यादा और सीमा को नहीं जानता, वह गलत परिणाम पर पहुंचता है। एक तार्किक था। वह बाजार में घी खरीदने गया। उसने घी खरीदा। घी से भरा बर्तन लेकर वह घर की ओर लौट रहा था। उसके मन में एक विकल्प उठा-'घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतम्'–घी का आधार पात्र है या पात्र का आधार घी है? वह विकल्प में उलझ गया। तर्क भी तो एक विकल्प ही है। विकल्पातीत नहीं होता तर्क। केवल अनुभव Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही विकल्पातीत और तर्कातीत हो सकता है। तर्क अनुभव नहीं है। वह तार्किक 'घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतम्' के तर्क में उलझ गया। वह सोचता रहा। विकल्प प्रबल होता गया। उसने अन्तिम निर्णय के रूप में सोचा कि परीक्षण कर लूं कि घी पात्र में टिका हुआ है या पात्र घी में टिका हुआ है? उसने पात्र को उल्टा किया। घी नीचे गिरा और वह बोला-परीक्षण हो गया। सचाई हाथ लग गई कि 'घृताधारं पात्रं' है 'पात्राधार घृतं' नहीं है। घी पात्र में टिका हआ है, पात्र घी में टिका हुआ नहीं है। उसका विकल्प घी को ले डूबा। घी मिट्टी में मिल गया। . तर्क की भी एक सीमा होती है। कहां तर्क करना चाहिए और कहां नहीं, यह जानना आवश्यक होता है। नियति में कोई तर्क नहीं होता, वहां तर्क की पहुंच नहीं है। वह तर्क के द्वारा जानी नहीं जा सकती। वह तर्कातीत अवस्था है। मनुष्य के द्वारा निर्मित नियमों में तर्क का प्रवेश हो सकता है। यह नियम क्यों बना-ऐसा पूछा जा सकता है। मनुष्य नियम बनाता है तो उसके पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन होता है। निष्प्रयोजन नियम नहीं बनाए जाते। न्यायशास्त्र कहता है-'यत् यत् कृतकं तत् तत् अनित्यं'-जो कृतक-किया हुआ होता है, वह अनित्य होता है, शाश्वत नहीं होता। शाश्वत होता है अकृत, जो किया हुआ नहीं होता है। बस, यही उसकी मर्यादा है। मनुष्य का बनाया हुआ नियम शाश्वत नहीं होता, नियति नहीं होता। नियति शाश्वत है। उसके नियम स्वाभाविक और सार्वभौम होते हैं। वे अकृत हैं। बनाए हुए नहीं हैं, इसीलिए शाश्वत हैं। नियतिवाद की प्राचीन व्याख्या से हटकर मैंने यह नयी व्याख्या प्रस्तुत की है। मैं जानता हूं कि यह नियतिवाद की वैज्ञानिक व्याख्या है। जैन दर्शन ने इसी व्याख्या को स्वीकारा है। . ईश्वरवाद को मानने वाले सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर डाल देते हैं। वे कहते हैं-प्राणी बेचारा अत्यन्त अनजान है। वह अपने सुख-दुःख के विषय में क्या जाने! ईश्वर की प्रेरणा से ही वह स्वर्ग में जाता है और उसी की प्रेरणा से वह नरक में जाता है। सारा उत्तरदायित्व ईश्वर का है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद को मानने वाले कर्म को उत्तरदायी बताते हैं। भला-बुरा कुछ भी होता है, वे सब कुछ कर्म पर डाल देते हैं। अच्छे का उत्तरदायित्व कर्म पर डालते हैं, बुरे का उत्तरदायित्व कर्म पर डालते हैं। सीधी बात कहते हैं-मैं क्या करता, कर्म में ऐसा ही लिखा था। कर्मवादी अपने आपको बचाकर कर्म को उत्तरदायी मानते हैं। आदमी बच गया, कर्म फंस गया। ___'हम क्या करें, कर्म में ऐसा ही लिखा था'--इस मिथ्या धारणा ने अनेक भ्रांतियां पैदा की हैं। इस धारणा ने गरीबी, बीमारी, दुर्व्यवस्था और अज्ञान को बढ़ाने में सहारा दिया है, आलम्बन दिया है, इन्हें टिकाए रखा है। कर्मवाद को एकाकी उत्तरदायी मान लेना गलत धारणा है। कर्मवाद व्यापक सिद्धान्त है। कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद-ये इतने व्यापक नहीं हैं, जितना व्यापक है कर्मवाद! ईश्वरवादी भी कर्मवाद को स्वीकार करते हैं और अनीश्वरवादी भी कर्मवाद को स्वीकार करते हैं। आदमी जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे भुगतना पड़ता है। यह तथ्य इससे समझाया जाता है कि आदमी के पुरुषार्थ का दीप बुझ जाता है और वह जाने-अनजाने इस अंधकार में भटक जाता है। वह मानने लग जाता है कि मैं असहाय हूं। मैं कुछ कर नहीं सकता। जैसा पहले का कर्म-फल है वैसा ही मुझे प्राप्त होता रहेगा। ___मनुष्य में कुछ विशेषताएं होती हैं। उसमें कुछ विशेष गुण हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शक्ति, क्षमता, कर्तृत्व-ये उसके गुण हैं। उसमें सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जन्म-मृत्यु, बड़प्पन-छुटपन आदि होते हैं। उसमें शरीरगत विशेषताएं होती हैं। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई नाटा है, कोई लम्बा है, कोई सुरूप है, कोई कुरूप है-ये सारी बातें कर्म के साथ जोड़ी गई हैं। इनको समझाने के लिए ऐसे-ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं कि व्यक्ति के मन में यह संस्कार सहज रूप में जम जाता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। सब कुछ करने वाला है कर्म। सारा बोझ कर्म पर है। मैं तो भारहीन हूं, हल्का-फुल्का हूं। मेरा कुछ भी नहीं है। यह धारणा बन जाती है। एकांगी दृष्टिकोण पनप जाता है। मैं मानता हूं कि जिन उदाहरणों के द्वारा ये तथ्य समझाए जाते 152 कर्मवाद Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, वे यथार्थ हैं, गलत नहीं हैं। जो बताया जाता है वह सही है, पर सही बात को भी कैसे पकड़ा जाए, यह हमारे दृष्टिकोण का प्रश्न है। बहुत बार ऐसा होता है कि सही बात को गलत समझ लिया जाता है और गलत बात को सही समझ लिया जाता है। भ्रांतियां अनेक स्थानों पर हो सकती हैं-सुनने में भ्रांति, समझने में भ्रांति, व्याख्या करने वाले में भ्रांति। इन भ्रांतियों के कारण सही बात भी गलत बन जाती है और गलत बात भी सही बन जाती है। इतनी भ्रांतियों के रहते सचाई को कैसे पकड़ा जाए? इस प्रकार कर्मवाद के विषय में भी अनेक भ्रांतियां उत्तरदायी कौन? 153 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत से बंधा वर्तमान कर्म-सिद्धान्त में यह प्रतिपादित है और कर्मवाद को मानने वाला व्यक्ति इस धारणा से बद्ध हो जाता है कि मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व, उसका पूरा वर्तमान अतीत से बंधा हुआ है। अतीत की जकड़ और पकड़ को छोड़ने में वह समर्थ नहीं है। यह धारणा, अकारण नहीं है। जब हम अपने जीवन के सभी पक्षों पर दृष्टिपात करते हैं और उन पक्षों को जिस भाषा और उदाहरण के द्वारा हमें समझाया गया है, उस परिप्रेक्ष्य में यह धारणा सहज ही बन जाती है। जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं-ज्ञान और दर्शन। ये दोनों आवृत्त हैं। ज्ञान भी आवरण से मुक्त नहीं है और दर्शन भी आवरण से मुक्त नहीं है। कांच के दृष्टान्त से इसे समझाया गया है कि कांच में प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। जब कांच पर पर्दा डाल दिया जाता है तो प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता। जब कांच अन्धा हो जाता है तब भी उसमें प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता। जब कांच हिलता-डुलता रहता है तब भी प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं होता। ज्ञान की असीम शक्ति है। वह आवृत्त है। इससे ही सहज यह धारणा बनती है कि हमारा ज्ञान स्वतंत्र नहीं है। हम स्वतंत्र नहीं हैं। हमारी चेतना निरवकाश नहीं है। उसके अवकाश पर पर्दा है, बाधा है। हमारी दर्शन की शक्ति भी स्वतंत्र नहीं है। इसे उदाहरण से इस प्रकार समझाया गया कि एक व्यक्ति राजदरबार में राजा से भेंट करना चाहता था। वह राजद्वार पर आया और सीधा भीतर जाने लगा। द्वारपाल ने उसे रोक दिया। इसी प्रकार हमारे दर्शन को भी एक द्वारपाल रोके हुए है। दर्शन की शक्ति अवरुद्ध है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हमारा ज्ञान और दर्शन-दोनों आवृत्त हैं, अवरुद्ध हैं। हमारी दृष्टि और हमारा चारित्र भी मुक्त नहीं है। मोह-मूर्छा के द्वारा दृष्टि में विकार पैदा हो गया है। यह है दृष्टि का विपर्यास। इसलिए व्यक्ति ठीक देख नहीं पाता, ठीक निर्णय नहीं ले पाता। दृष्टि भी विकृत और चारित्र भी विकृत। मोह-मूर्छा के मीठे या जहरीले परमाणुओं के द्वारा ऐसा कोई विकार पैदा हो गया है; भोजन में मानो ऐसा कोई विष घुल गया है कि सारा शरीर ऐंठता जा रहा है। आज मनुष्य मूर्छा की स्थिति में जी रहा है। एक आदमी ने छककर शराब पी ली। वह भान भूल बैठा। अब वह न सही निर्णय ही ले सकता है और न सही ढंग से देख ही सकता है। न दृष्टि सही है, न चारित्र सही है और न व्यवहार सही है। सारा उल्टा-ही-उल्टा है। _. आठ कर्मों में एक कर्म है-मोहनीय। यह कर्म मदिरा की भांति हर व्यक्ति को मूर्छित बनाए हुए है। इस दुनिया में मदिरा पीने वाले लोग हैं तो मदिरा नहीं पीने वाले लोग भी हैं, किन्तु इस मोह की मदिरा को न पीने वाला मिलना दुष्कर है। हर आदमी इस मूर्छा से मूर्छित है। चेतना प्रमत्त है, अप्रमत्त नहीं है। ____जीवन के दो अभिन्न साथी हैं-सुख और दुःख। कभी सुख होता है तो कभी दुःख। यह युगल है। ये दोनों कभी अलग-अलग नहीं होते। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख। यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। कभी कहीं रुकता नहीं। सुख-दुःख भी कर्म से जुड़े हुए हैं। एक कर्म इस स्थिति को पैदा किए हुए है। उदाहरण की भाषा में समझाया गया है। एक तीक्ष्ण धारवाली तलवार है। उस पर मधु का लेप है। आदमी उस मधु को खाना चाहता है। वह जीभ से मधु को चाटता है। पर उस प्रक्रिया में उसकी जीभ कटे बिना नहीं रहती। मधु के मिठास का स्वाद और जीभ का कटना-दोनों साथ-साथ होते हैं। यह है वेदनीय कर्म। यह कर्म सुख और दुःख दोनों का घटक है। सुख के बहाने आदमी दुःख भोग रहा है। सुख की मिठास इतनी प्रबल है कि वह उसकी आकांक्षा को रोक नहीं पाता और वह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख की लालसा में उस शहद की बूंद को पाना चाहता है। ‘मधुबिन्दु' का दृष्टान्त इसका स्पष्ट निदर्शन है। आदमी एक-एक बूंद मधु के लिए तरस रहा है। उसके साथ न जाने दुःखों का कितना अंबार लगा हुआ है। इसीलिए अध्यात्म के आचार्यों ने कहा कि जो सुख भोगा जा रहा है, वह सुख नहीं, वस्तुतः दुःख है, क्योंकि वह दुःख को जन्म देता है। सारा दुःख उसी के द्वारा पैदा किया जा रहा है। इसलिए सुख वास्तव में सुख नहीं है। दुःख ही है। सुख और दुःख दोनों कर्म से जुड़े हुए हैं। जन्म और मृत्यु का एक युगल है। यह भी कर्म से जुड़ा हुआ है। आदमी अपने ही कर्म से जन्म लेता है और अपने ही कर्म से मरता है। कर्म के अभाव में न जन्म है और न मृत्यु। दोनों कर्म से परतन्त्र हैं। एक बन्दी है, उसके पैरों में बेड़ी डाल दी। वह बंदी तो है ही। पैरों में बेड़ी और पड़ गई, अब वह सर्वथा परतन्त्र हो गया। जन्म और मृत्यु-दोनों आयुष्य कर्म से बंधे हुए हैं। ____ आदमी इस शरीर को अपना अस्तित्व मान रहा है। इस शरीर के आधार पर आदमी क्या-क्या नहीं करता। इस शरीर के आधार पर कितनी मूर्च्छनाएं हो रही हैं, कितनी विडंबनाएं हो रही हैं। इसी शरीर के द्वारा स्वभाव विस्मृत हो रहा है, विभाव उभरकर आ रहा है। यह शरीर भी हमारी स्वतन्त्र सृष्टि नहीं है। यह भी कर्म से बंधा हुआ है। इसका घटक है-नामकर्म। अद्भुत चितेरा है यह। शरीर की रचना आश्चर्यकारी है। इस दुनिया में मनुष्य ने अनेक आश्चर्यकारी कार्य किए हैं। किन्तु शरीर-रचना के संदर्भ में आदमी आज भी बौना है। शरीर एक अद्भुत कारखाना है। दुनिया का कोई भी संयंत्र शरीर-यंत्र की तुलना नहीं कर सकता। एक भी संयंत्र ऐसा नहीं है जो मनुष्य की कोशिकाओं का निर्माण कर सके, मनुष्य के मस्तिष्क का निर्माण कर सके। आज इतने वैज्ञानिक निर्माण कार्य में लगे हुए हैं। टेस्ट ट्यूब में प्राणी को वे जन्म देने में सफल हुए हैं। वे कृत्रिम वर्षा भी करते हैं। परन्तु प्राकृतिक वर्षा होती है, मेंढक टर्राने लग जाते हैं। घंटे-भर में हजारों प्राणी अस्तित्व में आ जाते हैं। आदमी ऐसा नहीं कर सकता। वह आज भी दरिद्र है अपने कर्तृत्व में। कहां है उसमें इतनी शक्ति 156 कर्मवाद Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और क्षमता! किन्तु नामकर्म इतना शक्तिशाली है कि उसने इस शरीर का निर्माण किया हैं, जिसके विषय में कल्पना करना कठिन है और जानना अत्यन्त कठिन है। आज तक नामकर्म की निर्मिति-इस शरीर के रहस्यों को आदमी नहीं जान सका है। हजारों-हजारों रहस्य जान लेने पर भी, उससे अधिक रहस्य अनजाने पड़े हैं। आज भी खरबों-खरबों कोशिकाओं, क्रोमोसोम, जीन आदि-आदि के विषय में हजारों वैज्ञानिक उलझे हुए हैं। वे शरीर की रचना के विषय में अस्पष्ट हैं। वे अभी तक शरीर के एक अवयव-मस्तिष्क की भी पूरा जानकारी नहीं कर पाए हैं। हजारों वैज्ञानिक मस्तिष्क की प्रक्रिया के अध्ययन और खोज में लगे हुए हैं। दिन-प्रतिदिन नये-नये तथ्य सामने आ रहे हैं। पर उस एक छोटे-से मस्तिष्क के पूरे रहस्य अभी तक पकड़ में नहीं आ रहे हैं। इतना अद्भुत है यह शरीर! यह नामकर्म से बना है। नामकर्म के कुशल कारीगर ने इसे बनाया है। हमारा शरीर और शरीर की रचना कर्म से जुड़ी है। .. जीवन के दो पक्ष और हैं। एक है आभिजात्य पक्ष और दूसरा है अनाभिजात्य पक्ष। एक आदमी आभिजात कहलाता है, ऊंचा और श्रेष्ठ कहलाता है। दूसरा आदमी अनाभिजात कहलाता है, ऊंचा और श्रेष्ठ नहीं कहलाता। वह हीन कहलाता है। लोगों की दृष्टि में उसका आदर-सम्मान नहीं होता। एक आदरणीय और दूसरा अनादरणीय। ये दोनों पक्ष पूरे समाज में मिलेंगे। इसको जाति से नहीं जोड़ना चाहिए। यह जाति नहीं, किन्तु व्यक्तिगत प्रश्न है। लोगों की दृष्टि में सम्माननीय होना या असम्माननीय होना दोनों कर्म से जुड़े हुए हैं। गोत्रकर्म इसका घटक है। इसको कुम्हार से उपमित किया गया है। कुम्हार एक घड़ा ऐसा बनाता है कि वह बहुमूल्य हो जाता है और एक घड़ा ऐसा बनाता है कि कोई उसे खरीदना नहीं चाहता। वह गोत्र नाम का कुम्हार इस सारी स्थिति का निर्माण कर रहा है। ___हमारे जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है शक्ति। यह भी कर्म से जुड़ी हुई है। इसे इस प्रकार समझाया गया है कि एक आदमी राजदरबार में गया और राजा की विरुदावली गायी। राजा ने प्रसन्न होकर उसे अतीत से बंधा वर्तमान 157 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक लाख रुपयों का रुक्का लिखाकर कोषाध्यक्ष के पास पहुंचा। कोषाध्यक्ष ने राजाज्ञा देखी, पर कहां-आज तो पारितोषिक मिला ही है, दो-चार दिन बाद रुपये मिल जायेंगे। अब यह व्यक्ति प्रतिदिन कोषाध्यक्ष के पास जाता है, पर मुंह लटकाए लौट आता है। कोषाध्यक्ष उसे टरकाता जाता है। यह कोषाध्यक्ष है अन्तराय कर्म। यह बाधा उपस्थित करता है। शक्ति को कार्य में व्याप्त नहीं होने देता। दिनों, महीनों और वर्षों तक व्यवधान बना रहता है और कार्य होता नहीं। ... हमारे जीवन के सारे महत्त्वपूर्ण पक्ष कर्म के साथ जुड़े हुए हैं। इन सबका फलित होता है-अतीत से बंधा वर्तमान। हमारा वर्तमान अतीत से बंधा हुआ है। आदमी कहां है स्वतन्त्र! वह न ज्ञानार्जन करने में स्वतन्त्र है, न सही दृष्टिकोण करने में स्वतन्त्र है, न चरित्र का विकास और शक्ति का उपयोग करने में स्वतन्त्र है न इस शरीर और शरीर के साथ उत्पन्न होने वाली स्थितियों से निपटने में स्वतन्त्र है। वह पकड़ा हुआ, जकड़ा हुआ और बन्दी बना हुआ बैठा है। पुनः यही प्रश्न होता है कि कहां है आदमी स्वतन्त्र? कहां उत्तरदायित्व है अपने व्यवहार और आचरण के प्रति? कौन है उत्तरदायी? कर्मवादी दार्शनिक कहेगा-तुम कहां स्वतंत्र और उत्तरदायी हो? स्वतन्त्र है कर्म। उत्तरदायी है कर्म। तुम्हारी न कोई स्वतन्त्रता और न उत्तरदायित्व। अब हम पुनः एक बार दृष्टि डालें। कालवादी दार्शनिक सारा बोझ काल पर लाद देता है, स्वभाववादी दार्शनिक सारा भार स्वभाव पर डाल देता है, नियतिवादी दार्शनिक सब कुछ नियति को मानकर मुक्ति पा लेता है। ठीक इसी प्रकार कर्मवादी दार्शनिक सब कुछ कर्म को मानकर अकेला हो जाता है, पीछे खिसक जाता है। बड़ी समस्या, बड़ा आश्चर्य कि काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये सब प्रधान बन गए और चेतनावान् मनुष्य गौण हो गया। ये सब आगे आ गए, मनुष्य पीछे चला गया। क्या इस स्थिति को यों ही स्वीकार कर चलें? यदि इस स्थिति को स्वीकार करें तो फिर ध्यान, साधना करने की जरूरत ही क्या है? धर्म-कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है? जैसा कर्म और नियति है, वैसा अपने 158 कर्मवाद Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना विपन्न और इतना दरिद्र है.से बंधा हुआ चले और अपने अस्तित्व का अनुभव ही न करे। यह बहुत दयनीय स्थिति बन गई। यह स्थिति इसलिए बनी है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण और चिन्तन एकांगी हो गया। उसने सच्चाई को पकड़ा पर एकांगी रूप में पकड़ा। उसको समग्रता से नहीं पकड़ा। जब तक समग्रता की दृष्टि से सत्य को नहीं पकड़ा जाता, तब तक पकड़ में आने वाला सत्य होता ही नहीं। तब तक वास्तविकता हस्तगत नहीं होती। ___ हमारे दो मस्तिष्क हैं-एक है कंडिशन्ड माइंड और दूसरा है सुपर माइंड। एक है चेतन मन और दूसरा है अचेतन मन। मनोविज्ञान की भाषा में दो मस्तिष्क हैं-एक है एनीमल और दूसरा है ह्यूमन माइंड। ये दो-दो विधाएं हैं। मनुष्य में जो एनीमल माइंड-पाशविक मस्तिष्क है, उसमें आदिकालीन संस्कार भरे पड़े हैं। उनमें क्रोध, घृणा, यौवनवासना, ईर्ष्या-ये सारे संस्कार भरे हुए हैं। इन सारे आवेगों का उत्तरदायी है मनुष्य का पशु-मस्तिष्क या एनीमल माइंड, आदिम मस्तिष्क। दूसरा मस्तिष्क, जो बाद में विकसित हुआ है, उस में उदात्त भावनाएं भरी हुई हैं। चेतन मस्तिष्क स्थूल मन है, जो शरीर के साथ काम कर रहा है और यह बुरी भावनाओं का भंडार है। दूसरा है अचेतन मन जो शक्तियों का भंडार है। कर्मशास्त्र या अध्यात्म की भाषा में कहा जा सकता है-एक है विशुद्ध चेतना वाले मस्तिष्क की वह परत तो विशुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करती है और एक है अशुद्ध चेतना की वह परत जो कषायी चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। हमारी चेतना दो रूपों में काम कर रही है। एक है कषाययुक्त चेतना का कार्य और दूसरा है कषायमुक्त चेतना का कार्य, निर्मल चेतना का कार्य। इन्हें हम जैन तत्त्व की पारिभाषिक शब्दावली में कह सकते हैं-एक है क्षायोपशंमिक मस्तिष्क और दूसरा है औदयिक मस्तिष्क। कंडिशन्ड माइंड को औदयिक मस्तिष्क कह जा सकता है और सुपर माइंड को क्षायोपशमिक मस्तिष्क कहा जा सकता है। औदयिक मस्तिष्क कर्म के उदय के साथ चलता है, अनेक शर्तों से बंधा हुआ चलता है। यह चेतना कषाय से बंधी अतीत से बंधा वर्तमान 156 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है, कंडिशन्ड है। यह स्वतन्त्र नहीं है। ___सुपर माइंड है निर्मल चेतना, क्षायोपशमिक चेतना। यह जागृत अवस्था है। __ हमारे सामने दोनों स्थितियां हैं, दोनों मस्तिष्क हैं। एक है औदयिक भाव से बंधी हुई चेतना या मस्तिष्क और दूसरी है क्षायोपशमिक भाव से बंधी हई चेतना या मस्तिष्क। ___ मैंने ‘अतीत से बंधा हुआ वर्तमान'-इस विषय में चर्चा की। इसके संदर्भ में अपने उत्तरदायित्व से पलायन करने वाली मनःस्थिति, अपने कर्तृत्व से भाग जाने वाली परिस्थिति से चर्चा की है। सुनने वाले इसमें उलझ सकते हैं। अब हमें औदयिक और क्षायोपशमिक मस्तिष्क के विषय में भी चर्चा करनी है और उस उलझन से निपटना है। 160 कर्मवाद Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत से मुक्त वर्तमान हम चर्चा करते हैं स्वतंत्रता और परतंत्रता की। कौन स्वतंत्र है और कौन परतंत्र? कौन उत्तरदायी है? इन प्रश्नों का उत्तर एकान्त की भाषा में नहीं दिया जा सकता। हम नहीं कह सकते कि हम पूर्ण स्वतंत्र हैं। हम यह भी नहीं कह सकते कि हम पूर्ण परतंत्र हैं। दोनों सापेक्ष हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। जहां-जहां निरपेक्ष प्रतिपादन होता है वहां समस्या का समाधान नहीं होता, सत्य उपलब्ध नहीं होता, सत्य के नाम पर असत्य उपलब्ध होता है। . महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का प्रतिपादन किया और उसका आधार माना प्रकाश की गति को। उन्होंने प्रकाश की गति को स्टैंडर्ड मानकर अनेक प्रयोग किये। प्रकाश की गति है एक सेकंड में एक लाख छियासी हजार मील की। इस आधार पर जो निर्णय लिये गए वे सारे सापेक्ष निर्णय हैं, निरपेक्ष नहीं। प्रकाश की गति सापेक्ष निर्णय है। प्रकाश की गति और तीव्र होती तो सारे निर्णय बदल जाते। काल छोटा भी हो जाता है और बड़ा भी हो जाता है। काल सिकुड़ जाता है सापेक्षता से। काल पीछे सरकता है और छलांग भी भरता है। काल का प्रतिक्रमण भी होता है और अतिक्रमण भी होता है। यह सारा सापेक्षता के आधार पर होता है। इसलिए सारे निर्णय सापेक्ष होते हैं। जहां सापेक्षता की विस्मृति होती है वहां तनाव पैदा होता है। ... काल, स्वभाव, नियति, कर्म-ये सारे तत्त्व स्वतंत्रता को सीमित करते हैं, परतंत्रता को बढ़ाते हैं। आदमी काल से, स्वभाव से, नियति से और कर्म से बंधा हुआ है। बंधन के कारण वह पूर्ण स्वतंत्र नहीं . अतीत से .मुक्त वर्तमान 161 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह परतंत्र है पर पूरा परतंत्र भी नहीं है। यदि वह पूरा परतंत्र होता तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। उसका मनुष्यत्व ही समाप्त हो जाता और चेतना का अस्तित्व ही नष्ट हो जाता। चेतना रहती ही नहीं। उसका अपना कुछ रहता ही नहीं। वह कठपुतली बन जाता। कठपुतली पूर्णतः परतंत्र होती है। उसे जैसे नचाया जाता है वैसे नाचती है। कठपुतली नचाने वाले के इशारे पर चलती है। उसका अपना कोई अस्तित्व या कर्तृत्व नहीं है, चेतना नहीं है। जिसकी अपनी चेतना नहीं होती वह परतंत्र हो सकता है, पर शत-प्रतिशत परतंत्र तो वह भी नहीं होता। __ प्राणी चेतनावान् है। उसकी अपनी चेतना है। जहां चेतना का अस्तित्व है, वहां पूरी परतंत्रता की बात नहीं होती। दूसरी बात है-काल, कर्म आदि जितने भी तत्त्व हैं वे भी सीमित शक्ति वाले हैं। दुनिया में असीम शक्ति-संपन्न कोई नहीं है। सबमें शक्ति है और उस शक्ति की अपनी मर्यादा है। काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये शक्ति-संपन्न हैं, पर इनकी शक्ति अमर्यादित नहीं है। लोगों ने मान रखा है कि कर्म सर्वशक्तिसंपन्न है। सब कुछ उससे ही होता है। यह भ्रान्ति है। यह टूटनी चाहिए। सब कुछ कर्म से नहीं होता। यदि सब कुछ कर्म से ही होता तो मोक्ष होता ही नहीं। आदमी कभी मुक्त नहीं हो पाता। चेतना का अस्तित्व ही नहीं होता। कर्म की अपनी एक सीमा है। वह उसी सीमा में अपना फल देता है, विपाक देता है। वह शक्ति की मर्यादा में ही काम करता है। ____ व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म अर्जित करता है। वह फल देता है, पर कब देता है, उस पर भी बंधन है। उसकी मर्यादा है, सीमा है। मुक्तभाव से वह फल नहीं देता। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये सारी सीमाएं हैं। प्रत्येक कर्म का विपाक होता है। माना जाता है कि दर्शनावरणीय कर्म या विपाक होता है तब नींद आती है। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, अभी आपको नींद नहीं आ रही है। आप दत्तचित्त होकर प्रवचन सुन रहे हैं तो क्या दर्शनावरणीय कर्म का उदय या विपाक समाप्त हो गया? दिन में नींद नहीं आती तो क्या दिन में दर्शनावरणीय कर्म 162 कर्मवाद Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उदय समाप्त हो गया? रात को सोने का समय है। उस समय नींद आने लगती है, पहले नहीं आती। तो क्या दर्शनावरणीय कर्म का उदय समाप्त हो गया? कर्म विद्यमान् है, चालू है, पर विपाक देता है द्रव्य के साथ, काल और क्षेत्र के साथ। एक क्षेत्र में नींद बहुत आती है और दूसरे क्षेत्र में नींद नहीं आती। एक काल में नींद बहुत सताती है और दूसरे काल में नींद गायब हो जाती है। क्षेत्र और काल-दोनों निमित्त बनते हैं कर्म के विपाक में। बेचारे नारकीय जीवों को नींद कभी आती ही नहीं। कहां से आएगी? वे इतनी सघन पीड़ा भोगते हैं कि नींद हराम हो जाती है। तो क्या यह मान लें कि नारकीय जीवों में दर्शनावरणीय कर्म समाप्त हो गया? नहीं, उनमें दर्शनावरणीय कर्म का अस्तित्व है, पर क्षेत्र या वेदना का ऐसा प्रभाव है कि नींद आती ही नहीं। प्रत्येक कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, जन्म आदि-आदि परिस्थितियों के साथ अपना विपाक देता है। ये सारी कर्म की सीमाएं हैं। कर्म सब कुछ नहीं करता। जब व्यक्ति जागरूक होता है तब किया हुआ कर्म भी टूटता-सा लगता है। कर्म में कितना परिवर्तन होता है, इसको समझना चाहिए। भगवान् महावीर ने कर्म का जो दर्शन दिया, उसे सही नहीं समझा गया, कम समझा गया। अन्यथा कर्मवाद के विषय में इतनी गलत मान्यताएं नहीं होती। आज भारतीय मानस में कर्मवाद और भाग्यवाद की इतनी भ्रान्तिपूर्ण मान्यताएं घर कर गई हैं कि आदमी उन मान्यताओं के कारण बीमारी भी भुगतता है, कठिनाइयां भी भुगतता है और गरीबी भी भुगतता है। गरीब आदमी यही सोचता है कि भाग्य में ऐसा ही लिखा है, अतः ऐसे ही जीना है। बीमार आदमी भी यही सोचता है कि भाग्य में बीमारी का लेख लिखा हुआ है, अतः रुग्णावस्था में ही जीना है। वह हर कार्य में कर्म का बहाना लेता है और दुःख भोगता जाता है। आज. उसकी आदत ही बन गई है कि वह प्रत्येक कार्य में बहाना ढूंढ़ता है। - एक न्यायाधीश के सामने एक मामला आया। लड़ने वाले थे पति और पत्नी। पली ने शिकायत की कि मेरे पति ने मेरा हाथ तोड़ डाला। जज ने पति से पूछा-'क्या तुमने हाथ तोड़ा है?' उसने कहा-'हां! मैं ____ अतीत से मुक्त वर्तमान 163 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शराब पीता हूं। गुस्सा आ गया और मैंने पत्नी का हाथ तोड़ डाला।' जज ने सोचा-घरेलू मामला है। पति को समझाया, मारपीट न करने की बात कही और केस समाप्त कर दिया। कुछ दिन बीते। उसी जज के समक्ष वे दोनों पति-पत्नी पुनः उपस्थित हुए। पत्नी ने शिकायत के स्वर में कहा-'इन्होंने मेरा दूसरा हाथ भी तोड़ डाला है।' जज ने पति से पूछा, उसने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा- 'जज महोदय! मुझे शराब पीने की आदत है। एक दिन मैं शराब पीकर घर आया। मुझे देखते ही पत्नी बोली-शराबी आ गया। शराब की भांति मैं उस गाली को भी पी गया। इतने में ही पत्नी फिर बोली-न्यायाधीश भी निरा मूर्ख है, आज ये कारावास में होते. तो मेरा हाथ नहीं टूटता। जब पत्नी ने यह कहा तब मैं अपने आपे से बाहर हो गया। मैंने स्वयं का अपमान तो धैर्यपूर्वक सह लिया पर न्यायाधीश का अपमान नहीं सह सका और मैंने इसका हाथ तोड़ डाला। यह मैंने न्यायाधीश के सम्मान की रक्षा के लिए किया. था। मैं अपराधी नहीं ___आदमी को बहाना चाहिए। बहाने के आधार पर वह अपनी कमजोरियां छिपाता है और इस प्रक्रिया से अनेक समस्याएं खड़ी होती हैं। यदि आदमी साफ होता, बहानेबाजी से मुक्त होता तो समस्याएं इतनी नहीं होती। कर्म और भाग्य का बहाना भी बड़ा बहाना बन गया है। इसके सहारे अनेक समस्याएं उभर रही हैं। इन समस्याओं का परिणाम आदमी को स्वयं भुगतना पड़ रहा है। वह परिणामों को भोगता जा रहा है। जब दृष्टिकोण, मान्यताएं और धारणाएं गलत होती हैं तब उनके परिणामों से उबारने वाला कोई नहीं होता। 'सब कुछ कर्म ही करता है'-यह अत्यन्त भ्रान्त धारणा है। आदमी ने सापेक्षता को विस्मृत कर दिया। सब कुछ कर्म से नहीं होता। काल, स्वभाव, नियति, पुराकृत (हमारा किया हुआ) और पुरुषार्थ-ये पांच तत्त्व हैं। इन्हें समवाय कहा जाता है। ये पांचों सापेक्ष हैं। यदि किसी एक को प्रधानता देंगे तो समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। काल प्रकृति 164 कर्मवाद Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का एक तत्त्व है। प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव अपना-अपना होता है। नियति सार्वभौम नियम हैं, जागतिक नियम है। यह सब पर समान रूप से लागू होता है। व्यक्ति स्वयं कुछ करता है। मनसा, वाचा, कर्मणा, जाने-अनजाने, स्थूल या सूक्ष्म प्रवृत्ति के द्वारा जो किया जाता है, वह सारा-का-सारा अंकित होता है। जो पुराकृत-किया गया है, उसका अंकन और प्रतिबिम्ब होता है। प्रत्येक क्रिया अंकित होती है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है। क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त कर्म की क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है। करो, उसकी प्रतिक्रिया होगी। गहरे कुएं में बोलेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि अवश्य होगी। ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है। बिम्ब का प्रतिबिम्ब होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह सिद्धान्त है दुनिया का। प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति का परिणाम होता है और उसकी प्रवृत्ति होती है। कर्म अपना किया हुआ होता है। कर्म का कर्ता स्वयं व्यक्ति है और परिणाम उसकी कृति है, यह प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती है। इसलिए इसे कहा जाता है-पुराकृत। इसका अर्थ है-पहले किया हुआ। पांचवां तत्त्व है-पुरुषार्थ। कर्म और पुरुषार्थ-दो नहीं, एक ही हैं। एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। इनमें अन्तर इतना-सा है कि वर्तमान का पुरुषार्थ 'पुरुषार्थ' कहलाता है और अतीत का पुरुषार्थ 'कर्म' कहलाता है। कर्म पुरुषार्थ के द्वारा ही किया जाता है, कर्तृत्व के द्वारा ही किया जाता है। आदमी पुरुषार्थ करता है। पुरुषार्थ करने का प्रथम क्षण पुरुषार्थ कहलाता है और उस क्षण के बीत जाने पर वही पुरुषार्थ कर्म नाम से अभिहित होता है। ये पांच तत्त्व हैं। पांचों सापेक्ष हैं। सर्वशक्तिमान एक भी नहीं है। सबकी शक्तियां सीमित हैं, सापेक्ष हैं। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। . दूसरा प्रश्न है-उत्तरदायी कौन? काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये सब हमें प्रभावित करते हैं, पर चारों उत्तरदायी नहीं हैं। उत्तरदायी है व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ, अपना कर्तृत्व। वह अपने किसी भी व्यवहार या आचरण के दायित्व से छूट नहीं सकता। यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि 'योग ऐसा ही था, कर्म था, नियति और स्वभाव था अतीत से मुक्त वर्तमान 165 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए ऐसा घटित हो गया। ऐसा सोचना या बहाना करना गलत होगा। अपने उत्तरदायित्व को हमें स्वीकारना होगा। हमें यह कहना होगा कि अपने आचरण और व्यवहार का सारा उत्तरदायित्व हम पर है। 'उत्तरदायी कौन' की मीमांसा में मैंने पहले कहा था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्र के व्यक्ति भिन्न-भिन्न तत्त्वों को उत्तरदायी बताते हैं। मनोवैज्ञानिक, रासायनिक, शरीरशास्त्री और कर्मवादी-अपने-अपने दर्शन के अनुसार पृथक्-पृथक् तत्त्वों को उत्तरदायी कहते हैं। पर ये सब उत्तर सापेक्ष हैं। शरीर में उत्पन्न होने वाले रसायन हमें प्रभावित करते हैं, नाड़ी-संस्थान हमें प्रभावित करता है, वातावरण और परिस्थिति हमें प्रभावित करती है। ये सब प्रभावित करने वाले तत्त्व हैं, पर उत्तरदायित्व किसी एक का नहीं है। किसका होगा? ये सब अचेतन हैं। काल अचेतन है, पदार्थ का स्वभाव अचेतन है, नियति और कर्म अचेतन है। हमारा ग्रन्थितन्त्र और नाड़ीतन्त्र भी अचेतन है। परिस्थिति और वातावरण भी अचेतन है। पूरा का पूरा तंत्र अचेतन है, फिर उत्तरदायित्व कौन स्वीकारेगा? अचेतन कभी उत्तरदायी नहीं हो सकता। उसमें उत्तरदायित्व का बोध नहीं होता। वह दायित्व का निर्वाह भी नहीं करता। दायित्व का प्रश्न चेतना से जुड़ा हुआ है। चेतना के संदर्भ में ही उस पर मीमांसा की जा सकती है। जहां ज्ञान होता है वहां उत्तरदायित्व का प्रश्न आता है। जब सब अंधे-ही-अंधे हैं, वहां दायित्व किसका होगा? अंधों के साम्राज्य में दायित्व किसका? सब पागल-ही-पागल हों तो दायित्व कौन लेगा? पागलों के साम्राज्य में जो पागल नहीं होता, उसे भी पागल बन जाना पड़ता है। यदि वह पागल नहीं बनता है तो सुख से जी नहीं सकता। दायित्व की बात केवल चेतना जगत में आती है। जहां चेतना का विवेक और बोध है वहां दायित्व-निर्वाह की क्षमता है। हमारा पुरुषार्थ चेतना से जुड़ा हुआ है। पुरुषार्थ चेतना से निकलने वाली वे रश्मियां हैं जिनके साथ दायित्व का बोध और दायित्व का निर्वाह जुड़ा हुआ है। ___ हमारा पुरुषार्थ उत्तरदायी होता है। इसको हम अस्वीकार नहीं कर सकते। हमें अत्यन्त ऋतुजा के साथ अपने व्यवहार और आचरण का दायित्व ओढ़ लेना चाहिए। उसमें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। जब 166 कर्मवाद Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक हम अपने आचरण और व्यवहार के उत्तरदायित्व का अनुभव नहीं करेंगे, तब तक उनमें परिष्कार भी नहीं कर सकेंगे। ___ हमारे समक्ष दो स्थितियां हैं-एक है अपरिष्कृत आचरण और व्यवहार और दूसरी है परिष्कृत आचरण और व्यवहार। जब तक उत्तरदायित्व का अनुभव नहीं करेंगे, तब तक आचरण और व्यवहार अपरिष्कृत ही रहेगा, अपरिमार्जित और पाशविक ही रहेगा। वह कभी ऊंचा या पवित्र नहीं बनेगा। वह कभी स्वार्थ की मर्यादा से मुक्त नहीं बनेगा। भगवान् महावीर ने कर्मवाद के क्षेत्र में जो सूत्र दिए, मैं दार्शनिक दृष्टि से उन्हें बहुत मूल्यवान् मानता हूं। सामान्य आदमी इतना ही जानता है कि आदमी कर्म से बंधा हुआ है, अतीत से बंधा हुआ है। महावीर ने कहा-'किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा।' यह सामान्य सिद्धान्त है। इसके कुछ अपवाद-सूत्र भी हैं। कर्मवाद के प्रसंग में भगवान् महावीर ने उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन के सूत्र भी दिए। उन्होंने कहा-'कर्म को बदला जा सकता है, कर्म को तोड़ा जा सकता है, कर्म को पहले भी किया जा सकता है, कर्म को बाद में भी किया जा सकता है। यदि पुरुषार्थ सक्रिय हो, जागृत हो तो हम जैसा चाहें वैसे रूप में कर्म को बदल सकते हैं।' संक्रमण का सिद्धान्त कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है। मैंने इस पर जैसे-जैसे चिन्तन किया, मुझे प्रतीत हुआ कि आधुनिक ‘जीव विज्ञान' की जो नयी वैज्ञानिक धारणाएं और मान्यताएं आ रही हैं, वे इसी संक्रमण सिद्धान्त की उपजीवी हैं। आज के वैज्ञानिक इस प्रयत्न में लगे हुए हैं कि 'जीन' को यदि बदला जा सके तो पूरी पीढ़ी का कायाकल्प हो सकता है। यदि ऐसी कोई तकनीक प्राप्त हो जाए, कोई सूत्र हस्तगत हो जाए, जिससे 'जीन' में परिवर्तन लाया जा सके तो अकल्पित क्रांति घटित हो सकती है। यह 'जीन' व्यक्तित्व-निर्माण का घटक तत्त्व है। संक्रमण का सिद्धान्त 'जीन' को बदलने का सिद्धान्त है। संक्रमण से 'जीन' को बदला जा सकता है। कर्म-परमाणुओं को बदला जा सकता है। बड़ा आश्चर्य हुआ जब एक दिन हमने इस सूत्र को समझा। बड़े-बड़े तत्त्वज्ञ मुनि भी इस सिद्धान्त को आश्चर्य से देखने लगे। एक घटना अतीत से मुक्त वर्तमान 167 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद आती है। मैं अपनी पहली पुस्तक 'जीव-अजीव' लिख रहा था। उस समय हमारे संघ के मुनि रंगलालजी (बाद में वे संघ से पृथक् हो गए) के सामने मेरी पुस्तक का एक अंश आया। उसमें चर्चा थी कि पाप को पुण्य में बदला जा सकता है और पुण्य को पाप में बदला जा सकता है। मुनि रंगलालजी ने कहा- 'यह नहीं हो सकता। इस पर पुनश्चितन करना चाहिए।' मैंने सोचा-आगम के विशेष अध्येता मुनि ऐसा कह रहे हैं, मुझे पुनः सोचना चाहिए। मैंने सोचा, पर मेरे 'चिन्तन में वही बात आ रही थी। मैंने संक्रमण पर और गहराई से चिन्तन किया। पर निष्कर्ष वही आ रहा था, जो मैंने लिखा था। मैंने उन मुनि से कहा-'क्या वह संभव नहीं है कि किसी ने पाप कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में वही व्यक्ति अच्छा पुरुषार्थ करता है तो क्या जो कुफल देने वाला है, वह पुण्य के रूप में नहीं बदल जाएगा? इसी प्रकार एक व्यक्ति ने पुण्य कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में इतने बुरे कर्म किए, बुरा आचरण और व्यवहार किया, तो क्या वे पुण्य के परमाणु पाप के रूप में नहीं बदल जाएंगे? उन्होंने कहा- 'ऐसा तो हो सकता है।'. मैंने कहा-'यही तो मैंने लिखा है। यही तो संक्रमण का सिद्धान्त है।' एक कथा के माध्यम से यह बात और स्पष्टता से समझ में आ जाती है-दो भाई थे। एक बार दोनों एक ज्योतिषी के पास गए। बड़े भाई ने अपने भविष्य के बारे में पूछा। ज्योतिषी ने कहा- 'तुम्हें कुछ ही दिनों के पश्चात् सूली पर लटकना पड़ेगा। तुम्हें सूली की सजा मिलेगी।' छोटे भाई ने भी अपना भविष्य जानना चाहा। ज्योतिषी बोला-'तुम भाग्यवान् हो। तुम्हें कुछ ही समय पश्चात् राज्य मिलेगा, तुम राजा बनोगे।' दोनों आश्चर्यचकित रह गए। कहां राज्य और कहां सूली की सजा! असंभव-सा था। दोनों घर आ गए। बड़े भाई ने सोचा-ज्योतिषी ने जो कहा है, संभव है वह बात मिल जाए। अब मुझे संभलकर कार्य करना चाहिए। वह जागरूक और अप्रमत्त बन गया। उसका व्यवहार और आचरण सुधर गया। उसे मौत सामने दीख रही थी। जब मौत सामने दीखने लगती है तब हर आदमी बदल जाता है। बड़े-से-बड़ा नास्तिक भी मरते-मरते आस्तिक बन जाता है। ऐसे नास्तिक देखे हैं जो जीवन-भर 168 कर्मवाद Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिकता की दुहाई देते रहे, पर जीवन के अन्तिम क्षणों में पूर्ण आस्तिक बन गए। बड़े भाई का दृष्टिकोण. बदल गया, आचरण और व्यवहार बदल गया और उसके व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण हो गया। छोटे भाई ने सोचा-राज्य मिलने वाला है, अब चिन्ता ही क्या है? वह प्रमादी बन गया। उसका अहं उभर गया। अब वह आदमी को कुछ भी नहीं समझने लगा। एक-एक कर अनेक बुराइयां उसमें आ गईं। भविष्य में प्राप्त होने वाली राज्यसत्ता के लोभ ने उसे अंधा बना डाला। सत्ता की मदिरा का मादकपन अनूठा होता है। उसकी स्मृति मात्र आदमी को पागल बना देती है। वह सत्ता के मद में उन्मत्त हो गया। वह इतना बुरा व्यवहार और आचरण करने लगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ दिन बीते। बड़ा भाई कहीं जा रहा था। उसके पैर में सूल चुभी और वह उसके दर्द को कुछ दिनों तक भोगता रहा। छोटा भाई एक अटवी से गुजर रहा था। उसकी दृष्टि एक स्थान पर टिकी। उसने उस स्थान को खोदा और वहां गड़ी मोहरों की थैली निकाल ली। ____ चार महीने बीत गए। दोनों पुनः ज्योतिषी के पास गए। दोनों ने कहा-'ज्योतिषीजी! आपकी दोनों बातें नहीं मिलीं। न सूली की सजा ही मिली और न राज्य ही मिला।' ज्योतिषी पहुंचा हुआ था। बड़ा निमित्तज्ञ था। उसने बड़े भाई की ओर मुड़कर कहा-'मेरी बात असत्य हो नहीं सकती। तुमने अच्छा आचरण किया, अन्यथा तुम पकड़े जाते और तुम्हें सूली की सजा मिलतीं। पर वह सूली की सजा सूल से टल गई। बताओ, तुम्हारे पैर में सूल चुभी या नहीं?' छोटे भाई से कहा-'तुम्हें राज्य प्राप्त होने वाला था। पर तुम प्रमत्त बने; बुरा आचरण करने लगे। तुम्हारा राज्य-लाभ मोहरों में टल गया।' . इससे यह स्पष्ट होता है कि संचित पुण्य बुरे पुरुषार्थ से पाप में बदल जाते हैं और संचित पाप अच्छे पुरुषार्थ से पुण्य में बदल जाते हैं। यह संक्रमण होता है, किया जाता है। ... मुनिजी को फिर मैंने कहा-यह जैन दर्शन का मान्य सिद्धान्त है और मैंने इसी का 'जीव-अजीव' पुस्तक में विमर्श किया है। स्थानांग सूत्र में चतुर्भगी मिलती है अतीत से मुक्त वर्तमान 166 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहासुभे नाम मेगे सुभविवागे, सुभे नाम मेगे असुभविवागे, असुभे नाम मेगे सुभविवागे, असुभे नाम मेगे असुभविवागे। (ठाणं 4 / 603) एक होता है शुभ, पर उसका विपाक होता है अशुभ। दूसरे शब्द में बंधा हुआ है पुण्य कर्म, पर उसका विपाक होता है पाप। बंधा हुआ है पाप कर्म, पर उसका विपाक होता है पुण्य। कितनी विचित्र बात है! यह सारा संक्रमण का सिद्धांत है। शेष दो विकल्प सामान्य हैं। जो अशुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक अशुभ होता है और जो शुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक शुभ होता है। इन दो विकल्पों में कोई विमर्शणीय तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरा और तीसरा-ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और संक्रमण के सिद्धांत के प्ररूपक हैं। संक्रमण का सिद्धान्त पुरुषार्थ का सिद्धान्त है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुभ शुभ में और शुभ अशुभ में बदल जाता है। इस संदर्भ में हम पुरुषार्थ का मूल्यांकन करें और फिर सोचें कि दायित्व और कर्तृत्व किसका है? हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि सारा दायित्व और कर्तृत्व है पुरुषार्थ का। अच्छा पुरुषार्थ कर आदमी अपने भाग्य को बदल सकता है। अनेक बार निमित्तज्ञ बताते हैं-भाई! तुम्हारा भाग्य अच्छा है, पर अच्छा कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वे अपने भाग्य का ठीक निर्माण नहीं करते, पुरुषार्थ का ठीक उपयोग नहीं करते। पुरुषार्थ का उचित उपयोग न कर सकने के कारण अच्छा कुछ भी नहीं हुआ और बेचारा ज्योतिषी झूठा हो गया, उसकी भविष्यवाणी असत्य हो गई। ज्योतिषी ने किसी को कहा कि तुम्हारा भविष्य खराब है। उस व्यक्ति ने उसी दिन से अच्छा पुरुषार्थ करना प्रारम्भ कर दिया और उसका भविष्य अच्छा हो गया। सुकरात के सामने एक व्यक्ति आकर बोला-'मैं तुम्हारी जन्म-कुंडली देखना चाहता हूं।' सुकरात बोला-'अरे! जन्मा तब तो जन्म कुंडली बनी 170 कर्मवाद Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, उसे मैं गलत कर चुका हूं। मैं उसे बदल चुका हूं। अब तुम उसे क्या देखोगे?' पुरुषार्थ के द्वारा व्यक्ति अपनी जन्म-कुण्डली को भी बदल देता है। ग्रहों के फल-परिणामों को भी बदल देता है, भाग्य को बदल देता है। इस दृष्टि से मनुष्य का ही कर्तृत्व है, उत्तरदायित्व है। महावीर ने पुरुषार्थ के सिद्धान्त पर बल दिया, पर एकांगी दृष्टिकोण की स्थापना नहीं की। उन्होंने सभी तत्त्वों के समवेत कर्तृत्व को स्वीकार किया, पर उत्तरदायित्व किसी एक तत्त्व का नहीं माना। ___ भगवान् महावीर के समय की घटना है। शकडाल नियतिवादी था। भगवान् महावीर उसके घर ठहरे। उसने कहा-'भगवन् ! सब कुछ नियति से होता है। नियति ही परम तत्त्व है। भगवान महावीर बोले-'शकडाल! तुम घड़े बनाते हो। बहुत बड़ा व्यवसाय है तुम्हारा। तुम कल्पना करो, तुम्हारे आंवे से अभी-अभी पककर पांच सौ घडे बाहर निकाले गए हैं। वे पड़े हैं। एक आदमी लाठी लेकर आता है और सभी घड़ों को फोड़ देता है। इस स्थिति में तुम क्या करोगे?' . शकडाल बोला-'मैं उस आदमी को पकड़कर मारूंगा, पीढूंगा।' महावीर बोले-'क्यों?' शकडाल ने कहा-'उसने मेरे घड़े फोड़े हैं, इसलिए वह अपराधी है।' महावीर बोले-'बड़े आश्चर्य की बात है। सब कुछ नियति करवाती है। वह आदमी नियति से बंधा हुआ था। नियति ने ही घड़े फुड़वाए हैं। उस आदमी का इसमें दोष ही क्या है?' यह चर्चा आगे बढ़ती है और अन्त में शकडाल अपने नियति के सिद्धान्त को आगे नहीं खींच पाता, वह निरुत्तर हो जाता है। पुरुषार्थ का अपना दायित्व है। कोई भी आदमी यह कहकर नहीं बच सकता कि मेरी ऐसी ही नियति थी। हमें सचाई का, यथार्थता का अनुभव करना होगा। इस चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अप्रमाद बढ़े और प्रमाद घटे, जागरूकता बढ़े और मूर्छा घटे। पुरुषार्थ का उपयोग सही दिशा में बढ़े और गलत दिशा में जाने वाला पुरुषार्थ टूटे। हम अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करें। अतीत से मुक्त वर्तमान 171 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण हमारा शरीर अनेक नियमों से बंधा हुआ है और अनेक रहस्यों से भरा हुआ है। इस शरीर में अनगिनत रहस्य हैं। उनको जानना है। हमारी यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर हो। हमें स्थूल से यात्रा करनी है और पहुंचना है सूक्ष्म तक। हमें चलते चलना है। जो स्थूल में अटक जाता है, वह भटक जाता है। वह कहीं का. नहीं रहता। आज आदमी की दृष्टि स्थूल को पकड़ने वाली बनी हुई है। वह स्थूल को देख लेता है, सूक्ष्म उसकी पकड़ में नहीं आता। इसका कारण है कि वह सूक्ष्म तक जाने का अभ्यास नहीं करता, प्रयोग नहीं करता। ___मैं स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर आपको ले चलता हूं। यह शरीर स्थूल है। यह सूक्ष्म कोशिकाओं-बायोलॉजिकल सेल्स-से निर्मित है। लगभग 60-7 खरब कोशिकाएं हैं। हम इन्हें जैन दर्शन के इस प्रतिपादन के संदर्भ में समझें कि सूई की नोक टिके, उतने-से स्थान में निगोद के अनन्त जीव समा सकते हैं। निगोद वनस्पति का एक विभाग है। यह सूक्ष्म रहस्यपूर्ण बात है। पर आज का विज्ञान भी अनेक सूक्ष्मताओं का प्रतिपादन करता है। शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं। उन कोशिकाओं में होते हैं गुणसूत्र। प्रत्येक गुणसूत्र दस हजार 'जीन' से बनता है। वे सारे संस्कार-सूत्र हैं। हमारे शरीर में छियालीस क्रोमोसोम होते हैं। वे बनते हैं 'जीन' से, संस्कार-सूत्रों से। संस्कार-सूत्रों से एक क्रोमोसोम बनता है। संस्कार-सूत्र सूक्ष्म है, 'जीव' सूक्ष्म है। आज का शरीर-विज्ञान मानता है कि शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक है-'जीन'। यह संस्कार-सूत्र है। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। प्रत्येक 'जीन' में साठ लाख आदेश लिखे हुए होते हैं। कल्पना करें इस सूक्ष्मता की। 172 कर्मवाद Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति क्या करेगा? उसकी शक्ति, पुरुषार्थ, कर्तृत्व, चेतना कितनी है? एक-एक 'जीन' में साठ-साठ लाख आदेश अंकित हैं। तब प्रश्न होता है कि हमारा कर्तृत्व, हमारा पुरुषार्थ और हमारी चेतना कहां है? क्या वह एक क्रोमोसोम और 'जीन' में नहीं है? इसीलिए तो इतनी तरतमता है एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में। सबका पुरुषार्थ समान नहीं होता, सबकी चेतना समान नहीं होती। इस असमानता का कारण प्राचीन भाषा में, कर्मशास्त्र की भाषा में 'कर्म' है। एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते! विश्व में सर्वत्र तरतमता दिखाई देती है। किसी में ज्ञान कम होता है और किसी में अधिक। इसका कारण क्या है? भगवान् बोले-गौतम! इस तरतमता का कारण है 'कर्म' / यदि आज के जीवविज्ञानी से पूछा जाए कि विश्व की विषमता या तरतमता का कारण क्या है, तो वह कहेगा कि सारी तरतमता का एकमात्र कारण है-'जीन'। ... जैसा 'जीन' होता है, गुणसूत्र होता है, आदमी वैसा ही बन जाता है। उसका स्वभाव और व्यवहार वैसा ही हो जाता है। यह 'जीन' सभी संस्कार-सूत्रों तथा सारे विभेदों का मूल कारण है। विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि एक-एक 'जीन' पर साठ-साठ हजार आदेश लिखे हुए होते हैं तो कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि कर्म-स्कन्ध में अनन्त आदेश लिखे हुए होते हैं। अभी तक विज्ञान 'जीन' तक ही पहुंच पाया है और यह 'जीन' इस स्थूल शरीर का ही घटक है, किन्तु कर्म सूक्ष्म शरीर का घटक है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस शरीर है, विद्युत्, शरीर है। वह सूक्ष्म है। इससे भी सूक्ष्म शरीर है कर्मशरीर। यह सूक्ष्मतम है। इसके एक-एक स्कन्ध पर अनन्त-अनन्त लिपियां लिखी हुई हैं। हमारे पुरुषार्थ का, अच्छाइयों और बुराइयों का, न्यूनताओं और विशेषताओं का सारा लेखा-जोखा और सारी प्रतिक्रियाएं कर्मशरीर में अंकित हैं। वहां से जैसे स्पन्दन आते हैं, आदमी वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है। हमारा पुरुषार्थ इसके साथ जुड़ा हुआ होता है। कर्म ही सब कुछ नहीं है। कर्तृत्व और पुरुषार्थ भीतर से आ रहा है, भीतर प्रतिक्रमण 173 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रतिष्ठित है। किन्तु उसका मूल अवस्थान न 'जीन' है और न कर्मशरीर है। ये तो बीच के माध्यम हैं जो अपना-अपना कार्य करते हैं। मूल शक्ति का स्रोत है आत्मा। सारी शक्ति वहां से आती है। ये बीच के स्रोत केवल तारतम्य पैदा करने वाले होते हैं। ये शक्ति के मूल स्रोत नहीं हैं। पुरुषार्थ, कर्तृत्व, वीर्य, अन्तःस्फुरणाएं-ये सारे आत्मा से आ रहे हैं। हमें वहां तक पहुंचना है। - मैं एक सीधा-सा प्रश्न उपस्थित करता हूं। प्रत्येक भारतीय दर्शन तथा कर्म में विश्वास करने वाला व्यक्ति चिन्तन करे। कर्म एक माध्यम है जो प्रत्येक प्राणी को प्रभावित करता है, पर वही सब-कुछ नहीं है। यदि कर्म ही सब-कुछ हो तो आदमी कोई त्याग कर ही नहीं सकता। कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो त्याग करा सके, त्याग के लिए प्रेरित कर सके। कर्म का कार्य है व्यक्ति को भोग की ओर ले जाना। त्याग की ओर ले जाना कर्म का कार्य नहीं है। वेदनीय कर्म, नाम कर्म, आयुष्य कर्म, गोत्र कर्म-ये सभी पौद्गलिक संयोग कराने वाले कर्म हैं। ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्म-ये दोनों ज्ञान और दर्शन को आवृत्त करने वाले कर्म हैं। मोहनीय कर्म मूर्छा पैदा करने वाला कर्म है। अन्तराय कर्म शक्ति में बाधा उत्पन्न करने वाला.कर्म है। ये आठ कर्म हैं। इनमें से एक कर्म भी ऐसा नहीं है जो त्याग की ओर ले जा सके। फिर भी भोग में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति, पदार्थों में आसक्त रहने वाला व्यक्ति त्याग की ओर क्यों जाता है? क्यों उसके मन में त्याग की भावना जागती है? इसका कारण क्या है? कोई-न-कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कारण पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि केवल कर्म ही नहीं है। हमारे भीतर एक ऐसी शक्ति है, चेतना है जो निरन्तर संघर्षरत है और जो मनुष्य को शुद्ध चेतना की अवस्था तक ले जाना चाहती है। वह स्वबोध की अवस्था है, आत्मा के सहज स्वरूप की अवस्था है, सहज आनन्द की अवस्था है। उस ओर जाने की सहज प्रेरणा है हमारी। यदि यह सहज प्रेरणा नहीं होती तो आदमी विषयों में इतना आसक्त हो जाता कि वह त्याग की बात कभी सोच ही नहीं पाता, परमार्थ की ओर कभी डग भर ही नहीं पाता। स्वार्थ और परार्थ में 174 कर्मवाद Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह केवल स्वार्थ की बात ही सोचता, परार्थ की ओर ध्यान ही नहीं देता। वह फिर घर-गृहस्थी के धन्धों में इतना उलझ जाता कि उसके बाहर कभी दृष्टि ही नहीं डाल पाता। उठते-बैठते, सोते-जागते वह उसी में उलझा रहता। एक व्यापारी था। वह व्यापार में आकंठ डूबा हुआ था। सोते-जागते केवल व्यापार के ही स्वप्न देखता था। एक रात वह सो रहा था। सपना आया। ग्राहक ने कपड़ा मांगा। उसने कपड़ा देने की धुन में अपनी ओढ़ी हुई चादर फाड़ डाली। पत्नी जाग गई और उसे चादर फाड़ते देख लिया। उसने कहा-अरे, यह क्या कर रहे हो? चादर क्यों फाड़ रहे हो? वह बोला-कमबख्त! घर पर तो पीछा नहीं छोड़ती, दुकान पर भी आ धमकी। ____आदमी इतना आसक्त हो जाता है कि वह त्याग की बात सोच ही नहीं सकता। एक ओर भोग है, एक ओर त्याग है। भोग प्रिय होता है, त्याग प्रिय नहीं होता। फिर भी भोगों को त्यागने की भावना आती है। ऐसा क्यों होता है? भोग आपात-भद्र होते हैं और परिणाम-विरस, किन्तु त्याग आपात-विरस होते हैं और परिणाम-भद्र। पदार्थ की प्रकृति है कि वह प्रारम्भ में प्रिय लगता है, पर बाद में अप्रिय बन जाता है। जैसे-जैसे पदार्थ का सेवन बढ़ता है, वैसे-वैसे अप्रियता भी बढ़ती है। भोग में रहा हुआ आदमी भोग में रहता है। उसके पीछे कर्म की प्रेरणा है। कर्म. ही उसे भोग में बनाए रखते हैं। कर्म अचेतन है। अचेतन की प्रेरणा अचेतन की ओर ले जाती है। कर्म की प्रेरणा से प्रेरित व्यक्ति भोग में आसक्त हो जाता है। भोग परतन्त्र हो सकता है। यह बात समझ में आ सकती है, पर भोग में रहने वाला आदमी त्याग की ओर जाता है, यह किसकी प्रेरणा है? कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो इस ओर जाने की प्रेरणा दे। इस प्रेरणा के साथ कर्म का कोई संबंध नहीं है। इस प्रेरणा का मूल घटक है आत्मा। हमारे भीतर चेतना की एक शद्ध धारा बहती है, निरन्तर बहती है। एक क्षण भी ऐसा नहीं आता कि वह चैतन्य की धारा रुक जाए, चेतना लुप्त हो जाए। यदि चेतना लुप्त हो जाती है तो सारी बात समाप्त हो जाती है, चेतन अचेतन प्रतिक्रमण 175 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन जाता है। पर ऐसा कभी होता नहीं। चेतना की ज्योति कम-से-कम हो, पर वह निरन्तर जलती रहती है। ___रूस के एक जीव वैज्ञानिक प्रो. तारासोव ने लिखा है-हमारा प्रत्येक सेल एक टिमटिमाता दीपक है। वह ऐसा दीपक है, जो निरन्तर जलता रहता है। प्रत्येक कोशिका अपने आप में एक पॉवरहाउस है। हम कह सकते हैं कि आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्योतिर्मय है। प्रत्येक आत्मा में अन्तर्योति जलती रहती है। वह ज्योति कभी नहीं बुझती। वह निरन्तर प्रज्वलित रहती है। उसी का प्रकाश हमें त्याग की प्रेरणा देता है, त्याग की ओर ले जाता है। कर्म त्याग की ओर नहीं ले जाता। त्याग, संयम, संवर-ये किसी कर्म से नहीं होते। ये मात्र चेतना की प्रेरणा से होते हैं। ये स्वतंत्र हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। हमारी चेतना हमें त्याग की ओर ले जाती है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। हमारा कर्तृत्व स्वतंत्र हैं। जहां चेतना का प्रश्न है, वहां हम स्वतंत्र हैं और जहां कर्म का प्रश्न है, वहां हम परतंत्र हैं। इस दृष्टि से हमारा दायित्व भी सापेक्ष होगा। जहां हम चेतना के साथ होते हैं, वहां हम स्वतंत्र हैं और जहां हम दूसरे के साथ होते हैं, वहां हम परतंत्र हैं। जब हम काल या नियति के प्रभाव में होते हैं, वहां हम परतंत्र बन जाते. है। हमारी स्वतंत्रता और परतंत्रता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि हम किसके साथ होते हैं। जब हम चेतना के साथ होते हैं, अस्तित्व के साथ होते हैं तब हम पूर्ण स्वतंत्र होते हैं और जब हम कषाय के साथ होते हैं, नियति के साथ होते हैं तब हमारी स्वतंत्रता छिन जाती है। प्रश्न है कि स्वतंत्रता का विकास कैसे हो सकता है? परतंत्रता को कैसे कम किया जा सकता है? आदमी किस प्रकार अपने उत्तरदायित्व का अनुभव कर सकता है और कैसे अधिक-से-अधिक स्वतंत्र होकर परतंत्रता की बेड़ियों को काट सकता है? इस प्रश्न का उत्तर पाना है। प्रेक्षाध्यान स्वतंत्रता का घटक है। इससे चेतना का जागरण होता है और साधक अपने मूल स्रोत-आत्मा तक, प्रभु तक, परमात्मा तक पहुंचने में समर्थ होता है। 176 कर्मवाद Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस साधना के दो प्रारंभिक सूत्र हैं-प्रतिक्रमण और प्रायश्चित। प्रतिक्रमण का अर्थ है-लौटना। केवल आगे ही नहीं बढ़ना है, लौटना भी है। लौटना बहुत जरूरी है और उसका भी एक निश्चित क्रम है। आदमी चलता है। क्या वह अपने पैरों को केवल आगे ही बढ़ाता है? नहीं। एक पैर आगे बढ़ता है और दूसरा पैर पीछे रहता है। बिलौने की भी यही पद्धति है। एक हाथ आगे बढ़ता है तब दूसरा पीछे रहता है और जब वह आगे आता है तब आगे वाला पीछे आ जाता है। यदि आगे-पीछे का यह क्रम न हो तो बिलौना हो नहीं सकता। हमें भी आगे बढ़ने के साथ पीछे भी लौटना होगा। प्रतिक्रमण का अर्थ ही है-पीछे लौट आना, वापस आ जाना। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्रमण और प्रायश्चित का महत्त्व समझे। दोनों महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। मनोविज्ञान ने इनको और अधिक उजागर किया है। मानसिक रोगी जब मनश्चिकित्सक के पास जाता है तब सबसे पहले उसे प्रतिक्रमण कराया जाता है। मनोरोगी से चिकित्सक कहता है, वर्तमान को भूलकर अतीत में चले जाओ। मुझे अतीत के जीवन के बारे में बताओ। मुझे बताओ कि अतीत में क्या घटा? तुमने क्या-क्या किया? वह प्रारम्भ से सारी बातें सुनता है। घटनाएं सुनता है और मनोग्रंथि के तथ्य को पकड़ लेता है। जब तक यह प्रतिक्रमण नहीं होता, तब तक मनश्चिकित्सक चिकित्सा नहीं कर सकता। यह अध्यात्म साधना की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जब तक साधक की मनोग्रंथि नहीं खुलती, तब तक ध्यान नहीं होता। इसलिए अतीत का लेखा-जोखा करना बहुत जरूरी है। ___ आज का आदमी अकालमृत्यु से मर रहा है। सौ में से पांच-चार व्यक्तियों के अतिरिक्त सभी मनुष्य स्वाभाविक मौत से नहीं मरते, अकालमृत्यु से मरते हैं। इसका कारण है-आहार का असंयम, कामवासना का असंयम और आवेश या उत्तेजना। ये तीन कारण हैं। जिसमें कषाय का तीव्र आवेश होता है, वह जल्दी मरता है। जो कामवासना से पीड़ित होता है, वह अकालमौत मरता है। जिसमें आहार का संयम नहीं होता, वह भी पूरा जीवन नहीं जी सकता। इन विषयों में आदमी भ्रांत है, प्रतिक्रमण 177 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलें करता है, क्योंकि उसे न आहार संबंधी शिक्षा मिलती है, न ब्रह्मचर्य के विषय में शिक्षा मिलती है और न कषाय-विजय का ही पाठ पढ़ाया जाता है। जब ये शिक्षाएं नहीं मिलतीं, तब आदमी धर्म कैसे कर सकता है? धर्म केवल आकाशीय तत्त्व नहीं है, वह जीवन का घटक है। जो आहार का संयम करना नहीं जानता वह क्या धर्म कर पाएगा? जो व्यक्ति डटकर खाता है, वह बुरे विचारों से ग्रस्त होता है, वासना उभरती है, पेट भारी होता है, अपानवायु दूषित हो जाता है, तब चिन्तन स्वस्थ कैसे रह सकता है? फिर धर्म कहां से आएगा? जिस व्यक्ति में आहार का संयम नहीं है, कामवासना का संयम नहीं है और आवेश का संयम नहीं है, वह पूरा जीवन नहीं जी सकता, वह सुखी और अच्छा जीवन नहीं जी सकता। मैं समझता हूं कि इन तीनों तथ्यों का प्रारंभ से ही प्रशिक्षण होना चाहिए। ये तीनों तथ्य जीवन से संबंधित हैं और इनकी अजानकारी के कारण बचपन से ही अनेक भ्रांतियां व्यक्ति के दिमाग में घर कर जाती हैं। और-और बातें पढ़ाई जाती हैं, बताई जाती हैं, पर ये बातें न अध्यापक बताते हैं, न धर्मगुरु बताते हैं और न माता-पिता बताते हैं। इन तथ्यों की अजानकारी के कारण जीवन में अनेक बुराइयां पनपती हैं। इसीलिए न शरीर स्वस्थ रहता है और न मन। स्मृति क्षीण हो जाती है, बुद्धि कमजोर और कल्पनाशक्ति मंद। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि प्रतिक्रमण किया जाए। प्रायश्चित मनोग्रंथियों को खोलने का उपाय है। जो मनोग्रंथियां अज्ञान के कारण बन गई हैं, उनके खुलने पर सारा मार्ग साफ हो जाता है। प्रायश्चित करने वाला व्यक्ति न केवल आध्यात्मिक दोषों से बचता है, पर वह मानसिक और शारीरिक बीमारियों से भी बच जाता है। जो लोग प्रायश्चित करते हैं, वे भयंकर-से-भयंकर बीमारी से मुक्त हो जाते हैं। कैंसर, अल्सर, हार्टट्रबल-ये केवल शरीर के रोग नहीं हैं, ये मनोकायिक रोग हैं। ये मन से, भावना से, इमोशन और आवेगों से होने वाले रोग हैं। आवेग करते समय ऐसा भान नहीं होता कि कोई रोग होगा। पर रोग होता है, पीड़ा देता है, तब पता चलता है कि 17 कर्मवाद Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोग हुआ है। प्रायश्चित के द्वारा इनकी चिकित्सा हो सकती है। __सबसे पहले अतिक्रमण का प्रतिक्रमण होना चाहिए। जो-जो अतिक्रमण हुआ है, उसका प्रतिक्रमण आवश्यक होता है। प्रतिक्रमण रूढ़ि नहीं है। यह है अतीत का सिंहावलोकन, अतीत को देखना, समझना, प्रेक्षा करना कि कहां-कहां, कब-कब अतिक्रमण हुआ है और अब कैसे बचा जा सकता है। जिस व्यक्ति में प्रतिक्रमण और प्रायश्चित की चेतना जाग जाती है वह व्यक्ति बहुत शक्तिशाली और पुरुषार्थ-प्रधान बन जाता है। स्थूलभद्र नन्दवंश के प्रधानमंत्री शकडाल का पुत्र था। वह प्रारम्भ से ही विरक्ति का जीवन जी रहा था। पिता ने देखा। उसने सोचा-क्या मेरा पुत्र संन्यासी बनेगा? इतनी विरक्ति कैसे हैं? इसे गृहस्थी में फंसाना है। इसे कामशास्त्र का अध्ययन कराना चाहिए। उसे कोशा वेश्या के घर पर रखा। वह बारह वर्ष तक उसके घर में रहा। फिर ऐसी घटना घटी कि वह मुनि बन गया। गुरु के चार शिष्यों में वह एक था। एक बार चारों शिष्य गुरु के समक्ष आए और प्रार्थना की कि हम विशेष साधना के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों में चातुर्मास करना चाहते हैं। एक ने कहा कि मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताना चाहता हूं। दूसरे ने कहा कि मैं कुएं की मेंड़ पर चातुर्मास बिताना चाहता हूं। तीसरे ने कहा कि मैं सांप की बांबी पर चातुर्मास करना चाहता हूं। स्थूलभद्र ने कहा कि मैं कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास बिताना चाहता हूं। विचित्र था निवेदन। गुरु ने स्वीकृति दे दी। स्थूलभद्र कोशा के भवन-द्वार पर पहुंचा। वह अत्यन्त प्रसन्न हुई चिर-परिचित स्थूलभद्र को देखकर। स्थूलभद्र ने कहा-सुन्दरी! मैं तुम्हारी चित्रशाला में चातुर्मास करना चाहता हूं- .. 'यह चित्रशाला विशाला मदनालयसी मलयाचलसी, मैं चाहता हूं करना निवास, जब तक पूर्ण न हो चार मास। कार्तिक पूर्णिमा तक हेमन्त तरुणिमा तक, प्रतिक्रमण 176 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा हो तुम्हारी। कोशा बोली-'आज्ञा लेते हैं आप! आप ही की चित्रशाला है। कौन होती हूं मैं आज्ञा देने वाली? आप चातुर्मास करें।' . स्थूलभद्र वहां रह गए। सुपरिचित वेश्या कोशा, जिसके साथ बारह वर्ष बिताए थे। वही चित्रशाला, जो प्रत्येक के मन में कामवासना जगाने में समर्थ थी। पूरा वातावरण कामुकता को बढ़ाने वाला था। स्थूलभद्र वहां रहे। तपस्या नहीं की। षड्रस भोजन करते रहे। कोशा ने कहा-कहां फंस गए आप! संन्यास क्यों ले लिया? छोड़ दें इसे! मेरे घर पर जीवन भर रहें। मैं आपकी हं।' इतना सब-कछ होने पर भी स्थलभद्र निर्लिप्त हे। चार मास पूरे हुए। काजल की कोठरी में रहे। पर काजल की एक रेखा भी नहीं लगी। सूरज बादल की ओट में छिपा था। बादल फटे और सूरज प्रकट हो गया। . स्थूलभद्र का यह उदाहरण सर्वसामान्य नहीं है, अतिरिक्त है। पर आदमी ऐसा कर सकता है। उन्होंने प्रतिक्रमण के माध्यम से ऐसा किया। प्रतिक्रमण की चेतना जागने पर सब विकार समाप्त हो जाते हैं। दो बड़े सूत्र हैं। एक है अतिक्रमण को बदलने के लिए प्रतिक्रमण की चेतना का जागरण और दूसरा है अतीत की ग्रंथियों को खोलने के लिए प्रायश्चित। विज्ञान के क्षेत्र में सोचा जा रहा है कि 'जीन' को बदलने का सूत्र हस्तगत हो जाए तो पूरे व्यक्तित्व को बदला जा सकता है। अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत पहले सोचा गया था कि कर्म को बदलने का सूत्र हाथ लग जाए तो बहुत बड़ा काम हो सकता है। मैं समझता हूं, भाव इतनी शक्तिशाली साधना है कि उससे कर्म को बदला जा सकता है। 'जीन' को बदला जा सकता है। जो व्यक्ति अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना जानता है, जिसने भाव-परिवर्तन का प्रयोग किया है, वह अपने 'जीन्स' को भी बदल सकता है और कर्म को भी बदल सकता है। यह बदलने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के माध्यम से समूची चेतना का रूपान्तरण किया जा सकता है और चेतना को नये रूप में प्रस्थापित किया जा सकता है। 180 कर्मवाद Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान की पकड़ हमने 'अतीत से बंधा वर्तमान' और 'अतीत से मुक्त वर्तमान'-इन दोनों की चर्चा की। क्या अतीत की पकड़ से मुक्त हुआ जा सकता है? उससे मुक्त होने का उपाय क्या है? हमें उपाय की खोज करनी है। जो उपाय को नहीं जान सकता, वह अपाय को नहीं मिटा सकता। अपाय का अर्थ है-विघ्न। आदमी अपाय को छोड़ना चाहता है। उपाय के बिना अपाय का निरसन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक अपाय को मिटाने के लिए उपाय अपेक्षित होता है। वह आचार्य सफल आचार्य होता है जो उपाय को जानता है। वह गुरु सफल गुरु होता है जो उपाय को जानता है। जो उपाय को नहीं जानता वह यथार्थ में न आचार्य होता है और न गुरु होता है। वह न डॉक्टर होता है और न वैद्य। वह न अनुशास्ता हो सकता है और न नेतृत्व करने वाला नेता। उपाय का ज्ञान अपेक्षित होता है। जो उपायों को जितनी सूक्ष्मता से जानता है, वह उतना ही सफल हो सकता है। डॉक्टर के पास रोग का उपाय न हो तो रोगी निराश हो जाता है। गुरु के पास उपाय न हो तो शिष्य निराश हो जाता है। शिष्य गुरु के पास आकर पूछता है-'क्रोध, अहंकार और कामवासना सताती है। इनसे बचने का उपाय बताएं।' यदि आचार्य कहे कि मैं इनसे छुटकारा पाने का उपाय नहीं जानता तो वास्तव में वह आचार्य नहीं हो सकता। आचार्य का काम है उपाय को जानना। जितने अपाय हैं उन सबका उपाय जानना और समाधान देना। उपायों को जानने वाला ही वास्तव में समाधान दे पाता है और शिष्य की अस्वस्थ मनोवृत्ति को स्वस्थ बना सकता है। व्यक्ति को उपाय-कुशल होना चाहिए। उपाय-कुशल वह होता है वर्तमान की पकड़ 181 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो उपाय को जानता है और उसके प्रयोग में कुशल होता है। उपाय को जानना ही पर्याप्त नहीं माना जा सकता। उसका प्रयोग हीं वांछित फल ला सकता है। आज के दार्शनिक की यही हालत है कि वे दर्शन को जानते हैं, पर उनका प्रायोगिक पक्ष अत्यन्त दुर्बल है। इसीलिए आज के दार्शनिक क्षेत्र में एप्लाइड फिलॉसफी की शाखा का विकास हुआ है। वह दर्शन ज्यादा उपयोगी होता है जिसमें प्रयोग की बात अधिक होती है। केवल सिद्धांत की चर्चा उतनी कार्यकर नहीं होती, व्यावहारिक नहीं होती। दर्शन वह होता है जो जिया जा सके, जीवन में उतारा जा सके, वर्तमान में उसका प्रयोग हो सके। वह दर्शन किस काम का जो मरने के बाद काम आए। वैसा दर्शन हमें अधिक प्रभावित नहीं कर सकता। वही दर्शन हमें प्रभावित कर सकता है जो जीते-जी हमारे काम आता है। ___ अपाय को निरस्त करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं-उपाय की खोज, उपाय की पूरी जानकारी, उपाय को प्रयुक्त करने की कुशलता। ____ अपाय को मिटाने के अनेक उपाय हैं। उनमें एक है-वर्तमान की पकड़। अतीत से मुक्त होने का एक उपाय है-वर्तमान की पकड़। हम वर्तमान को जितना पकड़ पाएंगे, अतीत के प्रभावों से उतने ही मुक्त होते चले जाएंगे। अतीत की काली छाया हर व्यक्ति पर है। जैसे शरीर की छाया हमारे साथ-साथ चलती है, वैसे ही अतीत की छाया भी हमारे साथ-साथ चल रही है। हम शरीर की छाया को देख पाते हैं पर अतीत की छाया को नहीं देख पाते। फिर भी वह हमारे साथ निरंतर बनी रहती है। उस छाया से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है वर्तमान की पकड़। वर्तमान पर आज के आदमी की पकड़ नहीं है। आदमी वर्तमान में जीता है, श्वास लेता है, वर्तमान में रहता है, हर काम वर्तमान में करता है. फिर भी वास्तव में वह वर्तमान में नहीं जीता। वह वर्तमान में जीना जानता ही नहीं। जो व्यक्ति प्रमत्त होता है, वह वर्तमान में नहीं जीता। जो व्यक्ति अप्रमाद में रहता है, जागरूक रहता है, वही वर्तमान में जीता है। आप अपने जीवन का लेखा-जोखा करें। कम-से-कम 152 कर्मवाद Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन का, प्रातःकाल उठते हैं तब से लेकर सोते हैं तब तक का पूरा लेखा-जोखा रखें। उठते ही पहले क्षण में जो विचार आएं, उन्हें नोट करें और फिर पूरे दिन में क्या-क्या सोचा, क्या-क्या किया, इसको नोट करें। फिर उनको देखें, पता चलेगा कि आपने अतीत का जीवन कितना जीया और वर्तमान कितना जीया। यह भी ज्ञात हो जाएगा कि भविष्य का जीवन कितना जीया और वर्तमान का जीवन कितना जीया। यदि आंकड़े निकाले जाएं तो यह निश्चित रूप से ज्ञात हो जाएगा कि आदमी मुश्किल से घंटा, आधा घंटा वर्तमान का जीवन जीता है, शेष तेईस घंटे वह अतीत या भविष्य का जीवन जीता है। आदमी को एक ओर स्मृतियां घेरे हुए हैं और दूसरी ओर कल्पनाएं घेरे हुए हैं। अतीत की स्मृतियां और भविष्य की कल्पनाएं-दोनों साथ-साथ चलती हैं। आदमी निरंतर स्मृतियों से घिरा रहता है। वह कुछ भी करे, स्मृतियों के घेरे को तोड़ नहीं पाता। इन स्मृतियों के सातत्य से वर्तमान खो जाता है, छूट जाता है। स्मृतियों की श्रृंखला इतनी लंबी है कि बेचारा वर्तमान के नीचे दब जाता है। उसका कहीं पता नहीं चलता। कर्तव्य का भी पता नहीं चलता। आदमी सहसा कह देता है-भई! मैं तो भूल गया। वह गलत प्रयोग है। आदमी भूलता कहां है! यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो पता लगेगा कि आदमी भूलता नहीं, किन्तु दूसरी स्मृति उसे दबोच लेती है और पहली बात नीचे दब जाती है। आदमी भूलता नहीं, किन्तु दूसरी स्मृति के वशीभूत हो जाता है। यदि आदमी स्मृति-संयम का अभ्यास कर लेता है तो वह वर्तमान में जी सकता है। कल्पना का संयम करने पर वर्तमान में जीया जा सकता है। जो वर्तमान में जीना सीख लेता है, वह अनेक समस्याओं से बच जाता है। शिविर में भाग लेने वाले, ध्यान करने वाले कहते हैं-बड़ा आनन्द आता है। इस बात पर वे लोग विश्वास नहीं करते जो ध्यान नहीं करते। जीवन के पग-पग पर आनन्द है, पर वह स्मृतियों के बोझ से दबा रहता है। कल्पना के नीचे दबा रहता है। ध्यान-काल में स्मृतियों और कल्पनाओं को उभरने का मौका नहीं मिलता। उसमें वर्तमान में जीने का अवसर मिलता है, तब पता चलता है कि जिस आनन्द की खोज वर्तमान की पकड़ 13 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम बाहर कर रहे थे, वह आनन्द हमारे भीतर है। दो बातें हैं-एक है बाहर से आना और दूसरी है जो भीतर हैं और पता लग जाना। 'कस्तूरी मृग नाभि मांहि, वन-वन फिरत उदासी', 'पानी में मीन पियासी'-ये उक्तियां इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं कि आनन्द भीतर पड़ा है, पर आदमी उसे जान नहीं पाता। कस्तूरी की सुगंध आती है तो मृग उस सुगंध में लुब्ध होकर उसे खोजने इधर-उधर दौड़ता है। वह नहीं जानता कि कस्तूरी उसी की नाभि में विद्यमान है और उसी की गंध आ रही है। इसी प्रकार आनंद आदमी के घट में भरा पड़ा . है, पर वह उसे बाहर-ही-बाहर ढूंढता है। आनन्द भीतर है, किन्तु उस पर इतने आवरण आ गये, उस ज्योति पर इतना राख आ गई कि ज्योति का कहीं पता ही नहीं चल पाता। ज्योति का प्रकाश नहीं है, वह राख से ढकी हुई है। ध्यान का प्रयोग है उस राख को हटाने का प्रयोग। जब स्मृति और कल्पना का आवरण हट जाता है तब वास्तविकता उद्घाटित हो जाती है। ____एक भक्त योगी के पास गया। उसने कहा-'महाराज! अब आप ही मुझे बचा सकते हैं। दर-दर भटका हूं। अंतिम शरण में आया हूं। अत्यन्त दीन-हीन अवस्था में जी रहा हूं। बहुतों की शरण ली, पर सर्वत्र धोखा-ही-धोखा मिला। अब आपके पास आया हूं। मेरी झोली भर दें।' संन्यासी पिघल गया। उसने कहा-'सामने जो थैला टंगा हुआ है, उसमें एक पत्थर है। वह ले जाओ, बेड़ा पार हो जायेगा।' भक्त उठा। उस पत्थर को निकाला। पूछा-'इस पत्थर का क्या करूंगा?' संन्यासी बोला-'यह पत्थर नहीं है, पारसमणि है। इससे लोहा सोना बनता है।' भक्त ने पूछा-'कैसे?' संन्यासी ने उसी झोले में से चिमटा निकाला, पारसमणि ने उसे छुआ, वह सोने का हो गया। भक्त बोला-'यह धोखा है। यह तो आपके हाथ की करामात है। चिमटा और मणि-दोनों थैले में ही तो थे। इतने दिन तक यह सोने का क्यों नहीं हुआ?' संन्यासी ने कहा- 'भक्त! तुम नहीं समझे। अभी तक पारसमणि एक कपड़े में लपेटा हुआ था। उस पर कपड़े का आवरण था। वह हटा और लोहा 184 कर्मवाद Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोना बन गया। हमारे आनन्द पर भी दो मुख्य आवरण हैं। एक है कल्पना का आवरण और दूसरा है स्मृति का आवरण। ये दोनों आवरण जब हट , जाते हैं तब आनन्द की अनुभूति होने लग जाती है। मैं नहीं कहता कि कल्पना और स्मृति सर्वथा अनावश्यक हैं। इनका भी जीवन में उपयोग है। स्मृति के बिना जीवनयात्रा नहीं चलती और कल्पना के बिना जीवन का विकास नहीं होता। सामाजिक जीवन को चलाने के लिए तथा उसको विकासित करने के लिए स्मृति और कल्पना आवश्यक हैं। जितनी आवश्यक हैं उतनी उपयोगी भी हैं। पर आज का आदमी अनावश्यक स्मृति और कल्पना में अपना जीवन बिता रहा है। अनावश्यक स्मृति और कल्पना का काल बहुत छोटा होता है। अनावश्यक स्मति और कल्पना में ही अधिक काल बीत रहा है। इसीलिए स्मृति की पकड़ छूट जाती है। जब वर्तमान की पकड़ मजबूत होती है तब अतीत और भविष्य की पकड़ ढीली हो जाती है। प्रेक्षा-ध्यान में स्मृति और कल्पना का भी उपयोग है और वह कांटे से कांटा निकालने के लिए। कांटा चुभना एक बात है और उस कांटे को दूसरा कांटा चुभाकर निकालना दूसरी बात है। चढ़ने की और उतरने की सीढ़ियां दो नहीं होती, एक ही होती हैं। सीढ़ियों में अन्तर नहीं होता, अन्तर होता है पैरों के स्नायुओं में। चढ़ते समय पैरों के स्नायुओं की क्रिया एक प्रकार की होती है और उतरते समय दूसरे प्रकार की होती है। आरोहण और अवरोहण की क्रिया में अन्तर आ जाता है। क्या हंसने की और रोने की आंखें दो होती हैं? नहीं, आदमी जिन आंखों से हंसता है, उन्हीं आंखों से रोता है। पर क्रिया में अन्तर आ जाता है। एक उलझाने वाली क्रिया होती है और एक सुलझाने वाली क्रिया होती है। एक स्मृति और कल्पना उलझा देती है, उन्हें दूसरी स्मृति और कल्पना सुलझा देती है। सुलझाने वाली स्मृति और कल्पना वर्तमान की ओर ले जाती है। स्मृति-संग्रह और कल्पना-संयम-दोनों साथ-साथ होने चाहिए। इसीलिए हमने प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा को जोड़ा है। इससे स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान हो सकता है। ध्यान का प्रयोग है-स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना। स्थूल से सूक्ष्म वर्तमान की पकड़ 185 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर जाने की प्रक्रिया का विकास अध्यात्म ने किया है तो विज्ञान ने भी किया है। वह निरंतर सूक्ष्म की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है। यदि वह स्थूल में ही अटक जाता तो वह निश्चित ही भटक जाता। उसका इतना विकास नहीं होता। हम इसे एक रोग के उदाहरण से समझें। प्राचीन काल में हिस्टीरिया के रोग को भूत-प्रेत का आवेश मान लिया जाता था और इसके निवारण के लिए अनेक कठोर और अमानवीय प्रयत्न किये जाते थे। जब चिन्तन का विकास हुआ, आदमी कुछ सूक्ष्मता में गया तो उसे ज्ञात हुआ कि यह भूत-प्रेत की बीमारी नहीं है, यह शरीर की बीमारी है। खोज होती गई और आज यह माना जाने लगा है कि यह केवल शरीर की बीमारी नहीं है, मन और शरीर-साइकोसोमेटिक बीमारी है। शरीर में हम दवाइयां उड़ेलते जा रहे हैं। बीमारी कहीं है और दवाई किसी को दी जा रही है। दागना था ऊंट को, पर उस तक हाथ नहीं पहुंचा, इसलिए पास में खड़े बैल को ही दाग दिया। आज शरीर-विज्ञान और रोग-विज्ञान ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि अधिकांश बीमारियां मानसिक होती हैं। वे शरीर में अभिव्यक्त होती हैं, पर शरीर की बीमारियां नहीं हैं, मन की बीमारियां हैं। मैं इससे आगे की बात कहता हूं कि बीमारियों का मूल मन भी नहीं है। तीन शब्द हैं-व्याधि, आधि और उपाधि। शरीर की बीमारी को व्याधि और मन की बीमारी को आधि कहते हैं। इनसे भी आगे है-उपाधि। यह है भावना में होने वाली बीमारी। हमारे भाव-संस्थान के चार घटक हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / इस भाव-संस्थान में सारी बीमारियां जन्मती हैं। व्याधि और आधि से आगे उपाधि में जाने पर ही वास्तविकता का सूत्र हस्तगत होगा। यह है स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान। यही है सचाई को जानने का रास्ता। जो स्थूल में अटक जाते हैं, वे आगे नहीं बढ़ पाते। जो आगे से आगे खोज नहीं करते, परीक्षण नहीं करते, वे कभी आगे नहीं बढ़ सकते। ध्यान की प्रक्रिया खोज की प्रक्रिया है। व्यक्ति अपने आपको खोजता है, अपने भीतर में जाता है, गहराइयों में जाता है, परीक्षण करता है, निरीक्षण करता है और इस प्रक्रिया से वह सचाई तक पहुंच जाता 186 कर्मवाद Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और तब विवेक जागृत हो जाता है। प्रेक्षा का प्रयोजन है-विवेक। संश्लेष नहीं, विश्लेष। एकत्व नहीं, विवेचन। जब तक विवेचन की शक्ति नहीं जागती, तब तक विकास नहीं होता। नमक भी सफेद होता है और कपूर भी सफेद होता है, पर दोनों का उपयोग भिन्न-भिन्न होता है। आचार्य भिक्षु ने कहा-कुछ लोग, जो सफेद और तरल होता है उसे दूध समझ लेते हैं। गाय का दूध, भैंस का दूध, आक का दूध और थूहर का दूध-चारों प्रकार के दूध तरल होते हैं और सफेद होते हैं। पर आदमी को यह विवेक तो होना ही चाहिए कि कौन-सा दूध किस काम में आ सकता है। यह विवेक की शक्ति जागृत होनी ही चाहिए। ___हमें विवेक करना है कि चेतना कहां है और कर्म का प्रभाव कहां है? हमें चेतना से कर्म का विश्लेषण करना है, विवेक करना है। दोनों का पृथक्करण करना है। विवेक जागृति के पश्चात् हम जितना चेतना का अनुभव करेंगे, उतने ही वर्तमान में रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि चेतना का अनुभव करना वर्तमान की पकड़ है। हम ऐसा भी कह सकते हैं कि वर्तमान की पकड़ का अर्थ होता है-चेतना का अनुभव। . चैतन्य का अनुभव करना, आत्मबोध करना, शुद्ध आत्मा का दर्शन करना-यह विवेकसूत्र यदि हस्तगत हो जाता है तो अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। आंखों का काम है, जो भी सामने आए उसे देखना। पर देखने के पीछे निरंतर हमारी दृष्टि यह रहे कि जिसे देख रहा हूं, वही शुद्ध आत्मा है। जब प्रत्येक व्यक्ति में शुद्ध आत्मा के दर्शन की चेतना जाग जाती है, इसका अर्थ होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अनेक विकृतियों से छुटकारा पा लेता है। यह विवेक जागना चाहिए। विवेक-जागरण के बिना आदमी सारी स्थितियों को एक-सा मान लेता है और तब अनेक गड़बड़ियां हो जाती हैं। -- एक व्यक्ति रेल में यात्रा कर रहा था। अचानक उसका अंगूठा दरवाजे के बीच आया और थोड़ा कट गया। वह जोर से चिल्ला उठा। वर्तमान की पकड़ 187 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास में बैठे एक व्यक्ति ने कहा-'अरे, अंगूठा थोड़ा कटा और इतने जोर से चिल्ला उठे। अभी एक सप्ताह पहले एक व्यक्ति रेल के नीचे आकर कट गया। पर उसने चूं तक नहीं किया, और तुम अंगूठा कट गया इसलिए चिल्ला रहे हो?' दोनों स्थितियों में आकाश-पाताल का अन्तर है। पर विवेक के अभाव में आदमी दोनों को एक मान लेता है। इसलिए विवेक-जागरण बहुत आवश्यक है। 19 कर्मवाद Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन का सूत्र कर्मवाद भारतीय दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। उस पर कई दिनों तक चर्चा हुई है। अब हम उसकी निष्पत्ति पर विचार करें कि कर्मवाद को जिस रूप में समझा गया, क्या वह उचित है अथवा उसको किस रूप में समझा जाना चाहिए? ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मवाद के विषय में अनेक मिथ्या मान्यताएं चल पड़ीं और उनके फलस्वरूप अनेक त्रुटिपूर्ण धारणाएं घर कर गईं। . यथार्थ में कर्मवाद निराशा का सूत्र नहीं है। वह परिवर्तन का सूत्र है। मनुष्य को बदलना चाहिए। यदि बदलने की बात छूट जाती है तो आदमी भी गढ़ा बन जाता है, वैसा गढ़ा जिसमें पानी भरा रहता है और सड़ान पैदा कर देता है। नदी का प्रवाह बहता रहता है, पानी चलता रहता है; उसमें कभी सड़ान पैदा नहीं होती। जब पानी प्रवाहमान न रहकर, गढ़े में गिर जाता है, तब गंदला हो जाता है, दुर्गन्धमय हो जाता है। जीवन एक प्रवाह है। वह निरन्तर प्रवाहित रहता है तो निर्मल बना रहता है। जब वह रूढ़ हो जाता है, जब रूढ़िवादी परम्पराएं या मान्यताएं उसे जकड़ लेती हैं, तब जीवन में भी सड़ान पैदा हो जाती है। आज के सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में ऐसा प्रतीत होता है कि सड़ान पैदा हो गई है। इसका कारण है, हमने परिवर्तन के सूत्र को खो दिया, या उसको दूसरे रूप में पकड़ लिया। ___ जो व्यक्ति कर्मवाद को हृदयंगम कर लेता है, उसके मर्म को समझ लेता है, वह कहीं भी रूढ़िवादी नहीं हो सकता। वह बुराइयों से अपने आपको बहुत बचा लेता है। कर्मवाद का एक सूत्र है-अच्छे कर्म का परिवर्तन का सूत्र 186 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल। यह सूत्र हमारी नैतिक मान्यताओं तथा अवधारणाओं का आधार बनता है। जब यह धारणा होती है कि बुरे कर्म का बुरा फल तो आदमी को बुराई से बचने का अवसर मिलता है। इस स्थिति में कभी-कभी एक प्रश्न आता है कि क्या भारत में कोई कर्मवादी आदमी है? क्या कर्मवाद को स्वीकार कर चलने वाला कोई है? कर्मवाद को मोखिक रूप में स्वीकार करने वाले मिलेंगे, पर कर्मवाद के मर्म को हृदयंगम कर चलने वाले, उसको जीवन से अनुस्यूत कर चलने वाले लोग कम मिलेंगे। इस तथ्य को स्वीकार करने वाला भ्रष्टाचार नहीं कर सकता। वह अनैतिक या अप्रामाणिक व्यवहार नहीं कर सकता। वह प्रलोभन में आकर घी में गाय की चर्बी मिलाने जैसा जघन्य अपराध नहीं कर सकता। सार्वजनिक संस्थाओं में लाखों का दान देने वाले व्यक्तियों के घर पर जब घी में मिलावट करने की चीजें मिलती हैं, तब आश्चर्य होता है। क्या दान और जघन्यतम वृत्ति में कोई संगति है? कहीं संगति नहीं है। हमें मानना ही होगा कि.कर्मवाद की मौखिक स्वीकृति एक बात है और उसको हृदयंगम कर चलना दूसरी बात है। जिस व्यक्ति ने कर्मवाद को हृदय से स्वीकार किया है और इस बात को गहराई में जाकर समझा है कि बुरे कर्म का फल बुरा होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता, जघन्य अपराध नहीं कर सकता। वास्तव में देखा जाए तो कर्मवाद का सिद्धांत बुराई से बचने के लिए तथा नैतिक जीवन जीने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। किन्तु आदमी ने इसे पराजयवादी मनोवृत्ति के साथ जोड़ दिया और कर्मवादी का अर्थ हो गया पराजयवादी मनोवृत्ति वाला। वह सोचने लग जाता है कि धर्म-कर्म करने वाले दुःख पाते हैं और बुराई करने वाले फलते-फूलते हैं। पराजय मान ली। धर्म को छोड़ दिया, धर्म से दूर हो गया। उसने पराजयवादी मनोवृत्ति, निराशावादी मनोवृत्ति, पलायनवादी मनोवृत्ति स्वीकार कर ली। वास्तव में कर्म पलायनवादी मनोवृत्ति का प्रेरक नहीं है। यह एक पुरुषार्थ से जुड़ी हुई प्रेरणा है। कर्म से पुरुषार्थ को कभी अलग नहीं किया जा सकता। दोनों जुड़े हुए हैं। दोनों के साथ एक जुड़ी हुई प्रेरणा है, इसे हमें स्वीकार करना होगा। कभी-कभी समस्या के समाधान 160 कर्मवाद Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी कर्मवाद का गलत प्रयोग कर लिया जाता है। वह धर्म-दर्शन जीवन्त नहीं हो सकता जो वर्तमान की समस्या को समाधान न दे सके। उसकी प्रासंगिकता नहीं हो सकती। उसकी जीवन्तता नहीं हो सकती। वह मृत है, वह बुझी हुई ज्योति है। कोई कहे-मेरा दीया अतीत में बहुत प्रकाश करता था, पर यदि वह आज के अंधकार को नहीं मिटा सकता तो उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। जो वर्तमान में प्रकाश करता है, वर्तमान के अंधेरे को मिटाता है, वही दीया उपयोगी होता है। उसकी उपयोगिता को कोई नकार नहीं सकता। यदि वह प्रकाश देने में असमर्थ है, अंधकार का भेदन करने में असमर्थ है तो वह मात्र मिट्टी का बर्तन है, और कुछ नहीं। इसी प्रकार वही कार्य, वही धर्म, वही अध्यात्म, वही चेतना हमारे लिए कार्यकर होती है जो वर्तमान की समस्याओं का समाधान दे सके। कर्मवाद वर्तमान की समस्या को समाहित करने में सक्षम है। वह बाधा या विघ्न नहीं है। कभी-कभी यह प्रश्न आता है कि यदि पूरे विश्व में समाजवाद या साम्यवाद आ जाएगा और गरीबी मिट जाएगी तो क्या कर्मवाद को धक्का नहीं लगेगा? ऐसा लगता है, मानो कि गरीबी मिटी और कर्मवाद का महल ढह गया। ऐसा कोई संबंध-सूत्र नहीं है कि कर्मवाद है तो गरीबी और अमीरी होनी ही चाहिए और यदि गरीबी नहीं रही तो कर्मवाद अर्थहीन हो गया। यह मिथ्या धारणा है। क्या संबंध है गरीबी-अमीरी का कर्मवाद के साथ? संभव है, भारतीय लोग इसीलिए चाहते हैं कि गरीबी और अमीरी दोनों बनी रहें, जिससे कि कर्मवाद को कोई आंच न आए। यदि एक रहेगी तो कर्मवाद समाप्त . हो जाएगा। ऐसा संबंध जोड़ दिया। गांव में बुढ़िया रहती थी। उसके पास एक मुर्गा था। वह बांग देता। लोग सूरज उगने की बात मान लेते। एक बार बुढ़िया नाराज हो गई। वह गांववालों से बोली-तुम लोग मुझे नाराज करते हो, पर याद रखना, मैं अपने मुर्गे को लेकर अन्यत्र चली जाऊंगी। मर्गा नहीं होगा तो बांग नहीं देगा। बांग नहीं देगा तो सूरज नहीं उगेगा, सूरज नहीं उगेगा तो प्रकाश नहीं होगा, प्रभात नहीं होगा। उस बुढ़िया ने परिवर्तन का सूत्र 161 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा संबंध मुर्गे से जोड़ दिया। मेरा मुर्गा बांग देता है, तभी तो प्रभात होता है। इसी प्रकार आज के आदमी ने यह जोड़ दिया है कि गरीबी नहीं रहेगी तो कर्मवाद कैसे टिकेगा? अमीरी नहीं होगी तो कर्मवाद कहां टिकेगा? तो क्या कर्मवाद का यह मतलब है कि आदमी को खाने को रोटी न मिले, पूरा कपड़ा न मिले, रहने के लिए स्थान न मिले? क्या कर्मवाद का यही सार है? यदि कर्मवाद का यही सार है, तो कर्मवाद जितना निस्सार और बेकार कोई सिद्धांत नहीं हो सकता। वास्तव में हमने कर्मवाद के रहस्य को समझा ही नहीं। कर्मवाद की कोई बाधा नहीं है समस्या के समाधान में। चाहे साम्यवाद आए या समाजवाद आए, कर्मवाद पर कोई आंच आने वाली नहीं है। जब तक व्यक्ति रहेगा, व्यक्ति का अच्छा-बुरा आचरण रहेगा, व्यक्ति का अच्छा-बुरा मनोभाव रहेगा, तब तक कर्मवाद को कोई आंच आने वाली नहीं है और यदि सभी जीव मोक्ष चले जाएंगे या मुक्त हो जाएंगे तब फिर कर्मवाद टिकने वाला नहीं है। उस पर स्थिति में कर्मवाद की जरूरत भी नहीं है। व्यक्ति जब तक जीएगा, धरती पर रहेगा, भावनाओं और व्यवहारों के साथ जीएगा, तब तक कर्मवाद को कोई खतरा नहीं है। आज मनुष्य ने अपने पुरुषार्थ के द्वारा अनेक प्रयत्न किए हैं। एक जमाना था, जब आसाम मलेरिया से आक्रान्त था। आज मनुष्य के पुरुषार्थ से वह मलेरिया से मुक्त हो चुका है। इसी प्रकार मनुष्य ने चेचक, प्लेग आदि महामारियों पर भी विजय पा ली है। चेचक को दैविक प्रकोप माना जाता था। आज उस बीमारी का समूल नाश हो गया। यह सारा हआ है मनुष्य के पुरुषार्थ द्वारा। तब प्रश्न होता है कि कर्मवाद कहां है? यदि बीमारियां कर्मजन्य होतीं तो वे समाप्त कैसे होती? पहले चेचक से न जाने कितने बच्चे मर जाते थे। आज वैसी स्थिति नहीं है। पहले आदमी कितनी जल्दी बूढ़ा हो जाता और मर जाता था, आज वैसा नहीं हो रहा है। आज मृत्यु-दर घटी है, आयु-दर बढ़ी है। यदि कर्मवाद है तो इन सारी स्थितियों का समाधान क्या है? . ___ इन सारी स्थितियों का कर्मवाद से कोई संबंध नहीं है। कर्म में 162 कर्मवाद Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी व्यवस्था नहीं होती कि अमुक को जल्दी मरना है, अमुक को भूखे मरना है, अमुक को बीमारियां भुगतनी हैं। कर्म का विपाक होता है देश, काल और परिस्थिति के अनुसार। इसे और स्पष्टता से समझें। सर्दी में एक प्रकार की बीमारी होती है, गर्मी में दूसरे प्रकार की बीमारी होती है और वर्षा ऋतु में तीसरे प्रकार की बीमारी होती है। गर्मी में लू लगती है, सर्दी में लू नहीं लगती। कर्मवाद कहां चला गया? इसका उत्तर है कि ये सब विपाक हैं देश-काल-सापेक्ष। ये सब परिस्थिति से जुड़े हुए हैं। मनुष्य में जितना अज्ञान होता है, उतनी ही बीमारियों को वह भुगतता है, बुराइयों को पालता है, बुराइयों के साथ जीता है। उसे जब समर्थ-सूत्र मिलता है तब ये सारी बुराइयां छूट जाती हैं। ____ सम्राट हेनरी चतुर्थ अनुभवी शासक था। उसने देखा कि इंग्लैंड के लोग जवाहरात और सोने का उपयोग बहुलता से करते हैं। उसे वह अच्छा नहीं लगा। आर्थिक स्थिति पर भी इसका प्रभाव उसे परिलक्षित हुआ। उसने कानून बनाया कि कोई भी व्यक्ति हीरे और स्वर्ण के आभूषण नहीं पहनेगा। कानून बन गया। लोगों ने कानून का हृदय से पालन नहीं किया। गहनों का प्रचलन चालू रहा। हेनरी के पास रिपोर्ट पहुंची। उसने सोचा और कानून में एक पंक्ति और जोड़ दी-'आज से सिर्फ वेश्याएं और जेबकतरे हीरे और सोने के आभूषण पहन सकेंगे, और कोई गहने नहीं पहन सकेगा।' इस कानून का चमत्कार हुआ। दूसरे दिन सारे गहने उतर गए, क्योंकि कोई भी व्यक्ति वेश्या या जेबकतरा बनना नहीं चाहता था। ___ यह परिवर्तन कर्मवाद के आधार पर नहीं हुआ। यह हुआ समर्थ-सूत्र / के आधार पर। यह हुआ व्यक्ति की सूझ-बूझ के आधार पर। आज वैज्ञानिक युग है। आज का व्यक्ति चाहता है कि वैज्ञानिक मनोवृत्ति का विकास हो। प्रत्येक व्यक्ति हर बात को वैज्ञानिक दृष्टि से देख सके, परख सके। यह सद्यस्क अपेक्षा है। पर आज भी आदमी इतना रूढ और अज्ञानभरी धारणाओं से घिरा हआ है कि उसे देखकर आश्चर्य होता है। आज दहेज की प्रथा चल रही है और महिलाएं स्वयं उसे बढ़ावा दे रही हैं। आश्चर्य तो यह होता है कि स्त्री की अवज्ञा परिवर्तन का सूत्र 163 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं स्त्री करा रही है। लड़का पैदा होता है तब सारे घर में खुशियां मनाई जाती हैं, थाली बजाई जाती हैं। जब लड़की पैदा होती है तब घर में उदासी छा जाती है और छाज पीटा जाता है। यह सब महिलाओं द्वारा संपन्न होता है। वे नहीं जानतीं कि वे स्वयं अपनी जाति की अवज्ञा कर रही हैं। स्त्री स्त्री की अवज्ञा कर रही है। नारी नारी की अवज्ञा करे, अपने सजातीय की अवज्ञा करे, इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है? सास दहेज के प्रति जितनी जागरूक रहती है, उतना कोई सदस्य नहीं रहता। स्त्री के द्वारा स्त्री की हत्या अथवा स्त्री के द्वारा स्त्री का अपमान इसीलिए होता है कि उसके साथ अज्ञान जुड़ा हुआ है। दो प्रकार की मनोवृत्तियां हैं। एक है मौलिक मनोवृत्ति और एक है अर्जित आदत। आदमी की मौलिक मनोवृत्ति को नहीं बदला जा सकता, पर अर्जित आदतों को बदला जा सकता है। मौलिक मनोवृत्तियों का रूपान्तरण भी किया जा सकता है, पर वह होता है कठोर साधना के पश्चात् / परन्तु वर्जित आदतों से, सरल-साधना के माध्यम से, छुटकारा पाया जा सकता है। यदि अर्जित आदतों में परिवर्तन नहीं आता तब धर्म की आराधना और ध्यान की साधना करने का अर्थ शून्य हो जाता है। एक शिविरार्थी ने बताया कि ध्यान-शिविर की साधना से उसकी ग्यारह अर्जित आदतें छूट गईं। यह ध्यान की एक निष्पत्ति है। ध्यान से होने वाला परिवर्तन आन्तरिक होता है, स्थायी होता है। ध्यान से भीतर का जागरण घटित होता है और जब आदमी भीतर में जाग जाता है तब रूपान्तरण घटित होने लग जाता है। अम्म और निम्म पिता-पुत्र थे। वे उज्जयिनी के निवासी ब्राह्मण थे। पिता-पुत्र दोनों दीक्षित हो गए। पुत्र उच्छृखल वृत्ति का था। वह किसी की बात नहीं मानता था। दूसरे मुनि उससे परेशान थे। आचार्य ने उनको गण से अलग कर दिया। वे दोनों दूसरे आचार्य के गण में सम्मिलित हो गए। वहां भी पुत्र के व्यवहार से सारे ऊब गए। वहां से भी उन्हें निकाल दिया गया। वे तीसरे, चौथे और पांचवें गण में गए। पर सर्वत्र तिरस्कृत हुए। तिरस्कार का एकमात्र कारण था पुत्र-मुनि 164 कर्मवाद Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का असद् व्यवहार। पिता दुःखी था। वे गण से अलग होकर अन्यत्र जा रहे थे। विश्राम करने के लिए एक वृक्ष के नीचे ठहरे। अपनी दुर्दशा पर पिता की आंखों में आंसू आ गए। पुत्र ने देखा कि पिता की आंखें सजल हैं और उनमें से तीव्र वेदना बाहर झांक रही है। पुत्र का हृदय बदल गया। उसने सोचा-मेरे कारण ही इतना तिरस्कार झेलना पड़ा। पुत्र के मन पर भारी असर हुआ। उसका सारा व्यवहार बदल गया। वे पूर्ववर्ती संघ में गए। आचार्य से निवेदन कर पुनः संघ में सम्मिलित हो गए। अब संघ के सारे सदस्य पिता-पुत्र के व्यवहार से प्रसन्न थे। ___आदमी बदल सकता है, बदलता है। बदलने में अनेक कारण बनते हैं। परिस्थिति भी उन कारणों में एक है। बदलने का एक कारण चिंतन भी है, अध्ययन भी है और उपदेश भी है। आदमी एक बात को सुनकर इतना प्रभावित हो जाता है कि उसका व्यवहार बदल जाता है। कोई एक बात इतनी चुभ जाती है कि उसका पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है। बदलने का सबसे अधिक शक्तिशाली माध्यम है-हृदय-परिवर्तन, अन्तःकरण का परिवर्तन या रासायनिक परिवर्तन। हृदय के परिवर्तन का अर्थ है-रसायनों का परिवर्तन। शरीर में पैदा होने वाले रसायनों की संख्या सैकड़ों में है। वे सारे रसायन विभिन्न प्रकार से व्यक्ति को प्रभावित करतें हैं। उन रसायनों का बदल जाना ही वास्तव में व्यक्ति का बदल जाना है। आज के मनोवैज्ञानिक रासायनिक परिवर्तनों पर अनेक प्रयोग कर रहे हैं। रसायन के बदलने से शेर खरगोश का-सा व्यवहार करने लग जाता है और खरगोश शेर का व्यवहार करने लग जाता है। व्यवहार की दृष्टि से बिल्ली चूहा बन जाती है और चूहा बिल्ली बन जाता है। चिन्तन का प्रकार बदल जाता है। आचार-व्यवहार बदल जाता है। मैं खोज रहा हूं कि ऐसा कोई सूत्र मिल जाए जिससे आदमी की लोभ की वृत्ति में परिवर्तन आए और दहेज-प्रथा समाप्त हो जाए। यह परिवर्तन एक में नहीं, सब में हो जाए। ऐसा होने पर समाज का कायाकल्प हो जाता है। रसायनों के परिवर्तन से क्रोध की आदत बदली जा सकती है, कामवासना की वृत्ति में परिवर्तन आ सकता है। इन सबके सूत्र ज्ञात हुए हैं, हो रहे हैं, परन्तु अभी तक लोभ की वृत्ति को बदलने परिवर्तन का सूत्र 165 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सूत्र हस्तगत नहीं हुआ है। सामाजिक बुराइयों का सबसे बड़ा घटक है आर्थिक प्रलोभन। यह जटिल समस्या है। जिस दिन इस वृत्ति को बदलने का सूत्र ज्ञात हो जाएगा, प्राप्त हो जाएगा, उस दिन समाज से रूढ़िवाद का प्रभाव टूट जाएगा, अनेक रूढ़ियां समाप्त हो जाएंगी। रूढ़ि तो एक बहाना मात्र है। उसकी पृष्ठभूमि में लालच काम करता है, लोभ का चक्र चलता रहता है। आदमी में लोभ की वृत्ति इतनी तीव्र है कि वह सीधा धन पाना चाहता है। . .. पत्नी ने पति से कहा- 'मैंने समाचारपत्र में पढ़ा है कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को साइकिल के बदले बेच डाला। आप तो ऐसा नहीं करेंगे?' पति बोला- 'मैं इतना मूर्ख नहीं हूं। यदि सौदा करूंगा तो कार का करूंगा। कार के बदले में पत्नी को बेचना लाभप्रद होगा।' कितना लोभ होता है आदमी में! भयंकर लोभ। यदि इस लोभ की वृत्ति को बदलने का सूत्र हस्तगत हो जाए तो फिर सामाजिक परिवर्तन सहज-सरल हो जाएगा। हम इस सूत्र की खोज में लगे हुए हैं और यह विश्वास है कि हमारा प्रयत्न अवश्य सफल होगा। ध्यान का सूत्र हमने खोजा और वह प्राप्त हो गया। यह धार्मिक क्षेत्र में नयी क्रान्ति है। __ प्रेक्षा-ध्यान के सूत्र की खोज का भी एक इतिहास है। पूज्य गुरुदेव का चातुर्मास था उदयपुर में। यह वि. सं. 2016 की बात है। आगम-संपादन कार्य चल रहा था। हम जो काम करते, प्रतिक्रमण के पश्चात् उस कार्य का लेखा-जोखा गुरुदेव के समक्ष रख देते। यह प्रतिदिन का क्रम था। उन दिनों उत्तराध्ययन का संपादन-कार्य चल रहा था। उसके उनतीस अध्ययन संपन्न हो चुके थे। तीसवें अध्ययन पर कार्य हो रहा था। उसमें तपस्या का वर्णन है। उसके बहिरंग और अन्तरंग प्रकारों पर चर्चा चली। ध्यान तपस्या का अन्तरंग प्रकार है। मैंने निवेदन किया-ध्यान पर हम टिप्पणी लिख रहे हैं। बहुत सामग्री मिली है। खोज करने पर और भी सामग्री प्राप्त हो सकती है। गुरुदेव ने फरमाया-'ध्यान के विषय में जब इतनी सामग्री उपलब्ध है तो जैन परम्परा में विच्छिन्न ध्यान-प्रक्रिया का पुनः अनुसंधान क्यों नहीं किया जाए? हमें इस दिशा 166 कर्मवाद Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रयत्न करना चाहिए। इतना-सा संवाद चला। इतना-सा स्वप्न। गुरुदेव की प्रेरणा ने काम किया। मैं उसकी खोज में जुट गया। सूत्र मिला। प्रयोग प्रारंभ किया और पन्द्रह वर्ष पश्चात् प्रेक्षा-ध्यान की पूरी प्रक्रिया सामने प्रस्तुत हो गई। प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया से धर्म-क्रांति की बात भी चरितार्थ हो गई और धर्म के विषय में जो रूढ़ धारणाएं थीं, उनमें परिवर्तन आ गया। एक युवक ने लिखा-धर्म और विज्ञान का इतना सुन्दर समन्वय हमने अन्यत्र नहीं देखा, जैसा मुझे प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया में दृष्टिगोचर हुआ। प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग वैज्ञानिक धरातल पर आधृत है। इसमें अध्यात्म योग, कर्मवाद आदि प्राचीन विधाओं का समावेश है तो साथ-ही-साथ शरीरशास्त्र, शरीर-क्रियाशास्त्र, शरीर-रसायनशास्त्र, मानसशास्त्र आदि-आदि आधुनिक विधाओं का भी पूरा समावेश है। एक शब्द में कहा जा सकता है कि यह धर्म और विज्ञान का सुन्दर समन्वय है। ___आज यह सद्यस्क आवश्यकता है कि आज की समस्याओं से निपटने के लिए, समस्याओं का समाधान देने के लिए प्रत्येक विषय का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए और तर्क की कसौटी पर उसे पूरा कसा जाए। आज केवल अंधविश्वास, रूढि या मान्यता से काम नहीं चल सकता। आज जरूरी है परिवर्तन और उससे भी अधिक जरूरी है कर्मवाद के सिद्धांत को हृदयंगम करना। कर्मवाद वैज्ञानिक सिद्धांत है। परन्तु उसकी सही जानकारी न होने के कारण उसको भी रूढ़ मान्यता के आधार पर ही समझा जा रहा है। यदि कर्मवाद को सही रूप में समझा जाता तो. आज अनेक धारणाएं सामने आ जातीं। - दिल्ली विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी का आयोजन था। विषय था प्रेक्षा-ध्यान। वाइस चांसलर तथा अनेक प्रोफेसर, लेक्चरर इस गोष्ठी में भाग ले रहे थे। मैंने प्रेक्षा-ध्यान की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुए अनेक चर्चा-बिन्दु प्रस्तुत किए। अन्त में वाइस चांसलर ने आभार व्यक्त करते हुए कहा-आज मैं पहली बार किसी भारतीय दार्शनिक अथवा जैन मुनि के मुंह से 'जीन' आदि के विषय में इतनी प्रामाणिक चर्चा परिवर्तन का सूत्र 167 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन रहा हूं। जिस प्रकार की चर्चा मुनिजी ने प्रस्तुत की है, यदि इसको विस्तार दिया जाए, खोज की जाए तो भारत 'जीन' के विषय में पाश्चात्य देशों को नयी देन दे सकता है। हमारे पास अतुल सामग्री है। . कर्मवाद का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो 'जीन' की बात उसके समक्ष बहुत छोटी रह जाती है। पर आज का आदमी गहराई में जाना नहीं चाहता। उसकी वृत्ति सिनेमावादी हो गई है। सीधा गाओ, सीधा देखो। गहरे में उतरने की मनोवृत्ति बहुत कम है। कर्मवाद की आधारभूमि बहुत दृढ़ है। छोटी-छोटी बातों से उसको उखाड़ा नहीं जा सकता। यह वज्रमय प्रासाद, जो खड़ा किया गया है, यह पवन के झोंकों से ढह नहीं सकता। हमें गहराई में जाने की आवश्यकता है। कर्मवाद परितर्वनों का महान् सूत्र है। उसका ठीक उपयोग करें। आदतें बदलती हैं, व्यसन छूटते हैं, व्यक्तित्व बदलता है, इसमें कर्मवाद बाधा उपस्थित नहीं करता। ऐसा नहीं कहता कि कर्म में ऐसा ही लिखा हुआ था, भाग्यरेखा ऐसी ही थी। जो आदमी ऐसा करता है, वह भयंकर भूल करता है और जीवन के प्रति अन्याय करता है। आदमी भगवान् के भरोसे बैठा रहता है, भाग्य के भरोसे बैठा रहता है। वह सब पर भरोसा करता है, परं अपने पुरुषार्थ पर भरोसा नहीं करता। भटक गया है आदमी। उसका पहला काम तो यह था कि वह अपने पुरुषार्थ पर पूरा भरोसा करे, फिर दूसरों पर भरोसा करे। दूसरों का भरोसा इतना लाभप्रद नहीं होता जितना लाभप्रद होता है अपने पुरुषार्थ का भरोसा। कर्मवाद का सिद्धांत प्रकाश-स्तंभ है। यह पूरे मार्ग को प्रकाशित करता है। परन्तु आदमी की भ्रांति के कारण, अज्ञान के कारण, उसने इस प्रकाश-स्तंभ को भुला दिया, उसका पूरा मार्ग अंधकारमय बन गया। प्रकाश अंधकार में परिणत हो गया। कर्मवाद निराशा पैदा करने वाला सिद्धांत नहीं है। यह पुरुषार्थ को उजागर करने वाला है। कर्मवाद के सही अर्थ को समझकर आदमी अपने पुरुषार्थ को उत्तेजित करे और हाथ पर हाथ रखकर बैठने की वृत्ति को छोड़े। न जाने कितने व्यक्ति निराश होकर पुरुषार्थ से प्राप्त 168 कर्मवाद Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाली संपदा से वंचित होकर बैठ जाते हैं। हम इस सचाई का अनुभव करें कि हमें प्रभावित करने वाले अनेक प्रभावों में परिवर्तन लाने वाला प्रभाव है पुरुषार्थ और पुरुषार्थ में परिवर्तन की प्रेरणा फूंकने वाला है कर्मवाद। इस सचाई को हृदयंगम करें और अपने पुरुषार्थ को आगे बढ़ाएं। परिवर्तन का सूत्र 166 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्दे के पीछे कौन? यह जगत् एक रंगमंच है। इस पर नाटक खेला जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति उसमें भाग ले रहा है। जो खेला जा रहा है, वह हमारे सामने है। परन्तु सब कुछ सामने नहीं है, कुछ पर्दे के पीछे है। जो अभिनय पृष्ठभूमि में हो रहा है, वह बड़ा विचित्र है। ___लोग जानना चाहते हैं कि ध्यान का प्रयोजन क्या है? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्योंकि बिना प्रयोजन कुछ भी करना बुद्धिमत्ता नहीं है। हम कुछ भी करें, प्रयोजनपूर्वक करें। जो व्यक्ति बिना प्रयोजन कुछ भी करता है, समझदार नहीं होता। समझदार वही होता है, जो प्रवृत्ति से पूर्व अपने प्रयोजन का निर्धारण करता है। ध्यान का प्रयोजन है उसकी खोज करना जो पर्दे के पीछे अभिनय कर रहा है। उसकी केवल खोज ही नहीं, उसको समाप्त कर देना है। एक भाई ने कहा-मैं उपासना करने बैठता हूं, तब न जाने कहां से अवांछनीय और अतर्कणीय विचार आते हैं, जिनमें मैं उलझ जाता हूं। उपासना छूट जाती है। बैठता हूं अच्छा करने के लिए पर विचार और भाव आते हैं बुरे। सोचता हूं, सदा अच्छा आचरण करूं और होता है बुरा आचरण। सदा अच्छा सोचना चाहता हूं, पर आते हैं बुरे विचार। यह स्थिति प्रायः सब व्यक्तियों की बनती है। कोई भी इसका अपवाद नहीं है। सब लोग जानते हैं कि शान्तिपूर्ण और स्वस्थ जीवन जीने के लिए अच्छा होना, अच्छे आचरण करना बहुत आवश्यक है। समाज तभी स्वस्थ रहता है, जब उसमें रहने वाले व्यक्ति स्वस्थ आचरण करते हैं। फिर यह अपराध क्यों होता है? क्यों कोई अपराधी बनता है? इसका हेतु क्या है? इस हेतु की व्याख्या अनेक स्तरों पर, अनेक शाखाओं 200 कर्मवाद Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा की गई। व्याख्या का एक सूत्र है-वंशानुक्रम। आनुवंशिकता के कारण व्यक्ति अपराधी बनता है। पिता अपराधी था, पुत्र अपराधी बन गया। दादा अपराधी था, पोता अपराधी बन गया। इसमें हेरिडिटी कारण बनती है। वर्तमान में आनुवंशिकता विज्ञान के आधार पर इस पर बहुत विमर्श हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति में वंशानुक्रम से कुछ संस्कार मिलते हैं। पर यह समग्र नहीं है। दुनिया में कोई भी सिद्धांत, जो वाणी में उतरता है, वह समग्र नहीं होता। वाणी में यह क्षमता भी नहीं है कि वह समग्र सत्ता को अभिव्यक्त कर सके। उसकी क्षमता है; खण्ड का प्रतिपादन करना। वाणी स्वयं खण्ड है, फिर वह अखण्ड सत्य का प्रतिपादन कैसे कर सकती है! अखण्ड सत्य शब्द या वाणी का विषय नहीं बन सकता। इसीलिए अनेकान्त की भाषा में इसे अवक्तव्य कहा गया। अखण्ड सत्य जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उपनिषद् में 'नेति, नेति' के द्वारा कथन किया गया है। यह भी नहीं, यह भी नहीं' निषेध करते चले जाओ। बुद्ध ने इसे अव्याकृत कहा है। अवक्तव्य, नेति और अव्याकृत-तीनों एक ही दिशा के पथिक हैं। समग्र सत्य का एक देश और काल में एक शब्द के द्वारा कभी प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इसलिए वह अवक्तव्य सत्य बन जाता है। जितने मत और सिद्धान्त हैं, वे सब सापेक्ष हैं। वे सब खण्ड के प्रतिपादक हैं। जब यह तथ्य हमारी बुद्धि में समाया रहता है, तब दृष्टिकोण समीचीन रहता है और जब हम खण्ड को अखण्ड मान लेते हैं, किसी एक सिद्धान्त को समग्र सत्य मान लेते हैं, वहां विभ्रम होता है, विपर्यास होता है और दृष्टिकोण मिथ्या बन जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सन्मति तर्क प्रकरण' ' में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक विचार सत्य है, जब वह दूसरे विचारों का खण्डन नहीं करता है। जब वह दूसरे विचारों का खण्डन कर, केवल अपना ही अस्तित्व समर्पित करता है तो वह विचार मिथ्या बन जाता है। कोई भी विचार सर्वथा सत्य नहीं है। कोई भी विचार सर्वथा मिथ्या नहीं है। प्रत्येक विचार में सचाई है। प्रत्येक विचार ___ पर्दे की पीछे कौन? 201 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में असत्यता है। यदि विचार निरपेक्ष है तो वह असत्य है, मिथ्या है। यदि वह सापेक्ष है तो वह सत्य है, समीचीन है। यह सापेक्षता का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण और यथार्थ है। इस कसौटी पर कसने पर वंशानुक्रम का सिद्धांत सत्य प्रतीत होता है, पर वह समग्र सचाई नहीं है, यह भी ज्ञात होता है। एक ही वंश में पैदा होने वाले अनेक प्रकार के व्यक्तित्व वाले बन जाते हैं। उन सबके व्यक्तित्व में बहुत अन्तर होता है। इसलिए आनुवंशिकता ही केवल सचाई नहीं है। वह भी एक तथ्य है। - दूसरा कारण है परिस्थिति। एक ही माता-पिता की सन्तान यदि दो विभिन्न परिस्थितियों में रहती है तो दो प्रकार के व्यक्तित्व वाली बन जाती है। समान परिस्थिति में भी व्यक्तित्व में अन्तर आ जाता है। इससे आगे भी कारण की खोज चली और तब पता चला कि पर्यावरण भी एक कारण है। तीसरा कारण है-पर्यावरण। इसको अंग्रेजी में इकोलॉजी कहा जाता है। आज इसका बहुत विकास हुआ है। इसके आधार पर मानवीय स्वभाव की व्याख्याएं हुई हैं। अपराधी मनोवृत्ति के विश्लेषण में पर्यावरण विज्ञान बहुत आगे बढ़ा है। जहां प्रदूषण की प्रचुरता है, वहां अपराध और असामान्य आचरण की भी प्रचुरता होती है। अमेरिका में सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ कि प्रदूषण के कारण नगरों की वायु में शीशे की मात्रा अधिक होती है और इसके प्रभाव से बच्चों की मनःस्थिति विकृत बन जाती है। शीशे की मात्रा कम होती है तो विकृति कम होती है। पर्यावरण का असंतुलन शारीरिक और मानसिक असंतुलन पैदा करता है। हमारे शरीर में लवण, खनिज आदि होते हैं। सब धातुओं का संतुलन बना रहता है तो शरीर स्वस्थ रहता है। तांबा, जस्ता, फास्फोरस आदि धातुओं की निश्चित मात्रा रहती है। जब इनकी मात्रा कम हो जाती है या अधिक हो जाती है तो शरीर गड़बड़ा जाता है। शरीर विभिन्न प्रकार के लवणों, खनिजों तथा अन्यान्य पदार्थों से बना हुआ है। रासायनिक दृष्टि से उसका बहुत विश्लेषण हुआ है। . आनुवंशिकता, परिस्थिति और पर्यावरण-ये तीन कारण मनुष्य के 202 कर्मवाद Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव को और व्यवहार को असंतुलित तथा असामान्य बनाते हैं। इसी कारण की श्रृंखला में एक महत्त्वपूर्ण कारण है 'जीन'। यह माना जाता है कि जब शिशु का निर्माण होता है, तब क्रोमोसोम की श्रृंखला में जो 'जीन' होते हैं, उनमें कोई गड़बड़ी हो जाती है तो बच्चा प्रारंभ से ही अपराधी मनोवृत्ति वाला हो जाता है, वह असामान्य आचरण करने लग जाता है। 'जीन' का सूत्र है-एक्स, वाई, वाई। यदि एक वाई अधिक हो जाती है तो असंतुलन पैदा हो जाता है और बच्चा अपराधी बन जाता है। ___जेनेटिक इंजीनियरिंग के सिद्धांत के अनुसार वैज्ञानिकों ने मनुष्य के स्वभाव और आचरण की महत्त्वपूर्ण व्याख्याएं की हैं। उसके आधार पर सामान्य और असामान्य व्यवहार और आचरण को समझने में सुविधा हुई है। वैज्ञानिक 'जीन' के परिवर्तन के सूत्र की खोज में लगे हुए हैं। जानवरों की नस्ल को सुधारने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है। आज वे मनुष्य की नस्ल को सुधारने के सूत्र की खोज कर रहे हैं। - 'जीन' भी एक कारण है। यह चौथा कारण है। पांचवां कारण है-रासायनिक परिवर्तन। रासायनिक परिवर्तन होने पर आदमी का आचरण बदल जाता है। नाड़ी संस्थान और ग्रन्थितन्त्र के स्रावों का परिवर्तन होने पर मनुष्य के व्यक्तित्व में परिवर्तन हो जाता है। - एक अहिंसक व्यक्ति है। उसमें रासायनिक परिवर्तन होता है और वह हिंसा में विश्वास करने लग जाता है। वह हत्यारा बन जाता है। एक हत्यारा और डाकू साधु पुरुष बन जाता है। वह संत का जीवन * जीने लग जाता है। यह परिवर्तन कैसे होता है? संत डाकू कैसे बन जाता है. और डाकू संत कैसे बन जाता है? यह आश्चर्यकारी बात है। पर ऐसा होता है और उसका मुख्य कारण है रासायनिक परिवर्तन। रासायनिक परिवर्तन के आधार पर आदमी इतना बदल जाता है कि उसकी पहचान भी नहीं हो पाती। आदमी असमंजस में पड़ जाता है और सोचता है क्या यह वही आदमी है, जिसके साथ मैं पांच वर्ष पूर्व रहा था? 'सः एवायं', यह नहीं कहा जा सकता। नया व्यक्तित्व सामने आ जाता है। पर्दे की पीछे कौन? 203 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न होता है कि यह रासायनिक परिवर्तन क्यों होता है? 'जीन' का परिवर्तन क्यों होता है? सब में नहीं होता, केवल पांच प्रतिशत में ही क्यों होता है? इसके कारण को समझे बिना गुत्थी सुलझती नहीं। कारण के सही ज्ञान के बिना निर्णय भी सही नहीं होता। ___दो युवक नौका से यात्रा कर रहे थे। दोनों बारी-बारी से उसे खे रहे थे। तूफान आया। नाव डगमगाने लगी। नाव डूबने लगी। एक बोला-नौका डूब रही है। अब क्या करें? दूसरा बोला-डूबे तो डूबने दो। चिन्ता क्यों करते हो? नाव अपनी नहीं है, किराये की है। डूब जाएगी तो डूब जाएगी। सही स्थिति का अंकन नहीं होता है तब समस्या उलझ जाती है। नाव किराये की थी, पर वे दोनों तो किराये के नहीं थे। नाव डूबेगी तो क्या वे बच पाएंगे? जब तक कारण का सही अंकन नहीं होता, तब तक कार्य भी सही नहीं हो सकता। एक ही वंश में दो व्यक्ति साथ जन्म लेते हैं, एक ही वातावरण में दो व्यक्ति रहते हैं; दो व्यक्तियों को समान पर्यावरण मिलता है। फिर भी दो व्यक्तियों का व्यक्तित्व दो प्रकार का हो जाता है। दो भाई साथ में जन्में, एक में 'जीन' का परिवर्तन हो गया, दूसरे में नहीं हुआ। ऐसा क्यों होता है? इन सभी प्रश्नों के सन्दर्भ में जब हम चिन्तन करते हैं, तब लगता है कि यह सारा अभिनय इस रंगमंच पर हो रहा है, पर पर्दे के पीछे एक और भी है जो अभिनय कर रहा है। वह सामने नहीं है। पर्दे के पीछे है। वहां तक पहुंचे बिना न तो समस्या का समाधान होगा और न ध्यान का प्रयोजन ही समझ में आएगा। यदि हमें वहां, पर्दे के पीछे नहीं पहुंचना है तो ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं है। वातावरण और पर्यावरण को ध्यान के बिना भी बदला जा सकता है। रासायनिक परिवर्तन भी औषधियों तथा अन्यान्य साधनों से, एक सीमा तक किया जा सकता है। इलेक्ट्रोड से विद्युत् तरंगों को बदलकर रासायनिक परिवर्तन किया जा सकता है। ये सब परिवर्तन हो सकते हैं। किन्तु वातावरण आदि को जो उत्प्रेरित कर रहा है, उस कारण तक नहीं पहुंचा 204 कर्मवाद Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता। ये सारी कठपुतलियां हैं। इनको नचाने वाला कोई और है। वह भीतर में बैठा है। वह पर्दे के पीछे छिपा हुआ है और वह है कर्म। कर्म है जैविक विशेषता, व्यक्ति की अपनी विशेषता। कर्म नितान्त व्यक्तिगत होता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना कर्म और अपना किया हुआ कर्म। दूसरा कोई उत्तरदायी नहीं है। स्वयं व्यक्ति ने उसे किया है और स्वयं व्यक्ति को ही वह भोगना है। अपना कृत कर्म पर्दे के पीछे कार्यरत है। सबको भोगना पड़ता है। यह ऋण है। इसको चुकाना पड़ता है। जो कर्म किए हैं, जिन कर्म परमाणुओं का संचय किया है, उनको भोगना ही पड़ता है। कर्म उत्प्रेरक है। यहां सब कुछ उसके द्वारा घटित होता है। अकारण कुछ भी नहीं होता। न दूसरे ने कुछ किया है, न किसी ने कुछ थोपा है, स्वयं ने किया है और स्वयं ही उसका उत्तरदायी है। एक ज्योतिषी था। उसका बेटा खो गया। वह पुलिस स्टेशन पहुंचा और इंस्पेक्टर से बोला-मेरा बेटा खो गया है। आप उसको खोज लाएं। मैं आपका काम कर दूंगा। आपकी जन्मकुण्डली बनाकर आपके भविष्य का यथार्थ बता दूंगा। इंस्पेक्टर बोला-मेरा भविष्य बतला सकते हो तो अपने बेटे को ही खोज लो। ज्योतिषी बोला-बात तो ठीक है। पर मैं अपने बेटे को खोजूंगा तो मुझे फीस कौन देगा? मेरा संकल्प है कि मैं बिना फीस किसी का काम नहीं करता। मुफ्त में काम करना मुझे नहीं सुहाता। ___कर्म का भी सिद्धान्त है। वह मुफ्त में कार्यरत नहीं होता। आदमी ने उसे किया है, पूरी फीस चुकाई है। अपना ही कृत और अपना ही भोग। कर्म एक ऐसा अभिनेता है, जो पर्दे के पीछे बैठा-बैठा निरन्तर अभिनय कर रहा है। इसका अभिनय कभी बन्द नहीं होता। सोते-जागते, दिन में, रात में यह निरन्तर क्रियाशील रहता है। जब हमारी पहुंच कर्म तक हो जाती हैं, तब एक समस्या का समाधान हो जाता है और हम सब यह समझने लग जाते हैं कि हमारी सभी प्रवृत्तियों, विचारों, चिन्तनों और भावों के साथ एक छिपा हुआ अस्तित्व या तत्त्व जुड़ा हुआ है। जब तक उसको बदला नहीं जाता, तब तक सामने घटित होने वाली पर्दे की पीछे कौन? 205 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनाएं व्याख्यात नहीं हो सकतीं।' दो बातें हैं। एक है घटना और दूसरी है कर्म की वासना। घटना सामने घटित होती है, वासना पीछे रहती है। हम घटना की सही व्याख्या करना चाहते हैं, पर जब तक वासना की व्याख्या नहीं होती, तब तक घटना की पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। ____ मृत्यु एक घटना है। न जाने कितने व्यक्ति अकाल में ही मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। एक आदमी चालीस वर्ष की अवस्था में ही मर गया, पर इस अवस्था में क्यों मरा, इसकी व्याख्या वासना की व्याख्या किए बिना नहीं की जा सकती। उस मृत्यु के पीछे भी एक वासना है। यदि उसे समझ लिया जाता है तो अकाल-मृत्यु की बात भी सहज ही समझ में आ जाती है। प्रत्येक घटना के साथ, फिर चाहे वह बीमारी हो, चिन्ता हो, मोह हो, वासना जुड़ी हुई होती है। घटना सामने होती है, वासना सामने नहीं होती। घटना के आधार पर जो व्याख्या की जाती है, वह पचास प्रतिशत सही होती है तो पचास.प्रतिशत सही नहीं होती। हम दोनों को पकड़ नहीं पाते। हमें इतना मात्र ज्ञात होता है कि ऐसा हो गया। पर हम नहीं जान पाते कि ऐसा क्यों हुआ? सब अकाल-मृत्यु से क्यों नहीं मरते? अमुक ही अकाल मृत्यु से क्यों मरा? इसके पीछे वासना बराबर काम करती है। ध्यान का प्रयोजन है उस अदृश्य कारण तक पहुंचना। वह है चेतना का सूक्ष्म स्तर। यह अन्तिम सचाई है। शरीर के साथ काम करने वाली चेतना स्थूल होती है। इस चेतना को पार कर जब हम भीतर में जाते हैं, तब विद्युत् शरीर के साथ सम्पर्क होता है। यह सूक्ष्म शरीर है जिसके द्वारा हमारा स्थूल शरीर संचालित होता है। उसको पार कर जब हम और गहरे में जाते हैं, तब हमारा संपर्क होता है सूक्ष्मतर शरीर से। वह है कर्म शरीर। यह चेतना हमारे आचार, व्यवहार और विचार का संचालन करती है। ध्यान का प्रयोजन है कर्म शरीर के साथ काम करने वाली चेतना तक पहुंच जाना और उन कर्म परमाणुओं को समझ लेना जो हमारी सारी घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं। उनको समझ लेना ही पर्याप्त नहीं है, उनका क्षय करना भी जरूरी है। 206 कर्मवाद Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नाट्य एकेडेमी के अध्यक्ष मंगल सक्सेना आए थे। उन्होंने ध्यान के विषय में जिज्ञासा करते हुए पूछा-ध्यान का प्रयोजन क्या है? चर्चा चली। चर्चा के बाद मैंने कहा-ध्यान का प्रयोजन है कर्म का निर्जरण, कर्म का क्षय, संस्कारों का निर्जरण। प्रत्येक प्राणी अपने भावों और विचारों के द्वारा कर्मपरमाणुओं का विशाल भण्डार अर्जित कर लेता है। उस भण्डार को खाली करना, क्षीण करना, ध्यान का मुख्य प्रयोजन है। मंगल सक्सेना बोले-बात समझ में आ गई। आज भी अन्यान्य ध्यान पद्धतियां चलती हैं, उनका लक्ष्य है बीमारी मिट जाए, नींद अच्छी आ जाए, तनाव मिट जाए आदि-आदि। यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। भीतर से संचित मूल कारणों का, संस्कारों का क्षय करना ही समस्या का स्थायी समाधान है। ___ बीमारी का मिटना, तनाव का मिटना आदि अस्थायी उपचार हैं। संस्कार भीतर में विद्यमान हैं। वे जब तक पूर्णतया नष्ट नहीं हो जाते, तब तक समय-समय पर उभरते रहते हैं, उपशान्त होते रहते हैं, पर कभी नष्ट नहीं होते। इन संस्कारों को क्षीण करना ही ध्यान-साधक का ध्येय होता है। यही ध्यान का प्रयोजन है। जब तक मूल कारण का शोधन नहीं होता, संस्कारों का शोधन नहीं होता, तब तक स्थायी उपचार नहीं होता, समस्या का स्थायी समाधान नहीं होता। हमें बाहरी और भीतरी-दोनों परिस्थितियों को समझना जरूरी है। हमें बाहरी परिस्थितियों को भी सुधारना है, पर वहां रुकना नहीं है। ध्यान का प्रयोजन केवल गहरी नींद का आ जाना, रक्तचाप का संतुलन हो जाना, मधुमेह की बीमारी का मिट जाना या मानसिक तनाव का कम हो जाना नहीं है। ध्यान का मूल प्रयोजन है-इन सबको पैदा करने वाले कारणों को समाप्त कर देना। अर्थात् कर्म का शोधन करना, संस्कारों का क्षय करना। जब इस बिन्दु तक पहुंच जाते हैं, तब ध्यान की सार्थकता स्पष्ट प्रतीत होने लग जाती है। पर्दे की पीछे कौन? 207 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो ध्यान का प्रयोजन है स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना। सूक्ष्म सत्यों और नियमों की खोज हमारे ज्ञान का संवर्धन करती है और उससे आदमी का आचरण और व्यवहार भी बदलता है। नियमों को जानना बहुत आवश्यक है। ध्यान नियमों को जानने का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। नियमों को जानने का जिन लोगों ने प्रयत्न किया है, उन्होंने सूक्ष्मता का आलंबन लिया है, फिर चाहे वे नियम विज्ञान के हों या अध्यात्म के हों या अन्य किसी के। नियमों की जानकारी चैतसिक विकास के द्वारा भी की जा सकती है और सूक्ष्म यंत्रों के द्वारा भी की जा सकती है। सूक्ष्म को जानने के लिए सूक्ष्म का अवलंबन लेना जरूरी है। कर्म का सिद्धान्त बहत सूक्ष्म है। उसके नियमों को समझने में बहुत कठिनाई होती है। स्थूल बुद्धि से वे नियम समझ में नहीं आ सकते। आज के आनुवंशिकता के सिद्धांत ने कर्म-सिद्धान्त को समझने में सुविधा दी है और प्रवेश द्वार खोला है। जीन आनुवंशिक गुणों के संवाहक होते हैं। व्यक्ति-व्यक्ति में जो भेद दिखाई देता है, वह जीन के द्वारा किया हुआ भेद है। प्रत्येक विशिष्ट गुण के लिए विशिष्ट प्रकार का जीन होता है। ये आनुवंशिकता के नियम कर्मवाद के संवादी नियम हैं। कर्मवाद इनसे एक चरण और आगे है। कर्म परमाणु का संवहन करते हैं। व्यक्तिगत भेद का मूल कारण है कर्म। कम्मओणं विभत्ति भावं जणयई-सारे विभेद कर्मकृत होते हैं। प्रत्येक जैविक विशेषता के लिए विशेष कर्म उत्तरदायी होता है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो आनुवंशिकता, जीन और रासायनिक परिवर्तन-ये तीनों सिद्धान्त कर्म के ही सिद्धान्त हैं। आनुवंशिकता के सिद्धान्त की खोज के आधार पर 208 कर्मवाद Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद को जानने में एक कदम आगे बढ़ा जा सकता है। जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयव है और कर्म हमारे सूक्ष्मतर शरीर का एक अवयव है। दोनों शरीर से जुड़े हुए हैं-एक स्थूल से और दूसरा सूक्ष्मतर शरीर से। यह सूक्ष्मतर शरीर कर्मशरीर है। जैसे विज्ञान की निरन्तर नयी-नयी खोजें होती हैं, मुझे विश्वास है कि एक दिन यह तथ्य भी अनुसंधान में आ जाएगा कि जीन केवल माता-पिता के गुणों या संस्कारों का ही संवहन नहीं करते, किन्तु ये हमारे किए हुए कर्मों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। ये जीन कर्म से भी जुड़े हुए हैं। अभी तक यह तथ्य खोजा नहीं गया, पर बहुत सम्भव है कि यह शीघ्र खोज लिया जाएगा। __हम सूक्ष्म चर्चा में चले गए। ध्यान-साधना के लिए सूक्ष्म चर्चा आवश्यक होती है। ध्यान सूक्ष्म की खोज है। स्थूल बुद्धिवाला आदमी स्थूल बात में अटका रह जाता है। बालक स्थूल बात पर अटक सकता है। 'बाल' शब्द के दो अर्थ होते हैं-छोटी अवस्था वाला और अज्ञानी। जिसका ज्ञान विकसित नहीं होता, वह भी बाल है। 'बाल' व्यक्ति सूक्ष्म की खोज में नहीं जा पाता। बच्चा मिठाई चुरा रहा था। बहन बोली-भैया! तुम मिठाई चुराते हो, अम्मा तो नहीं देख रही हैं, पर भगवान तो देख रहे हैं। भगवान से तो डरो। बच्चा बोला-क्या फर्क पड़ता है! भगवान् भले ही देखें। वे अम्मा को कहने नहीं आते। फिर मुझे चिन्ता ही क्या है? ___ बच्चा स्थूल को ही. पकड़ सकता है, सूक्ष्म को नहीं। जिस व्यक्ति का ज्ञान परिपक्व और विकसित हो गया है, जिसकी चेतना ध्यान के द्वारा परिष्कृत हो गई है, वह सूक्ष्म सत्यों और सूक्ष्म नियमों की खोज करेगा। वह नियति को, मूल नियमों को पकड़ेगा। . कर्म एक नियति है, नियम है। कर्म के द्वारा अतीत को पढ़ा जा सकता है और भविष्य को समझा जा सकता है। कर्म के दो विभाग हो जाते हैं। एक है पौद्गलिक या पारमाणविक कर्म और दूसरा है चैतसिक कर्म। पारिभाषिक शब्दावली में एक है द्रव्य कर्म और दूसरा है भाव कर्म। कर्म परमाणुओं का संग्रहण और संश्लेषण होता है भावकर्म के द्वारा। प्राणी का भाव और भाव के द्वारा अर्जित __ अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 206 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणु-ये दो प्रकार बन जाते हैं। भावों को देखकर जाना जा सकता है कि किस प्रकार का कर्म होने वाला है और कर्मों को देखकर जाना जा सकता है कि किस प्रकार का भाव चल रहा है। यह अतीत को जानने और भविष्य को देखने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसी के आधार पर अतीत को पढ़ा गया है और भविष्य को देखा गया है। आज भी यदि कोई व्यक्ति सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करे तो वह समझ सकता है कि अमुक व्यक्ति कैसा है? किस प्रकार का इसका व्यवहार है? इसने क्या सोचा था? इसका चिन्तन या भाव कैसा था? इसका आचरण कैसा था? ये सब बातें ज्ञात हो सकती हैं। इसी प्रकार वर्तमान के कर्मों की अवस्थाओं को देखकर यह समझा जा सकता है कि यह व्यक्ति भविष्य में किस प्रकार चिन्तन, व्यवहार और आचरण करेगा? इस प्रकार अतीत और भविष्य को पकड़ा जा सकता है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण माध्यम है। किन्तु कर्मवाद के विषय की जानकारी बहुत कम है, भ्रान्तियां अधिक हैं। आज भी कर्मवाद के नाम पर ऐसे सूत्र दोहराए जा रहे हैं जो कर्मवाद की छवि को धूमिल करते हैं और भ्रान्त तथा त्रुटिपूर्ण सिद्धांत की प्रस्थापना करते हैं। इससे अनेक भ्रान्तियां पनपी हैं और निरन्तर पनपती जा रही हैं। आज प्रत्येक घटना के साथ कर्म को जोड़ दिया जाता है, जबकि कर्म की अपनी एक सीमा है। . दो मित्र समुद्र के तट पर खड़े-खड़े ज्वार-भाटे को देख रहे थे। कुछ समय बीता। उन्हें एक जहाज दिखाई दिया। एक ने कहा-मित्र! मेरे मन में एक प्रश्न उभर रहा है कि एक छोटी-सी सुई पानी में डूब जाती है, पर विशाल जहाज पानी में तैर जाता है। कारण क्या है? दूसरा मित्र बोला-इतना भी नहीं जानते? सुई ने कोई बुरा कर्म किया था पूर्वभव में, इसलिए वह पानी में डूब जाती है और जहाज ने कुछ अच्छे कर्म किए थे, इसलिए यह पानी में तैर जाता है। यह सब कर्म का ही चमत्कार है। हम कर्म की सीमा को नहीं जानते इसीलिए प्रत्येक बीमारी, मृत्यु और अन्यान्य निमित्तों के साथ कर्म का सम्बन्ध जोड़ देते हैं। कर्म के द्वारा भी कुछ होता है. यह यथार्थ है, पर सब कुछ कर्म के द्वारा ही 210 कर्मवाद Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, यह मिथ्या है। यदि सब कुछ कर्म के द्वारा ही होगा तो कर्म इतना व्यापक बन जाएगा कि उसकी कोई सीमा नहीं रहेगी। फिर पुरुषार्थ का क्या होगा? फिर काल, स्वभाव और नियति का क्या प्रयोजन होगा? पुरुषार्थ आदि का अपना-अपना प्रभाव है, अपना-अपना कार्य है। वे सब व्यर्थ हो जाएंगे। ध्यान करने वाले यह सोच लें कि अच्छा कर्म किया था, इसलिए ध्यान-साधना में आ गए तो यह भ्रान्ति होगी। कर्म ध्यान का साधक नहीं, बाधक बन सकता है। कर्म ध्यान में विघ्न उपस्थित कर सकता है। ध्यान करने या कराने में सहयोग देना कर्म का कार्य नहीं है। ___ हमें चेतना और कर्म की सीमा का पूरा अवबोध करना चाहिए। चैतन्य की अपनी सीमा है और कर्म की अपनी सीमा है। चैतन्य की दो धाराएं हैं। एक है राग-द्वेष की धारा और दूसरी है निर्मल चैतन्य की धारा। जहां राग-द्वेष की धारा है, वहां उसके साथ कर्म का सम्बन्ध खोजा जा सकता है। जहां निर्मल चेतना की धारा है, वहां कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं होता। - ध्यान करने का प्रयोजन है-वर्तमान क्षण का अनुभव करना। वर्तमान क्षण का अनुभव राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव है। जब हम राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव करते हैं उस समय कर्म का योग नहीं होता, कर्म का बंध नहीं होता। उस समय हम कर्म से अतीत रहते हैं, उस समय केवल द्रष्टाभाव, ज्ञाताभाव बना रहता है। जहां केवल जानना, केवल देखना होता है, वहां कर्म का संबंध नहीं होता। यह केवल जानना, केवल देखना कर्म के द्वारा नहीं होता, कर्म से अलग होने पर होता है। यह शुद्ध चेतना का प्रयोग है। इसे दार्शनिक भाषा में पारिणमिक भाव कहा जाता है। यह चेतना का परिणमन है, जिसके साथ कर्म का कोई. सम्बन्ध नहीं है। जब-जब मनुष्य राग-द्वेष के भाव में जाता है, उस समय राग-द्वेष से जुड़ा हुआ चित्त चैतसिक कर्म बन जाता है और जब-जब मनुष्य चैतसिक कर्म में होता है, उस समय कुछ परमाणुओं का संग्रहण होता है। कुछ परमाणु हमारे साथ जुड़ जाते है, हमारे सूक्ष्मतर शरीर के साथ अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 211 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुड़ जाते हैं। वे पौद्गलिक या पारिमाणिक कर्म बन जाते हैं। हम इन दोनों प्रकार के कर्मों से जुड़े हुए हैं। इस स्थिति में एक नियम बन गया कि जहां चैतसिक कर्म है, राग-द्वेष-युक्त चैतन्य है, वहां परमाणुओं का संग्रहण होगा। वे कर्म परमाणु उस राग-द्वेष के अनुरूप ही अपना परिणाम प्रकट करेंगे। इस सिद्धान्त से कुछ बातें खोजी जा सकती हैं, कुछ घटनाओं को समझा जा सकता है। ___मुनि स्कंधक बहुत बड़े तपस्वी संत थे। किसी कारणवश उनके शरीर की सारी चमड़ी को उधेड़ दिया गया। मुनि उस अत्यन्त वेदनामय स्थिति में भी समभाव में रहे। इस घटना का विश्लेषण किया गया। यह प्रश्न उठा कि ऐसा क्यों हुआ? मुनि के शरीर की चमड़ी क्यों उधेड़ी गई? इसके संबंध-सूत्र की खोज प्रारम्भ हुई। उस खोज में यह ज्ञात हुआ कि स्कंधक अपने पूर्वभव के 'काचर' छील रहे थे। उन्होंने काचर को इतनी निपुणता से छीला कि उसका छिलका संलग्न रूप से उतर गया। वे अपनी इस निपुणता को सराहने लगे। अपनी निपुणता के प्रति इतनी मूर्छा और आसक्ति हो गई कि वे अपनी दक्षता पर फूले नहीं समाए। आसक्ति तीव्र होती गई। उस तीव्र आसक्ति ने इस प्रकार के चित्र का निर्माण किया, जिसने सघन और जटिल परमाणुओं का आकर्षण कर लिया। वे कर्म परमाणु जब विपाक में आए तब स्कंधक के शरीर की चमड़ी उधेड़ दी गई। इस सम्बन्ध-सूत्र की खोज में कर्म तक पहुंचा गया। कर्म के तीन प्रकार हैं-चित्त का कर्म, घटना का कर्म और परमाणु का कर्म। चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं-तीव्र, मध्यम और मन्द। चित्त में राग-द्वेष तीव्र होता है, मध्यम होता है और मंद होता है। एक आदमी अत्यन्त तीव्र आसक्ति से प्रवृत्ति करता है। वह उसके चित्त की तीव्र अवस्था है। एक आदमी जीवन-यापन के लिए नानाविध प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। न उसमें तीव्र आसक्ति है और न राग-द्वेष। वह केवल जीवन चलाने के लिए प्रवृत्ति करता है वह उसके चित्त की मंद अवस्था है। एक आदमी प्रवृत्ति करता है। और कभी-कभी उसकी सराहना भी कर देता है। उसकी प्रवृत्ति में कुछ आसक्ति रहती है और कुछ अनासक्ति। वह उसके चित्त 212 कर्मवाद Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मध्यम अवस्था है। घटना में कोई अन्तर नहीं आता। घटना एक ही होती है पर उसके साथ चित्त की वृत्तियां भिन्न-भिन्न बन जाती हैं। उन वृत्तियों के आधार पर कर्म परमाणुओं का संग्रहण भी निम्न प्रकार का होता है। ____ जब मन्द चित्त से कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है, वह अल्प और अल्पविपाकी होता है। वे कर्म परमाणु अन्य शक्ति वाले होते हैं। . जब तीव्र चित्त से कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है, तब वह आकर्षण सघन और बहु-विपाकी होता है। उनका संश्लेष गाढ़ होता है और वे तीव्र विस्फोट करने में समर्थ होते हैं। ___ स्कंधक ने काचर छीला और बाद में उनकी चमड़ी उधेड़ी गई। पर दुनिया में काचर को न जाने कितने लोग छीलते हैं, पर किन-किन की चमड़ी उधेड़ी जाएगी? घटना का प्रश्न नहीं है, काचर का प्रश्न नहीं है, सबसे बड़ा प्रश्न है हिंसा का। यह जरूरी नहीं है कि काचर का छिलका उतारने वाले की चमड़ी छीली जाए, मारने वाले को मारा जाए। यह अनिवार्यता सदा नहीं बनती, कभी-कभी बनती है। हिंसा करने वाला, हत्या करने वाला यदि तीव्र आसक्ति से हिंसा-चित्त का निर्माण करता है तो उसकी भी वही गति है। छाल उतारने वाले की चमड़ी उधेड़ी. जाती है। व्याख्या में बहुत अन्तर आएगा। सामान्यतः कहा जाता है, किसी का तुमने ऋण दबाया होगा, इसलिए तुम्हारा ऋण कोई दूसरा दबा रहा है। तुमने किसी के लड़के को मारा होगा, किसी के घर चोरी की होगी, किसी के घर डाका डाला होगा, इसीलिए तुम्हारे लड़के को किसी ने मार डाला, किसी ने तुम्हारे घर चोरी की, किसी ने तुम्हारे घर डाका डाला। ऐसा कोई नियम नहीं है। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। तीव्र अध्यवसाय से किया जाने वाला कर्म उसी रूप में परिणत होता है। मध्यम और मंद परिणाम से जो प्रवृत्ति की जाती है, कर्म किया जाता है, तो जरूरी नहीं है कि वैसा का वैसा फिर घटित होगा। जब प्रवृत्ति के साथ तीव्र चित्त का निर्माण हो जाता है तो वैसा भी घटित हो सकता है। इस प्रसंग में जीवन का एक रहस्य उद्घाटित होता है। कर्म आदमी __ अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 213 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कब और कैसे करना चाहिए? कर्म का अर्थ है--प्रवृत्ति। प्रवृत्ति तब करनी चाहिए जब अनिवार्यता हो / अनेक लोग इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि प्रतिपल कर्म प्रवृत्ति करते रहना चाहिए। कोई-न-कोई काम करते रहना चाहिए। हम इस बात से सहमत नहीं हैं। काम या प्रवृत्ति हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए। काम प्रयोजन की निष्पत्ति है। काम उतना हो जितनी अनिवार्यता है। आज काम अनेक प्रकार के हो गए हैं। सिनेमा का टी. वी. देखना भी एक काम है, तांश-चौपड़ खेलना भी एक काम है। यह काम तो हो सकता है पर हमारा उद्देश्य नहीं हो सकता। काम आवश्यकता से जुड़ा होना चाहिए। आवश्यकता की पूर्ति के लिए काम। यह है काम का उद्देश्य। ___ दो प्रश्न हैं। पहला प्रश्न है-कार्य कब करना चाहिए? जब आवश्यकता हो तब कार्य करना चाहिए। दूसरा प्रश्न है-कार्य क्यों करना चाहिए? कार्य जीवन-यात्रा को चलाने के लिए करना चाहिए। प्रवृत्ति के बिना जीवन-यात्रा नहीं चलती, इसलिए प्रवृत्ति करनी होती है। ये दो उद्देश्य हो सकते हैं। तीसरा प्रश्न है-कर्म कैसे करना चाहिए? यह भी महत्त्वपूर्ण बात है। यहां भी अध्यात्मवाद या कर्मवाद का रहस्य उद्घाटित होता है। जिस व्यक्ति ने कर्मवाद को नहीं समझा, उसने अध्यात्म को नहीं समझा। जिसने अध्यात्म को नहीं समझा, उसने कर्मवाद को नहीं समझा। दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। अध्यात्मवाद का रहस्य है कि कर्म राग-द्वेष-रहित भाव से होना चाहिए। राग-द्वेष जितना मंद हो सके, उतना करना चाहिए, उससे जो कर्मबंध होगा वह मंद होगा। कर्म के साथ जुड़ा हुआ है प्रतिकर्म अर्थात् कर्म का बंध। शास्त्रकार कहते हैं उल्लो सुक्को य दो छूटा, गोलिया मट्टिया मया / दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई // मिट्टी के दो गोले हैं। एक है गीला और दूसरा है सूखा। गीली मिट्टी का गोला भीत पर फेंकने से वहां चिपक जाता है और सूखा गोला भींत पर लगकर जमीन पर आ गिरता है। जिस प्रवृत्ति के साथ 214 कर्मवाद Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-द्वेष की तीव्रता होती है, वहां मिट्टी गीली हो जाती है और वह भीत पर चिपक जाती है। उससे कर्मबंध तीव्र होता है। जिस प्रवृत्ति के साथ राग-द्वेष मंद होता है, वही मिट्टी सूखी होती है। वह भींत पर चिपकती नहीं, उससे कर्मबंध मंद होता है। कर्म-परमाणु आते हैं, आत्म-प्रदेशों का स्पर्श कर झड़ जाते हैं। ___ कर्म कैसे करना चाहिए, यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है और इससे अध्यात्मवाद ध्यान का सही मार्ग उद्घाटित होता है। यदि ध्यान के द्वारा हमारी प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन न आए, कर्म की धारा न बदले, कैसे करें-यह सिद्धांत फलित न हो तो ध्यान करने का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। केवल आंखें मूंदकर बैठ जाना, कुछ क्षणों तक शान्ति या विश्राम का अनुभव कर लेना-इतना ही पर्याप्त नहीं है। ध्यान की निष्पत्ति है-'कर्म कैसे करें' की अनुभूति। आज उद्योग के क्षेत्र में. 'Know How' का सिद्धान्त आ गया है। उसी के आधार पर एक उद्योगपति रोज नये-नये उद्योग स्थापित करता है, जिससे कि पहले के उद्योगों को पोषण मिल सके। कर्म कैसे करें-यह भी अध्यात्मवाद का 'नो हाउ' का सिद्धान्त है। जब तक यह नहीं जाना जाता, तब तक ध्यान करने की भी सार्थकता नहीं होती। ध्यान की सार्थकता तभी होती है, जब हमें यह बोध हो जाता है कि हम प्रवृत्ति करें तो कैसे करें? प्रवृत्ति के साथ राग-द्वेष की धारा अत्यन्त मंद हो। राग-द्वेष रहे ही नहीं, यह तभी सम्भव है, जब व्यक्ति वीतराग बन जाता है। जब तक वह वीतराग नहीं बनता, तब तक राग-द्वेष सर्वथा क्षीण नहीं होता, मंद अवश्य हो सकता है। जब राग-द्वेष मंद होता है, तब कर्म का दोष भी मंद हो जाता है। बहुत सारे लोग इस बात को नहीं जानते। . स्कंधक ने काचर को छीला, इसलिए चमड़ी उधेड़ी गई। यह मूल बात नहीं है। लोगों ने केवल स्थूल बात पकड़ी है। मूल छिपा रहता है गहराई में। व्यक्त होता है फूल और पत्ता। स्कंधक ने काचर को छीला, उसका परिणाम नहीं था कि उनकी चमड़ी उधेड़ी गई। परिणाम इसलिए आया कि काचर कैसे छीला? किस दक्षता से छीला? कैसे के अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 215 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही राग-द्वेष की तीव्रता, मंदता का अनुमान होता है और उसी के आधार पर कर्मबंध होता है। कैसे खाएं? कैसे चलें? कैसे बोलें? कैसे बैठे? कैसे सोएं? यही तो महत्त्वपूर्ण होता है। कैसे का फलित है भावक्रिया। जो कार्य किया जाए, उसी में तन्मय हो जाना। चलते समय केवल चलें, और कुछ न करें, यह है कैसे चलें का कर्म। इसी प्रकार समस्त क्रियाओं के साथ भावक्रिया होनी चाहिए। चलते समय शरीर चले, मन न चले। यह है गमनयोग। विषण्णयोग पद्मासन आदि की मुद्रा में किया जाता है। खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना स्थानयोग है। गमनयोग है चलते-चलते ध्यान करने की उत्कृष्ट स्थिति। इसमें शरीर चल रहा होता है, मन स्थिर रहता है। ध्यान से दो बातें स्पष्ट रूप से सीख ली जाती हैं-कब करना, क्यों करना? तीसरी बात है-कैसे करना? जब यह तीसरी बात समझ में आ जाती है, तब जानना चाहिए कि ध्यान निष्पन्न हो रहा है, ध्यान फलित हो रहा है। जो बीज बोया था, वह अब पौधा बन रहा है, पेड़ बनकर फल दे रहा है। ध्यान के सन्दर्भ में हम कर्मवाद की चर्चा कर रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण सूत्र हमारे पास है कि ध्यान से हमारी चेतना सूक्ष्म बने, चित्त और मन की स्थूलता मिटे। मन सूक्ष्म बने, चित्त सूक्ष्म बने, वाक् सूक्ष्म बने और हम सूक्ष्म सत्य के नियमों को पकड़ सकें। उन नियमों के आधार पर हम अतीत को व्याख्यायित कर सकते हैं और भविष्य को जान सकते हैं। आत्म-निरीक्षण के क्षणों में प्रत्येक व्यक्ति अपने अतीत को पढ़ सकता है और भविष्य को जान सकता है। वह जान सकता है कि अतीत में मैं क्या था और भविष्य में मरकर क्या होऊंगा? जिस व्यक्ति ने अपने चित्त को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया, उसने अपने भावी जीवन को देखना प्रारम्भ कर दिया। वह चैतसिक कर्म अथवा आस्रव को पढ़ना प्रारम्भ कर देता है। अतीत और भविष्य-दोनों के चित्र जब उद्घाटित होते हैं, तब वर्तमान की घटनाओं का अच्छा विश्लेषण किया जा सकता है। उस स्थिति में दूसरों पर दोषारोपण करने की बात समाप्त हो जाती है। फिर व्यक्ति घटना के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानने 216 कर्मवाद Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग जाता है। जब घटना घटित होती है तब वह यह नहीं कहता कि अमुक-अमुक इसके लिए उत्तरदायी हैं, पर वह कहता है, मैं ही इसका उत्तरदायी हूं। दीपक जल रहा है। हवा का झोंका आया। दीपक बुझ गया। तेल भी समाप्त हो चुका था। पर सारा दोष हवा को दिया जाएगा। कहा जाएगा-हवा का झोंका आया और दीपक बुझ गया। यह निमित्त पर दोष देने की बात है। ध्यान के द्वारा जिसकी चेतना जाग जाती है, वह व्यक्ति पहले उपादान को देखता है, फिर निमित्त पर ध्यान देता है। वह निमित्तदर्शी नहीं, उपादानदर्शी बन जाता है। यह हमारी चेतना का आध्यात्मिक विकास है। जिस व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना जाग जाती है, वह उपादान की दृष्टि को प्राप्त हो जाता है। वह निमित्त को गौण मानकर देखता है। ... अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 217 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद-चिह्न रह जाते हैं ध्यान के साथ बदलने की बात जुड़ी हुई है। पूरी साधना और कर्म की आराधना के साथ बदलने का क्रम होता है। यदि ध्यान और धर्म की आराधना के द्वारा परिवर्तन घटित न हो, व्यक्ति न बदले तब वह ध्यान और धर्म की आराधना मात्र एक मनोरंजन बन जाती है। बदलना व्यक्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। व्यक्तित्व के निर्माण का अर्थ है कि जो अवांछनीय तत्त्व हैं, वे जीवन से निकल जाएं और जो वांछनीय तत्त्व हैं, वे जीवन में आएं यह है जीवन का निर्माण। हर व्यक्ति बहुत बड़े खजाने को साथ लेकर चलता है। जब आदमी चलता है, तब कोरा शरीर ही नहीं चलता, उसके साथ मन भी चलता है और इंद्रियां भी चलती हैं। मन और इन्द्रियां ही नहीं, बहुत बड़ा भण्डार चलता है। उस भण्डार के तीन मुख्य घटक हैं-संस्कार, वासनाएं और धारणाएं। कर्मशास्त्र की भाषा में कहें तो वह है कर्म का भण्डार। इतना बड़ा खजाना है कि चेतना के एक-एक अणु पर अनन्त-अनन्त परमाणु लगे हुए हैं। आनुवंशिकी विज्ञान के अनुसार प्रत्येक जीव में लाखों-लाखों संस्कार होते हैं। किन्तु कर्मशास्त्र के अनुसार चैतन्य के एक अणु पर अनन्त-अनन्त कर्म परमाणु और असंख्य संस्कार संलग्न हैं। इतना बड़ा भण्डार हमारे भीतर है। जब इतना बड़ा भण्डार साथ में चलता है, कितना भार होगा व्यक्ति के सिर पर, नहीं कहा जा सकता। आश्चर्य होता है कि आदमी इतना बोझ कैसे ढो रहा है? इतना बोझ न गधा ढो सकता है, न ऊंट और न हाथी ढो सकता है। आज का कोई वाहन इतना बोझ ढोने में समर्थ नहीं। पर आदमी का मस्तिष्क 218 कर्मवाद Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना बोझ ढो रहा है, फिर सिर भारी न हो, तनावग्रस्त न हो तो आश्चर्य मानना चाहिए। दो प्रकार का भार है। एक है धारणा का भार और दूसरा है संस्कार का भार। धारणा ज्ञानात्मक होती है। यह ज्ञन की प्रक्रिया है। कोई वस्तु सामने आयी। उसका ग्रहण हुआ। उस विषय में ऊहा और तर्क चला। एक निश्चय पर पहुंच गया। निश्चय के बाद फिर धारणा बन जाती है। धारणा का अर्थ है-स्मृतिचिह। जो बात धारणा में आ गई, अविच्युति में चली गई, उसकी स्मृति हो सकती है। तर्कशास्त्र के अनुसार धारणा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान है स्मृति। धारणा को स्मृतिचिह्न कहा जाता है। स्मृतिचिह्न होता है तब स्मृति होती है। यह ज्ञान की एक श्रृंखला है, एक क्रम है, यह ज्ञानात्मक स्मृतिचिह्न है। धारणा में होने वाला ज्ञान प्रबुद्ध हो जाता है। आदमी में कितनी-कितनी धारणाएं हैं। आदमी सुनता है, खाता है, देखता है, पढ़ता है, अनुभव करता है। इनके आधार पर हजारों-हजारों धारणाएं बनती हैं। किसी को देखने से मन में प्रेम उत्पन्न हो जाता है, किसी को देखने से मन में द्वेष उत्पन्न हो जाता है, किसी को देखने से विनम्रता की भावना जागती है और किसी को देखने से अहंकार जाग उठता है। विनम्रता, उद्दण्डता, प्रेम का प्रदर्शन और क्रोध का प्रदर्शन-ये सारे व्यवहार हैं। ये सब सहेतुक हैं। निर्हेतुक कुछ भी नहीं होता। प्रत्येक व्यवहार के पीछे एक धारणा होती हैं जैसी धारणा होती है, वैसा ही व्यवहार होता है। एक ही घटना, एक ही वस्तु और एक ही व्यक्ति के आस-पास अनेक अभिव्यक्तियां हो जाती हैं। जिसके साथ जैसी धारणा जुड़ी हुई होती है, वैसा ही व्यवहार और आचरण होता है। उस वस्तु या व्यक्ति के प्रत्यक्ष होने पर धारणा उभर आती है और फिर व्यक्ति वैसा ही व्यवहार करने के लिए बाध्य हो जाता है। यह है हमारी ज्ञानात्मक धारणा। . दूसरा भार है-संस्कार। धारणा और संस्कार में अधिक अन्तर नहीं है। धारणा है ज्ञानात्मक संस्कार और संस्कार है कर्मगत संस्कार। इसे कर्मशास्त्र की भाषा में बंध कहा जाता है। व्यक्ति का आचरण रागात्मक ... अथवा द्वेषात्मक होता है। उसी प्रकार परमाणुओं का एक संग्रह हो जाता पद-चिह्न रह जाते हैं 216 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। एक भण्डार भर जाता है। जब तक यह भण्डार केवल सत्ताकाल में रहता है, संचितकाल में रहता है, तब तक यह परिणाम नहीं देता। यह धारणा या संस्कार मात्र बना रहता है। यह अस्तित्वकालीन अवस्था है। किन्तु जैसे ही उद्दीपनों, निमित्तों का सहयोग मिलता है, तब वह संस्कार जाग जाता है। तब बंधा हुआ कर्म विपाक में आता है, उदयकाल में आता है और परिणाम देने लगता है। उस समय व्यक्ति की स्थितियां बदलने लगती हैं। जिस प्रकार का क्रम उदय में आया, वैसी ही स्थिति बन जाती है। यह दूसरा पदचिह्न है, या कर्मचिह्न है जो प्रबुद्ध होकर . व्यक्ति को प्रभावित करता है। ___व्यक्तित्व के निर्माण में दो प्रकार के तत्त्व कार्य करते हैं-बाह्य और आन्तरिक। देश, काल, परिस्थिति और वातावरण-ये व्यक्तित्व-निर्माण के बाह्य घटक हैं। जीन, आनुवंशिकता और कर्म-संस्कार-यह आन्तरिक घटक हैं। ये दोनों-बाह्य और आन्तरिकं-उद्दीपक तत्त्व हमारे साथ-साथ चलते हैं। इनसे घिरा हुआ आदमी अपने आपको कैसे बनाए? क्या बनाए? यह समस्या बहुत टेढ़ी है, जटिल है। इसीलिए कुछ प्रश्न आज उभरे हैं। ये प्रश्न आज के नहीं, हजारों-हजारों वर्षों से उभरते आ रहे हैं कि ज्ञान और आचरण तथा कथनी और करनी के बीच इतनी दूरी क्यों है? इस प्रश्न का आज तक समाधान नहीं हो सका। इतने प्रयत्नों के उपरान्त भी यह प्रश्न आज भी वैसे ही खड़ा है। आदमी इस खाई को पाटने में सक्षम नहीं हो पाया है। यदि यह सोचा जाए कि धर्म करने वाला या ध्यान करने वाला इन सारे प्रश्नों को समाहित कर देगा, तो यह भी भ्रान्ति होगी। यदि ऐसा होता तो आज तक ये प्रश्न समाहित हो जाते। एक प्रश्न सामने आया कि धर्म करने वाला बहुत दुःख पाता है और अधर्म करने वाला सुखमय जीवन जीता है। इसका कारण क्या है? महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। प्रश्नकर्ता प्रत्यक्षतः देखता है कि सचाई से चलने वाला, नैतिकता और ईमानदारी से चलने वाला अपने रहने के लिए साधारण-सा घर भी नहीं बना पाता, कार की बात तो दूर है। आधुनिक सुख-सुविधा के साधनों की प्राप्ति की बात दूर है; वह अपने बच्चों 220 कर्मवाद Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को पढ़ाने में भी कठिनाई का अनुभव करता है। जो आदमी बुराई, अनीति और अप्रामाणिकता से काम करता है, उसके पास बंगला है, कार है, सुख-सुविधा के सारे साधन हैं और उसके बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं। तब प्रश्न उभरता है कि यदि धर्म करने का यही परिणाम रहेगा तो धर्म के प्रति आकर्षण कैसे रहेगा? सारा आकर्षण जाएगा अधर्म की ओर, अन्याय और अप्रामाणिकता की ओर। व्यक्ति के मन में भावना उभरेगी कि जिसने नीति का अतिक्रमण किया, वह सुखी जीवन जी रहा है और जो धर्म के पीछे पड़ा रहा वह दुःखी जीवन जी रहा है, नौकरी के लिए दर-दर भटक रहा है। उसे कोई काम नहीं मिलता। प्रामाणिकता से जीवन-यापन करने वाला एक अणुव्रती नौकरी के लिए एक सेठ के यहां गया। सेठ ने उसका परिचय पूछा। उसने कहा-मैं अणुव्रती हूं और प्रामाणिकता से कार्य करने में आस्था रखता हूं। सेठ बोला-देखो, मेरा धंधा कुछ दूसरे प्रकार का है। यहां दो नम्बर के खाते भी रखने होंगे, मिलावट भी करनी होगी। यदि ये सब कार्य तुम कर सकोगे तो मैं तुम्हें अच्छा वेतन दूंगा। तुम सुखी हो जाओगे। वह बोला-सेठ साहब! मैं ये सब अनीति के कार्य नहीं कर सकूँगा। सेठ ने कहा-नमस्ते! घर जाओ और आराम से बैठे रहो। __ ऐसी स्थिति में प्रश्न होना स्वाभाविक होता है कि इस पदार्थवादी दुनिया में, जहां सारे पदार्थवादी दृष्टिकोण से देखते-समझते हैं, वहां आदमी यह सोचने के लिए मजबूर होगा कि धर्म करने वाले की बुरी स्थिति होती है और अधर्म से चलने वाले की अच्छी स्थिति होती है। ऐसी स्थिति में आदमी धर्म को सिर पर लादे फिरता रहे, या उसे उतार फेंके? वह क्या करे? प्रश्न जटिल-सा लगता है, पर जटिल नहीं है। मात्र हमारे चिन्तन का अन्तर है। यह प्रश्न पदार्थ को सामने रखने पर ही तो उत्पन्न हुआ। यह धर्म का प्रश्न धर्म की भूमिका पर उत्पन्न नहीं हुआ है। प्रश्न तो है धर्म का, पर उसकी पृष्ठभूमि है पदार्थ। पदार्थ को सामने रखकर ही यह प्रश्न पैदा हुआ। किसने कहा कि धर्म से धन मिलेगा, पदार्थ मिलेंगे, सुख-सुविधाएं मिलेंगी? यह बड़ी भ्रान्ति है। जिसने इस पृष्ठभूमि पर धर्म को समझा है, उसने धर्म का 'क-ख-ग' भी नहीं जाना पद-चिह्न रह जाते हैं 221 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। धर्म की पृष्ठभूमि है पदार्थ का त्याग। जब पदार्थ का त्याग प्रारम्भ होता है, तब धर्म का प्रारम्भ होता है। धर्म का आदि-बिन्दु है पदार्थ का त्याग और प्रस्तुत प्रश्न खड़ा हुआ है बंगले को देखकर। बहुत सारे लोग यही देखते हैं कि इसने बेईमानी की और आज दस बिल्डिंगें खड़ी कर लीं। इस बेचारे ने ईमानदारी से काम किया और आज किराए के मकान में गुजारा कर रहा है। एक भाई ने कहा-मैं भारत सरकार के एक संस्थान में नौकरी करता हूं। मेरे हाथ में इतने अधिकार हैं कि मैं चाहूं तो अनेक कोठियां खड़ी कर सकता हूं, पर मन नहीं मानता कि ऐसा करूं! यह सारा व्यक्ति की रीति-नीति पर निर्भर करता है। इसे धर्म के साथ जोड़ दिया। कभी-कभी हम आत्म-भ्रान्तियों में बह जाते हैं। हम विरोधाभासी चिन्तन में पलते रहते हैं। धर्म का मानदण्ड बना दिया कोठियों को, सुख सुविधाओं को और कारों को। धर्म के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मवाद के विषय में चर्चा करते समय हम इस प्रश्न पर बहुत गहराई से विचार करें। यह प्रश्न जटिल और उलझाने वाला है। न जाने कितने लोग इस प्रश्न के आधार पर नैतिक आस्था खोकर अनैतिक बन जाते हैं। एक व्यक्ति बहुत प्रामाणिकता के साथ चला और जीवन की संध्या में सोचने लगा-मैं नैतिकता और सचाई पर रहा, इसलिए आज कठिनाइयां झेलनी पड़ रही हैं। अनैतिकता का आचरण करने वाले आज मौज कर रहें हैं। उनके बाल-बच्चे आराम का जीवन जी रहे हैं और मेरे बच्चे दीनता का जीवन जी रहे हैं। नैतिकता, सचाई आदि कुछ नहीं है। इनसे कुछ भी होना जाना नहीं है। वह व्यक्ति जीवन की संध्या में नैतिकता को तिलांजलि देकर, अनैतिकता की शरण में आ गया। ऐसा न जाने कितने लोग करते होंगे। हम यदि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं तो हमें दोनों बातों को पृथक्-पृथक् करना होगा। चेतना और चिन्तन का परिवर्तन करना होगा। आज आदमी ने धर्म के साथ जिन परिणामों को जोड़ रखा है, यदि ये परिणाम धर्म के हैं तो चिन्तन करना होगा। धर्म से यदि धन और मकान मिलता है, सुख-सुविधा के साधन मिलते हैं तो यह प्रश्न 222 कर्मवाद Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित है, महत्त्वपूर्ण है। इस प्रश्न को टाला नहीं जा सकता। धर्म का कार्य यदि पुराने संस्कारों को क्षीण करना, बुराई के संस्कारों को क्षीण करना, चेतना के आवरण को हटाना, मूर्छा और लालसा को मिटाना, भय-क्रोध, अभिमान-माया आदि वृत्तियों का परिष्कार करना, शोधन करना है तो फिर उस प्रश्न की कोई सार्थकता नहीं है। धन आदि उपलब्ध करना धर्म का काम नहीं है। आज आदमी यदि यह सोचता है कि मैंने धर्म किया, नैतिक आचरण किया और घाटे में रह गया तो मानना चाहिए कि आदमी ने धर्म को समझा ही नहीं, धर्म का आचरण किया ही नहीं। धार्मिक व्यक्ति कभी ऐसा सोच ही नहीं सकता। वह सोचता है, मैंने जो धर्म में पाया है, वह अधर्म करने वाला कभी नहीं पा सकता। __ एक संन्यासी काले कपड़े पहनकर गृहस्थ के घर भिक्षा लेने गया। गृहस्थ समझदार था। उसने पूछा-'महात्माजी! काले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?' संन्यासी बोला-'मेरा मित्र मर गया, इसलिए उसके शोक में मैंने काले कपड़े पहने हैं। यह शोक-चिह्न है।' 'आपका मित्र कौन था, क्या मैं जान सकता हूं?' गृहपति ने पूछा। संन्यासी ने कहा-'महाशय! मेरे मित्र थे-काम, क्रोध, भय, लोभ, माया। ये मेरे चिरपरिचित और दीर्घकाल से मेरे साथ रहने वाले मित्र थे। आज उनका अता-पता भी नहीं है। वे सब मुझसे अलग हो गए, मर गए। उनके वियोग में मैंने ये काले कपड़े पहने हैं।' गृहपति ने सोचा, यह कोई धूर्त है। मनुष्य-जीवन हो और काम, क्रोध आदि न हो, ऐसा हो नहीं सकता। यह कोई ठग है। उसने अपने नौकर से कहा-'यह संन्यासी धूर्त है, निकाल दो इसको घर से बाहर। नौकर ने हाथ पकड़कर उसे बाहर कर दिया। संन्यासी आगे बढ़ा। दस-बीस कदम गया होगा कि गृहपति ने पुनः नौकर से कहा-'जाओ, संन्यासी को बुला लाओ। बेचारा भूखा होगा। उसे भोजन तो करा दो। नौकर गया। संन्यासी मुड़ा और घर के दरवाजे पर आ गया। गृहपति ने रोष में कहा-'फिर आ गए! अभी-अभी यहां से निकाला था, फिर आ गए? शर्म नहीं आती!' फिर धक्का देकर निकाल दिया। नौकर को पुनः भेजकर उसे बुलाया। वह आया। फिर'तिरस्कृत कर पद-चिह्न रह जाते हैं 223 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकाल दिया। ऐसा आचरण एक-दो बार नहीं, तीन बार किया। संन्यासी आता गया और तिरस्कृत होकर लौटता गया। अन्त में गृहपति ने संन्यासी से क्षमायाचना करते हुए कहा-'क्षमा करें! मैंने बहुत दुर्व्यवहार किया आपके साथ। मुझे वास्तव में यह प्रतीत हो गया कि आपके चिरपरिचित मित्र मर गए हैं। यदि आपका मित्र क्रोध नहीं मरता तो आप ऐसा व्यवहार कभी नहीं कर पाते। संन्यासी बोला-'महाशय! मैंने कौन-सी बड़ी बात की? आपने बार-बार बुलाया, मैं आ गया। ऐसा तो एक कुत्ता भी करता है। उसे दिन में कितनी बार दुत्कारा जाता है, फिर भी वह आना-जाना नहीं छोड़ता। पर एक फर्क है। जब काम-क्रोध मर जाते हैं, तब आदमी का व्यवहार बदल जाता है, चेतना बदल जाती है। कुत्ते में सत्कार-तिरस्कार की चेतना नहीं होती। उसमें कुछ बदलता नहीं। यह मर्म तुमने नहीं समझा। चेतना में परिवर्तन घटित होना, चेतना को प्रभावित करने वाली कर्मवर्गणा का बदल जाना, उन संस्कारों का क्षीण हो जाना, यह महत्त्वपूर्ण घटना है। हम केवल व्यवहार को देखते हैं, किन्तु व्यवहार के पीछे उसको प्रभावित करने वाली जो चेतना है, उसको नहीं देखते। जब तक वह चेतना नहीं बदलती, संस्कार नहीं बदलते, तब तक उसका कोई प्रभाव नहीं होता। मुझे प्रतीत होता है कि धर्म करने वालों की चेतना अभी बदली नहीं है। यदि चेतना का रूपान्तरण होता है तो यह प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता कि धर्म करने वाला दुःखी होता है और न करने वाला सुखी होता है। ईमानदार आदमी घाटे में रहता है और बेईमान नफे में रहता है। ऐसा प्रश्न कभी उठ नहीं सकता। यह प्रश्न तभी उठता है जब चेतना का रूपान्तरण नहीं होता। हमने धर्म को स्थूल रूप में पकड़ा है, धर्म के मर्म का स्पर्श नहीं किया। धर्म आन्तरिक प्रक्रिया है संस्कारों को क्षीण करने की। ध्यान धर्म का ही एक घटक है। वह शक्तिशाली प्रक्रिया है जिसके द्वारा आन्तरिक चेतना के साथ हमारा सम्पर्क स्थापित होता है और तब कर्म क्षीण होते हैं। ___एक धार्मिक व्यक्ति है। उसके पुत्र का वियोग हो गया। एक धार्मिक व्यक्ति है, उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई। एक धार्मिक महिला है, उसके 224 कर्मवाद Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति का वियोग हो गया। अब धर्म का आचरण करने वालों के मन में प्रश्न खड़ा होता है कि देखो, मैंने इतना धर्म किया, इतना ध्यान किया, सत्संग किया, फिर भी इतनी बड़ी विपत्ति आ गई, इतना भयंकर कष्ट आ गया। फिर अन्तर क्या आया धर्म करने वालों में और धर्म न करने वालों में? बड़ी समस्या है। ऐसा कोई नियम होना चाहिए था कि जो धर्म में नहीं जाएगा, उसके बेटे भी मर सकते हैं, पत्नी भी मर सकती है और दूसरे वियोग भी हो सकते हैं। किन्तु जो व्यक्ति धर्म की शरण में चला जाता है, उसके न पति का वियोग होगा, न पत्नी का वियोग होगा, न पुत्र मरेगा, न बाप मरेगा, कोई वियोग नहीं होगा। यदि ऐसा कोई नियम होता तो कोई भी व्यक्ति अधर्म नहीं करता। कोई अधर्म में नहीं जाता। परन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है। नियम इसलिए नहीं है कि धर्म करने वाले के पास भी पुराना भंडार भरा हुआ है और धर्म न करने वाले के पास भी पुराना भंडार भरा हुआ है। दोनों अतीत के साथ जुड़े हुए हैं। आज जिस व्यक्ति ने धर्म की आराधना शुरू की, क्या उसका अतीत समाप्त हो गया? नहीं, अतीत उसके साथ सदा जुड़ा हुआ रहता है। भविष्य में अन्तर आ सकता है, पर अतीत का भंडार खाली नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति के साथ अनन्त अतीत जुड़ा रहता है। वह एक साथ समाप्त नहीं होता। जब तक वह समाप्त नहीं होता, जुड़ा रहता है, तब तक धर्म करने वाले में और धर्म न करने वाले में कोई अन्तर नहीं होता। केवल वर्तमान के आधार पर चिन्तन करना और निर्णय लेना तथा अतीत को विस्मृति के गर्त में डाल देना, समझदारी नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं सोचते कि हमने आज धर्म की आराधना प्रारम्भ की, ध्यान का प्रयोग शुरू किया, इससे हम अतीत के संस्कारों और बंधनों को कमकर पायेंगे, पर अनन्त अतीत को एक साथ समाप्त कैसे कर देंगे? इस भ्रान्ति को मिटाना चाहिए। इस भ्रान्ति के कारण न जाने कितने लोग मार्गच्युत होकर धर्म और ध्यान के विरोधी बन जाते हैं। अतीत का शोधन करना, अतीत के खजाने को खाली करना, अतीत के बंधन को काट डालना, अतीत के संस्कारों को समाप्त कर देना, यह है धर्म और ध्यान का परिणाम या उद्देश्य / अतीत के पद-चिह्न रह जाते हैं 225 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामों से बच जाना धर्म का उद्देश्य नहीं है। यह हो सकता है कि आज किसी व्यक्ति ने धर्म की आराधना प्रारम्भ की, वह अतीत के प्रति जागरूक बन गया, अतीत में जो भण्डार भरा था, उसके प्रति इतना जागरूक हो गया कि वह उसे प्रभावित कर सकेगा। अतीत के संस्कारों के उदय में उसने एक रुकावट पैदा कर दी। धर्म की आराधना का अर्थ है वर्तमान के प्रति जागरूक रहना। वर्तमान में जागरूक रहने वाला व्यक्ति एक प्रतिरक्षा पंक्ति खड़ी कर देता है और तब वह अतीत के संस्कारों के प्रभाव से बच जाता है। शरीर रोग से बचता है तो वह दवाइयों से नहीं बचता। वह अपनी प्रतिरक्षा पंक्ति से बचता है। हमारे शरीर में एक प्रतिरक्षा पंक्ति है, जो रोग के कीटाणुओं से लड़ती रहती है। पूरा शरीर रोग के कीटाणुओं में भरा पड़ा है। वे उसी में पल रहे हैं, पुष्ट हो रहे हैं। फिर प्रश्न होता है कि आदमी स्वस्थ कैसे रह पाता है? शरीर में कीटाणु हैं, फिर भी हम स्वस्थ इसलिए रह पाते हैं कि शरीर में प्रतिरोधात्मक शक्ति होती है। वह एण्टीबॉडी है। वह प्रतिशरीर रोग से बचाता है, कीटाणुओं को समाप्त करता है। उनके आक्रमण को विफल बना देता है। यदि यह प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं होती, यदि यह प्रतिशरीर की प्रक्रिया नहीं होती तो कभी आदमी बिस्तर को छोड़ ही नहीं सकता। हम ध्यान का प्रयोग करते हैं, धर्म की आराधना करते हैं तो इसका अर्थ है कि हम संस्कार के सामने प्रतिसंस्कार पैदा कर रहे हैं। जो कर्म का खजाना हमें प्रभावित करता है, जो संस्कार हमें प्रभावित कर रहे हैं, उनके समक्ष ऐसी प्रतिरोधात्मक पंक्ति खड़ी कर देते हैं कि हम संस्कारों के प्रहारों से बच जाते हैं। यह है धर्म का परिणाम और ध्यान का परिणाम। हम इस तथ्य को विस्मृत कर कह देते हैं कि धार्मिक जीवन में वह विपत्ति क्यों आयी? अरे, धार्मिक कौन-सा बड़ा आदमी है? ध्यान करने वाला कौन-सी तीसरी दुनिया से आया हुआ है? आज धर्म करने वाला या ध्यान करने वाला भी अतीत से बंधा हुआ है। न जाने अतीत में उसने क्या-क्या किया था! अपराध का चित्त उसमें विद्यमान था। कितने लोगों के जीवन में उसने कितने प्रकार के विघ्न पैदा किए थे। बाधाएं डाली थीं। आज यदि उसके जीवन 226 कर्मवाद Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विघ्न-बाधाएं आती हैं तो वह कहता है, मैं अच्छा काम करना चाहता था, पर विघ्न आ गया। अरे, तुम अपने अतीत को देखो। तुमने कितने विघ्न किए थे, कितनी अन्तराय पैदा की थी? उन सबका परिणाम आज तुम्हें भुगतना पड़ रहा है। ____ आदमी अच्छे काम प्रारम्भ करता है तो हजारों विघ्न सामने आकर खड़े हो जाते हैं। बुरे काम करो, अवरोध पैदा करने वाले कम मिलेंगे। अच्छे काम करो, अवरोध पैदा करने वाले एकत्रित हो जाएंगे। ऐसा होता है। यह संसार का क्रम है। ___हमारे संघ की घटना है। लगभग पचास वर्ष पूर्व उदयपुर के संभ्रान्त परिवार का एक दस वर्षीय बालक दीक्षित होने जा रहा था। सारे नगर में दीक्षा की बात फैल गई। हर्ष के साथ-साथ लोगों में विरोध भी उभर गया। बाजार में सब्जियां बेचने वाली औरतों ने भी विरोध के स्वर में स्वर मिला दिया। विरोध से पूर्व किसी को यह ज्ञात भी नहीं था कि वह बालक उदयपुर में बस रहा है, जी रहा है। किन्तु जब दीक्षा के लिए वह तैयार हुआ तब विरोध का स्वर प्रबल हुआ और एक कोने में अज्ञात बालक सारे नगर में ज्ञात हो गया। विरोध करने वालों का उस बालक से न कोई पारिवारिक संबंध था और न कोई लेन-देन का सम्बन्ध और न कोई व्यावसायिक सम्बन्ध ही था। फिर भी उनका विरोध था कि वह दीक्षित न हो। ऐसी स्थितियों की कोई तर्क-संगत व्याख्या नहीं हो सकती। इससे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि जहां अच्छाई की बात आती है, वहां अवरोध पैदा होता है। ध्यान करने वाले व्यक्ति में जब विपत्ति आती है, जब उसे सोचना चाहिए कि मैंने अतीत में न जाने कितने अवरोध पैदा किए होंगे, दीवारें खड़ी की होंगी कि उनका परिणाम आज मुझे भुगतना पड़ रहा है। आदमी में मूर्छा का चित्त, आवरण का चित्त, अन्तराय का चित्त होता है। ऐसी स्थिति में कैसे कल्पना की जाए कि अतीत का परिणाम न आए, धार्मिक व्यक्ति में विपत्ति न आए? यदि ऐसा चिन्तन किया जाता है तो यह सचाई पर पर्दा डालने जैसी बात होती है। ऐसे चिन्तन से धर्म और ध्यान के प्रति विमुखता का भाव पैदा होता है। चिन्तन यह होना चाहिए पद-चिह्न रह जाते हैं 227 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वर्तमान में मैं जागरूक होता हूं, ध्यान का प्रयोग करता हूं तो इसका अर्थ होगा कि भविष्य में अन्तराय, आवरण और मूर्छा के कारण जो मैंने संचित किए हैं, उन्हें भुगतना होगा और यदि वर्तमान की प्रक्रिया तीव्र होगी तो उन संस्कारों को क्षीण करने की शक्ति भी पैदा हो जाएगी। किन्तु वर्तमान में आने वाली घटना के आधार पर हम कोई भी निर्णय लेते हैं तो निर्णय यथार्थ नहीं हो सकता, वह धर्म के प्रतिकूल होगा, मिथ्या दृष्टिकोण होगा। इस सन्दर्भ में एक प्रश्न आता है कि तब वर्तमान में क्या होना चाहिए? यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। इसका उत्तर इतना ही है कि वर्तमान में जागरूकता बढ़नी चाहिए। ध्यान करने वाले व्यक्ति में घटना और उसके परिणाम के संवेदन का अन्तर स्पष्ट होना चाहिए। यह है वर्तमान की जागरूकता। ___ बच्चा घटना और परिणाम में स्पष्ट फर्क नहीं कर सकता, क्योंकि वह अजान है। मां इधर-उधर कुछ ढूंढ़ रही थी। बच्चे ने पूछा- 'मम्मी! क्या खोज रही हो?' वह बोली-'डॉक्टर का बिल खोज रही हूं।' बच्चा बोला-'डॉक्टर का बिल मैं नहीं जानता। चूहे का बिल इस कोने में है।' बच्चे के लिए डॉक्टर के बिल और चूहे के बिल में कोई अन्तर नहीं होता। जब तक व्यक्ति की धारणाएं या मान्यताएं स्पष्ट नहीं होती, तब तक डॉक्टर का बिल चूहे का बिल ही बना रहता है। हमारी धारणा स्पष्ट होनी चाहिए कि धर्म और ध्यान करने वाले और न करने वाले व्यक्ति में क्या अन्तर होता है। जो व्यक्ति धर्म और ध्यान का प्रयोग करता है, वह घटना के घटित हो जाने पर भी संवेदन से नहीं भरता और जो धर्म और ध्यान का प्रयोग नहीं करता, वह घटना के साथ बह जाता है, संवेदना से भर जाता है। घटना और संवेदन-दोनों पृथक्-पृथक् बातें हैं। एक व्यक्ति के पास लक्षपाक तैल था। उसका निर्माण लाख औषधियों के मिश्रण से होता है। वह बहुमूल्य होता है और उसका मिलना भी बहुत दुर्लभ है। नौकर ने उस तैल भरे मर्तबान को उठाया। 228 कर्मवाद Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह हाथ से फिसला और फूट गया। इतना बहुमूल्य तैल! मालिक शान्त था। घटना उसके सामने घटित हुई पर उसको कोई संवेदन नहीं हुआ। . ___ एक व्यक्ति कांच के गिलास में दूध पी रहा था। गिलास हाथ से छूटा और चूर-चूर हो गया। दूध गया, गिलास गया। उस गिलास से टूटने की झंकार एक घंटे तक होती रही। मालकिन उस व्यक्ति को खरा-खोटा सुनाती रही। ___लक्षपाक तैल का बर्तन फूटा। एक मिनट में झंकार बन्द हो गई। कांच का गिलास फूटा और झंकार एक घंटे तक होती रही। एक में संवेदन नहीं था, इसलिए झंकार नहीं हुई। एक में संवेदन की अधिकता रही, इसलिए झंकार होती रही। . धर्म की आराधना और ध्यान करने वाले व्यक्ति में अन्तर यह आता है कि वह घटना से प्रभावित नहीं होता। वह घटना को जान जाता है, पर संवेदन में नहीं बहता। जिसका ज्ञान जाग जाता है, उसका संवेदन सो जाता है। जिसमें ज्ञान सुप्त होता है, उसका संवेदन जाग जाता है। हम पदार्थ की उपलब्धि के साथ ध्यान को न तोलें। पदार्थ को सामने रखकर ध्यान की कसौटी न करें। धर्म को नीचे स्तर पर घसीटकर न ले जाएं। धर्म महान् तत्त्व है। धर्म और ध्यान की आराधना के द्वारा चेतना में महान् परिवर्तन घटित होता है। जैसे-जैसे धर्म की चेतना जागती है, वैसे-वैसे संवेदन की चेतना कम होती जाती है, सुखी होने की या दुःखी होने की चेतना कम होती जाती है। जैसे-जैसे धर्म और ध्यान की चेतना सुप्त रहती है, वैसे-वैसे चारों ओर दुःख की संवेदना जाग जाती है। वैसे लोग चाहे अरबपति भी क्यों न हों, थोड़े से नुकसान से तिलमिला जाते हैं। सौ रुपये खोने मात्र से उनकी नींद हराम हो जाती है। ध्यान का काम घटना को बदलना नहीं है। उसका काम है घटना से होने वाली संवेदना की चेतना को रूपान्तरित कर देना, बदल देना। यदि हम इस सचाई को समझ लेते हैं तो ध्यान की सार्थकता होती है, श्रम की सार्थकता होती है, कर्म के संस्कार क्षीण होते हैं और एक नयी चेतना का जागरण होता है। पद-चिह्न रह जाते हैं 226 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे कोई, भोगे कोई एक भाई ने पूछा-आनुवंशिकता के कारण बच्चों में अनेक रोग संक्रांत होते हैं। यह बड़ी अजीब बात है। अपराध दूसरे का और उसका परिणाम भुगतना पड़ता है संतान को। यह क्यों? ___यह प्रश्न कर्मवाद के सम्बन्ध में भी हो सकता है। लोग पूछते हैं, कर्म वैयक्तिक होता है या सामाजिक? जो कर्म सामाजिक होता है, उसका संक्रमण होता है। वैयक्तिक कर्म का संक्रमण नहीं होता। वैयक्तिकता और सामाजिकता के बीच में एक भेद-देखा है और वह है संक्रमण होना, विनिमय होना या संक्रमण न होना, विनिमय न होना। सामाजिकता में संक्रमण होता है, विनिमय होता है। जो व्यतिगत विशेषता है, चैतन्य है, उसमें न संक्रमण होता है और न विनिमय होता है। संवेदन व्यक्तिगत होता है, इसलिए उसमें न वह संक्रान्त होता है और न उसमें विनिमय होता है। प्रश्न होता है-क्या कर्म वैयक्तिक है या सामाजिक? क्या ऐसा होता है कि कर्म करे कोई और भोगे कोई? कर्मवाद का एक सिद्धान्त है, एक नियम है कि जो कर्म करता है वही उसे भोगता है। किन्तु इसके विपरीत भी देखा जाता है कि एक व्यक्ति धर्म-कर्म करता है और समूचे समाज और राष्ट्र को उसका परिणाम भुगतना पड़ता है। अच्छे कर्म का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल। इस प्रकार की घटनाओं से भी इतिहास भरा पड़ा है। एक शासक लड़ाई लड़ता है और सारा राज्य बरबाद हो जाता है। समूचा देश कठिनाइयों में फंस जाता है। साम्राज्यलिप्सु शासक अपनी लिप्सा की पूर्ति के लिए युद्ध लड़ता है, तब सारा राज्य उस युद्ध की ज्वाला 230 कर्मवाद Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में झुलस जाता है। एक व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता है कि पूरा समाज या राष्ट्र उससे लाभान्वित हो जाता है। परिवार में तो ऐसा होता ही है। पिता धन कमाता है और पुत्र को वह अनायास ही मिल जाता है। धन पैतृक विरासत में प्राप्त होता है। इसी प्रकार पैतृक विरासत के रूप में कुछ गुण-दोष भी मिलते हैं। पिता का लाभ संतति को लाभाविन्त करता है और पिता की हानि संतति को हानि पहुंचाती है। यह पैतृक विरासत है। एक वर्ग ने जुआ खेला और महाभारत के युद्ध की पीड़ा अनेक को भोगनी पड़ी। कामुकता किसी सम्राट में थी और पूरा देश परतन्त्र हो गया। ये सारी घटनाएं यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि कर्म सामाजिक भी होता है। यदि वह सामाजिक नहीं होता तो कर्म करने वाले को ही उसका परिणाम भोगना पड़ता। वह सामाजिक है, इसलिए एक व्यक्ति के कर्म का परिणाम अनेक व्यक्तियों को भुगतना पड़ता है। पृथ्वीराज चौहान ने कुछ किया, उसका परिणाम पूरे भारतवर्ष को भुगतना पड़ा। चन्द्रगुप्त मौर्य ने कुछ किया, उसका परिणाम पूरे राष्ट्र को मिला। एक के कारण पूरा देश कठिनाइयों में फंस गया और दूसरे के कारण पूरा राष्ट्र संगठन-सूत्र में बंध गया। एक अकेले व्यक्ति के द्वारा वांछनीय या अवांछनीय कर्म किया जाता है और उसका परिणाम व्यापक रूप में भुगतना पड़ता है। क्या इन सारी घटनाओं से हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं हो जाते कि कर्म सामाजिक भी होता है। फिर प्रश्न होता है कि यदि कर्म सामाजिक होता है, तो 'जो कर्म करता है, वही फल भोगता है'-कर्मवाद का यह सिद्धान्त कैसे टिक पाएगा? दोनों ओर प्रश्नचिह्न हैं। इस स्थिति में हमें कुछ गहरे में उतरकर सोचना होगा। हम इस कहानी पर ध्यान दें ___एक गीत-संगोष्ठी में एक महिला गीत गा रही थी। एक व्यक्ति उस गीत को सुनते-सुनते ऊब गया। उसने कहा-'कौन महिला है? गाना जानती ही नहीं। केवल गला फाड़ रही है। पास में बैठा व्यक्ति बोला-'मेरी पली है। उस व्यक्ति ने कहा-'क्षमा करें। इस बेचारी का दोष ही क्या? किस गधे ने यह गीत लिखा! वह बोला-'महाशय! मैंने ही अपनी पत्नी के लिए यह गीत लिखा है। उस व्यक्ति ने कहा-'क्षमा करें!' ___ करे कोई, भोगे कोई 231 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत गाने वाली का भी दोष है और लिखने वाले का भी दोष। दोनों ओर से दोष आ रहा है। सामाजिक जीवन के बहुत सारे व्यवहार और कार्य दो से सम्बन्धित होते हैं। इसी बिन्दु पर हमने आचरण और व्यवहार में एक भेद-रेखा खींची थी। आचरण होता है व्यक्तिगत और व्यवहार होता है सामाजिक। जहां दो नहीं होते, वहां व्यवहार नहीं होता। व्यवहार दूसरे के प्रति होता है और आचरण एकनिष्ठ होता है, स्वगत होता है। व्यवहार सदा द्विष्ठ होगा। उसके लिए कम-से-कम दो चाहिए। पूरा सामाजिक जीवन दो से जुड़ा हुआ है। द्वन्द्व के बिना व्यवहार नहीं होता। समाज का जीवन नहीं होता। व्यवहार का अर्थ होता है भेद। भेद का अर्थ है. द्वैत। जहां दो हैं, वहां भेद होगा और वहां व्यवहार होगा। किन्तु कर्म दो से संबंध नहीं रखता। यदि वह दो से संबंधित होता है तो वह वैयक्तिक नहीं हो सकता। किन्तु व्यवहार में देखा जाता है कि कर्म सबसे संबंध रखता है। इसलिए हमें एक भेदरेखा खींचनी होगी। ___ दो प्रकार के कारण होते हैं-उपादान कारण और निमित्त कारण। उपादान की दृष्टि से कर्म नितांत वैयक्तिक होता है। हम जो यह कहते हैं कि अपना किया हुआ स्वयं अपने को भुगतना होगा, यह उपादान की दृष्टि से कहा है। कर्म का उपादान व्यक्ति स्वयं होता है। व्यक्ति स्वयं कर्म करता है और स्वयं ही उसे भुगतता है। यदि वह उपादान नहीं होता तो उसे भोगना नहीं पड़ता। निमित्त कारण वैयक्तिक नहीं होता। वह सामूहिक या सामाजिक होता है। सौ आदमी चिलचिलाती धूप में यात्रा कर रहे हैं। सबको गर्मी का अनुभव होता है, पीड़ा होती है। किसी एक को नहीं, सबको कष्ट होता है। क्योंकि यह निमित्त है और निमित्त सामुदायिक होता है। इसी प्रकार संवेदन वैयक्तिक होता है और परिणाम सामुदायिक। कर्म किया। उसको जब भुगतना पड़ता है, तब कर्म का फल या संवेदन वैयक्तिक होता है। व्यक्ति संवेदन करता है, पर परिणाम सामाजिक हो सकता है। एक घटना घटी। उसका परिणाम अनेक व्यक्तियों को भुगतना पड़ता है। वांछनीय या अवांछनीय, प्रिय या अप्रिय, कोई स्थिति बनी, 232 कर्मवाद Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे यदि सौ व्यक्ति संबंधित हैं तो सबको उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। घर का मुखिया है। वह सट्टे में धन हार गया। परिवार में पचास आदमी हैं। सबको उस हानि को भुगतना पड़ेगा। सबको अर्थाभाव का सामना करना पड़ेगा। यह परिणाम सामुदायिक बन गया। किन्तु संवेदन सामुदायिक नहीं बनता। सौ व्यक्तियों का संवेदन एक-जैसा नहीं होता। सबका संवेदन अलग-अलग होता है। सबसे तारतम्य रहेगा। घटना एक होती है, पर इतने प्रकार के संवेदन होते हैं कि एक व्यक्ति का संवेदन दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता। उदाहरण के लिए देखें, एक व्यक्ति का धन चला गया। बाप ने व्यवसाय में लाखों रुपये गंवा दिए। पुत्र सोचेगा-पिताजी ने यह क्या कर डाला? ऐसा व्यवसाय क्यों किया? हम कितने सम्पन्न थे, आज गरीब हो गए। वह रोता है, दुःख प्रदर्शित करता है। दूसरा पुत्र सोचता है-पिताजी ने ही तो धन कमाया था और वह उन्हीं के हाथों चुक गया। व्यवसाय में हानि-लाभ होता ही है। चिन्ता की क्या बात है? तीसरा पुत्र कहता है-ऐसा होना था, हो गया। शोक करने से क्या लाभ? चौथा पुत्र सोचता है-धन की प्रकृति है जाना-आना। हमारे पास दो हाथ हैं, दस अंगुलियां हैं, पुरुषार्थ करेंगे और फिर पैरों पर खड़े हो जाएंगे। सबकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हैं। सबका संवेदन भिन्न है। यह है संवेदन की वैयक्तिकता और परिणाम की सामूहिकता। इस प्रकार दो वर्ग बन जाते हैं१. उपादान और संवेदन-ये दोनों वैयक्तिक होते हैं। 2. निमित्त और परिणाम-ये दोनों सामूहिक होते हैं। इस सन्दर्भ में यदि कर्मवाद को समझा जाए तो जो करता है, वह भोगता है, यह कर्म की वैयक्तिकता भी सच है और एक के किए कर्म का परिणाम समूह को भुगतना पड़ता है, यह कर्म की सामाजिकता भी सच है। दोनों पक्ष मिलकर ही एक पूरा चित्र प्रस्तुत करते हैं। एक पक्ष पूरा चित्र नहीं बना सकता। हम अपनी दृष्टि को दोनों पक्षों के आधार पर संतुलित करें कि जब निमित्त की दृष्टि से विचार करते हैं, तो कर्म सामाजिक होता है और जब उपादान की दृष्टि से विचार करते हैं तो कर्म वैयक्तिक होता है। संवेदन की दृष्टि से सोचते हैं तो कर्म करे कोई, भोगे कोई 233 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयक्तिक होता है और परिणाम की दृष्टि से सोचते हैं तो कर्म सामाजिक . होता है। समाज नेता के आधार पर चलता है, फिर चाहे एकाधिपत्य हो या प्रजातंत्र हो। यह नहीं होता कि समाज में सब-के-सब नेता हों, अग्रणी हों। समाज कुछेक व्यक्तियों के सहारे चलता है, इसलिए परिणाम का भी कुछ व्यक्तियों पर निर्भर होना स्वाभाविक है। पर उसकी संचारिता, संक्रमणशीलता और प्रभाव पूरे समाज पर होना ज़रूरी है। इसका एक पहलू और है। मनोविज्ञान की दृष्टि से माना जाता है कि जीन में दो प्रकार की विशेषताएं होती हैं। माता-पिता के गुण संतान में संक्रांत होते हैं, विरोधी गुण भी संक्रांत होते हैं। उसमें एक प्रभावी होता है और दूसरा अप्रभावी। जो प्रभावी होता है वह व्यक्त हो जाता है और जो अप्रभावी होता है, वह पर्दे के पीछे रह जाता है। कर्मवाद की यही प्रकृति है। हमारे साथ जितने कर्मों का सम्बन्ध है, उन सभी कर्मों की विरोधी प्रकृतियां बनी रहती हैं। जैसे सुखवेदनीय कर्म है तो दुःखवेदनीय कर्म भी है। इसी प्रकार शुभ नाम-कर्म-अशुभ नाम कर्म, उच्च गोत्रकर्म-नीच गोत्रकर्म, शुभ आयुष्य-अशुभ आयुष्य। दोनों विरोधी प्रकृतियां हैं। ये इतनी विरोधी हैं कि एक के आने पर दूसरी प्रकृति बदल जाती है। दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं। जिस समय सुखवेदनीय कर्म का उदय रहेगा, वह कर्म फल देगा, उस समय दुःखवेदनीय कर्म का उदय नहीं होगा। वह फल नहीं देगा। वह पर्दे के पीछे चला जाएगा। जिस क्षण असुखवेदनीय कर्म का उदय होता है तो उस क्षण में सुखवेदनीय कर्म नीचे चला जाएगा। यह चक्र चलता रहता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो पुरुषार्थ की बात ही समाप्त हो जाती है। . ___ एक भाई ने पूछा था-रोग होता है तब औषधि ली जाती है। यह औषधि का सेवन भुलावा तो नहीं है? भुलावा नहीं है। दवा भी निमित्त बनती है। रोग के कारण जो असुखवेदनीय कर्म विपाक में था, वह दवा के निमित्त से चला गया, अविपाक में चला गया, अनुदय में चला गया। उसका प्रभाव नहीं रहा। वह सुखवेदनीय के प्रकट होते ही समाप्त हो गया। वह स्थिति आती है, दूसरी तिरोहित हो जाती है। 234 कर्मवाद Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्मी का मौसम है। आदमी धूप में बैठा है। उसे कष्ट का अनुभव होता है। उसे कष्ट की संवेदना हुई और वह पेड़ की सघन छांह में जाकर बैठ गया। वहां सुख का संवेदन प्रारम्भ हो गया। कर्म बदल गया, कर्म का विपाक बदल गया। प्यास लगी, भूख लगी। असुखवेदनीय का उदय हो गया। पानी पीया, प्यास मिट गई। भोजन किया, भूख मिट गई। सुखवेदनीय का उदय हो गया। ___दो विरोधी कर्म-प्रकृतियां निरन्तर चलती रहती हैं। निमित्तों के अनुसार कभी कोई प्रकृति प्रकट हो जाती है और कभी कोई प्रकृति प्रकट हो जाती है। एक आदमी ने कोई अच्छा काम किया। उससे हजार आदमियों को सुख मिला। इस स्थिति में उपादान की दृष्टि से हम नहीं कह सकते कि वह आदमी सुख देने वाला है, किन्तु निमित्त की दृष्टि से कहा जा सकता है कि वह सुख देने वाला है। एक आदमी ने अणुबम का प्रयोग किया। लाख आदमी एक साथ मारे गए। उपादान की दृष्टि से नहीं कहा जा सकता कि वह मारने वाला है, किन्तु निमित्त की दृष्टि से कहा जा सकता है, कि वह मारने वाला है। यदि मनुष्य मरणधर्मा नहीं होता, उसमें मरने की क्षमता नहीं होती तो हजार अणुबमों का विस्फोट करने पर भी आदमी कभी नहीं मरता। आदमी तभी तो मरता है कि उसमें मरने की अर्हता है, योग्यता है। मरने का उपादान आदमी है, बस निमित्त मिला और वह मर गया। निमित्त का उतना ही काम है कि जो उपादान है, उसे व्यक्त कर देना। जो उपादान निष्क्रिय है, उसे सक्रिय कर देना। जो अप्रभावी है, उसे प्रभावी बना देना। हमारा सारा व्यवहार निमित्तों के आधार पर चलता है, इसीलिए आदमी मानता है कि अमुक ने उसे सुखी बना दिया, अमुक ने उसे दुःखी बना डाला। वह कभी किसी की प्रशंसा करता है और कभी किसी की निन्दा करता है। यह सोचकर प्रशंसा करता है कि इसने मेरा भला किया है और यह सोचकर निन्दा करता है कि इसने मेरा अहित किया है। दोनों सही हैं। दोनों बातें चलती हैं। निमित्त के बिना हमारा काम नहीं चलता। किन्तु निमित्त पर अटक जाना सचाई को वहीं समाप्त कर देना है। उपादान को समझना भी बहुत जरूरी है। करे कोई, भोगे कोई 235 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त के आधार पर परिस्थितिवाद का विकास हुआ। परिस्थितिवाद मिथ्या नहीं है, किन्तु जहां केवल परिस्थिति पर ही सारा बोझ डाल. दिया जाता है, उसे ही सर्वोपरि मूल्य दे दिया जाता है, वहां व्यक्ति छिप जाता है, फिर बुराई करने में उसे कोई संकोच नहीं होता, क्योंकि वह मान लेता है कि उसका कोई लेना-देना नहीं है। परिस्थिति व्यापक है, सामूहिक है, वह बच जाता है। इससे बड़ी समस्या पैदा होती है। व्यक्ति बुरा न बने, इसलिए वैयक्तिक चेतना बहुत जरूरी है और व्यक्ति दूसरों के प्रति बुरा न बने, इसलिए सामूहिक चेतना का विकास भी बहुत आवश्यक है। परिस्थितिवाद या निमित्तवाद तथा कर्मवाद या उपादानवाद, दोनों का योग हुए बिना काम ठीक नहीं बनता। .. कर्मवाद के सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने दो महत्त्वपूर्ण सूत्र दिए हैं-स्वयं उदित और परेण उदीरित। कर्म की दो अवस्थाएं होती हैं। एक है, कर्म स्वयं उदय में आता है। व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म को उदीर्ण करता है, कर्म को विपाक अवस्था में लाता है और उसका फल भोगता है। यह नितान्त वैयक्तिक है। कर्म की दूसरी अवस्था है कि वह दूसरे निमित्त के द्वारा उदीरित होता है। कर्म स्वयं विपाक अवस्था को प्राप्त नहीं हो रहा है, किन्तु दूसरा उस कर्म को, उपादान या संस्कार को, उदय अवस्था में ला देता है। यह है उदीरितावस्था। इसे हम एक घटना के माध्यम से समझें। एक व्यक्ति स्वस्थ है। उसे किसी भी प्रकार की बीमारी नहीं है। वह रास्ते पर आराम से चल रहा है। पीछे से कोई आकर शस्त्र का प्रहार करता है और उस व्यक्ति की वहीं मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु स्वयं-प्राप्त मृत्यु नहीं है, स्वयं द्वारा उदीर्ण नहीं, किन्तु दूसरे व्यक्ति द्वारा उदीरित मृत्यु है। यह मृत्यु दूसरे व्यक्ति द्वारा लायी गई है। जो मृत्यु बीस-तीस वर्ष बाद होने वाली थी, वह शस्त्र प्रहार से अभी हो गई। यह उदीरित मृत्यु है। यह कर्म का सामाजिक संबंध है। प्रत्येक कर्म का उदय इन दो स्थितियों में होता है-स्वयं उदीर्ण और दूसरे के द्वारा उदीरित। सामाजिक कर्म का अर्थ है-उदीरित कर्म। एक ऐसा काम होता है कि हजारों व्यक्तियों के साथ कर्म की उदीरणा हो जाती है, कर्म 236 कर्मवाद Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विपाक हो जाता है। जो कर्म न जाने कब विपाक में आता है, वह तत्काल विपाक में आ गया। जितनी संक्रामक बीमारियां होती हैं, वे सब उदीरित होती हैं। प्लेग, हैजा आदि संक्रामक बीमारियां अचानक आती हैं, फैलती हैं और अनेक व्यक्तियों को अपना शिकार बना लेती हैं। वे उदीरित बीमारियां हैं। प्लेग का एक रोगी गांव में आता है और सारा गांव महामारी की बीमारी से संक्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है, 'करता कोई है और भोगना किसी दूसरे को पड़ता है।' अच्छा काम किसी ने किया और उसका परिणाम मिला दूसरों को। बुरा काम किसी ने किया और उसका परिणाम भोगना पड़ा दूसरों को। इस सन्दर्भ में कर्म सामाजिक बन जाता है। अगर कर्म को सामाजिक न मानें तो व्यक्ति इतना 'कट' हो जाता है कि दूसरे से प्रभावित होता ही नहीं। फिर तो व्यक्ति व्यक्ति ही रह जाता, समाज बनता ही नहीं। समाज तभी बनता है, जब संक्रमणशीलता रहती है। एक का प्रभाव दूसरे तक पहुंचता है, तभी समाज बनता है। यदि कोई किसी से प्रभावित होता ही नहीं, अप्रभावी अवस्था बनी रहती है तो यह नितान्त वैयक्तिक अवस्था है। इसमें सामाजिकता का विकास ही नहीं होता। इस सन्दर्भ में हम इस प्रश्न पर भी विचार करें कि क्या ध्यान वैयक्तिक है या सामाजिक? कर्म के साथ ध्यान की चर्चा भी करनी होगी, क्योंकि दोनों जुड़े हुए हैं। कर्म बन्धन ध्यान बन्धन-मुक्ति का उपाय है। कर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार का होता है तो क्या ध्यान भी दोनों प्रकार का होता है? जैनेन्द्रकुमारजी ने भी यह प्रश्न रखा कि ध्यान का प्रयोग ठीक है, पर यह व्यक्ति को ही आत्मरति में ले जाता है। यानी व्यक्ति अपने आप में लीन हो जाता है, अन्तर्मुखी बन जाता है। . ह्यूम ने व्यक्तियों को दो वर्गों में बांटा। एक वर्ग में वे व्यक्ति आते हैं, जो बहिर्मुखी (एक्स्ट्रावट) होते हैं और दूसरे वर्ग में वे व्यक्ति आते हैं, जो अन्तर्मुखी (इन्ट्रावट) होते हैं। जो अन्तर्मुखी होता है, वह अपने बारे में सोचता है, अपने भीतर देखता है, सब कुछ अपने लिए करता है, दूसरे के विषय में कोई चिन्ता नहीं करता। यह आत्मरति करे कोई, भोगे कोई 237 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। प्रश्न है कि क्या ध्यान आत्मरति में ले जाता है? यदि वह आत्मरति में ले जाता है तो वह समाज के लिए हानिकारक है। ध्यान करने वाले समाज के विकास में बाधक बनते हैं, साधक नहीं। ध्यान करने वाले सब अन्तर्मुखी बन जाएंगे, फिर व्यवहार नहीं चल सकेगा। सारा विकास ठप्प हो जाएगा। फिर न समाज का अस्तित्व रहेगा और न राष्ट्र की उपयोगिता ही रहेगी। यह सारा आत्मरति का परिणाम है। किन्तु जब कर्म वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों प्रकार का होता है तो ध्यान भी इन दोनों स्थितियों में विलग नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति नितांत अन्तर्मुखी या नितान्त बहिर्मुखी नहीं हो सकता। ध्यान करने वाला नितान्त वैयक्तिक नहीं हो सकता और यदि एक प्रतिशत होता है तो वह अपवाद ही माना जाएगा। यह सामान्य स्थिति नहीं हो सकती। जो व्यक्ति ध्यान नहीं करता, कोरा बहिर्मुखी होता है, केवल बाहर-ही-बाहर देखता है, वह समाज के लिए सिरदर्द बन जाता है। जो नितान्त अन्तर्मुखी होता है, वह समाज के लिए सिरदर्द नहीं बनता, किन्तु अनुपयोगी बन जाता है। किन्तु मुझे लगता है कि ध्यान करने वाला न सिरदर्द बनता है और न अनुपयोगी बनता है। तर्कशास्त्र का एक नियम है-देहरी-दीपक न्याय। दीये को दहलीज पर रख दिया जाए। भीतर भी प्रकाश होगा और बाहर भी प्रकाश फैलेगा। ध्यान करने वाला स्वयं प्रकाशित होता है और समाज में अन्धकार नहीं फैलता, कुछ प्रकाश ही फैलता है। एक व्यक्ति ने ध्यान-साधना की। वह परिवार में गया। उसके परिवर्तित जीवन-व्यवहार से पूरा परिवार सुखी हो गया। ध्यान किया एक व्यक्ति ने और लाभ मिला पूरे परिवार को। एक व्यक्ति ने ध्यान-साधना की, उसकी स्मृति बढ़ी, मानसिक संतुलन बढ़ा, एकाग्रता का विकास हुआ, उसका बौद्धिक स्तर बढ़ा और वह परिवार का संभ्रान्त सदस्य बन गया। उसका परिणाम पूरे परिवार को मिला। लोग पूरे परिवार की प्रशंसा करने लगे। वैयक्तिकता और सामुदायिकता को अलग नहीं किया जा सकता। दोनों साथ-साथ चलते हैं। निमित्त और उपादान के बिना कोई काम नहीं होता। कर्मवाद का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि कर्म पुद्गल को 238 कर्मवाद Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुद्गल-परिणाम को प्राप्त कर फल देता है-पोग्गलं पप्प, पोगलपरिणाम पप्प। इनके बिना कर्म फल नहीं दे सकता। आज का शरीरशास्त्री (फिजियोलॉजिस्ट) कहता है कि शरीर का छोटा-बड़ा होना, लम्बा-ठिगना होना-यह सारा पीयूष ग्रन्थि के स्राव पर निर्भर रहता है। यह स्राव पूरी शरीर-रचना पर प्रभाव डालता है। यह है पुद्गल-परिणाम है। कर्मशास्त्री उस भाषा में कहेगा कि शरीर की लम्बाई-चौड़ाई, सुन्दरता-असन्दुरता-ये सब कर्म से जुड़े हुए हैं। जब पुद्गल का परिणमन होता है, तब कर्म फल देता है। यदि पुद्गल का परिणमन नहीं होता तो कर्म अपना फल नहीं दे सकता। यह सम्बन्ध उपादान तक पहुंच जाता है। उपादान हैं-पुद्गल और पुद्गल का परिणमन। रात को दस बजते ही आंखों में नींद घुलने लग जाती है। रात्रि का यह समय नींद का निमित्त बनता है। यदि यह निमित्त नहीं मिलता तो नींद नहीं आती। निमित्त बदल जाता है तो नींद भी बदल जाती है। इसमें भी कर्म जुड़ जाता है। वही कर्म प्रभावी होता है, जिसे निमित्त मिल जाता है, पुद्गल और पुद्गल का परिणमन प्राप्त हो जाता है। ध्यान करने वाले व्यक्ति को संतुलन स्थापित करना होता है। ध्यान-काल में शारीरिक कष्ट होता है, पर यह कष्ट अच्छे परिणाम लाता है। आदमी इन शारीरिक कष्टों में घबराकर ध्यान-साधना को छोड़ देता है। यह उसकी कमजोरी है। बिलौना किया, मक्खन निकाला। अब उसको तपाकर घी प्राप्त करना है। तो क्या मक्खन को सीधा अग्नि पर रखने से घी हो जाएगा? नहीं, सीधा अग्नि पर रखने से आग भभकेगी, मक्खन ही नष्ट हो जाएगा। यदि मक्खन को एक बर्तन में रखकर आग पर तपाते हैं तो अग्नि भी रहती है और घी भी मिल जाता है। प्रश्न होता है, बेचारे बर्तन को क्यों तपाते हैं? बर्तन का क्या लेना-देना है मक्खन से? घी बनना है मक्खन को, बर्तन को घी नहीं बनना है। पर मक्खन को बर्तन में रखे बिना घी मिलता नहीं। हम अच्छे विचार और अच्छे भाव लाना चाहते हैं, पर जब तक यह बर्तन-शरीर अच्छा नहीं बनेगा, तब तक वह अच्छे विचारों और अच्छे भावों का संवाहक या उत्पादक नहीं हो सकेगा। चूल्हे पर तो शरीर को ही रखना होता है। मन तो करे कोई, भोगे कोई 236 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके भीतर है। मक्खन तो शरीर के भीतर है। यदि यह बर्तन ही ठीक नहीं होगा तो घी सीधा आग में जाएगा, खराब हो जाएगा। कोरे मन को सुधारने की बात या भावों को अच्छा करने की बात प्राप्त नहीं होती। यदि हम उपादान को ठीक कर देते हैं तो परिस्थिति स्वयं ठीक हो जाती है। उपादान को ठीक करना हमारे वश की बात है। आज. चक्र उल्टा चलता है। आदमी परिस्थिति को सबसे पहले ठीक करना चाहता है, व्यक्ति को नहीं। व्यक्ति उपादान है। उसको ठीक किए बिना परिस्थिति ठीक नहीं हो सकती। पहले हम उपादान को ठीक करें, साथ-साथ परिस्थिति का भी परिवर्तन हो। ___ इन सारे सन्दर्भो में कर्मवाद और ध्यान के सिद्धान्त को समझने में हमें सुविधा होगी, ध्यान के परिकर, ध्यान के विघ्न, शरीर और मन की बाधाएं, विचार के विघ्न आदि को सही-सही समझने में सहयोग मिलेगा। हम संतुलित दृष्टि का विकास करें। हमें उपादान और निमित्त-इन दोनों के साथ चलना है। इन दोनों को समझना है। कर्मवाद और ध्यान को भी इन दोनों सन्दर्भो में समझते हैं तो हमारे विकास में सहयोग मिलता है। 240 कर्मवाद Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव का जादू अध्यापक ने कहा-सेठ साहब! आपका लड़का पढ़ने में बहुत कमजोर है। पर चिन्ता की कोई बात नहीं है। मैंने अनेक गधों को पढ़ाकर योग्य आदमी बनाया है। सेठ ने कहा-धन्यवाद! आश्चर्य है कि आज के आनुवंशिकी विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली कि गधे को भी आदमी बनाना संभव हो सका है। आनुवंशिकी विज्ञान इतना आगे बढ़ा या नहीं, पर अन्तर्जगत् में ऐसा होता है कि आदमी गधा बन जाता है और गधा आदमी बन जाता है। भीतर के जगत् में बहुत आश्चर्यकारी परिवर्तन होते हैं। सूक्ष्म जगत् के परिवर्तनों के आधार पर कर्मवाद का सिद्धान्त बना। उसका एक सूत्र है-सव्वजोणिया खलु जीवा-जीव सार्वयोनिक होते हैं। किसी भी योनि का जीव किसी भी योनि में जाकर उत्पन्न हो सकता है। यह * सार्वयोनिकवाद कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। जीवन की उत्पति में योनि की कोई प्रतिबद्धता नहीं है। गधा मरकर आदमी बन सकता है और आदमी मरकर गधा बन सकता है। अन्तर इतना-सा है कि आनुवंशिकी विज्ञान के अनुसार जीते-जी इतना बदला जा सकता है और कर्मवाद विज्ञान के अनुसार बदलने के लिए मरना पड़ता है। बिना मरे ऐसा परिवर्तन नहीं हो सकता। तब प्रश्न होता है कि क्या प्रत्येक परिवर्तन . के लिए आदमी को मरना ही पड़ता है या और कोई उपाय भी है? ____ कर्मवाद के अनेक नियम हैं, अनेक रहस्य हैं। आदमी उन रहस्यों और नियमों को पूरा नहीं जानते, इसीलिए अनेक भ्रान्तियां उत्पन्न होती हैं। कर्मवाद का एक नियम है-शक्ति का अल्पीकरण और शक्ति का संवर्धन। कर्म की जो फलादान की शक्ति है, उसको कम भी किया भाव का जादू 241 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता है और बढ़ाया भी जा सकता है। फलादान की काल-अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है और कर्म भी किया जा सकता है। यह है शक्ति-परिवर्तन का सिद्धान्त। ____ कर्मवाद का दूसरा नियम है-जाति-परिवर्तन। कर्म की जाति को बदला जा सकता है। बंधकाल में कर्म के एक प्रकार के परमाणु बंधते हैं। पश्चात् उन परमाणुओं की जाति को बदला जा सकता है। यह आज का नस्ल-परिवर्तन का सिद्धान्त है। नस्ल बदली जा सकती है। उसी का एक उदाहरण दिया गया है। उसकी चतुर्भगी इस प्रकार बनती है 1. पुण्य और उसका फल पुण्य। 2. पाप और उसका फल पाप। 3. पुण्य और उसका फल पाप। 4. पाप और उसका फल पुण्य। प्रथम दो विकल्प निर्विवाद हैं। पुण्य का फल पुण्य और पाप का फल पाप-इसमें कोई विवाद नहीं है। किन्तु शेष दो विकल्प जटिल हैं। है पुण्य और फल होगा पाप। है पाप और फल होगा पुण्य। प्रश्न होता है कि यह संभव कैसे हो सकता है? इसका समाधान है कि जाति-परिवर्तन के द्वारा ऐसा हो सकता है। यह बहुत बड़ा रहस्य है कर्मवाद का। इसके आधार पर अनेक बातें बदल जाती हैं, बहुत बड़ा परिवर्तन होता है। पुण्य का बंध हुआ। इस बंध में सारा कर्म-परमाणु-संग्रह पुण्य से जुड़ा हुआ है। किन्तु बाद में ऐसा कोई पुरुषार्थ हुआ कि उस संग्रह का जात्यन्तर हो गया। जो पुण्य के परमाणु थे, वे पाप के परमाणु बन गए। जो सुख देने वाले परमाणु थे, वे दुःख देने वाले परमाणु बन गए। इसी प्रकार पाप का बंध हुआ। इस बंध से कर्म का सारा परमाणु-संग्रह पाप से जुड़ा हुआ है, किन्तु बाद में ऐसा पुरुषार्थ हुआ, इतनी घोर तपस्या की गई, साधना की गई कि उस संग्रह का जात्यन्तर हो गया। जो पाप के परमाणु थे, वे पुण्य के परमाणु बन गए, जो दुःख लेने वाले परमाणु थे, वे सुख देने वाले परमाणु बन गए। 242 कर्मवाद Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दो विकल्प बन गए। परमाणुओं का संग्रह हुआ पुण्य रूप में और उसका परिणाम घटित हुआ पाप के रूप में। परमाणुओं का संग्रह हुआ पाप के रूप में और उसका परिणाम घटित हुआ पुण्य के रूप में। यह जात्यन्तर का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह आमूलचूल परिवर्तन का उदाहरण है। कर्मवाद का दूसरा महत्त्वपूर्ण उदाहरण है-जाति-परिवर्तन। इस जाति-परिवर्तन या शक्ति-परिवर्तन की प्रक्रिया को जानना आवश्यक है। कोई भी आदमी पाप का फल पाना नहीं चाहता। सभी पुण्य का फल पाना चाहते हैं। इसलिए उस प्रक्रिया की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। ___ उसकी प्रक्रिया के तीन घटक हैं-मन, मस्तिष्क और चित्त। इन तीनों को प्रशिक्षित करना होता है। मन और मस्तिष्क-दो हैं। यह आज की वैज्ञानिक धारणा से बहुत स्पष्ट हो गया। विज्ञान की भाषा में ब्रेन अलग है और माइण्ड अलग है। दोनों स्वतन्त्र हैं। किन्तु दर्शन की भाषा में चित्त तत्त्व को भी जोड़ना होगा। इस प्रकार मन, मस्तिष्क और चित्त-ये तीनों स्वतन्त्र हैं। जिस व्यक्ति ने चित्त को अनुशासित कर डाला, उसका मस्तिष्क अनुशासित होगा, उसका मन अनुशासित होगा और वह व्यक्ति स्थितप्रज्ञ या समाधिस्थ कहलाएगा। यदि मस्तिष्क मन और चित्त पर हावी हो जाता है तो वह व्यक्ति शैतान बन जाता है। देव और दानव में इतना ही अन्तर है। प्रत्येक व्यक्ति देव बन सकता है। प्रत्येक व्यक्ति दानव बन सकता है। जिस व्यक्ति ने मस्तिष्क, मन और चित्त पर अनुशासन स्थापित कर डाला, वह देव बन जाता है और जिस व्यक्ति के मस्तिष्क का मन और चित्त पर अनुशासन स्थापित हो जाता है, वह दानव बन जाता है। ध्यान के द्वारा हमें मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने का प्रयास करना है। ध्यान के द्वारा मस्तिष्क, मन और चेतना-चित्त . पर स्वामित्व स्थापित करना है। - एक संन्यासी बाजार से गुजर रहा था। उसने देखा, एक टोकरी में खजूर पड़े हैं। बड़े-बड़े और मीठे खजूर। मन ललचा गया। सोचा, खजूर खाऊं। पर पास में पैसा नहीं था। उसने सोचा, खजूर अवश्य खाने हैं। पर मैं मुफ्त में मांगूंगा नहीं। वह सीधा जंगल में गया। लकड़ियां भाव का जादू 243 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काटीं। लकड़ियों का एक भारा अपने कंधे पर लादकर लड़खड़ाता हुआ बाजार की ओर चला। पसीने से तरबतर हो गया। कभी भार को उतारता, कभी बैठता, कभी चलता। मन में खजूर खाने की लालसा उत्कट होती गई। बाजार में आया, लकड़ियां बेचीं। पैसा मिला। खजूर खरीदे और जंगल में चला गया। एक वृक्ष के नीचे बैठा। कोई विचार आया और वह अनुप्रेक्षा करने लग गया। जब तक व्यक्ति अनुप्रेक्षा में नहीं जाता, स्वभाव नहीं बदलता। प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा बहुत जरूरी है। प्रेक्षा से सच्चाइयां ज्ञात हो जाती हैं और अनुप्रेक्षा से स्वभाव के परिवर्तन में सहयोग मिलता है। संन्यासी अनुप्रेक्षा के क्षणों में चला गया। उसने सोचा-देखो, मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं। फिर भी मैंने लकड़ियों का इतना बोझ ढोया, इतने कष्ट सहे। यह सब इसलिए कि मैं मन का चाकर बन गया। मन मेरा स्वामी बन गया। मैंने अनगिन कष्ट सहे, इन गिनती के खजूरों के लिए। मैं अब इस दासता को तोडूंगा। मैं खजूर नहीं खाऊंगा। आज मेरा मस्तिष्क मन पर हावी हो गया। मांग पैदा हुई, कल और कोई दूसरी मांग पैदा हो सकती है, परसों कोई तीसरी-चौथी मांग हो सकती है। मांगों का कहीं अन्त नहीं है। इन मांगों के पीछे मैं इस बूढ़े शरीर को कहां-कहां झोंकता रहूंगा। अच्छा है कि मैं अपने मन का स्वामी बनूं। अपने मर पर अपना अनुशासन करूं। संन्यासी में स्वामी बनने की अनुप्रेक्षा जागी। वह उस अनुप्रेक्षा में बहता रहा। अब उसे खजूर उतने प्रिय नहीं रहे। उसने राह गुजरते एक चरवाहे के लड़के को बुलाया और सारे खजूर उसे दे दिए। संन्यासी बिना खजूर खाए अपने स्थान पर लौट आया। जब मस्तिष्क स्वामी बनता है, तब व्यक्ति को अनेक कठिनाइयों का बोझ ढोना पड़ता है। जब चित्त मस्तिष्क और मन पर अपना अधिकार जमाता है, तब स्थिति बदल जाती है। व्यक्ति-व्यक्ति में इतना ही तो अन्तर है। व्यक्ति-व्यक्ति के रूप, रंग, आकार-प्रकार का अन्तर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता। व्यक्ति की वैयक्तिक विशेषता इस बात पर निर्भर करती है कि कौन व्यक्ति मन के सहारे चलता है, मंन का अनुशासन 244 कर्मवाद . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानता है, मस्तिष्क के अधीन रहता है और कौन व्यक्ति मन और मस्तिष्क को अपने अधीन में रखकर चलता है, उन पर अनुशासन करता है। मनुष्यों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। एक श्रेणी उन मनुष्यों की है, जो मन के अनुशासन में चलते हैं। दूसरी श्रेणी उन मनुष्यों की है, जो मन और मस्तिष्क को अपने अनुशासन में चलाते हैं। __मस्तिष्क-विज्ञान की खोजों से कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएं अभी-अभी प्राप्त हुई हैं। उनके अनुसार मस्तिष्क का जो रेटीकुलर फॉरमेशन-तान्त्रिक जालक है, वह उन न्यूरोन्स से बना है, जहां भय, क्रोध, लालसा आदि भाव जन्म लेते हैं और वह रेटीकुलर फॉरमेशन उन भावों का नियन्त्रण भी करता है। वे पैदा भी होते हैं और नियन्त्रित भी होते हैं। दोनों कार्य साथ-साथ चलते हैं। यदि उत्पन्न हों और साथ में नियन्त्रण की क्षमता न हो तो मनुष्य इतने आवेग में आ जाए कि शरीर की व्यवस्था ही लड़खड़ा जाए। शरीर के साथ यह एक वैज्ञानिक बात भी जुड़ी हुई है कि एक भाव पैदा होता है तो साथ में नियन्त्रण की बात भी रहती है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस रेटीकुलर फॉरमेशन की क्रिया को कर्मवाद की भाषा में औदारिक व्यक्तित्व और क्षयोपशमिक व्यक्तित्व कहा जाता है। ये दोनों व्यक्तित्व साथ-साथ चलते हैं। औदयिक व्यक्तित्व है इसलिए क्रोध, भय आदि भाव उत्पन्न होते हैं और क्षयोपशमिक व्यक्तित्व (चेतना की निर्मलता) है, इसलिए उन पर नियन्त्रण होता है। उत्पन्न होना और नियन्त्रण होना-दोनों अवस्थाएं साथ में चलती हैं। __मैं मानता हूं कि कर्मवाद की जो आन्तरिक धाराएं हैं, उनके अनुसार ही स्थूल शरीर के सभी अवयवों का निर्माण होता है। यह स्थूल शरीर, कर्म शरीर (सूक्ष्मतम शरीर) का संवादी शरीर है। जितनी प्रवृत्तियां, जितने प्रकंपन सूक्ष्म शरीर में होते हैं, उतने ही अंग, प्रत्यंग, अवयव इस स्थूल शरीर में बन जाते हैं। यह बिलकुल संवादी है। जो भाव जन्म लेते हैं, वे सारे कर्म के द्वारा संचालित हैं और वे नये कर्म का पुनः निर्माण करते हैं। यह एक वर्तुल है। कर्म के द्वारा निषेधक भावों का उत्पन्न होना और इन निषेधक भावों के द्वारा फिर कर्म का आगमन होना-यह भाव का जादू 245 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र निरन्तर चलता रहता है। जब तक यह चक्र नहीं तोड़ा जाता, चक्रव्यूह को नहीं भेदा जाता, तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। समस्या को समाहित करने के लिए इस चक्र का भेदन अत्यावश्यक है और इस भेदन में ध्यान का बहुत महत्त्व है। यह एक उपाय है, जिसके द्वारा परिवर्तन घटित हो सकता है। ध्यान का अर्थ ही है-भावों का परिवर्तन। ध्यान का अर्थ ही है-भावों का बदल जाना। भावों का परिवर्तन होता है तो चक्रव्यूह अपने-आप टूट जाता है। भय, क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार, कामवासना-ये सारे भाव हैं। इन भावों को बदलकर समस्या का समाधान निकालना है। परन्तु प्रश्न होता है कि भाव-परिवर्तन की प्रक्रिया क्या है? एक व्यक्ति, कारण हो या नहीं, बहुत डरता है। उसके मन में दिन-रात भय की कल्पनाएं उठती रहती हैं। अब इस अवस्था को कैसे बदलें? . दो प्रयोग हैं। एक है ध्यान का प्रयोग और दूसरा है अनप्रेक्षा का प्रयोग। एकाग्रता का अभ्यास करना, एक विचार पर, एक आलंबन पर एकाग्र होना ध्यान है, पर यह परम ध्यान नहीं है, पर्याप्त नहीं है। एकाग्रता बहुत बुरी भी हो सकती है। क्या एक निशानेबाज कम एकाग्र होता है? क्या गोली दागने वाला कम एकाग्र होता है? क्या बगुला कम एकाग्र होता है? सब एकाग्र होते हैं। परम सिद्धि है-एकाग्रता के उपयोग का विवेक। ध्यान से ऊर्जा बढ़ती है, शक्ति बढ़ती है। ऊर्जा या शक्ति का बढ़ना ही श्रेयस्कर नहीं है। ऊर्जा और शक्ति के बढ़ने से क्रोध आदि आवेग भी बढ़ सकते हैं। इसलिए यदि ऊर्जा या शक्ति का समुचित उपयोग नहीं होता है तो वे खतरनाक भी बन जाते हैं। एकाग्रता एक शक्ति है, ऊर्जा है। ध्यान का अर्थ है-उसका कब, कहां, कैसे उपयोग करना। जो व्यक्ति ऊर्जा के उपयोग की बात नहीं जानता और केवल ऊर्जा बढ़ा लेता है, वह समस्याएं पैदा करता है, अनेक कठिनाइयों को जन्म देता है। जहां ऊर्जा के उपयोग का प्रश्न आता है। वहां अनुप्रेक्षा की बात आ जाती है। अनुप्रेक्षा का सूत्र है-चिन्तन, मनन और स्वाध्याय। जो शक्ति बढ़ गई, उसका उपयोग कहां करें, कैसे करें, इसमें अनुप्रेक्षा बहुत सहायक 246 कर्मवाद Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनती है। जिस व्यक्ति को भय लगता है, वह यदि मैत्री अनुप्रेक्षा का प्रयोग करता है, वह भययुक्त हो जाता है। भय और मैत्री-दोनों साथ नहीं रह सकते। दोनों विरोधी हैं। मित्र से डर नहीं लगता। डर लगता है शत्र से। जिस किसी के प्रति शत्रता का भाव हो गया, जिस किसी के प्रति यह भाव बन गया कि यह हानि पहुंचाएगा तो उससे भय लगता है, उससे खतरे की सम्भावना बनी रहती है। जिससे खतरे की अनभति होती है, जिससे हानि की अनुभूति होती है, उससे डर लगता है। जिससे खतरे की अनुभूति नहीं होती, हानि की अनुभूति नहीं होती, उससे कभी डर नहीं लगता। जहां लाभ की बात आती है, वहां डर नहीं लगता। सब लाभ की ओर जाते हैं। क्योंकि वह अभय का स्थान है। हानि भय का स्थान है। जिस व्यक्ति ने मैत्री भावना का विकास किया है, जिसने मैत्री अनुप्रेक्षा की है, उसने अपने भाव-परिवर्तन के द्वारा भय के व्यूह को छिन्न-भिन्न कर डाला। यह है जाति का परिवर्तन. शक्ति का परिवर्तन। कर्म का परिणाम है भय। उसको अभय में बदल दिया। यह जात्यन्तर हो गया। जात्यन्तर की प्रक्रिया का नाम है-अनुप्रेक्षा। प्रेक्षा-ध्यान करने वाला जानता है कि अनुप्रेक्षा से पूर्व कायोत्सर्ग करना होता है। वह गहन सघनता, एकाग्रता, निष्ठा और आस्था के साथ निश्चित शब्दावली में पांच-दस मिनट तक सुझाव का प्रयोग करता है। पहले कुछ क्षणों तक उच्चारणपूर्वक, फिर मन-ही-मन इससे आन्तरिक परिणमन प्रारम्भ हो जाता है। भाव में वह शक्ति है कि वह पदार्थ को भी बदल सकता है, पदार्थ में परिणमन कर सकता है। हमारे आस-पास भय के परमाणु हैं, भीतर भी भय के परमाणु हैं। हमारा प्रत्येक भाव परमाणु से जुड़ा होता है, फिर चाहे वह किसी सीमा में रसायन बन जाए, किसी सीमा में विद्युत् का प्रवाह बन जाए, कुछ भी बन जाए। ये सारे कार्य परमाणुओं से घटित होते हैं। वे परमाणु अनुप्रेक्षा से रूपान्तरित होने लग जाते हैं। ___ परा-मनोविज्ञान की चार महत्त्वपूर्ण स्वीकृतियां हैं 1. पूर्वाभास, . 2. विचार-संप्रेषण, भाव का जादू 247 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. प्रत्यक्ष-बोध, 4. चेतना के द्वारा पदार्थ का परिवर्तन। ये परा-मनोविज्ञान के चार मूल तत्त्व हैं। इसमें भाव एक शक्तिशाली साधन है जिसके द्वारा परमाणुओं का संघटन-विघटन होता है, परिवर्तन होता है। भय अभय में बदल जाता है। क्रोध करने वाला आदमी शान्त' हो जाता है। नशा करने वाला नशे से घृणा करने लग जाता है। यह सारा घटित होता है भाव-परिवर्तन के द्वारा। भाव-परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अनुप्रेक्षा। कायोत्सर्ग की मुद्रा में अनुप्रेक्षा का प्रयोग न केवल शारीरिक बीमारियों को मिटाने में सक्षम है, बल्कि मानसिक बीमारियों को मिटाने में भी इसका बहुत बड़ा प्रयोग है। एक व्यक्ति अत्यन्त शोकग्रस्त रहता है। निरन्तर चिन्तित रहता है। इस भाव को बदला जा सकता है। मोह-कर्म से मूर्छा पैदा होती है, शोक और क्रोध पैदा होता है। मूर्छा के बिना न शोक होता है और न क्रोध होता है, कुछ भी नहीं होता। भाव-परिवर्तन की प्रक्रिया के द्वारा, अनुप्रेक्षा के द्वारा शोक को प्रसन्नता में और क्रोध को क्षमा या शान्ति में बदला जा सकता है। हर्ष और शोक का एक युगल है। दोनों जुड़े हुए हैं। इनको अलग नहीं किया जा सकता। जहां हर्ष होता है, वहां शोक भी होता है और जहां शोक होता है, वहां हर्ष भी होता है। जिसने शोक का अनुभव किया है, उसे हर्ष का अनुभव भी करना होगा। जिसने हर्ष का अनुभव किया है, उसे शोक का अनुभव भी करना होगा। थावच्चापुत्र ने देखा कि पड़ोसी बच्चे के जन्म के उपलक्ष में हर्ष से झूम रहे हैं। वह क्षण हर्ष का था। कुछ घंटों बाद बच्चा मर गया। सारा कुटुम्ब शोक के महासागर में डूब गया। वह क्षण शोक का था। एक क्षण हर्ष का होता है तो दूसरा क्षण शोक का हो जाता है। और एक क्षण शोक का होता है तो दूसरा क्षण हर्ष का हो जाता है। ___लाभ के क्षणों में आदमी परम प्रसन्नता का अनुभव करता है। पदार्थ की प्राप्ति उसमें हर्ष उत्पन्न करती है। आदमी हर्ष के क्षणों में सब कुछ भूल जाता है। वह यह भी भूल जाता है कि पदार्थ का संयोग हआ है तो निश्चित ही उसका वियोग भी होगा। जब वियोग होता है 248 कर्मवाद Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब वह छटपटाता है, शोक करता है। यह भ्रान्ति अनुप्रेक्षा के द्वारा ही टूट सकती है। ___अति खुशी का परिणाम भी दूसरा होता है। कुछेक लोग इस भाषा में सोचते हैं कि अनुकूल परिस्थिति में ज्यादा खुशी प्रकट की, इसी का यह परिणाम है कि आज अत्यन्त शोक करना पड़ रहा है। इसलिए समझदार व्यक्ति अनुकूल परिस्थिति में अति हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति में अति दुःखी नहीं होता। अति हर्ष और खुशी को प्रकट करना शायद शोक और दुःख को निमंत्रण देना है। सेठ झरोखे में बैठा कांच के गिलास से पानी पी रहा था। गिलास हाथ से छूटा। नीचे जमीन पर आ गिरा, पर फूटा नहीं। दूसरों को बहुत आश्चर्य हुआ। सेठ को कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ। दूसरों ने सोचा, सेठ कितना भाग्यशाली है कि कांच का गिलास ऊपर से गिरा पर फूटा नहीं। सेठ ने सोचा, भाग्य डूब रहा है। अति हो गई। कांच का गिलास नहीं फूटा, इसका अर्थ है कि अब विपत्ति आने वाली है। कुछ दिन बीते। पासा पलट गया। सेठ के पास जो कुछ था, वह चुक गया। खाने के लिए भी कुछ नहीं रहा। पेट भरना मुश्किल हो गया। एक दिन बच्चे के लिए रोटी बनाई। रोटी तैयार हुई। इतने में ही एक कुत्ता आया और रोटी लेकर भाग गया। सब इस दयनीय स्थिति से दहल उठे। सेठ ने अपना संतुलन नहीं खोया। उसने सोचा, अति हो गई। वह प्रसन्न रहा। उसने कहा-अब विपत्ति के दिन बीत गए। जब सुख अन्तिम बिन्दु का स्पर्श कर लेता है, फिर वहां से दुःख का दौर शुरू हो जाता है और जब दुःख चरम सीमा का स्पर्श कर लेता है, तब सुख का स्पर्श प्रारम्भ हो जाता है। प्रसन्नता तीसरा तत्त्व है। जिस व्यक्ति ने प्रसन्नता के भाव का विकास किया है, वह न कभी हर्ष मानता है और न कभी शोक मानता है। हर्ष और शोक से परे की स्थिति है-प्रसन्नता। जिस व्यक्ति ने प्रसन्नता की अनुप्रेक्षा की है, उसने भाव-परिवर्तन कर लिया। जितने भाव हैं, उन सबके लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुप्रेक्षाएं हैं। ... अज्ञान एक समस्या है, बहुत बड़ा कष्ट है। एक विद्यार्थी जब भाव का जादू 246 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ नहीं पाता, बौद्धिक विकास कम होता है, स्मृति-शक्ति पर्याप्त नहीं होती, तब स्थिति जटिल बन जाती है। कुछ दिन पहले पिता अपने पुत्र को साथ लेकर मेरे पास आया। वह बोला-महाराज! बड़ी समस्या हो गई है। मेरा यह लड़का परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया। उसी दिन से यह आत्महतया की बात सोचता रहता है। न जाने क्या हो गया इसे! __मैंने सोचा-अनुत्तीर्ण होने पर प्रति वर्ष अनेक आत्महत्याएं होती हैं। पर ऐसा क्यों होता है? मेरी दृष्टि में इसका कारण है यह कि जब बच्चा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होता है, तब माता-पिता प्रसन्नता बांटते हैं, हर्ष मनाते हैं, मिठाइयां बांटते हैं, भोज करते हैं, और भी न जाने क्या-क्या करते हैं। जब उत्तीर्ण होने पर अधिक हर्ष बांटा जाएगा तो अनुत्तीर्ण होने पर अधिक शोक भी बांटा जाएगा। शोक बांटा नहीं जाता, भोगा जाता है। हर्ष तो बांटा जाता है, क्योंकि सभी लोग उसमें सहभागी बनते हैं, उसे लेते हैं। शोक बांटा नहीं जाता क्योंकि कोई भी उसे नहीं लेता। शोक को भोगना ही पड़ता है। भूख का कोई भी व्यक्ति हिस्सा नहीं बांटता। भोज में अनामन्त्रित हजारों लोग अनायास ही आ जाते हैं। भोज में निमन्त्रण दिया जाता है। भूख का कभी निमन्त्रण नहीं दिया गया। भूख व्यक्ति को ही भोगनी पड़ती है। कोई भी भाव एकान्ततः अच्छा या बुरा नहीं होता। एक पौराणिक कहानी है। एक बार दरिद्रता और लक्ष्मी-दोनों में विवाद हो गया कि कौन अधिक शक्ति-सम्पन्न है। वाद-विवाद से समाधान नहीं मिला। एक नगर में एक न्यायप्रिय सेठ रहता था। दोनों अपने विवाद का निपटारा करने उसके पास आयीं। सेठ ने दोनों के तर्क सुने। वह असमंजस में पड़ गया। उसने सोचा, यदि लक्ष्मीदेवी को नाराज करूंगा तो दर-दर का भिखारी बन जाऊंगा, यदि दरिद्रतादेवी को अप्रसन्न करूंगा तो न जाने यह क्या कहर ढाए? उसने उपाय ढूंढ़े। वह अनेकान्त की शरण में गया। वह जानता था कि जो एकान्तदृष्टि से सोचता है वह आग्रह में फंस जाता है, सम्यक् समाधान नहीं ढूंढ़ पाता। जो सापेक्षता से सोचता है, वह समीचीन समाधान दे सकता है। उसने सापेक्षता का सहारा लिया। 250 कर्मवाद Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने कहा-दोनों देवियां मेरे लिए शक्ति-सम्पन्न हैं। मैं किसको न्यून या अधिक बताऊं? फिर भी मुझे विवाद निपटाना है। आप दोनों सामने वाले पेड़ को छूकर आएं। मैं अपना निर्णय दे दूंगा। दोनों पेड़ छूकर आ गईं। सेठ बोला-दरिद्रतादेवी! तुम जाते समय बहुत सुन्दर लगती हो। लक्ष्मीदेवी! तुम आते समय बहुत सुन्दर लगती हो। दोनों सुन्दर हो। एक जाते समय सुन्दर और एक आते समय सुन्दर। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर केवल आने-जाने का है। ___हर्ष और शोक में कौन शक्तिशाली है, कौन अच्छा है, कौन बुरा है, नहीं कहा जा सकता। हर्ष भी अच्छा नहीं है, क्योंकि उसके साथ शोक जुड़ा हुआ है। शोक भी बुरा नहीं है, क्योंकि उसके साथ हर्ष जुड़ा हुआ है। जब दोनों जुड़े हुए हैं तो यही कहा जा सकता है कि हर्ष आते समय अच्छा लगता है और शोक जाते समय अच्छा लगता है। ये दोनों प्रणम्य हैं। . जिस व्यक्ति में प्रसन्नता का भाव विकसित हो जाता है, वह हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से ऊपर उठ जाता है। ___ प्रेक्षाध्यान का मुख्य उद्देश्य है-भावात्मक परिवर्तन। भाव का सम्बन्ध कर्मों के साथ है। हमारी आन्तरिक चेतना के साथ वे सब जुड़े हुए हैं। वे भाव विकृतियां और बीमारियां पैदा करते हैं। बीमारियां शारीरिक और मानसिक-दोनों प्रकार की होती हैं। भावों में परिवर्तन आने पर विकृतियां और बीमारियां मिट जाती हैं। भाव को भाव के द्वारा ही बदला जा सकता है। हीरे को हीरा ही काट सकता है। सजातीय को सजातीय काट सकता है। इसी प्रकार भाव के द्वारा ही भावात्मक परिवर्तन घटित हो सकता है। प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा, ये दोनों भाव हैं। हम इनके प्रयोग से विधायक भावों का प्रयोग कर निषेधात्मक भाव को समाप्त कर सकते हैं। इससे कर्म का वलय टूटता है, छिन्न-भिन्न होता है। भाव का जादू 251 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्म और पलायनवाद एक महिला साहित्यकार ने पूछा-क्या ध्यान पलायनवाद नहीं है? मैंने सोचा, आदमी में कर्म से इतना प्रेम हो गया है कि अकर्म में उसे पलायन की गंध आने लगी है। आदमी निरंतर कर्म करना चाहता है, पर सचाई यह है कि वह निरंतर कर्म कर नहीं पाता, फिर भी इस दुनिया का आदमी यह कभी नहीं चाहता कि कोई व्यक्ति कर्म को छोड़कर अकर्म की दिशा में प्रस्थान करे। कर्म से प्रेम है और अकर्म से डर लगता है। वह स्वयं अकर्म होना नहीं चाहता और यदि कोई अकर्म होता है तो उसे होने नहीं देता। वह चाहता है कि सभी कर्म से बंधे रहें। पता नहीं, यह प्रवृत्ति कब हुई? क्यों हुई? और कैसे हुई? इसलिए बहुत लोग संन्यास को, ध्यान को और त्याग को पलायनवादी मनोवृत्ति मानते हैं। ___ हम इस विषय में कुछ विमर्श करें कि क्या ध्यान करना एक पलायन है? यदि पलायन है तो वह सामाजिक व्यक्ति को मान्य नहीं हो सकता। ध्यान की बात ही समाप्त हो जाती है और उससे समाज तथा राष्ट्र को खतरा हो सकता है। इसलिए भय लगता है कि कोई भी व्यक्ति ध्यान में चला न जाए, त्याग में जुड़ न जाए। समाज संघर्ष और समस्याओं से जुड़ा हुआ है। यहां अनेक समस्याएं हैं। प्रश्न होता है, समस्या क्यों उत्पन्न होती है? जहां कर्म होगा और जहां संघर्षण होगा, वहां समस्या होगी। इस समस्या को टाला नहीं जा सकता। कर्म संघर्ष को पैदा करता है और संघर्ष स्वयं एक समस्या है। वह अनेक समस्याओं का उत्पादक है। एक बार बादशाह ने बीरबल से कहा-जिनके पीछे 'वान' शब्द लगता है, वे सारे झगड़ालू होते हैं, जैसे-पहलवान, गाड़ीवान आदि। बीरबल 252 कर्मवाद Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोला-हां, मेहरवान! आप ठीक फरमाते हैं। जहां-जहां धान जुड़ता है, वहां संघर्ष होता है। जहां-जहां कर्म है, वहां संघर्ष होना अनिवार्य है। उसे टाला नहीं जा सकता। प्रश्न होता है कि क्या समाज और व्यक्ति को निरंतर समस्याओं में ही जीना है? क्या ऐसा कोई उपाय भी है, जिससे समाज और व्यक्ति शांतिपूर्ण जीवन जी सके? मैं श्मशान की शान्ति की बात नहीं कर रहा हूं। मैं मानसिक तनाव से मुक्त होकर एक सौहार्दपूर्ण, मैत्रीपूर्ण जीवन की बात कर रहा हूं। प्रतिप्रश्न होता है कि क्या यह सम्भव है? हां, यह सम्भव है। तभी सम्भव है, जब कर्म की पृष्ठभूमि में अकर्म बना रहे। ज्ञान की पृष्ठभूमि में ध्यान बना रहे। कोरा ज्ञान अनेक खतरे पैदा करता है। पर जब ज्ञान के साथ ध्यान रहता है तो सारे खतरे टल जाते हैं। सचाई यह है कि कोई भी कर्म अकर्म के बिना चल नहीं सकता। हम मानते हैं कि हृदय धड़कता है, इसलिए आदमी जीता है। यह एक सचाई है। पर इनके पीछे यह बड़ी सचाई है कि हृदय नहीं धड़कता, इसलिए वह भी चलता है और आदमी भी जीता है। हृदय धड़कता है, विश्राम लेता है, फिर धड़कता है, फिर विश्राम करता है, इसीलिए धड़कता है। यदि हृदय विश्राम न करे, निन्तर धड़कता रहे तो वह टूट जाएगा। हृदय इसलिए नहीं टूटता कि वह धड़कता है और विश्राम लेता है। विश्राम और श्रम-दोनों साथ-साथ चलते हैं। इसी प्रकार कर्म और अकर्म-दोनों साथ-साथ चलते हैं। अकर्म न हो तो कर्म चल नहीं सकता। एक आदमी सोचता है और यदि वह निरन्तर सोचता ही रहे तो अधिक दिनों तक सोच नहीं सकता। वह सोच नहीं सकेगा। अतियोग हो जाएगा। अतियोग का अर्थ है-समाप्ति। एक आदमी चलना प्रारम्भ करे तो कुछ दिनों तक चल सकता है, पर लम्बे दिनों तक चल नहीं पाएगा। थक जाएगा, बैठ जाएगा। इसीलिए प्रत्येक क्रिया के साथ अक्रिया का योग होना चाहिए। क्रिया और अक्रिया, कर्म और अकर्म, प्रवृत्ति और निवृत्ति-इन युगलों का योग होता है, तब क्रिया अच्छी होती है, कर्म अच्छा होता है और प्रवृत्ति अच्छी होती है। हम इस सचाई को अकर्म और पलायनवाद 253 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न भूलें कि ध्यान करना जीवन से पलायन करना नहीं है, प्रवृत्ति से हट जाना नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति के दोषों को समाप्त करना है। प्रवृत्ति और कर्म में आने वाली मलिनताएं, दोष, भ्रान्तियां, समस्याएं-ये सब ध्यान के द्वारा दूर होते हैं। यह बात समझ में आने पर ध्यान पलायनवाद है-इसका निरसन हो जाता है। प्रेक्षा-ध्यान अकर्म का प्रयोग है। हमारी क्रिया के साथ तीन बातें जुड़ी रहती हैं-(१) मैं जानता हूं, (2) मैं करता हूं (3) मैं भोगता हूं। पहली बात है कि मैं जानता हूं। प्रश्न होता है, क्या जानें? कुछ भी जानें। ज्ञान में कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ ज्ञेय है। ज्ञेय सब-कुछ है, चाहे अच्छा हो या बुरा हो। ज्ञेय की दृष्टि में न कोई अच्छा होता है और न कोई बुरा होता है। वहां मात्र जानना होता है। दूसरी बात है मैं करता हूं। यहां अच्छा और बुरा, आवश्यक और अनाश्वक, उपयोगी और अनुपयोगी जुड़ जाएगा। एक आदमी एक समय अच्छा काम करता है, आवश्यक और उपयोगी काम करता है। वह आदमी दूसरे समय में बुरा काम करता है, अनावश्यक और अनुपयोगी काम करता है। करने के साथ विभाजन हो जाता है। ज्ञान के साथ विभाजन नहीं होता। तीसरी बात है-मैं भोगता हूं। भोगने की बात कर्म में दोष उत्पन्न करती है। क्रिया अपने आप में दोषपूर्ण नहीं होती। उसमें दोष आता है भोक्ता की स्थिति से। एक कार्य किया, उसके साथ भाव कैसा रहा? उसके पीछे भोगने की मनःस्थिति क्या रही? भोगने का अर्थ है-अच्छा काम करने पर अहंकार का आ जाना, बुरा काम करने पर निराशा का आ जाना, हीनभावना का आ जाना। आदमी इन सारी वृत्तियों को भोगता है। वह इन वृत्तियों की परिधि में घूम रहा है। आदमी कभी अहंकार को भोगता है, कभी हीनभावना को भोगता है। कभी वह हर्ष का अनुभव करता है और कभी विषाद का अनुभव करता है। कभी वह सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का अनुभव करता है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, अहंकार-हीनभावना-इन सारी वृत्तियों के साथ आदमी कार्य को भोगता है। ये सारी वृत्तियां व्यक्ति में उत्पन्न होती हैं। मनुष्य में 254 कर्मवाद Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में ये वृत्तियां होती हैं। एक बार जंगल के सारे खरगोश एकत्रित हुए। परस्पर चर्चा चली कि हमारा भी जीवन कोई जीवन है? निरन्तर इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। अनेक प्राणियों का भय बना रहता है। इससे तो अच्छा है कि हम अपने जीवन को समाप्त कर दें। ऐसे जीवन से तो मौत अच्छी है। सब एकमत हुए और पास की नदी में डूब मरने की बात सोच ली। सब नदी के तट पर पहंचे। खरगोशों की पदचाप सुनकर नदी के मेंढक इधर-उधर फुदकने लगे। मेंढकों को फुदकते देखकर एक बूढ़े खरगोश ने अपने साथियों से कहा-अरे! सबने यह क्या सोचा? इतने छोटे-छोटे जीव भी मजे में जी रहे हैं। हम तो इनसे बहुत बड़े हैं। तत्काल सबका भाव बदला। उनके मन से मरने की बात निकल गई। आशा-निराशा, अहंभाव-हीनभाव-ये प्रत्येक घटना और दृश्य के साथ आते रहते हैं। यह भोक्ताभाव है। भोक्तृता है। ध्यान का प्रयोजन है-ज्ञाता-भाव को विकसित करना, भोक्ताभाव को कम करना। जब भोक्ताभाव कम होता है, तब समस्याओं का समाधान होता है। जानो और देखो। जब जानने और देखने की स्थिति पुष्ट होती है, तब भोगने की स्थिति अपने आप कमजोर हो जाती है। जो आदमी भोगता है, उसकी स्थिति विचित्र बन जाती है। वह हर घटना के साथ तादात्म्य जोड़ लेता है, और तब उसमें उसी प्रकार के भाव उभर आते हैं। जब वह रंगमंच के सामने बैठा होता है, अभिनय को देखता है, तब रुदन को देखकर स्वयं रोने लग जाता है, करुण दृश्य को देखकर स्वयं करुण बन जाता है। कभी हंसने लग जाता है और कभी रोने लग जाता है। कभी हीन बनता है और कभी दीन बन जाता है। यह घटना के साथ बह जाने की मनोवृत्ति है। यह कर्म की प्रखर मनोवृत्ति है। इस मनोवृत्ति को समाप्त करना, कर्म की मलिनता को समाप्त करना, कर्म को शुद्ध करना-यह है अकर्म। अकर्म का अर्थ कर्म न करना नहीं है। ज्ञाता-द्रष्टा बनने का अर्थ कर्म से पलायन नहीं है। ज्ञाता-द्रष्टा बनने से भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी, अर्थ मिल जाएगा, ऐसा नहीं होता। आदमी कर्म को छोड़ नहीं सकता। उसके दोष को मिटाया जा सकता है। कर्म अकर्म और पलायनवाद 255 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिटाना नहीं है, उसके दोष को समाप्त करना है। जब तक शरीर है, तब तक कर्म रहेगा। कोई भी शरीरधारी सभी कर्मों को छोड़ नहीं सकता। शरीर और जीवन की आवश्यकता है, तब कर्म रहेगा ही। आदमी कर्म को नहीं छोड़ सकता पर कर्म को अकर्म बना सकता है। उस व्यक्ति का कर्म कर्म होता है, जिसके साथ आसक्ति है, लेप है, तीव्र राग-द्वेष का अध्यवसाय है। उस व्यक्ति का कर्म अकर्म होता है, जिसमें प्रिय-अप्रिय संवेदन कम हो जाते हैं, आसक्ति और लिप्तता कम हो जाती है। अकर्म बनाना ही ध्यान का प्रयोजन है। जो व्यक्ति इस सचाई को समझ जाता है, वह पलायनवाद की भाषा में नहीं सोच सकता। वह सोचेगा कि सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के लिए, उन समस्याओं से जूझने के लिए ध्यान बड़ी शक्ति है, अचूक उपाय है। जब यह शक्ति आती है, तब समाज में शुद्धियां आती हैं। सभी अपराध इसीलिए पनपते हैं कि आदमी कर्म को अधिक महत्त्व देता है। चोरी, डकैती, संघर्ष, झगड़े-ये सारे कर्म के परिणाम हैं। इन्हें कभी रोका नहीं जा सकता। एक ओर धर्म को महत्त्व दिया जा रहा है और दूसरी ओर इन सभी अपराधों की रोकथाम की बात सोची जा रही है। वे लोग ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें हत्याएं, मारकाट, चोरियां और डकैतियां न हों। अपराध न हों। ये सारे कर्म के परिणाम हैं, स्फुलिंग हैं। कर्म हो और ये न हों, ऐसा कैसे हो सकता है। आग जलेगी तो चिनगारियां उछलेंगी। आग जले और चिनगारियां न हों, ऐसा हो नहीं सकता। जब कर्म की आग जलती रहती है, तब अपराध की चिनगारियों को मिटाया नहीं जा सकता। पर हम एक व्यवस्था कर सकते हैं। आग को अनुशासित करना होगा। चूल्हा इसीलिए बना कि आग अनियन्त्रित न हो, नियन्त्रित रहे। आग नियन्त्रित रहती है, तभी वह उपयोगी होती है। आग को अनुशासित करना आवश्यक है। कर्म को अनुशासित करना होता है। कर्म को अनुशासित करने का उपाय है-अकर्म। आचार्य उमास्वाति ने कहा-'जगत्कायस्वभावः संवेगवैराग्याभ्याम्'जगत् और शरीर के स्वभाव को जानना बहुत जरूरी है। उसको जानने के दो साधन हैं-संवेग और वैराग्य। यह जानने की प्रक्रिया अनुप्रेक्षा 256 कर्मवाद Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रक्रिया है। जगत् और शरीर को जानने का परिणाम होता है कर्म की शुद्धि। जगत् को समझने से संवेग होता है और काया को समझने से वैराग्य उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति जगत् के स्वरूप और स्थिति को जानता है, वह संवेग से भर जाता है। जो काया की स्थिति और स्वरूप को जान लेता है, वह वैराग्य से भर जाता है। जब वह सूक्ष्म शरीर-कर्मशरीर को देखता है जब वहां होने वाले प्रकम्पनों को जानने लगता है और वह समझ जाता है कि अमुक कर्म का अमुक परिणाम हो रहा है। उससे मन में विरक्ति पैदा होती है। जो व्यक्ति कर्म को नहीं जानता, कर्म के स्वभाव को नहीं जानता, वह पदार्थ के आकर्षण से मुक्त नहीं हो सकता। उसमें पदार्थासक्ति बनी रहती है। जो व्यक्ति कर्म के विषय में अनुचिन्तन करता है, कर्म की अनुप्रेक्षा करता है, वह कैसे कर्मों से बचेगा, जिसका परिणाम अनिष्ट होता है। परिणाम-प्रेक्षा, विपाक-दर्शन, कर्मबन्ध की स्थिति-इनका अनुचिन्तन वैराग्य उत्पन्न करता है। ऐसा अनुचिन्तन करने वाला व्यक्ति अनेक कर्मों से बचने का प्रयत्न करता है। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए कर्म को जानना बहुत आवश्यक है। इतना आवश्यक है कि जितना जीने के लिए श्वास आवश्यक है। जो कर्म के विषय में नहीं जानता, वह अध्यात्म के अर्थ को नहीं समझता। अध्यात्मवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण संधिस्थल है-कर्म का ज्ञान। प्रत्येक भाव के पीछे कर्म बना हुआ होता है। मन में हिंसा, झूठ, चोरी के भाव आते हैं, बुरे सपने आते है, उनमें शारीरिक और रासायनिक, दोनों कारण हैं। उन सबकी जड़ में जो छिपा हुआ कारण है, वह है कर्म। इस कर्म को जान लिया जाता है, तब स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है। कर्म को समझना अकर्म की दिशा में प्रस्थान करना है। __कर्म के दो रूप हैं-एक भीतर में है, जो परमाणु के रूप में विद्यमान है। एक कर्म जो प्रवृत्ति के रूप में सामने आ रहा है। जब तक आन्तरिक कर्म का शोधन नहीं होता, तब तक व्यावहारिक कर्म का शोधन नहीं हो सकता। उसके अभाव में सौहार्द, मैत्री, मृदुता आदि-आदि धर्मों का भी विकास नहीं हो सकता। जिसके मन में भय रहता है कि बुरे कर्म के परिणाम बुरे होते हैं, वह बुरे कर्मों से बच जाता है। यह बड़ा नियन्त्रण, अकर्म और पलायनवाद 257 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे बड़ा नियन्त्रण है-कर्म का बोध और कर्म का विवेक। जो इस नियन्त्रण से नियन्त्रित हैं, वे निश्चित ही बुरे कर्मों से भय खाते हैं। जो इस नियन्त्रण से बाहर हैं, वे भय नहीं खाते। ___अध्यापक ने विद्यार्थी से पूछा-बताओ, शेर से कौन जानवर नहीं डरता? बच्चा बुद्धिमान था, वह तत्काल बोला-महाशयजी! शेर से शेरनी नहीं डरती। और सभी जानवर शेर से डरते हैं, पर शेरनी शेर से कभी नहीं डरती। कर्म को जान लेने के बाद सब में प्रकंपन होता है। बस, कोई शेरनी जैसे व्यक्ति में प्रकंपन नहीं होता। ___ कर्म की सचाई को समझना ध्यान की सचाई को समझना है। अकर्म का महत्त्वपूर्ण पहलू है-देखना, जानना। अकर्म का अर्थ-न करना नहीं है। कोई भी आदमी यथार्थ की समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता। भूख, प्यास आदि शारीरिक समस्याएं हैं और क्रोध, अहंभाव, हीनभावं आदि मानसिक समस्याएं हैं। ये भावात्मक समस्याएं यथार्थ की समस्याएं हैं। इन समस्याओं के कारण ही सामाजिक और पारिवारिक जीवन में जटिलताएं आती हैं। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए कर्म का दोष मिटाना, अकर्म में जाना, ध्यान करना अत्यन्त आवश्यक है। इस बात को हम स्पष्ट समझ लें कि शारीरिक समस्याओं को सुलझाने के लिए ध्यान की उतनी उपयोगिता नहीं है, जितनी उपयोगिता भावात्मक समस्याओं से निपटने के लिए है। काम, क्रोध, भय, प्रमाद, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, कामवासना, प्रिय-अप्रिय भाव-ये भावात्मक समस्याएं आदमी को बहुत सताती हैं। इनका तनाव दीर्घ समय तक बना रहता है। भूख आदि शारीरिक आवश्यकताओं का तनाव दीर्घ समय तक नहीं रहता। इसीलिए काम, क्रोध आदि वृत्तियां बहुत खतरनाक होती हैं। ये वृत्तियां ही कर्म में दोष उत्पन्न करती हैं। ध्यान से कर्म में शुद्धता आती है। यह पलायन नहीं है। यह जीवन की सार्थकता है। एक समय की घटना है। मन्त्री ने राजा से कहा-राजन्! आप राज्य की पूरी देखभाल नहीं कर रहे हैं, इसलिए राज्य की स्थिति बिगड़ती जा रही है। आपका अधिक समय रानियों के साथ अन्तःपुर में बीतता 258 कर्मवाद Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इस प्रमाद के कारण अनेक समस्याएं उभर रही हैं। आप क्षमा करें। मेरी बात पर ध्यान दें। राजा ने सुना-अनसुना कर दिया। मन्त्री की बात पर ध्यान नहीं दिया। मन्त्री ने सोचा-अब कहने से कुछ होने वाला नहीं है। मुझे कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिए। एक दिन मन्त्री राज्य को छोड़कर चला गया। वह संन्यासी बनकर एक गुफा में साधना करने लगा। मन्त्री की अनुपस्थिति में राज्य की स्थिति और अधिक बिगड़ गई, क्योंकि वही सारे कार्यभार को संभाले हुए था। राजा को पता चला। उसने पूछा-मन्त्री कहां है? सभासदों ने कहा-वह राज्य को छोड़कर संन्यासी बन गया है। राजा ने सोचा-मैं राज्य का संचालन नहीं कर सकता। मन्त्री को ही बुलाना होगा। वह कुछेक कर्मचारियों को साथ लेकर पहाड़ी पर पहुंचा, जहां मन्त्री संन्यासी के वेश में साधना कर रहा था। राजा ने कहा-मन्त्री! पलायन कर गए? यहां आकर संन्यासी का वेश बनाकर बैठ गए? राज्य का कार्य कैसे चलेगा? मन्त्री बोला-राजन्! मुझे विरक्ति हो गई है। मैं संन्यासी ही बना रहूंगा। - राजा कर्म की. भाषा को जानता था। अकर्म के रहस्य से वह अजान था। वह बोला-मन्त्रीवर! यह क्या सोचा तुमने! जब तुम मन्त्री पद पर थे तब सर्वाधिकार सम्पन्न थे। इतने बड़े राज्य के तुम सर्वोच्च अधिकारी थे। अब बताओ, तुम साधु बन गए? क्या मिला तुमको? रोटी के लिए भी तुम्हें आज दूसरों के आगे हाथ पसारना होता है। संन्यासी बोला-राजन्! बहुत कुछ मिला है। जो पहले प्राप्त नहीं था, आज मुझे वह प्राप्त है। देखें, पहले मुझे आपके पास आना पड़ता था, आज इस संन्यस्त अवस्था में आपको मेरे पास आना पड़ा है। यह संन्यास का चमत्कार है। यह अकर्म का चमत्कार है। . कोई इसे पलायन कह सकता है। पर पलायन कोई बुराई नहीं है। कभी-कभी पलायन स्थिति का समाधान दे देता है, समस्या को सुलझा देता है। ___ध्यान को भी कुछेक व्यक्ति पलायन कह सकते हैं और परिवार अकर्म और पलायनवाद 256 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले समझ सकते हैं कि घर का काम न संभाल सकने के कारण आंखें मूंदकर बैठ जाना ही ध्यान है। ऐसा पलायन भी संभवतः पारिवारिक और सामाजिक स्थिति को नया मोड़ दे सकता है। नयी चेतना का जागरण हो सकता है और उससे व्यवहार की शुद्धि, प्रामाणिकता, सचाई का प्रादुर्भाव हो सकता है। उस स्थिति में परिवार एक नया परिवार बन सकता है और समाज एक नया समाज बन सकता है। ऐसा पलायन बुरा भी क्या है? अनेकान्त को समझने वाला किसी पलायन से नहीं डरता। वह सापेक्षता से अर्थ की मीमांसा करता है। वह जान जाता है कि पलायन अच्छा भी होता है और बुरा भी होता है। ध्यान को कोई पलायन माने तो भले ही माने, पर यह पलायन भी समस्या का समाधान दे सकता है। जब संवेग और वैराग्य की स्थिति बनती है, तब समस्याएं सुलझती हैं। तीन बातें हैं-कर्म, कर्म और अकर्म। हमारे साथ कर्म का बंधन है और कर्म का यह बंधन नये बंधन को पैदा करता है। बंधन बंधन को जन्म देता है। सजातीय सजातीय को जन्म देता है। कर्म से कर्म का बन्धन नहीं टूटता। अकर्म से कर्म का बन्धन टूटता है। हमें अकर्म में जाना होगा। कर्म को क्षीण करने का एकमात्र उपाय है"अकर्म। प्रश्न था कि क्या ध्यान से कर्म का क्षय होता है? यदि होता है तो ध्यान की बहुत बड़ी सार्थकता है। यदि ध्यान से बन्धन टूटता है तो उसकी बहुत बड़ी सार्थकता है। यदि ध्यान से कर्म का क्षय नहीं होता, बंधन नहीं टूटता तो फिर ध्यान का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। एक घंटा ध्यान किया और कुछ ताजगी आ गई, विश्राम मिला, शान्ति मिली तो यह ध्यान का प्रासंगिक फल है, गौण फल है। यदि इतने मात्र से ही संतोष कर लिया जाता है तो ध्यान के मुख्य फल की ओर ध्यान नहीं जाता। ध्यान का मुख्य प्रयोजन है कार्मिक बन्धन और पुराने संस्कारों से छुटकारा पाना। ये पुराने संस्कार ही भावों को दूषित बनाते हैं, मलिनता पैदा करते हैं। जब ये संस्कार टूटते हैं, तब व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण होता है। कर्म का निर्जरण ही ध्यान का मुख्य प्रयोजन है। इस प्रयोजनपूर्ति के लिए यदि दस दिन लगाए जाते हैं तो थोड़े 260 कर्मवाद Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, दस हजार दिन भी थोड़े होंगे। कर्मवाद और ध्यान की मीमांसा से हम फिर एक निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि ध्यान के द्वारा हम कर्म से अकर्म की ओर प्रस्थान करते हैं। वैदिक ऋषियों ने मंगलकामना की थी-तमसो मा ज्योतिर्गमय-अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाला व्यक्ति यह मंगल-भावना करे-कर्मणः अकर्मगमय-कर्म से अकर्म की ओर ले चलो। अकर्म प्रकाश है, कर्म अंधकार है। अकर्म भयमुक्त है, कर्म भयमय है। प्रत्येक ध्यान-साधक यह मंगल-भावना करे कि कर्म के सारे दोष और सारी मलिनताएं समाप्त हों, कृत्रिम समस्याएं और कल्पनाएं नष्ट हों। वह इस सचाई का अनुभव करे कि अकर्म का विकास किए बिना कर्म के साथ उत्पन्न होने वाला दोष कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए हम अकर्म की दिशा में आगे बढ़ें और ध्यान जीवन का अनिवार्य अंग बने। अकर्म और पलायनवाद 261 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद कुछ प्राणी संवेदन करते हैं, जानते नहीं। कुछ प्राणी जानते हैं, संवेदन नहीं करते। कुछ प्राणी जानते भी हैं और संवेदन भी करते हैं। अचेतन न जानता है और न संवेदन करता है। ये चार विकल्प हैं। .. पहले विकल्प में संवेदन है, ज्ञान नहीं। यह चेतना का निम्न स्तर है। यह वृत्ति का स्तर है। इसके आधार पर जीवन जीया जा सकता है, पर चैतन्य का विकास नहीं किया जा सकता। दूसरा विकल्प शुद्ध ज्ञान का है। इसमें संवेदन नहीं है, कोरा ज्ञान है। संवेदन का माध्यम शरीर है। मुक्त आत्मा के शरीर नहीं होता। जिसके शरीर नहीं होता, वह प्रिय और अप्रिय-दोनों का स्पर्श नहीं करता। तीसरे विकल्प में ज्ञान और संवेदन-दोनों हैं। यह मानसिक और बौद्धिक विकास का स्तर है। इस स्तर में चैतन्य के विकास की पर्याप्त संभावना होती है। जैसे-जैसे हमारा ज्ञान विकसित होता चला जाता है, वैसे-वैसे हम संवेदन के धरातल से उठकर ज्ञान की भूमिका को विकसित करते चले जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी ज्ञान की भूमिका विकसित होती है, वैसे-वैसे हम आत्मा के अस्तित्व में प्रवेश पाते हैं। हम अपने अस्तित्व में तब तक प्रवेश नहीं पाते, जब तक संवेदन का धरातल नीचे नहीं रह जाता है। आचार्य अमितगति के शब्दों में-'अज्ञानी संवेदन के धरातल पर जीता है और ज्ञानी ज्ञान के धरातल पर।' मनुष्य दो धरातल पर जीते हैं। ज्ञानी मनुष्य जानते हैं किन्तु संवेदन नहीं करते। जो घटना घटित होती है, उसे जानते-देखते हैं किन्तु उसका संवदेन नहीं करते। भार नहीं ढोते। अज्ञानी मनुष्य जानते नहीं, संवेदन करते हैं। वे स्थिति 262 कर्मवाद Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भार ढोते हैं। वेदान्त का साधन-सूत्र है कि साधक द्रष्टा होकर जीए। वह घटना के प्रति साक्षी रहे, उससे देखे, किन्तु उससे प्रभावित न हो, उसमें लिप्त न हो। ____ ज्ञान होना और संवेदन न होना-यह द्रष्टा का जीवन है। मेरे हाथ में कपड़ा है। मैं इस कपड़े को जानता हूं, देखता हूं। मैं इस कपड़े को कपड़ा मानता हूं। इससे अधिक कुछ नहीं मानता। यह ज्ञान का जीवन है, यह आत्म-दर्शन है। प्रश्न हो सकता है-'यह आत्म-दर्शन कैसे? यह तो वस्त्र-दर्शन है। वस्त्र-दर्शन को हम आत्म-दर्शन कैसे मान सकते हैं?' इसका उत्तर बहुत साफ है। मैं वस्त्र को जानता हूं। मैं केवल जानता हूं, उसके साथ कोई संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। इसका अर्थ है, मैं ज्ञान को जानता हूं और ज्ञान को जानने का अर्थ है, मैं अपने आपको जानता हूं। ज्ञान और ज्ञानी सर्वथा अभिन्न नहीं हैं और सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं। बहुत सारे लोग आत्म-दर्शन करना चाहते हैं। आत्म-दर्शन का उपाय बहुत जटिल माना जाता है; मैं आपको बहुत सरल उपाय बता रहा हूं। आप इस वस्त्र को देखें। यह आपका आत्म-दर्शन है। आप वस्त्र को देख रहे हैं, तब केवल वस्त्र को नहीं देख रहे हैं। जिससे वस्त्र को देख रहे हैं, उसे भी देख रहे हैं, अपने ज्ञान को भी देख रहे हैं। जहां केवलज्ञान का प्रयोग होता है वहां अपने अस्तित्व का अनुभव होता है। अपने अस्तित्व का अर्थ है-केवलज्ञान का अनुभव / ज्ञान में किसी दूसरी भावना का मिश्रण हुआ कि वह संवेदन बन गया। ज्ञान का धरातल छूट गया। केवलज्ञान का अनुभव करना, अपने अस्तित्व का अनुभव करना है। अपना अस्तित्व उससे पृथक नहीं है। मैं ज्ञान का अनुभव कर रहा हूं, इसका अर्थ है कि जहां से ज्ञान की रश्मियां आ रही हैं उस आत्म-सत्ता का अनुभव कर रहा हूं। क्योंकि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। केवलज्ञान का प्रयोग करने का अर्थ है-अपने आपको जानना और अपने आपको जानने का अर्थ है-केवलज्ञान का प्रयोग करना। इस अर्थ में केवलज्ञान का प्रयोग और आत्म-दर्शन एक ही बात है। - ज्ञान की निर्मल धारा में जब राग और द्वेष का कीचड़ मिलता कर्मवाद 263 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, अहं और मोह की कलुषता मिलती है, तब वह केवलज्ञान या शुद्ध ज्ञान की धारा संवेदन की धारा बन जाती है। इस धारा में न शुद्ध चैतन्य का अनुभव होता है और न आत्म-दर्शन होता है। ... ज्ञान और संवेदन-यह कर्मवाद की पृष्ठभूमि है। ___अविभक्त बंगाल में चौबीस परगना जिला था। उस जिलें में एक गांव है-कोल्हू। वहां एक व्यक्ति रहता था। उसका नाम था भूपेशसेन। वह बंगाली गृहस्थ था। बहुत बड़ा भक्त था। इतना बड़ा भक्त कि वह भक्ति में बैठता, तब तन्मय हो जाता। बाहरी दुनिया से उसका सम्बन्ध टूट जाता। एक दिन वह भक्ति में बैठा और तन्मय हो गया। बाहर का भान समाप्त हो गया। अन्तर में पूरा जागृत किन्तु बाहर से सुप्त। एक व्यक्ति आया और चिल्लाया, 'भूपेश! क्या कर रहे हो? उठो और संभलो।' वह बहुत जोर से चिल्लाया, किन्तु भूपेश को कोई पता . नहीं चला। उसने भूपेश का हाथ पकड़कर झकझोरा, तब भूपेश ने आंखें खोली और कहा, 'कहिए, क्या बात है?' आगन्तुक बोला, 'मुझे पूछते हो क्या बात है? यहां आंखें मूंदे बैठे हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारे इकलौते . बेटे को सांप काट गया और वह तत्काल ही मर गया।' भूपेश ने कहा, ‘जो होना था सो हुआ।' आगन्तुक बोला, 'अरे! तुम कैसे पिता? मैंने तो दुःख का संवाद सुनाया और तुम वैसे ही बैठे हो? लगता है कि पुत्र से तुम्हें प्यार नहीं है। तुम्हें शोक क्यों नहीं हुआ? तुम्हें चिन्ता क्यों नहीं हुई? तुम्हें दुःख क्यों नहीं हुआ? तुम्हारी आंखों से दो आंसू क्यों नहीं छलक पड़े?' भूपेश ने कहा, 'जिस दिन बेटा आया था तो मझे पूछकर नहीं आया था और आज वह लौट गया तो मुझे पूछकर नहीं लौटा। उस दिन मैंने कुछ नहीं किया था। आज भी मुझे कुछ नहीं करना है। यह जन्म और मरण की अनिवार्य शृंखला है, जिसमें मेरा हाथ नहीं है। मनुष्य आता है, चला जाता है। तुम्हें इतनी क्या चिन्ता है?' आगन्तुक चुप हो गया। उसके पास बोलने के लिए कुछ नहीं बचा। कुछ क्षण रुककर वह बोला, 'अब उसकी चिता जलानी है, साथ चलो।' भूपेश उसके साथ गया। पुत्र की अर्थी श्मशान में पहुंची। चिता में पुत्र को सुला, आग लगाकर कहा, 'बेटे, तुम जिस घर से आए 264 कर्मवाद Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे, उसी घर में जा रहे हो। आज से हमारा सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया है। यह घटना का केवलज्ञान है। इसके साथ संवेदना का कोई तार जुड़ा हुआ नहीं है। जो घटित हुआ, उसे उसी रूप में स्वीकार किया गया है। मनुष्य जब इस स्थिति में पहुंच जाता है, तब ज्ञान की भूमिका प्रशस्त हो जाती है। भगवान् महावीर की वाणी में इसी का नाम संवर है। जहां केवलज्ञान रहता है, केवल आत्मा की अनुभूति रहती है, वहां विजातीय तत्त्व का आकर्षण बन्द हो जाता है। ___आत्मा की दो स्थितियां हैं-एक अस्वीकार की और दूसरी स्वीकार की। केवल ज्ञान का अनुभव होना अस्वीकार की स्थिति है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की अवस्था में विजातीय तत्त्व का कोई प्रवेश, संक्रमण या प्रभाव नहीं होता। संवेदन स्वीकार की स्थिति है। संवेदन के द्वारा हमारा बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होता है। हम बाहर से कुछ लेते हैं और उसे अपने साथ जोड़ते हैं। जोड़ने की भावधारा का नाम 'आश्रव' और विजातीय तत्त्व के जुड़ने का नाम 'बंध' है। आत्मा के साथ जुड़ा हुआ विजातीय तत्त्व, परिपक्व होकर अपना प्रभाव डालता है, तब उसका नाम 'कर्म' हो जाता है। वह अपना प्रभाव दिखाकर विसर्जित हो जाता है। कोई भी विजातीय तत्त्व आत्मा के साथ निरन्तर चिपका नहीं रह सकता। या तो वह अवधि का परिपाक होने पर अपना प्रभाव दिखलाकर स्वयं चला जाता है, या प्रयत्न के द्वारा उसे विलग कर दिया जाता है। यह विलग करने का प्रयत्न 'निर्जरा' है। तपस्या से कर्म निर्जीर्ण होते हैं, इसलिए उसका (तपस्या का) नाम निर्जरा है। निर्जरा का चरम बिन्दु मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है-केवल आत्मा। आत्मा और पुद्गल का जो योग है, वह बन्धन है, संसार है। केवल आत्मा के अस्तित्व का होना, पुद्गल का योग न होना ही मोक्ष है। इसकी अनुभूति धर्म के हर क्षण में की जा सकती है। __ आश्रव और संवर, बंध और निर्जरा-इन चार तत्त्वों को समझने पर ही कर्म की वास्तविकता को समझा जा सकता है। केवल चैतन्य का अनुभव होना संवर है। चैतन्य के साथ राग-द्वेष का मिश्रण होना कर्मवाद 265 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रव है। इसके द्वारा कर्म परमाणु आकर्षित होते हैं। वे चैतन्य को आवृत करते हैं-ज्ञान और दर्शन की क्षमता पर आवरण डालते हैं। वे आत्मा के सहज आनन्द को विकृत कर, उसके दृष्टिकोण और चरित्र में विकार उत्पन्न करते हैं। वे आत्मा की शक्ति को स्खलित करते हैं। कुछ कर्म-परमाणु शरीर-निर्माण और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं। इस प्रकार आश्रव बंध का निर्माण करता है और बंध पुण्य-कर्म और पाप-कर्म के द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है। जब तक आत्मा केवलज्ञान के अनुभव की अवस्था को प्राप्त नहीं होता, तब तक वह वर्तुल चलता ही रहता है। जीव में भी अनन्त शक्ति है और पुद्गल में भी अनन्त शक्ति है। जीव में दो प्रकार की शक्तियां होती हैं 1. लब्धिवीर्य-योग्यतारूप शक्ति। 2. करणवीर्ण शक्ति-क्रियात्मक शक्ति। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा, 'भन्ते! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध करता है?' भगवान्-'करता है।' 'भंते! कैसे?' 'प्रमाद से। 'भंते! प्रमाद किससे होता है?' . 'योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) से।' 'भंते! योग किससे होता है?' 'वीर्य (प्राण) से। 'भंते! वीर्य किससे होता है?' 'शरीर से। 'भंते! शरीर किससे होता है?' 'कर्म-शरीर से। 'भंते! कर्म-शरीर किससे होता है?' 'जीव से। आप उलटे चलिए। जीव से शरीर, शरीर से क्रियात्मक शक्ति, 266 कर्मवाद Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियात्मक शक्ति से योग, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म-बन्ध-यह एक वर्तुल है। कर्म की कर्ता आत्मा है या कर्म? इस प्रश्न पर दो अभिमत हैं। सूत्रकार की भाषा में कर्म की कर्ता आत्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में कर्म का कर्ता कर्म है। ये दोनों सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। इनमें तात्पर्य-भेद नहीं है। मूल आत्मा (चिन्मय अस्तित्व) और आत्म-पर्याय (मूल आत्मा के निमित्त से निष्पन्न विभिन्न अवस्थाएं)-ये दो वस्तुएं हैं। इन्हें हम अभेद और भेद-दोनों दृष्टियों से देखते हैं। जब हम अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब कहा जाता है-आत्मा कर्म की कर्ता है और जब भेद की दृष्टि से देखते हैं तब कहते हैं-कर्म कर्म का कर्ता है। कर्म का कर्ता कषाय-आत्मा है। वह मूल आत्मा का एक पर्याय है। यदि मूल आत्मा कर्म की कर्ता हो तो वह कभी भी कर्म का अकर्ता नहीं हो सकती। उसका स्वभाव चैतन्य है, इसलिए वह चैतन्य की ही कर्ता हो सकती है। कर्म पौद्गलिक है, अचेतन है। वह उसकी कर्ता नहीं हो सकती। मूल आत्मा के आयतन में कषाय-आत्मा (राग और द्वेष) का वलय है। उसमें कर्म-पुद्गलों का आकर्षण होता है। वे कषाय को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार कषाय से कर्म और कर्म से कषाय चलता रहता है। मिथ्या दृष्टिकोण, आकांक्षा और आत्मविस्मृति-ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता हैं। किन्तु वास्तव में ये सब कषाय के उपजीवी हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है। किन्तु उसमें कर्म-पुद्गलों को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है। कषाय के क्षीण हो जाने पर केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले क्षण में कर्म-शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में भुक्त होकर तीसरे क्षण में निर्जीर्ण हो जाता है। ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भीत पर डाली गई, भींत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई। .. कर्म की तीन अवस्थाएं होती हैं-स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट। कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से स्पृष्ट होते हैं। कर्म का दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर ही होता कर्मवाद 267 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा-ये सब कषाय की ऊर्मियां हैं। भय, शोक, घृणा, वासना-ये सब कषाय की उपजीवी ऊर्मियां हैं। इन ऊर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। जिन क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय का क्षण होता है। जिस क्षणों में हम संवदेन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षतः या परोक्षतः चेतना कषाय-मिश्रित होती है। सन्त राबिया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी एक पुस्तक को देखा। उसके पन्ने उलटने शुरू किए। एक पन्ने में लिखा था-'शैतान से नफरत करो।' राबिया ने उसे काट दिया। फकीर बोला-'यह क्या? इस पवित्र पुस्तक का वाक्य किसने काटा?' सन्त . राबिया ने कहा, 'यह मैंने काटा है।' फकीर ने पूछा, 'क्यों?' रबिया ने कहा, 'अच्छा नहीं लगा।' 'यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न लगे? क्या यह सही नहीं है?' फकीर ने पूछा। सन्त राबिया ने कहा, 'एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि सही नहीं है।' 'वह कैसे?' फकीर ने पूछा। सन्त राबिया ने कहा, 'जब तक मेरा प्रेम जागृत नहीं था, मेरी प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से नफरत करो, प्यार नहीं-यह वाक्य बहुत सही है। किन्तु अब मैं क्या करूं? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं बचा है। मैं घृणा कर ही नहीं सकती। प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो और इसके साथ घृणा।' हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं और किसी को अप्रिय। किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को प्रतिकूल। हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने शेष रहता है। उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय। न कोई इष्ट होता है और न कोई अनिष्ट। न कोई अनुकूल होता है और न कोई प्रतिकूल। इस 268 कर्मवाद Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति में कर्म का बंध नहीं होता। कषाय-चेतना पर पहला प्रहार तब होता है, जब भेद-ज्ञान का विवेक जागृत होता है। आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है-यह विवेक जब अपने वलय का निर्माण करता है तब कर्म-शरीर से लेकर कषाय तक के सारे वलय टूटने लग जाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने बहुत ही सत्य कहा है भेदविज्ञानतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन॥ -इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं, जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है, जिनका भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई। . ऐसा होते ही कर्म का मूल हिल उठता है। जिसने अचेतन और चेतन का भेद समझ लिया उसने कर्म और कषाय को आत्मा से भिन्न समझ लिया। समझ कर्म के मूल स्रोत पर प्रहार करती है। जिस कषाय से कर्म आ रहे हैं, उसके मूल पर कुठाराघात करती है। कर्म-बंधन को तोड़ने का मूल-हेतु भेद का विज्ञान है, तो कर्म-बंध का मूल हेतु भेद का अविज्ञान है। आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा को उलटकर कहा जा सकता है... भेदविज्ञानतो. बद्धाः, बद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावतः सिद्धा, सिद्धा ये किल केचन // -इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई। ___ मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का भेद-ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्म-बन्धन शिथिल होता कर्मवाद 266 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चला जाता है। जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना और चेतना के वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उनका बंधन तीव्र होता चला जाता है। कर्म पुद्गल है और वह अचेतन है। अचेतन चेतन के साथ एकरस नहीं हो सकता। हमारी कषाय-आत्मा ही कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एकरस करती है। मुक्त आत्मा के साथ-साथ पुद्गल एकरस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति का क्षण कर्म-शरीर की विद्यमानता में “संवर'-कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को रोकने वाला और उसके (कर्म-शरीर के) अभाव में आत्मा का स्वरूप होता है। कषाय-मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आश्रव है। वह कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीय-सूत्र कार्य करता है। सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय-चेतना की परिणतियां पुद्गल-मिश्रित हैं। पुद्गल पुद्गल को टानता है। यह तथ्य हमारी समझ में आ जाए तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त हो जाती है। हम अधिक-से-अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने का अभ्यास करें, जहां कोरा ज्ञान हो, संवेदन न हो। यह साधना की सर्वोच्च भूमिका है। इसीलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए 'शुद्ध उपयोग' शब्द का प्रयोग किया है। 'शुद्ध उपयोग' अर्थात् केवल चैतन्य की अनुभूति / साधना के अभाव में कर्म का प्रगाढ़ बंध होता है और साधना के द्वारा उसकी ग्रंथि का भेदन होता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि साधना के रहस्य को समझे बिना कर्म के रहस्य को नहीं समझा जा सकता और कर्म के रहस्य को समझे बिना साधना के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। हम कर्म-पुद्गल की जिन धाराओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें अपनी क्रियात्मक शक्ति के द्वारा ही ग्रहण करते हैं। उस समय हमारी चेतना की परिणति भी उसके अनुकूल होती है। आन्तरिक और बाह्य परिणतियों में सांमजस्य हुए बिना दोनों में संबंध स्थापित नहीं हो सकता। जैन दर्शन ने कर्मवाद की मीमांसा की है, उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है। यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नये उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं तथा जैन साधना-पद्धति का नया रूप भी प्रस्तुत हो सकता है। हम जैसी भावना करते हैं, वैसी ही हमारी परिणति 270 कर्मवाद Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है। जैसी परिणति होती है वैसे ही पुद्गलों को हम ग्रहण करते हैं। उन पुद्गलों का अपने आप में परिपाक होता है। परिपाक के बाद उनकी जो परिणति होती है, वही हमारी आन्तरिक परिणति हो जाती है। यह एक श्रृंखला है। एक व्यक्ति ने ज्ञान के प्रति अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया, ज्ञान की निन्दा की; ज्ञानी की निन्दा की, उस समय उसकी परिणति ज्ञान-विमुख हो गई। उस परिणति-काल में वह कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे कर्म-पुद्गल आत्मा की सारी शक्तियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु ज्ञान-विरोधी परिणति में गृहीत पुद्गल मुख्यतया ज्ञान को आवृत करेंगे। उनका परिपाक ज्ञानावरण के रूप में होगा। इस प्रकार हम सारे कर्मों की मीमांसा करते चलें। जिसकी चेतना की परिणति यदि ठगने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जानेवाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके चरित्र को विकृत बनाते हैं। उनकी परिणति यदि दूसरे को कष्ट देने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जानेवाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके सुख में बाधा डालते हैं। यह परिणति का सिद्धान्त है। हम किस रूप में परिणत होते हैं, किस प्रकार की क्रियात्मक शक्ति के द्वारा पुद्गल धारा को स्वीकार करते हैं, इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके आधार पर ही वह जीवन की सफलता का निर्धारण कर सकता है, जीवन-संघर्ष में आने वाली बाधाओं को पार कर सकता है। - जिस व्यक्ति को यह लगे कि मुझे ज्ञानावरण अधिक सता रहा है, उसे ज्ञानावरण को क्षीण करने की साधना का मार्ग चुनना चाहिए। किसी को मोह अधिक सताता है, किसी की क्षमताओं का अवरोध पैदा होता है-ये भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं। साधना के द्वारा इनका समाधान पाया जा सकता है। क्रोध पर चोट करनी हो तो एक प्रकार की साधना करनी होगी और यदि मन पर चोट करनी हो तो दूसरे प्रकार की साधना करनी होगी। जिस समस्या से जूझना है, उसी के मूल पर प्रहार करने वाली साधना चुननी होगी। यह बहुत सूक्ष्म पद्धति है। रहस्य हमारी समझ में आ जाए तो जीवन की समस्याओं को सुलझाने में हम बहुत सफल हो सकते हैं। कर्मवाद 271 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन मैं कल्पना करने में कठिनाई का अनुभव करता हूं कि एक आदमी भारत में जन्मा हो और कर्मवाद को न जानता हो; नियति, प्रारब्ध और भाग्य के विषय में कुछ न जानता हो। भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने किसी-न-किसी रूप में कर्म के अस्तित्व को स्वीकारा है। भारत की मिट्टी में कर्म के सिद्धान्तों की जड़ें गहरे तक जमी हुई हैं। खेतों-खलिहानों में भी यदा-कदा कर्म का स्वर सुनाई देता है। घटना की सफलता और असफलता-दोनों से कर्म की दुहाई सुनने को मिलती है। सफल होने वाला व्यक्ति अपनी सफलता का श्रेय पूर्वजन्म में किए हुए पुण्य को देता है और कहता है, 'पूर्वजन्म में अच्छे कर्म किए थे इसलिए मुझे यह सफलता मिली है।' असफल होने वाला भी अपनी असफलता का दायित्व कर्म पर डाल देता है, 'ऐसा ही कोई कर्म किया हुआ था, मैं क्या करूं?' कर्म का इतना गहरा संस्कार है कि उसके लिए मुझे विशेष चर्चा की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता। ___आज के युग में जीने वाला, थोड़ा-बहुत भी जनसम्पर्क में आनेवाला, पढ़ने-लिखने वाला और राजनीतिक वातावरण से परिचित रहने वाला कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो समाजवाद के नाम से अनजान हो? भारत में इन वर्षों में, कई बार समाजवाद की स्थापना के संकल्प को दोहराया गया है। समाजवाद एक राजनीतिक प्रणाली है, एक आर्थिक प्रणाली है। कर्मवाद एक आध्यात्मिक प्रणाली है। दोनों का क्षेत्र भिन्न है। दोनों की सीमाएं और मर्यादाएं भिन्न हैं। समाजवाद कोरी आर्थिक प्रणाली ही नहीं है, कोरा राजनीतिकवाद ही नहीं है। उसके तीन पहलू हैं-दार्शनिक, राजनीतिक और आर्थिक। 272 कर्मवाद Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि वह केवल आर्थिक आन्दोलन होता तो आज तक नहीं चल पाता। यदि वह कोरा राजनीतिक आन्दोलन होता तो भी वह आज तक नहीं चल पाता। वह चल रहा है और इसलिए चल रहा है कि उसके पीछे एक दर्शन है, एक सुनियोजित विचारधारा है। वही आन्दोलन लमबे समय तक टिक सकता है जिसकी पृष्ठभूमि में दर्शन होता है। समाजवाद के दार्शनिक पक्ष को ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है। इसका पहला या मूलभूत सिद्धान्त यह है-इस जगत् का आधार अचेतन है, अचित है। इस जगत् का आधार कोई सचेतन नहीं है। इससे एक परिस्थिति उभरती है। वह है-केवल वर्तमान, न अतीत और न भविष्य। आदमी जन्म लेता है। उसके पीछे कोई अतीत नहीं होता, उसका कोई भविष्य नहीं होता, कोरा वर्तमान होता है। आप सोच सकते हैं कि भारतीय दर्शन में जो भाषा चार्वाक की थी, वही भाषा समाजवादी दर्शन की है। चार्वाक ने भी केवल वर्तमान. को स्वीकारा था और समाजवादी दर्शन भी केवल वर्तमान को स्वीकारता है। दोनों की उद्देश्यगत वास्तविकता बहुत भिन्न है। चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म और कर्मवाद को अस्वीकार कर वर्तमान जीवन को सुख से जीने के उद्देश्य से अस्तित्व में आया था और समाजवाद विषमतापूर्ण समाज-व्यवस्था को बदलने के उद्देश्य से अस्तित्व में आया था। उद्देश्य की दृष्टि से दोनों में कोई तुलना नहीं की जा सकती। केवल इतनी तुलना की जा सकती है कि चार्वाक भी अनात्मवादी दर्शन है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी अनात्मवादी दर्शन है। जो दर्शन केवल वर्तमानसम्मत होता है, अतीत और भविष्यसम्मत नहीं होता, उसे लम्बी-चौड़ी चर्चा में जाने की जरूरत नहीं होती, कोई लम्बी चिन्ता करने की जरूरत नहीं होती। उसे अदृश्य जगत् में जाने की चिन्ता नहीं होती और बहुत सूक्ष्म अवगाहन करने की भी कोई जरूरत नहीं होती। जो दृष्ट है, उपलब्ध है, उसी की जरूरत होती है। इससे समाजवाद का दूसरा सिद्धान्त फलित होता है। वह है परिस्थितिवाद। जब केवल वर्तमान है तो केवल वर्तमान में परिस्थितिवाद पनपता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि व्यक्ति परिस्थिति की देन समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 273 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व का निर्माण परिस्थिति से होता है। जैसी परिस्थिति होती है वैसा ही व्यक्ति का निर्माण हो जाता है। व्यक्तित्व के निर्माण का दायित्व परिस्थिति पर होता है। केवल वर्तमान और केवल परिस्थिति के आधार पर समाजवाद का तीसरा सिद्धान्त बनता है-समाज-व्यवस्था का परिवर्तन। परिवर्तन की प्रक्रिया का मूल आधार आर्थिक पक्ष है। आर्थिक समस्या मूलभूत समस्या है। इसे सुलझाए बिना सामाजिक समस्याएं सुलझ नहीं सकतीं। कार्ल मार्क्स ने इस भाषा में सोचा था-समाज जो बनता-बिगड़ता है वह अर्थ के आधार पर बनता-बिगड़ता है। अर्थ-व्यवस्था ही समाज की रीढ़ है और उसके आधार पर ही समाज अच्छा या बुरा बनता है। केवल मार्क्स ही ऐसा सोचने वाला व्यक्ति हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। भारतीय चिन्तकों में भी इस प्रकार का चिन्तन प्रस्फुटित हुआ था। पूरे समाज के संदर्भ में भारतीय चिन्तन तीन वर्ग (धर्म, अर्थ और काम) अथवा चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में विभाजित था। यह प्रश्न चलता था कि त्रिवर्ग या चतुर वर्ग में मुख्य कौन? भिन्न-भिन्न मत थे। कोई धर्म को मुख्य मानता, कोई काम को मुख्य मानता और कोई मोक्ष को मुख्य मानता। भारतीय राजनीति के नक्षत्र महात्मा कौटिल्य ने इन सब मतों का उल्लेख कर अन्त में अपने अभिमत का उल्लेख किया है। यह उल्लेख मार्क्स के चिन्तन से भिन्न नहीं है। कौटिल्य के अनुसार सब वर्गों में अर्थ ही प्रधान है। धर्म और काम-इन दोनों के मूल में अर्थ है। अर्थ है तो धर्म (न्यायाधिकरण) होता है और अर्थ है तो काम होता है। अर्थ के बिना कुछ नहीं होता-न धर्म और न काम। अर्थ को प्रधानता देने वाले चिन्तक भारत में बहुत प्राचीन काल में हुए हैं। और यह एक सचाई है कि समाज के बनने-बिगड़ने में अर्थ का बहुत बड़ा ाथ होता है। समाजवादं का दूसरा पक्ष है-आर्थिक। मार्क्स ने इस बात पर ध्यान दिया कि जब तक अर्थ-व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक समाज का विकास नहीं हो सकता, सामाजिक परिवर्तन नहीं हो सकता। आर्थिक व्यवस्था समाजवाद का ध्येय बन गया। यह उनका दूसरा पक्ष है। अब प्रश्न यह रहा कि ध्येय को प्राप्त कैसे किया जाए? केवल 274 कर्मवाद Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक समाजवाद, दर्शानिक समतावाद या दार्शनिक साम्यवाद से ध्येयसिद्धि नहीं हो सकती। यह उन्हें स्पष्ट प्रतीत हुआ। इतिहास के अध्ययन के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दार्शनिक साम्यवाद का बखान करते-करते हजारों वर्ष बीत गए, पर समाज नहीं बदला। वे समाज को बदलना चाहते थे। ध्येय की पूर्ति के लिए उन्होंने तीसरा पक्ष चुना जो समाजवाद का राजनीतिक पक्ष है, ध्येय की पूर्ति का एकमात्र साधन है। समाजवादी धारणा के अनुसार जब तक राज्य की सत्ता हाथ में नहीं आती, तब तक समाज को नहीं बदला जा सकता। समाजवादी उद्देश्यों की पूर्ति की अनिवार्य शर्त है राज्य-सत्ता को हथियाना। राज्य-सत्ता शोषित वर्ग के हाथ में होनी चाहिए। धनिकों और गरीबों तथा मिल-मालिकों तथा मजदूरों के बीच जो वर्ग-संघर्ष चल रहा है वह तब तक नहीं मिटेगा जब तक शोषित वर्ग के हाथ में राज्य-सत्ता नहीं आएगी। इनके हित परस्पर-विरोधी हैं। उनमें कोई समझौता नहीं हो सकता। समाजवाद के आचार्यों ने यह प्रतिपादन किया-पूंजीवादी लोगों के हित और शोषित लोगों के हित इतने विरोधी हैं कि उनमें समझौते की कोई संभावना नहीं है। इस विरोध को मिटाने का एक ही उपाय है, और वह है शोषित वर्ग के हाथ में सत्ता आना। : समाजवाद के तीन पक्ष-दार्शनिक, आर्थिक और राजनीतिक-हमारे सामने हैं। इन तीनों पक्षों के संदर्भ में हमें कर्मवाद को समझना है, उसकी मीमांसा करना है। कर्मवाद का दार्शनिक पक्ष समाजवाद के दार्शनिक पक्ष से बिलकुल उल्टा है। कर्म का अस्तित्व उन दार्शनिकों ने स्वीकार किया जो जगत् का आधार चेतन-अचेतन-इस तत्त्वद्वयी को या केवल चेतन को स्वीकार करते हैं। केवल अचेतन को जगत् का आधार मानने वाला कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। आत्मवादी दर्शनों की मख्य दो धाराएं हैं-द्वैतवाद और अद्वैतवाद। द्वैतवादी धारा के अनसार चेतन और अचेतन-इन दोनों का अस्तित्व है। अद्वैतवादी धारा केवल चेतन तत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करती है। जिन दर्शनों ने कर्म को स्वीकार किया, उनमें एक भी दर्शन ऐसा नहीं है जो कर्म को स्वीकृति देता हो और चेतन तत्त्व को स्वीकार किए बिना कर्म का कोई मूल्य समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 275 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता, कोई अर्थ नहीं होता। कर्मवाद की धारणा के साथ भूत जुड़ा हुआ है। यदि हमारा कोई अतीत नहीं है तो कर्मवाद को स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं है। यदि हमारा कोई भविष्य नहीं है तो कर्मवाद को स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं है। कर्मवाद के साथ भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों काल जुड़े हुए हैं। . कर्मवाद का दूसरा सिद्धान्त है-परिस्थितिवाद का अस्वीकार / केवल वर्तमान को स्वीकार करने वालों को परिस्थितिवाद मान्य हो सकता है, किन्तु कर्म को स्वीकार करने वालों को मान्य नहीं हो सकता। परिस्थिति को निमित्त माना जा सकता है, एक हेतु या कारण माना जा सकता है। पर सारा भार परिस्थिति पर नहीं लादा जा सकता, नहीं थोपा जा सकता। वह इतना भार उठाने में सक्षम भी नहीं है। जहां कर्मवाद की स्वीकृति है वहां चेतन की स्वीकृति है, पूर्वजन्म और भावीजन्म की स्वीकृति है। जहां इनकी स्वीकृतियां हैं वहां परिस्थितिवाद की एकाधिकार स्वीकृति नहीं हो सकती। ____तीसरा प्रश्न है-आर्थिक पक्ष का। वहां कर्मवाद की प्रचलित धारणा यह है-कोई आदमी धनी होता है तो लोग कहते हैं-बहुत भाग्यशाली है, बड़ा पुण्य किया है इसलिए इतना धन मिल गया। कोई गरीब होता है तो लोग कहते हैं-भाग्यहीन आदमी है, अच्छा कर्म नहीं किया, इसलिए दुःख भोग रहा है, संताप भोग रहा है। कर्मवाद को इस रूप में समझा गया है कि धनी होना पुण्य कर्म का योग है और निर्धन होना पाप कर्म का योग है। कोई आदमी बड़े-से-बड़ा धनी होता है तो उसे मान्यता मिल जाती है। बहुत धन के संग्रह को बुरा नहीं माना जाता, कर्मवाद के संदर्भ में उसका समर्थन किया जाता है। किसी आदमी को रोटी नहीं मिलती तो कर्मवाद के सन्दर्भ में इसका समाधान इस प्रकार दिया जाता है-इसने पिछले जन्म में बहुत बुरे कर्म किए हैं। यदि रोटी न मिले तो कोई क्या करे। स्वयं का किया हुआ कर्म है, यह भोगेगा, हमें इससे क्या? कर्मवाद के सन्दर्भ में धनी और निर्धन-दोनों अवस्थाओं के बारे में निर्णय दिया जाता है, उन्हें भाग्य के साथ जोड़ दिया जाता है। यह आर्थिक पक्ष ऐसा है जहां समाजवाद और कर्मवाद की भारी 256 कर्मवाद Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टक्कर होती है, यद्यपि दार्शनिक पक्ष भी दोनों के भिन्न हैं। वहां कोई मेल नहीं है। वहां इतना मेल नहीं है तो इतना संघर्ष भी नहीं है। संघर्ष का मुख्य बिन्दु है आर्थिक व्यवस्था। समाजवाद की यह स्थापना है। केवल स्थापना ही नहीं, प्रयोग कर चुका है कि संपत्ति समाज की है। उस पर व्यक्ति का स्वामित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता, समाज का स्वामित्व स्थापित होना चाहिए। उत्पादन, विनिमय और वितरण पर समाज का स्वामित्व स्थापित होना चाहिए। समाजवाद की मर्यादा में संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व मान्य नहीं है। कर्मवाद की व्याख्या करने वाले संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व को भी न्यायपूर्ण और उचित ठहराते हैं। यह बहुत उलझन भरा प्रश्न है। इसलिए यह प्रश्न बार-बार सामने आता है कि समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना होने पर कर्मवाद का क्या होगा? कर्मवाद कैसे टिक पाएगा? ऐसा लगता है कि दुनिया में गरीब और धनवान दोनों टिके रहें तब तो कर्मवाद टिकेगा और ये दोनों न रहें तो कर्मवाद का सारा महल ढह जाएगा। पता नहीं यह सिद्धान्त क्यों बन गया। पर सचमुच बन गया। जब-जब विज्ञान के द्वारा नयी उपलब्धियों की घोषणा होती है, तब-तब पहला प्रश्न यह होता है कि अब धर्म कैसे टिकेगा? आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धान्त कैसे टिकेगा? कर्मवाद कैसे टिकेगा? मुझे लगता है कि बहुत ही छिछले चिन्तन के कारण इस प्रकार के तात्कालिक विचार बन जाते हैं। काल्पनिक और कृत्रिम समस्याएं हमारे सामने उपस्थित हो जाती हैं। क्या गरीब और अमीर का भेद मिट जाने मात्र से कर्मवाद समाप्त हो जाएगा? यदि कर्मवाद का आधार इतना कमजोर है तो मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा कि उसे समाप्त होने दें। यद्यपि मैं जैन मुनि हूं। भगवान् को मानता हूं पर भाग्य-विधाता नहीं मानता। फिर भी भावना के आवेग में प्रार्थना करता हूं कि ऐसे कर्मवाद को समाप्त हो जाने दें। हमें कोई प्रयोजन नहीं है। जिसकी भित्ति इतनी कमजोर हो, जिसकी नींव इतनी कमजोर हो, उसे टिकाकर भी हम क्या कर पाएंगे? उसे कब तक टिका पाएंगे। ये व्यवस्थाएं तो बदलती रहेंगी। कभी समाजवाद का अगला चरण भी आ सकता है। दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में समाजवाद या साम्यवाद समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 277 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रयोग हो चुका है। वहां आर्थिक व्यवस्था को सर्वथा बदल दिया गया है। तो क्या हम मान लें कि उन देशों में कर्मवाद समाप्त हो गया है। ___. रूस में कर्मवाद समाप्त, चीन में कर्मवाद समाप्त। और जितने भी साम्यवादी या समाजवादी राष्ट्र हैं, उन सब में भी कर्मवाद समाप्त। . कुछ वर्षों पूर्व 'धर्मयुग' के सम्पादक धर्मवीर भारती की चीन-यात्रा के संस्मरण पढ़े। चीन जैसे विशाल देश में किसी भी व्यक्ति के पास आपनी व्यक्तिगत कार नहीं है। वहां कोई बड़ा उद्योगपति या भू-स्वामी नहीं मिलेगा। व्यक्तिगत स्वामित्व इतना सीमित कर दिया गया कि संपत्ति के आधार पर कोई बड़ा या छोटा आदमी नहीं होगा। कोई भिखारी नहीं मिलेगा। एक कृपा कर रोटी देनेवाला और दूसरा दीनतापूर्वक रोटी लेनेवाला नहीं मिलेगा। जिसे रोटी न मिलती हो, ऐसा गरीब नहीं मिलेगा। जिसमें लाखों और करोड़ों की संपदा कमा ली हो, ऐसा भाग्यशाली भी नहीं मिलेगा। तो क्या कर्मवाद समाप्त हो गया? ,यही वह बिन्दु है जिस पर विमर्श जरूरी है। कर्म के विषय में बहुत भ्रान्तियां पैदा हो गई हैं। उन्हें तोड़ना आवश्यक है। कभी-कभी भ्रान्तियों का वात्याचक्र इतना बड़ा बन जाता है कि आदमी मूल तक पहुंच ही नहीं पाता, परिधि में ही उलझ जाता है। कर्म व्यक्ति की आन्तरिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन का घटक है। प्राणीमात्र में निरन्तर आन्तरिक परिवर्तन होता है, वह सारा-का-सारा कर्मकृत होता है। एक व्यक्ति क्रोधी है। कोई क्रोध क्यों करता है? इसलिए करता है कि उसके भीतर कर्म है। अभिमान, माया, लोभ, राग और द्वेष-ये सारे-के-सारे उसके आन्तरिक कर्म के परिणाम हैं, आन्तरिक व्यक्तित्व के परिणाम हैं। कर्म की दो प्रमुख प्रकृतियां हैं-जीव-विपाकी और पुद्गल-विपाकी। पहली प्रकृति का जीव में परिपाक होता है। दूसरी प्रकृति का पुद्गल के रूप में परिपाक होता है। शरीर मिलता है, वचन मिलता है, मन मिलता है। ये सब पुद्गल-विपाकी प्रकृति के परिणाम हैं। कर्म के बिना इनकी व्याख्या, नहीं की जा सकती। ___मनोविज्ञान ने आन्तरिक व्यक्तित्व की बहुत सारी व्याख्याएं प्रस्तुत 278 कर्मवाद Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की हैं। मैं मानता हूं, कर्मवाद की जो व्याख्याएं अस्पष्ट थीं, वे आज मनोविज्ञान के संदर्भ में समझी जा सकती हैं। मनोविज्ञान ने सचमुच बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरी यह धारणा बन गई है कि कर्मवाद को समझे बिना मनोविज्ञान को पूरा नहीं समझा जा सकता और मनोविज्ञान को समझे बिना कर्मवाद की पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। कर्मवाद को समझने के लिए मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी है और मनोविज्ञान को समझने के लिए कर्मवाद को समझना बहुत जरूरी है। दोनों में गहरा सम्बन्ध है। मनोविज्ञान ने व्यक्तित्व की और व्यक्ति के अन्तर्मन तथा अवचेतन मन और अर्द्धचेतन मन की जो व्याख्याएं की हैं, वे कर्म के द्वारा ही घटित होती हैं। कर्म हमारे समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। अर्थ-व्यवस्था को बदल देने, गरीबी को समाप्त कर देने और गरीब और अमीर के भेद को कम कर देने से क्या ऐसा हो गया कि रूस और चीन में कोई आदमी गुस्सा नहीं करता, कोई अभिमान नहीं करता, राग और द्वेष नहीं करता, प्रियता और अप्रियता की अनुभूति नहीं करता? व्यक्तिगत स्वामित्व की व्यवस्था होने पर भी क्या कोई बेईमानी नहीं करता? भ्रष्टाचार नहीं करता? अप्रामाणिकता और भ्रष्टाचार वहां कम अवश्य हुए हैं, पर समाप्त नहीं हुए हैं। बड़े-बड़े अधिकारी भी आर्थिक घोटाले करते हैं। यह सोवियत कांग्रेस और चीन की राष्ट्रीय रिपोर्टों के अध्ययन से ज्ञात होता है। जहां मरने के बाद बाप की संपत्ति बेटे को नहीं मिलती, वहां कोई आर्थिक घोटाला किसलिए करे-इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलता, मनोवृत्ति नहीं बदलती। और इसलिए नहीं बदलती कि परिस्थिति बदल जाने पर भी जिनके अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव और उसको प्रेरित करने वाले कर्म के स्राव नहीं बदलते, वहां स्वभाव नहीं बदलता, आचरण और व्यवहार नहीं बदलता। मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व जो है, वह सारा कर्म से प्रभावित होता है, कर्म के द्वारा संचालित होता है। कर्म के आन्तरिक संचालन को जब हम पदार्थ के साथ जोड़ देते हैं, वहां हमारी भ्रान्ति बढ़ जाती है। सामाजिक व्यवस्था का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं। वह ऐसी व्यवस्था का निर्देशन है, जैसी व्यवस्था समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 276 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजवादी और साम्यवादी भी नहीं कर पाएंगे। मार्क्स ने स्टेटलेस स्टेंट (राज्यसत्ता-रहित राज्य) की कल्पना की। समाजवाद का अन्तिम ध्येय है राज्यसत्ता-रहित राज्य। अभी यह बहुत दूर है। आज साम्यवादी देशों में पूरा एकाधिनायकवाद है। शासन-तन्त्र इतना कठोर है कि आदमी को उसे सहने में भी कुछ कठिनाई होती है। पता नहीं आदमी कब इतना आत्मानुशासित होगा और कब एक आदमी दूसरे आदमी पर इतना भरोसा करेगा और वह दिन कब आएगा कि जिस दिन शासनतंत्र की व्यर्थता सिद्ध होगी, उसकी कोई अपेक्षा प्रतीत नहीं होगी। जैन आगमों में ऐसी व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, भले फिर वह देवताओं के लिए हो। और वैसी व्यवस्था में जीने वाला अपने आप उच्चकोटि का देव बन जाता है, वह साधारण मनुष्य नहीं रहता। आज की व्यवस्था और परिस्थिति में जीने वाला मनुष्य तो नहीं ही रहता। कल्पातीत देवों की व्यवस्था में कोई इंद्र नहीं होता, कोई प्रेष्य नहीं होता, कोई स्वामी नहीं होता, कोई सेवक नहीं होता। सब समान ोते हैं और सब-के-सब आत्मानुशासित होते हैं। अनुशासन और तन्त्र जैसी कोई व्यवस्था नहीं होती है। सब-के-सब ऋद्धि, बल और घृति में समान होते हैं। हमारे कुछ दार्शनिकों या योगियों ने सुपर ह्यूमन (अतिमानव) और सुपर कॉन्शसनेस (अतिचेतना) अवतरण की कल्पना की है। उसका सुव्यवस्थित वर्णन प्रस्तुत पद्धति में मिलता है। समाजवादी व्यवस्था में संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं होता पर सबके पास समान ऋद्धि नहीं है। किसी के पास धन कम होता है और किसी के पास अधिक धन होता है, किन्तु कल्पातीत व्यवस्था में संपदा भी सबके समान होती है। न कोई बड़ा आदमी है और न कोई छोटा आदमी है। शारीरिक बल भी समान और चिन्तन भी समान। ऐसा समाजवाद न जाने कब आएगा। सैकड़ों-सैकड़ों वर्षों की साधना के बाद मनुष्य उस कल्पातीत व्यवस्था तक पहुंच पाएगा या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। उस कल्पातीत व्यवस्था का आधार वहां जन्म लेने वाले देवों का आन्तरिक परिवर्तन है। उनके क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष तथा प्रियता और अप्रियता का संवदेन कम होता है, इसलिए उनमें असंभव प्रतीत होने वाली समानता सहज ही घटित 280 कर्मवाद Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाती है। समाजवादी व्यवस्था का आधार बाहरी परिवर्तन है। बाहर से घटित होने वाली समानता उतनी व्यापक और स्थायी नहीं होती जितनी व्यापक और स्थायी आन्तरिक परिवर्तन से घटित होने वाली समानता होती है। आंतरिक परिवर्तन से भी व्यवस्था का परितर्वन होता है और व्यवस्था के परिवर्तन से भी आंतरिक अवस्था में कुछ परिवर्तन संभव हो सकता है। निमित्त न मिलने पर कुछ उपादान भी निष्क्रिय हो सकते हैं, फिर भी इस सचाई को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आन्तरिक परिवर्तन के बिना व्यवस्था का परिवर्तन नियंत्रण के साथ ही चल सकता है। उसमें राज्यरहित राज्य की परिकल्पना संभव नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व नहीं बदलेगा, उत्तेजना, आवेश और वासना कम नहीं होगी, तब तक वह स्थिति उपलब्ध नहीं होगी। उक्त विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुंचा जा सकता है कि समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना होने पर भी कर्मवाद के सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती। यदि समानता के कारण कोई बाधा आती तो कर्मवाद का सबसे अधिक विशद वर्णन करने वाले जैन आगमों में कल्पातीत समानता का कोई उल्लेख नहीं मिलता। और वह मिलता है, इससे हम समझ सकते हैं कि आर्थिक समानता और कर्मवाद का सिद्धांत एक-दूसरे की उत्थापना करने वाले नहीं हैं। कर्मवाद का सम्बन्ध व्यवस्था से नहीं, हमारी आन्तरिक प्रक्रियाओं से है। जहां कर्मवाद को व्यवस्थाओं के साथ, समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के साथ जोड़ देते हैं, वहां उसकी व्यर्थता प्रतीत होने लग जाती है और उसके विषय में अनेक भ्रान्तियां पनप जाती हैं। यदि कर्मवाद को हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ें तो भ्रांतियां कभी नहीं पनप पाएंगी। हमारे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और अतिसूक्ष्म शरीर में होने वाले परिवर्तनों, रासायनिक परिवर्तनों और बदलते हुए विद्युत् प्रवाहों की सर्वांगीण व्याख्या कर्मवाद के संदर्भ को छोड़कर नहीं की जा सकती। हम कर्म और कर्म की सहायक सामग्री (नो-कम) को एक मान लेते हैं तब कठिनाई पैदा होती है, भ्रान्तियां पनपती हैं। व्यवस्था परिवर्तन को कर्म-विपाक के निमित्त के रूप में समझा . जा सकता है, किन्तु उसका सीधा सम्बन्ध कर्म के साथ स्थापित नहीं समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 281 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जा सकता। इस सचाई को समझ लेने पर अकाल-मृत्यु, बुढ़ापा और बीमारियां-इन सबमें परिवर्तन लाया जा सकता है। आर्थिक व्यवस्था, चिकित्सा की सुविधा और जीवन-यापन की सुविधा होने पर उन सारी स्थितियों में परिवर्तन हो सकता है। कर्मवाद का इस परिवर्तन में कोई विरोध नहीं है। . सौभाग्यवश भारतीय दर्शनों में और विशेषतः जैन दर्शन में कर्मवाद का बहुत गहरा चिन्तन बहुत विस्तार के साथ हुआ है। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि कर्मवाद को समझे बिना ध्यान भी ठीक से नहीं किया जा सकता, आध्यात्मिक विकास नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास करना चाहता है, मन को एकाग्र करना चाहता है, मानसिक स्थिरता को उपलब्ध होना चाहता है, उसके लिए कर्म का प्रकाश बहुत जरूरी है। कर्म की प्रक्रिया को समझे बिना तात्पर्य की भाषा में आन्तरिक व्यक्तित्व को समझे बिना मन चंचल होता है और हम मान बैठते हैं कि मन चंचल है। यह मानना बहुत बड़ा झूठ है। यदि कोई मुझे कहे कि मन बहुत चंचल है तो मैं इसे बहुत बड़ा झूठ मानता हूं। मन बिलकुल चंचल नहीं है। मेरे हाथ में यह कपड़ा है। मैं हाथ हिलाता हूं और यह हिल रहा है। क्या यह चंचल है? आप इसे चंचल ही मानेंगे। पर यह चंचल कहां है? कपड़ा बेचारा क्या चंचल और क्या अचंचल। हाथ हिलता है तो यह चंचल है और हाथ नहीं हिलता है तो यह अचंचल है। हवा का क्या ठंडा और क्या गरम? थोड़ी-सी वर्षा होती है तो हवा बहुत ठंडी हो जाती है। थोड़ी बर्फ पड़ती है तो हवा बहुत ठंडी हो जाती है और तेज धूम तपती है तो हवा बहुत गरम हो जाती है। यह बालू ठंडी है या गरम? यदि कोई सर्दी में बालू पर चलता है तो ऐसा लगता है कि वह बर्फ में चल रहा है और कड़ी धूप में बालू पर चलता है तो ऐसा लगता है कि वह आग पर चल रहा है। हमारे मन की भी यही स्थिति है। जब कर्म-शरीर की प्रेरणाएं जागती हैं, वृत्तियां उभरती हैं तो मन बड़ा चंचल हो जाता है। भीतर की वृत्तियां शान्त होती हैं तो मन शान्त और स्थिर हो जाता है। जीवन की प्रत्येक समस्या पर चिन्तन करने के लिए कर्मवाद को पढ़ना आवश्यक 282 कर्मवाद Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। बदलती हुई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों से हम घबराएं नहीं। बार-बार कर्मवाद के समाप्त होने की बात न सोचें, किन्तु उन परिस्थितियों के संदर्भ में कर्मवाद का सही-सही मूल्यांकन करें तो ऐसा प्रतीत होगा कि जो सत्य त्रैकालिक दृष्टि तक साक्षात् अनुभव के द्वारा उपलब्ध किया गया है, जो स्वयं अप्रकम्प है वह इन छोटे-छोटे संझावातों के द्वारा कभी समाप्त नहीं हो सकता। समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन 283 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद मनुष्य का सारा प्रयत्न उद्देश्य के साथ होता है। उसका मुख्य उद्देश्य है-सुख की प्राप्ति और दुःख विमुक्ति। कर्मवाद मानता है कि आदमी पुण्य करता है तो सुख पाता है और पाप करता है तो दुःख पाता है। दुनिया में कोई धनी है तो लोग कह देते हैं कि बड़ा भाग्यशाली है, बड़ा पुण्य किया है इसीलिए धनी है। कोई गरीब होता है तो लोग कह देते हैं-बेचारे ने बुरे कर्म किए थे। बुरे कर्मों का फल भोग रहा है। लोग सुख-दुःख को कर्म के साथ जोड़ देते हैं और कर्म को जोड़ देते हैं धन और पदार्थ के साथ। इस मान्यता का फल यह हुआ कि भ्रांति बढ़ गई। लोग कहने लगे, 'धन चाहिए तो धर्म करो, पुण्य करो।' कोई धर्म नहीं करता है तो लोग कहते हैं, 'अरे, तुम कोई धर्म नहीं करते, परलोक में जाकर क्या. खाओगे?' ऐसा लगता है कि लोगों ने धर्म-पुण्य और पदार्थ को बिलकुल मिला दिया। आचार्यों ने कहा, 'साधना के बिना मनुष्य का जन्म वैसे ही फालतू हो जाता है जैसे बकरी का सींग।' धर्म की साधना करो। धर्म की साधना की तो अर्थ और काम अपने आप प्राप्त होंगे। धर्म की साधना इसलिए जरूरी है कि काम की वासना समाप्त हो, परिग्रह की भावना समाप्त हो। किन्तु न जाने क्यों, कर्मवाद का एक ऐसा विकृत रूप सामने आया कि सब कुछ उससे मान लिया गया। यह एक प्रवाह ही चल पड़ा। धर्म के गुरु भी ऐसा ही कहने लग गए। उपाध्याय विनयविजयजी ने 'शांतसुधारस' काव्य में लिखा है 284 कर्मवाद Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनांना, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् / मीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः, किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्मकल्पद्रुमस्य॥ धर्म कल्पवृक्ष है। दुनिया में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो धर्म से न मिले। राज्य धर्म से मिलता है। अच्छी पत्नी धर्म से मिलती है। बेटे और पोते धर्म से मिलते हैं। कविता की शक्ति और अच्छा गला भी धर्म से मिलता है। सारे गुण धर्म से मिलते हैं। यह एक ऐसा वृक्ष है जिसमें सब प्रकार के फल लगते हैं। एक प्रश्न है कि क्या सब कुछ धर्म से ही मिलता है? यह प्रश्न समाधान चाहता है। क्या सब कुछ अच्छे कर्मों से मिलता है? यदि मिलता है तो मोक्ष से वह स्थान कहां रह जाता है जहां धन, राज्य, परिवार आदि को छोड़ने की बात प्राप्त होती है। जब यह मान लिया गया कि सब कुछ पुण्य से मिलता है, धर्म से मिलता है तो इसका फलित यह हआ कि प्रवृत्ति पुण्य के अर्जन में लग गई। पुण्य का अर्जन प्रधान बन गया और पुरुषार्थ गौण हो गया। जबकि पुरुषार्थ द्वारा जो प्राप्त होता है वह प्रत्यक्ष है और पुण्य के द्वारा जो प्राप्त होता है वह प्रत्यक्ष . नहीं है। दूसरी बात यह हुई कि अर्थ-व्यवस्था के प्रति मनुष्य का ध्यान ही नहीं गया। व्यवस्था को बदलने की ओर ध्यान नहीं दिया गया। उसका ध्यान केवल इस ओर केन्द्रित रहा कि पुण्य करो, पुण्य कमाओ। उसने यह कभी नहीं सोचा-अपनी दुर्व्यवस्था को मिटाने के लिए अर्थ-व्यवस्था को ठीक करना आवश्यक है। सारा ध्यान पुण्य में अटक गया। फलतः बहुत बड़ी गरीबी छा गई। भारत की गरीबी में बहुत बड़ा हाथ है कर्मवाद, भाग्यवाद और पुण्यवाद की मान्यता का। यदि भारत में कर्मवाद की दुहाई नहीं दी जाती, भाग्यवाद और पुण्यवाद की ये धारणाएं प्रचलित नहीं होती तो हिन्दुस्तान आज जितना गरीब है, उतना गरीब नहीं होता। आदमी में पुरुषार्थ की लौ ऐसी बुझी कि उसे फिर से प्रज्वलित करना कठिन हो गया। आदमी पग-पग पर सोचता है-'भाग्य विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 285 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ऐसा ही लिखा है, क्या करूं?' आदमी इतना जल्दी सन्तोष मान लेता है कि उसे वैसा नहीं मानना चाहिए। सन्तोष अच्छा भी है. तो बुरा भी है। सन्तोष जहां करना चाहिए वहां नहीं किया जाता और जहां नहीं करना चाहिए वहां किया जाता है। यह कठिनाइयों का मूल है। भाग्यवादी धारणाओं ने भारत का बहुत बड़ा अनर्थ किया है। हमारी एक दार्शनिक भ्रांति है। वह आज भी चल रही है। वह भ्रांति यह है-धर्म या पुण्य या अच्छे कर्म से सुख मिलता है; यह एक बात है और उनसे सुख के साधन मिलते हैं, यह दूसरी बात है। हमारी भ्रान्ति यह हुई कि हमने सुख को और सुख के साधन को एक मान लिया। यह सच है कि सुख की अनुभूति कर्म से होती है और दुःख की अनुभूति भी कर्म से होती है। किन्तु सुख के साधन अच्छे कर्म से मिलते हैं और दुःख के साधन बुरे कर्म से मिलते हैं, इसे स्वीकार करने में कर्मवाद बाधक प्रतीत होता है। वह एक व्यवधान होता है। मैं पहले कर्मवाद की धारणा के आधार पर अपनी बात स्पष्ट करूंगा। . कर्मवाद का एक सिद्धान्त है-किया हुआ कर्म फल देता है। बिना परिपाक या विपाक हुए कोई भी कर्म फल नहीं देता। विपाक की भी कुछ शर्ते हैं-क्षेत्र-विपाक, काल-विपाक, पुद्गल-विपाक और जीव-विपाक। कुछ कर्म ऐसे है, जिनका विपाक क्षेत्र से सम्बन्धित है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक काल से सम्बन्धित होता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक पुद्गल में होता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक जीव से सम्बन्धित है। सुख-दुःख होना, साता-असाता होना जीव-विपाकी कर्म कहलाता है। सुख का अनुभव भी जीव को होता है। उसका परिपाक जीव में होता है, पदार्थ में नहीं। परन्तु हमने मान लिया कि पदार्थ का होना सख है और पदार्थ का न होना दुःख है। यह बहुत बड़ी भ्रांति पैदा हो गई। अनेक मनीषी आचार्यों ने बताया-पदार्थ के द्वारा जो होता है वह ऐकान्तिक सुख या दुःख नहीं होता। जेठ की दुपहरी है। गहरी प्यास लगी है। पानी का एक गिलास मिलता है तो सुख का अनुभव होता है। व्यक्ति को सुख का अनुभव हुआ पानी से। पानी सुख का अनुभव नहीं है। पानी सुख के अनुभव का एक साधन 286 कर्मवाद Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पानी एक पदार्थ है, जिसमें यह क्षमता है कि वह सुख का साधन बन सकता है, सुख का निमित्त या हेतु बन सकता है। किन्तु पानी पीना सुख का अनुभव नहीं है, चेतना सुख का अनुभव करती है। चेतना को सुख होता है और पदार्थ उसका निमित्त बनता है। एक गिलास पानी पिया, फिर दूसरा गिलास पानी पिया, फिर तीसरा और चौथा गिलास पानी पिया। क्रमशः सुखानुभूति कम होती चली जाएगी और एक समय ऐसा भी आता है कि पानी पीने से सुख की अनुभूति बिलकुल नहीं होती। जैसे-जैसे उपयोगिता कम होती है, सुखानुभूति भी कम होती चली जाती है। संगीत-श्रवण से व्यक्ति को सुख मिलता है। कानों को तप्ति मिलती है। किन्तु एक व्यक्ति नींद में सोया हुआ है, वह संगीत को पसन्द नहीं करेगा। एक आदमी खाने का शौकीन है। पर जब वह रोगग्रस्त है तो अच्छा भोजन भी उसे अच्छा नहीं लगता। उसे सब कुछ बुरा लगता है। पदार्थ में सुख देने की क्षमता नहीं है, पदार्थ सुख का निमित्त बन सकता है। किन्तु यह जरूरी नहीं है कि पदार्थ सुख का निमित बनता ही है। वह बनता भी है और नहीं भी बनता। हमने पदार्थ को सब कुछ मान लिया, यह बहुत बड़ी भ्रांति हो गई। एक बहुत बड़े धनपति ने कहा, 'मेरा ड्राइवर जहां कहीं मोटर खड़ी कर नींद ले लेता है। वह सुख की नींद सोता है और मुझे नींद लेने के लिए गोलियां खानी पड़ती हैं। फिर भी गहरी नींद नहीं आती। मुझे ड्राइवर की नींद से ईर्ष्या होती है. उसके निश्चिन्त जीवन से ईर्ष्या होती है। यह जानते हुए भी उन धनपतियों में एक प्रकार की मूर्छा, एक प्रकार की तृष्णा काम करती है, जिसे वे छोड़ नहीं सकते। जो दुःख का साधन है, वे उसे सुख का' साधन मानकर चलते हैं। जब वे दुःख के साधन को सुख मान लेते हैं तब बेचारे गरीब आदमी सोचते हैं-धन कमाने से यह बड़ा आदमी हो गया, सुखी हो गया। यह कहना तो सच है कि वह धनपति बन गया, बड़ा बन गया, किन्तु उसे सुखी मान लेना यह भ्रांति हो जाती है। एक मार्मिक कहानी है हरियाणा की। एक धोबी था। उसके अनेक पलियां थीं। उसने एक कुत्ता पाल रखा था। उसका नाम था 'शताबा' / वह थक गया। एक दिन पड़ोस के कुत्तों ने आकर कहा, 'तुम बहुत विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 287 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थक गए। क्या बात है? दूसरे घर क्यों नहीं चले जाते?' उसने कहा, 'तुम बात तो ठीक कहते हो, पर कैसे जाऊं? अपनी इतनी पलियों को छोड़ कैसे जाऊ?' उन कुत्तों ने कहा, 'कौन-सी पलियां? कहां से टपक पड़ीं तुम्हारी पत्नियां?' उस कुत्ते ने कहा, 'धोबी की कई पत्नियां हैं। जब वे लड़ती हैं तब वे एक-दूसरे को कहती हैं, 'आई रांड शताबा की बैर। अब बताओ वे सब मेरी पत्नियां हैं कि नहीं। उन्हें छोड़ कैसे जाऊं?' ___मनुष्य भी अपने चारों ओर मोह का एक ऐसा वलय बना लेता है कि उसे तोड़ नहीं पाता। कुत्ते को 'शताबा की बैर' से कोई लेना-देना नहीं, फिर भी मन में एक मोह जाग गया कि वह अपनी पत्नियों को छोड़कर कहीं नहीं जा सकता, भले ही वह भूखा मर जाए। क्या आप यह नहीं मानते कि धन के पीछे दौड़ने वाले बहुत सारे लोगों में एक मूर्छा जाग जाती है कि वे सुख के लिए धन नहीं कमाते किन्तु धन के लिए धन कमाते हैं, धन के लिए धन का अर्जन करते हैं? वे धन से मात्र अपना बड़प्पन प्रदर्शित करना चाहते हैं। इसके सिवाय कोई सुख नहीं होता। यदि धन वाले सुखी हों और इस सिद्धांत को कोई प्रमाणित कर सके तो शायद हम कर्मवाद के प्रश्न पर पुनर्विचार करने को तैयार हो सकते हैं। किन्तु आज तक यह कोई प्रमाणित नहीं कर सका कि धनपति सुखी होता है। इतना तो मैं मान सकता हूं कि धनपति सुविधापूर्ण जीवन जी सकता है। धन से सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं। धन से जो वस्तु चाहे, वह मिल सकती है। वस्तु का मिलना सुख का मिलना नहीं है। यदि हम वस्तु का मिलना सुख का मिलना मान लेते हैं तो भ्रांति छा जाती है। वस्तु का मिलना कुछ और है सुख का मिलना कुछ और है। हम देखते हैं कि वस्तुओं का संग्रह करने वाले दुश्चिताओं में जीते हैं। हम सबसे पहले यह समझें कि वस्तु का होना एक बात है और सुख का होना दूसरी बात है। दोनों की भिन्न-भिन्न दिशाएं हैं। वस्तु के न होने पर भी आदमी सुखी हो सकता है और बहुत सारी वस्तुओं की सुगमता होने पर भी आदमी सुखी नहीं हो सकता। यह बात समझ 288 कर्मवाद Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पदार्थ को कर्म या धर्म के साथ जोड़ना आवश्यक नहीं है। धर्म के द्वारा जो प्राप्त होता है, वह है हमारी आन्तरिक अनुभूति। धर्म से हमारा आंतरिक व्यक्तित्व बनता है और अधर्म से वह बिगड़ता है। कर्म की व्यवस्था हमारे आंतरिक व्यक्तित्व के निर्माण में या बिगाड़ने में है, न कि पदार्थ को जुटाने में। जब ठंडी हवा चलती है तब सुख का अनुभव होता है। मैं पूछना चाहता हूं-ठंडी हवा किस व्यक्ति के पुण्य कर्म से चली, किसके भाग्य से चली? वर्षा होती है, वह किसके कर्म से होती है? एक आदमी कश्मीर में जन्म लेता है और गर्मी का मौसम सुखपूर्वक बिता देता है। एक आदमी राजस्थान में जन्म लेता है और गर्मी के दिनों में बहुत कष्ट का अनुभव करता है। तो क्या हम मान लें कि कश्मीर में जन्म लेने वाले सारे भाग्यशाली हैं और राजस्थान में जन्म लेने वाले सारे लोग भाग्यहीन हैं? कश्मीर में जन्म लेने वाले सुन्दर होंगे, गौर वर्ण के होंगे और रेगिस्तान में जन्म लेने वाले सारे लोग काले वर्ण के होंगे। तो क्या गोरे लोग . भाग्यशाली हैं और काले लोग भाग्यहीन हैं? क्या हम इस बात को स्वीकार कर लेंगे? प्रकृति से होने वाले सारे परिवर्तनों को, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर घटित होने वाली घटनाओं को यदि हम कर्म के साथ जोड़ देते हैं, उन्हें कर्म का फल मान लेते हैं तो वहां बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। हम उन्हें निमित्त मान सकते हैं, हेतु मान सकते हैं, किन्तु कर्म का परिणाम नहीं मान सकते। एक व्यक्ति को धन मिल गया तो क्या हम यह मानें कि इसने बहुत अच्छा कर्म किया था? प्रत्यक्ष में तो हम यह देखते हैं कि बड़ा धनी वही होता है जो ज्यादा बुराइयां करता है। ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे जो सदाचार, नैतिकता और पवित्रता के साथ धन का. अर्जन करें और बड़े धनपति बन जाएं। यह संभव नहीं लगता। नदी में बाढ़ आएगी तो गंदा पानी आएगा। ऐसा हो नहीं सकता कि नदी की बाढ़ आए और सारा-का-सारा निर्मल पानी आए। अच्छे साधनों से आदमी की जीविका चले उतना धन कमा सकता है, बहुत बड़ा धनी नहीं बन सकता। नैतिकता के नियमों का पूर्ण पालन करने वाला कभी धनी नहीं बन सकता। धन कमाने के अनेक साधन विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्म गद 286 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। साधनों से धन मिलता है। हम यह मानते चले जाएं कि सारा धन पुण्य के द्वारा ही मिलता है, यह सही नहीं है। मुझे लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की खामियों को कर्म के साथ जोड़ दिया गया और उस भ्रान्ति ने आदमी को दिग्मूढ़ बना दिया। आज भी वह दिग्मूढ़ता कर्मवाद और भाग्यवाद के नाम पर हिन्दुस्तान को सता रही है। किसी का ध्यान उस ओर नहीं जाता। कर्मवाद को पदार्थ के साथ न जोड़ें। इस बात को और गहराई से समझें कि यदि धन का सम्बन्ध कर्मवाद से होता और यदि कर्म के द्वारा ही यह सब कुछ प्राप्त होता, यदि यह कर्म का ही परिणाम होता तो अध्यात्म के आचार्य धन को छोड़ने या राज्य को त्यागने की बात क्यों कहते? वे सम्पदाओं को न भोगने की बात क्यों कहते? भगवान महावीर ने अपरिग्रह पर जितना बल दिया, उतना और किसी ने नहीं दिया। उन्होंने कहा, 'परिग्रह एक संज्ञा है।' पदार्थ दुनिया में होता है। दुनिया का धन दुनिया में होता है। उससे हमारा न कुछ बनता है और न कुछ बिगड़ता है। कुछ भी नहीं होता। जब व्यक्ति के साथ पदार्थ का सम्बन्ध जुड़ता है तब परिग्रह की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है। महावीर से पूछा गया, 'भन्ते! परिग्रह की संज्ञा क्यों उत्पन्न होती है?' महावीर ने कहा, 'जब मोहनीय कर्म का उदय होता है तब परिग्रह की संज्ञा बनती है। परिग्रह के प्रति आकर्षण होना, परिग्रह के प्रति आसक्ति होना और परिग्रह के साथ ममकार का जुड़ जाना, मोहनीय कर्म का, पाप कर्म का उदय होना है। पुण्य का उदय नहीं होता। उन्होंने अर्थ-व्यवस्था का कोई सूत्र नहीं दिया। जो धर्म के क्षेत्र में काम करने वाले लोग हैं वे अर्थ के क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप नहीं करते। अर्थ के विषय में चिन्तन करना समाज के चिन्तकों का, समाज के कर्णधारों का, राजनीति के संचालकों का काम है। फिर भी अध्यात्म के लोगों ने जो मूलभूत तथ्य दिए, वे बहुत ही महत्त्व के हैं। हमने विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था की बात सुनी है। यह बात महात्मा गांधी के बाद बहुत उजागर हो गई। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था भी समाजवाद का ही एक रूप है। किन्तु इसका रूप कुछ भिन्न है। एक केन्द्रित 260 कर्मवाद Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-व्यवस्था का समाजवाद होता है और एक विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था का समाजवाद होता है। समाजवाद का एक उद्देश्य है कि समाज के सब लोगों के पास सम्पदा पहुंचे। कहीं एक जगह सम्पदा जमा न हो। उस सम्पदा पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो, किन्तु समाज का स्वामित्व हो। समाज के सभी लोग सम्पदा को बांटकर उपभोग करें। इस सिद्धांत के आधार पर समाज की नींव खड़ी की गयी। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था का नाम भी समाजवाद है और केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था का नाम भी समाजवाद है। किन्तु दोनों में थोड़ा अन्तर है। जहां अर्थ-व्यवस्था केन्द्रित होती है वहां शक्ति का प्रयोग अनिवार्य होता है। शक्ति के प्रयोग के बिना कोई भी व्यक्ति अपनी सम्पदा को छोड़ना नहीं चाहता। कुछ लोग छोड़ सकते हैं जिनके मन में धर्म की चेतना जागृत हो। जिनके मन में धर्म की चेतना, अपरिग्रह की. चेतना जागृत नहीं है, वे व्यक्ति अपना प्रभुत्व छोड़ना कभी पसन्द नहीं करते। इसलिए केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था के प्रशासन में यह अनिवार्य हो जाता है कि शक्ति के प्रयोग के द्वारा सम्पदा छीनी जाए और वह सम्पदा राज्य के कोष में आए, उसका उपयोग समूचे समाज के लिए किया जाए। ___केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में शक्ति का प्रयोग अनिवार्य है और हिंसा का प्रयोग भी अनिवार्य है। क्योंकि जो कार्य बल-प्रयोग के द्वारा किया जाता है, वहां हिंसा को कभी टाला नहीं जा सकता, छीना-झपटी को भी कभी टाला नहीं जा सकता। उसमें स्पर्धा भी अनिवार्य होती है। नैतिकता की बात गौण हो जाती है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में नैतिकता का मूल वह नहीं रहता जो विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में हो सकता है। जो लोग अहिंसा और धर्म की दृष्टि से सोचते हैं वे इस केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था को पसन्द नहीं करते। . केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में आदमी सुखी जीवन नहीं बिता सकता। क्योंकि आदमी को केवल रोटी ही नहीं चाहिए, कुछ और भी चाहिए। विचारों की स्वतन्त्रता भी चाहिए, कर्म की स्वतन्त्रता भी चाहिए। किन्तु जहां केन्द्रित सत्ता और केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था होगी वहां वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं हो सकती और कर्म की स्वतन्त्रता भी नहीं हो सकती। उस व्यवस्था विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 261 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आदमी समाज के यंत्र का एक पुर्जा बन जाता है और यांत्रिक जीवन जीता है। उस स्थिति में रोटी की बात गौण हो जाती है, दूसरी बातें सताने लग जाती हैं। . मनुजी से पूछा गया, 'सुख क्या है? दुःख क्या है? उसने कहा, 'सर्वं वरवशं दुखं, सर्वं आत्मवशं सुखं'-परवशता दुःख है और स्ववशता सुख है। परतंत्रता दुःख है और स्वतंत्रता सुख है। / कुछ लोग ऐसे होते हैं जो रोटी के लिए स्वतंत्रता को ठुकरा देते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो रोटी के लिए स्वतंत्रता की बलि देना पसन्द नहीं करते। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों कठिनाइयां झेली। उन्होंने किसी भी मूल्य पर स्वतंत्रता को छोड़ना नहीं चाहा। सुखी जीवन जीना, यह विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में ही हो सकता है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में सख का जीवन नहीं जीया जा सकता, केवल उसके साधनों को प्राप्त किया जा सकता है। राजनीति का क्षेत्र सुख देने का क्षेत्र नहीं है। वह पदार्थ उपलब्ध करा सकता है। राज्य शासन पदार्थ की प्राप्ति करा सकता है। सुख देना उसके हाथ की बात नहीं है। सुख के साधन और दुःख के साधन उपलब्ध कराने में वह सक्षम है। किन्तु सुखी-दुःखी बनाना उसकी क्षमता से परे है। एक राज्य सरकार किसी को अपनी जेल में डाल सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि जेल डाल देना दुःख देना है। पर ऐसी बात नहीं है। बहुत सारे लोग जेल में जाकर भी सुख का अनुभव करते हैं। अनेक राजनीतिक बंदी जेल में जाकर भी दुःख का अनुभव नहीं करते। वे अपने सिद्धांत के साथ जेल में जाते हैं और अपने सिद्धांत के साथ वहां रहते हैं। बड़े-बड़े नेता अपने जेल के जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैं, "जितना पढ़ने-लिखने का मौका जेल में मिला, उतना बाहर नहीं मिला।' बाहर अनेक कार्य होते हैं, पर जेल के एकांत जीवन में केवल स्वाध्याय और लेखन के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं रहता। उन्होंने जेल जीवन को कभी दुःखदायी नहीं माना। दुःख देना राज्य-शासन के हाथ में नहीं है। दुःख का साधन है जेल, वह देना राज्य-शासन के हाथ में है। सुख देना भी 262 कर्मवाद Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य-शासन के हाथ में नहीं है। वह सुख के साधन जुटा सकता है। किंतु सुख का साधन देने पर भी मानसिक वृत्तियां यदि सुख को भोगने में सक्षम नहीं हैं तो आदमी सुखी नहीं बन सकता। हमारी यह धारणा स्पष्ट होनी चाहिए कि सुख की अनुभूति और दुःख के साधन एक नहीं हैं, दो हैं। दुःख की अनुभूति और दुःख के साधन एक नहीं, दो हैं। . जब यह धारणा स्पष्ट हो जाती है तब अनेक समस्याएं अपने आप समाहित हो जाती हैं। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में पहली बात यह है कि संपदा व्यक्ति-व्यक्ति के पास पहुंचे। वह कहीं केन्द्रित न हो। समूचे समाज के पास सम्पदा पहुंचे। किन्तु वह शक्ति के प्रयोग के द्वारा, बल-प्रयोग के द्वारा या हिंसा के द्वारा नहीं, एक सहज स्वीकृत व्यवस्था के द्वारा पहुंचे। उस व्यवस्था की पृष्ठभूमि में अहिंसा का दर्शन होता है। अहिंसा के दर्शन का सिद्धांत है कि सुख और सुख के साधन दो हैं। दुःख और दुःख के साधन दो हैं। राजनीति का सिद्धांत इसे मान्य नहीं करता। राजनीति में जो सुख का साधन है वही सुख है और जो दुःख का साधन है वही दुःख है। किन्तु जब हम दर्शन की भूमिका पर विचार करते हैं तब यह भेदरेखा खिंच जाती है कि सुख का साधन अलग होता है और सुख अलग होता है। दुःख का साधन अलग होता है और दुःख अलग होता है। - भगवान् महावीर ने एक आचार-संहिता दी। उसमें लाखों व्यक्ति दीक्षित हुए। उस आचार-संहिता में दो सूत्र थे। पहला सूत्र था-अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह / दूसरा सूत्र था-महा आरंभ और महा परिग्रह। महा आरंभ और महा परिग्रह को आज की भाषा में केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और केन्द्रित सत्ता कह सकते हैं। अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह को आज की भाषा में विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और विकेन्द्रित सत्ता कह सकते .. हैं। जहां परिग्रह अल्प है, वहां हिंसा भी अल्प है। जहां परिग्रह महान् _है, वहां हिंसा भी महान् है। हिंसा. के लिए परिग्रह नहीं होता, किन्तु परिग्रह के लिए हिंसा होती है। हिंसा परिग्रह का निमित्त है। जिस व्यक्ति ... के मन में परिग्रह की कोई भावना नहीं है, वह व्यक्ति हिंसा नहीं कर विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 263 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता। जिसके मन में परिग्रह की भावना है, वहां से हिंसा प्रारंभ होती है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। इसे हमें समझना है। सबसे पहला परिग्रह है-हमारा शरीर। हिंसा होती है शरीर की सुरक्षा के लिए। एक संस्कृत कवि ने लिखा है, 'सर्वारम्भाः तन्दुलप्रस्थमूलाः' -जितनी भी प्रवृत्तियां हैं, वे मात्र एक सेर चावल को प्राप्त करने के लिए हैं। सारी हिंसा पेट की आग को बुझाने के लिए है। ... .. परिग्रह में दूसरा स्थान आता है-परिवार और पदार्थ का। परिवार के पालन-पोषण के लिए पदार्थों का संग्रहण किया जाता है। एक मानसिक परिग्रह होता है, बड़प्पन के लिए, प्रतिष्ठा के लिए। फिर एक सिद्धांत बन जाता है। एक बार एक उद्योगपति से पूछा, 'आपके इतने धंधे हैं, इतने उद्योग हैं, फिर क्यों नये-नये खड़े कर रहे हैं?' उन्होंने कहा, 'महाराज' आज की अर्थ-व्यवस्था को आप नहीं जानते। आज की अर्थ-व्यवस्था का सिद्धांत है-Know How / एक कारखाने को सुचारु रूप से चलाने के लिए दूसरा कारखाना और दूसरे को चलाने के लिए तीसरा और तीसरे को चलाने के लिए चौथा आवश्यक होता है। इस . श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं आता। यह अन्तहीन शृंखला होगी। जहां विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था होती है वहां व्यक्ति अपनी सीमा बना लेता है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में भी सीमा होती है, व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होती है। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में भी व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा होती है। भारतीय अर्थ-व्यवस्था के चिंतन में एक महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है-इच्छा-परिणाम। आज राजनीति के क्षेत्र में चाहे केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था हो या विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था हो, वहां व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा की बात कही जाती है। महावीर की आचार-संहिता में इच्छा-परिणाम शब्द है। दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में वह शक्ति के प्रयोग के द्वारा आता है। विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था में शक्ति का प्रयोग उतना नहीं होता किन्तु व्यक्ति की इच्छा से और समाज के कल्याण की दृष्टि से वह कार्य किया जाता है। इच्छा-परिणाम विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से किया जाए। 264 कर्मवाद Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्प आरंभ, अल्प परिग्रह और इच्छा-परिणाम-ये तीन शब्द ऐसे हैं जो विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था, विकेन्द्रित सत्ता और व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा, इच्छाओं की सीमा-ये तीन सिद्धांत हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। प्रश्न होता है कि पुण्य को रोकने की बात क्यों कही? अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का सिद्धांत क्यों प्रतिपादित किया गया? समय-समय का मूल्य होता है। प्राचीन ग्रन्थों में जहां बड़े आदमी का वर्णन मिलता है तो उसका बड़प्पन पलियों की संख्या में आंका जाता था। अमुक व्यक्ति के हजार पलियां हैं, अमुक के दस हजार और चक्रवर्ती के एक लाख बानवे हजार पलियां हैं। इतनी पत्नियों के बिना कोई चक्रवर्ती नहीं बन सकता। उस समय बहुपतित्व बड़प्पन का सूचक था। जिसके जितनी ज़्यादा पत्नियां, वह उतना ही बड़ा आदमी। जिसके कम पलियां, वह छोटा आदमी। आज यह धारणा उलट गयी है। आज बहुपलित्ववाद प्रचलित नहीं है। यत्र-तत्र है तो वहां भी वह सीमित है। हजार पत्नियां होना कोई पुण्य का उदय नहीं है और एक-दो पत्नियों का होना कोई पाप का उदय नहीं है। यह समाज-व्यवस्था से अधिक सम्बन्धित है। एक-एक समय में एक-एक प्रथा प्रचलित होती है। उसी के आधार पर व्यक्ति का मानदण्ड किया जाता है। __ भारतीय लोग बहुत अधिक अकर्मण्य हैं। इसमें उनकी भाग्यवादी धारणा का बहुत बड़ा हाथ है। कुछ भौगोलिक कारण भी हो सकता है। गर्म देश के आदमियों में आलस्य अधिक होता है। किन्तु यह भी सचाई है कि आज के आदमी ने पुरुषार्थ को छोड़ दिया। वह कर्मवादी और भाग्यवादी धारणाओं को लेकर सोया पड़ा है। वह यह सोच भी नहीं पाता कि वर्तमान के पुरुषार्थ के द्वारा आदमी समस्याओं से उबर सकता है, अर्थ-व्यवस्था को बदलकर सम्पदा बढ़ा सकता है, गरीबी को मिटा सकता है और समाज में समीकरण ला सकता है। यह लगता है कि. भारत का आदमी यदि भाग्यवादी धारणा का पोषक नहीं होता तो आज तक यहां कई क्रांतियां घटित हो जातीं। आज वह अनेक कठिनाइयां झेल रहा है, पर कर्मवादी धारणा को छोड़ने के लिए तैयार विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 265 / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। ___ हम कर्मवाद को वर्तमान की परिस्थितियों के संदर्भ में समझें और उसका गहराई में अवलोकन करें। कर्मवाद की सबसे अनुकूल व्यवस्था है विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था, जहां कर्मवाद के सिद्धान्त की भी सुरक्षा होती है और कर्मवाद के द्वारा जो एक मर्म सिखाया जाता है कि बहुत परिग्रह * न करें-यह सिद्धान्त भी फलित होता है। इसके साथ-साथ सामाजिक विषमता का समाधान भी मिलता है। . विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था अहिंसा के अति निकट है। अध्यात्म का सामाजिक रूप है-लोकतन्त्र और लोकतन्त्र में विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था। यह अध्यात्म या धर्म का व्यावहारिक प्रतिफलन है। ____ हम धर्म को, पुण्य को और पुण्य के कार्य को ठीक से समझें। पुण्य की क्या अनुभूति होती है और धर्म की क्या अनुभूति होती है? धर्म का हमारे जीवन में क्या प्रतिफलन है? इन सारे प्रश्नों पर हम नये सिरे से सोचें तो धर्म की सारी गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं। पुण्य और कर्म की धारणा को भी एक स्वस्थ रूप मिल सकता है और वर्तमान की बड़ी समस्या-सामाजिक विषमता को भी समाधान मिल सकता है। आवश्यकता इतनी ही है कि हम मूल को पकड़ें। 66 कर्मवाद Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में दर्शन के क्षेत्र में शाश्वत और अशाश्वत-दोनों चर्चनीय रहे हैं। इन दोनों के तीन रूप उपलब्ध होते हैं-शाश्वतवाद, अशाश्तवाद और शाश्वत-अशाश्वतवाद। जैन दर्शन ने तीसरा विकल्प मान्य किया। जगत् में जिसका अस्तित्व है; वह केवल शाश्वत नहीं है, केवल अशाश्वत नहीं है। शाश्वत और अशाश्वत, दोनों का सहज समन्वय है। तत्त्व की दृष्टि से जो सिद्धांत है, उस पर मैं काल-सापेक्ष विमर्श करना चाहता हूं। - कर्म भारतीय दर्शन में एक प्रतिष्ठित सिद्धांत है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है। इस विषय पर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। विषय बहुत गम्भीर और गणित की जटिलता से बहुत गुंफित है। सामान्य व्यक्ति उसकी गहराई तक पहुंचने में काफी कठिनाई अनुभव करता है। कहा जाता है, आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के सिद्धांत को समझने वाले कुछ विरले ही वैज्ञानिक हैं। यह कहना भी सत्य की सीमा से परे नहीं होगा कि कर्मशास्त्र को समझने वाले भी संमूचे दार्शनिक जगत् में कुछ विरले ही लोग हैं। ___कर्मशास्त्र में शरीर-रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्व तक, बन्धन से लेकर मुक्ति तक-सभी विषयों पर गहन चिन्तन और दर्शन मिलता है। यद्यपि कर्मशास्त्र के बड़े-बड़े ग्रंथ उपलब्ध हैं, फिर भी हजारों वर्ष पुरानी पारिभाषिक शब्दावली को समझना स्वयं एक समस्या है। और * जब तक सूत्रात्मक परिभाषा में गूंथे हुए विशाल चिन्तन को पकड़ा नहीं कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में 287 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता, परिभाषा से मुक्त कर वर्तमान के चिन्तन के साथ पढ़ा नहीं जाता और वर्तमान की शब्दावली में प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक एक महान् सिद्धान्त भी अर्थशून्य जैसा हो जाता है। ___ आज के मनोवैज्ञानिक मन की हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं। मनोविज्ञान को पढ़ने पर मुझे लगा कि जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियों ने अध्ययन और विचार किया था, उन्हीं. समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञान के संदर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो उसकी अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं, अनेक अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती हैं। कर्मशास्त्र के संदर्भ में यदि मनोविज्ञान को पढ़ा जाए तो उसकी अपूर्णता को समझा जा सकता. है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकते हैं। . ___ हमारे जगत् में करोड़ों-करोड़ों मनुष्य हैं। वे सब एक ही मनुष्य जाति से संबद्ध हैं। उनमें जातिगत एकता होने पर भी वैयक्तिक भिन्नता होती है। कोई भी मनुष्य शारीरिक या मानसिक दृष्टि से सर्वथा किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं होता। कुछ मनुष्य लम्बे होते हैं, कुछ बौने होते हैं। कुछ मनुष्य गोरे होते हैं, कुछ काले होते हैं। कुछ मनुष्य सुडौल होते हैं, कुछ भद्दी आकृति वाले होते हैं। कुछ मनुष्यों में बौद्धिक मन्दता होती है, कुछ में विशिष्ट बौद्धिक क्षमता होती है। स्मृति और अधिगम क्षमता (Learning Capacity) सबमें समान नहीं होती। स्वभाव भी सबका एक-जैसा नहीं होता। कुछ शान्त होते हैं, कुछ बहुत क्रोधी होते हैं। कुछ प्रसन्न प्रकृति के होते हैं, कुछ उदास रहने वाले होते हैं। कुछ निःस्वार्थ वृत्ति के लोग होते हैं, कुछ स्वार्थपरायण होते हैं। वैयक्तिक भिन्नता प्रत्यक्ष है। इस विषय में कोई दो मत नहीं हो सकता। कर्मशास्त्र में वैयक्तिक भिन्नता का चित्रण मिलता ही है। मनोविज्ञान ने भी इसका विशद रूप में चित्रण किया है। उसके अनुसार वैयक्तिक भिन्नता का प्रश्न मूल प्रेरणाओं के संबंध में उठता है। मूल प्रेरणाएं (प्राइमरी मोटिव्स) सबमें होती हैं, किन्तु उनकी मात्रा सबमें एक समान नहीं होती। किसी में कोई एक प्रधान होती है तो किसी में कोई दूसरी प्रधान होती है। अधिगम क्षमता भी सबमें होती है, किसी में अधिक होती है और किसी 268 कर्मवाद Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कम। वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत मनोविज्ञान के प्रत्येक नियम के साथ जुड़ा हुआ है। ___ मनोविज्ञान में वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन आनुवंशिकता (हेरिडिटी) और परिवेश (एन्वार्नमेंट) के आधार पर किया जाता है। जीवन का प्रारम्भ माता के डिम्ब और पिता के शुक्राणु के संयोग से होता है। व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों का निश्चय क्रोमोसोम के द्वारा होता। क्रोमोसोम अनेक जीनों (जीन्स) का एक समुच्चय होता है। एक क्रोमोसोम में लगभग हजार जीन माने जाते हैं। ये जीन ही माता-पिता के आनुवंशिक गुणों के वाहक होते हैं। इन्हीं में व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास की क्षमताएं (पोटेन्सिएलिटीज) निहित होती हैं। व्यक्ति में ऐसी कोई विलक्षणता प्रकट नहीं होती, जिसकी क्षमता उसके जीन में निहित न हो। मनोविज्ञान ने शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओं की व्याख्या आनुवंशिकता और परिवेश के आधार पर की है, पर इससे विलक्षणता के संबंध में उठने वाले प्रश्न समाहित नहीं होते। शारीरिक विलक्षणता पर आनुवंशिकता का प्रभाव प्रत्यक्ष होता है। मानसिक विलक्षणताओं के संबंध में आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। क्या बुद्धि आनुवंशिक गुण है? अथवा परिवेश का परिणाम है? क्या बौद्धिक स्तर को विकसित किया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर प्रायोगिकता के आधार पर नहीं दिया जा सकता। आनुवंशिकता और परिवेश से सम्बद्ध प्रयोगात्मक अध्ययन केवल निम्न कोटि के जीवों पर ही किया गया है या सम्भव हुआ है। बौद्धिक विलक्षणता का संबंध मनुष्य से है। इस विषय में मनुष्य अभी भी. पहेली बना हुआ है। ... कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जीवन का प्रारम्भ माता-पिता के डिम्ब और शुक्राणु के संयोग से होता है, किन्तु जीव का प्रारम्भ उनसे नहीं होता। मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन और जीव का भेद अभी स्पष्ट नहीं है। इसलिए सारे प्रश्नों के उत्तर जीवन के संदर्भ में खोजे जा सकते हैं। कर्मशास्त्रीय अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहुत स्पष्ट है, इसलिए मानवीय विलक्षणता के कुछ प्रश्नों का उत्तर जीवन में खोजा जाता है . और कुछ प्रश्नों का उत्तर जीव में खोजा जाता है। आनुवंशिकता का कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में 266 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध जीवन से है, वैसे ही कर्म का सम्बन्ध जीव से है। उसमें अनेक जन्मों के कर्म या प्रतिक्रियाएं संचित होती हैं। इसलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिंदु में ही नहीं खोजा जाता, उससे परे भी खोजा जाता है, जीव के साथ प्रवहमान कर्मसंचय (कर्मशरीर) में भी खोजा जाता है। . कर्म का मूल मोहनीय कर्म है। मोह के परमाणु जीव में मूर्छा उत्पन्न करते हैं। दृष्टिकोण मूर्छित होता है और चरित्र भी मूर्छित हो जाता है। व्यक्ति के दृष्टिकोण, चरित्र और व्यवहार की व्याख्या इस मूर्छा की तरतमता के आधार पर की जा सकती है। मेक्डूगल के अनुसार व्यक्ति में चौदह मूल प्रवृत्तियां और उतने ही मूल संवेग होते हैंमूल प्रवृत्तियां मूल सवेग 1. पलायनवृत्ति भय 2. संघर्षवृत्ति क्रोधः 3. जिज्ञासावृत्ति कुतूहल भाव 4. आहारन्वेषणवृत्ति 5. पित्रीयवृत्ति वात्सल्य, सुकुमार भावना 6. यूथवृत्ति एकाकीपन तथा सामूहिकता भाव 7 विकर्षणवृत्ति जुगुप्सा भाव विकर्षण भाव 8 कामवृत्ति कामुकता ... 6 स्वाग्रहवृत्ति स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना 10. आत्मलघुतावृत्ति हीनता भाव 11. उपार्जनवृत्ति स्वामित्व भावना, अधिकार भावना 12. रचनावृत्ति सृजन भावना 13. याचनावृत्ति दुःख भाव 14. हास्यवृत्ति उल्लसित भाव कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं, और उसके अट्ठाईस ही विपाक हैं। मूल प्रवृत्तियों और मूल संवेगों के साथ 300 कर्मवाद Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी तुलना की जा सकती है। मोहनीय कर्म के विपाक मल सवेग 1. भय भय 2. क्रोध क्रोध 3. जुगुप्सा जुगुप्सा भाव-विकर्ष भाव 4. स्त्री वेद 5. पुरुष वेद कामुकता 6. नपुंसक वेद 7. अभिमान स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना 8 लोभ स्वामित्व भावना, अधिकार भावना 6. रति उल्लसित भाव 10. अरति दुःख भाव मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि संवेग के उद्दीपन से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक से व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार बदलता रहता है। ___प्राणी जगत् की व्याख्या करना सबसे जटिल है। अविकसित प्राणियों की व्याख्या करने में कुछ सरलता हो सकती है। मनुष्य की व्याख्या सबसे जटिल है। वह सबसे विकसित प्राणी है। उसका नाड़ी-स्थान सबसे अधिक विकसित है। उसमें क्षमताओं के अवतरण की सबसे अधिक सम्भावनाएं हैं। इसलिए उसकी व्याख्या करना सर्वाधिक दुरूह कार्य है। कर्मशास्त्र, योगशास्त्र, मानसशास्त्र (साइकोलॉजी), शरीरशास्त्र (एनेटोमी) और शरीरक्रियाशास्त्र (फिजियोलॉजी) के तुलनात्मक अध्ययन से ही उसको कुछ सरल बनाया जा सकता है। . मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेश के कारण ही नह होते। उनमें नाड़ी-संस्थान, जैविक विद्युत्, जैविक रसायन और अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव का भी योग होता है। ये सब हमारे स्थूल शरीर के अवयव हैं। इनके पीछे सूक्ष्म शरीर क्रियाशील होता है और उनमें निरन्तर होने वाले कर्म के स्पंदन परिणमन या परिवर्तन की प्रक्रिया को चालू .' रखते हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में कर्म के स्पंदन, मन की चंचलता, कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में 301 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर के संस्थान; ये सभी सहभागी होते हैं। इसलिए किसी एक शास्त्र के द्वारा हम परिवर्तन की प्रक्रिया का सर्वांगीण अध्ययन नहीं कर सकते। ध्यान की प्रक्रिया द्वारा मानसिक परिवर्तनों पर नियंत्रण किया जा सकता है. इसलिए योगशास्त्र को भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। अपृथक्त्व अनुयोग की शिक्षा प्रणाली में प्रत्येक विषय पर सभी नयों से अध्ययन किया जाता था, इसलिए अध्येता को सर्वांगीण ज्ञान हो जाता था। आज की पृथक्त्व अनुयोग की शिक्षा प्रणाली में एक विषय के लिए मुख्यतः तद्विषयक शास्त्र का ही अध्ययन किया जाता है, इसलिए उस विषय को समझने में बहुत कठिनाई होती है। उदाहरण के लिए मैं कर्मशास्त्रीय अध्ययन को प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक कर्मशास्त्री पांच पर्याप्ति के सिद्धांत को पढ़ता है और वह इसका हार्द नहीं पकड़ पाता। पर्याप्तियां छह हैं। भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति को स्वतंत्र मानने पर पर्याप्तियों की संख्या छह होती है। भाषा पर्याप्ति और मनः-पर्याप्ति को एक मानने पर वे पांच होती हैं। प्रश्न है भाषा और मन की पर्याप्ति को एक क्यों माना जाए। स्थूल दृष्टिकोण से भाषा और मन दो प्रतीत होते हैं। भाषा के द्वारा विचार प्रकट किए जाते हैं और मन के द्वारा स्मृति, कल्पना और चिन्तन किया जाता है। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर वह प्रतीति बदल जाती है। भाषा और मन की इतनी निकटता सामने आती है कि उसमें भेदरेखा खींचना सहज नहीं होता। गौतम स्वामी के एक प्रश्न के कई उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-वचनगुप्ति के द्वारा मनुष्य निर्विचारता को उपलब्ध होता है। निर्विचार व्यक्ति अध्यात्म-योग-ध्यान से ध्यान तो उपलब्ध हो जाता है। विचार का सम्बन्ध जितना मन से है, उतना ही भाषा से है। जल्प दो प्रकार का होता है-अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प। बहिर्जल्प को हम भाषा कहते हैं। अन्तर्जल्प और चिन्तन में दूरी नहीं होती। चिन्तन भाषात्मक ही होता है। कोई भी चिन्तन अभाषात्मक नहीं हो सकता। स्मृति, कल्पना और चिन्तन-ये सब भाषात्मक होते हैं। व्यवहारवाद के प्रवर्तक वॉटसन (Watson) के अनुसार चिन्तन अव्यक्त शाब्दिक व्यवहार है। उनके अनुसार चिन्तन-व्यवहार की प्रतिक्रियाएं वाक्-अंगों (Vocal Organs) में होती हैं। व्यक्ति शब्दों को 302 कर्मवाद Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकूलन (Conditioning) से सीखता है। धीरे-धीरे शाब्दिक आदतें (Verbal Habits) पक्की हो जाती हैं और वे शाब्दिक उद्दीपकों (Verbal Stimuli) से उद्दीप्त होने लगती हैं। बच्चों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं श्रव्य होती हैं। धीरे-धीरे सामाजिक परिवेश के प्रभाव से आवाज को दबाकर शब्दों को कहना सीख जाता है। व्यक्त तथा अव्यक्त शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव से शाब्दिक प्रतिक्रियाएं मौन हो जाती हैं। वॉटसन ने चिन्तन को अव्यक्त अथवा मौन वाणी (Implicit or Silent speech) कहा है। सत्य में कोई द्वैत नहीं होता। किसी भी माध्यम से सत्य की खोज करने वाला जब गहरे में उतरता है और सत्य का स्पर्श करता है, तब मान्यताएं पीछे रह जाती हैं और सत्य उभरकर सामने आ जाता है। बहुत लोगों का स्वर है कि विज्ञान ने धर्म को हानि पहुंचाई है, जनता को धर्म से दूर किया है। बहुत सारे धर्म-गुरु भी इसी भाषा में बोलते हैं। किन्तु यह स्वर वास्तविकता से दूर प्रतीत होता है। मेरी निश्चित धारणा है कि विज्ञान ने धर्म की बहुत सत्यस्पर्शी व्याख्या की है और वह कर रहा है। जो सूक्ष्म रहस्य धार्मिक व्याख्या-ग्रंथों में अ-व्याख्यात हैं, जिनकी व्याख्या के स्रोत आज उपलब्ध नहीं हैं, उनकी व्याख्या वैज्ञानिक शोधों के सन्दर्भ में बहुत प्रामाणिकता के साथ की जा सकती है। कर्मशास्त्र की अनेक गुत्थियों को मनोवैज्ञानिक अध्ययन के सन्दर्भ में सुलझाया जा सकता है। आज केवल भारतीय दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति ही पर्याप्त नहीं है। दर्शन और विज्ञान की सम्बन्धित शाखाओं का तुलानात्मक अध्ययन बहुत अपेक्षित है। ऐसा होने पर दर्शन के अनेक नये आयाम उद्घाटित हो सकते हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां •मन के जीते जीत आभा मण्डल * किसने कहा मन चंचल है जैन योग •चेतना का ऊर्ध्वारोहण * एकला चलो रे * मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि * अपने घर में * एसो पंच णमोक्कारो * मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता * समस्या को देखना सीखें नया मानव : नया विश्व .भिक्षु विचार दर्शन . अर्हम् * मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति •समय के हस्ताक्षर * आमंत्रण आरोग्य को .महावीर की साधना का रहस्य * घट-घट दीप जले अहिंसा तत्व दर्शन * अहिंसा और शान्ति कर्मवाद * संभव है समाधान •मनन और मूल्यांकन * जैन दर्शन और अनेकान्त .शक्ति की साधना .धर्म के सूत्र * जैन दर्शन : मनन और मीमांसा आदि-आदि Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य महापन