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________________ को पढ़ाने में भी कठिनाई का अनुभव करता है। जो आदमी बुराई, अनीति और अप्रामाणिकता से काम करता है, उसके पास बंगला है, कार है, सुख-सुविधा के सारे साधन हैं और उसके बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं। तब प्रश्न उभरता है कि यदि धर्म करने का यही परिणाम रहेगा तो धर्म के प्रति आकर्षण कैसे रहेगा? सारा आकर्षण जाएगा अधर्म की ओर, अन्याय और अप्रामाणिकता की ओर। व्यक्ति के मन में भावना उभरेगी कि जिसने नीति का अतिक्रमण किया, वह सुखी जीवन जी रहा है और जो धर्म के पीछे पड़ा रहा वह दुःखी जीवन जी रहा है, नौकरी के लिए दर-दर भटक रहा है। उसे कोई काम नहीं मिलता। प्रामाणिकता से जीवन-यापन करने वाला एक अणुव्रती नौकरी के लिए एक सेठ के यहां गया। सेठ ने उसका परिचय पूछा। उसने कहा-मैं अणुव्रती हूं और प्रामाणिकता से कार्य करने में आस्था रखता हूं। सेठ बोला-देखो, मेरा धंधा कुछ दूसरे प्रकार का है। यहां दो नम्बर के खाते भी रखने होंगे, मिलावट भी करनी होगी। यदि ये सब कार्य तुम कर सकोगे तो मैं तुम्हें अच्छा वेतन दूंगा। तुम सुखी हो जाओगे। वह बोला-सेठ साहब! मैं ये सब अनीति के कार्य नहीं कर सकूँगा। सेठ ने कहा-नमस्ते! घर जाओ और आराम से बैठे रहो। __ ऐसी स्थिति में प्रश्न होना स्वाभाविक होता है कि इस पदार्थवादी दुनिया में, जहां सारे पदार्थवादी दृष्टिकोण से देखते-समझते हैं, वहां आदमी यह सोचने के लिए मजबूर होगा कि धर्म करने वाले की बुरी स्थिति होती है और अधर्म से चलने वाले की अच्छी स्थिति होती है। ऐसी स्थिति में आदमी धर्म को सिर पर लादे फिरता रहे, या उसे उतार फेंके? वह क्या करे? प्रश्न जटिल-सा लगता है, पर जटिल नहीं है। मात्र हमारे चिन्तन का अन्तर है। यह प्रश्न पदार्थ को सामने रखने पर ही तो उत्पन्न हुआ। यह धर्म का प्रश्न धर्म की भूमिका पर उत्पन्न नहीं हुआ है। प्रश्न तो है धर्म का, पर उसकी पृष्ठभूमि है पदार्थ। पदार्थ को सामने रखकर ही यह प्रश्न पैदा हुआ। किसने कहा कि धर्म से धन मिलेगा, पदार्थ मिलेंगे, सुख-सुविधाएं मिलेंगी? यह बड़ी भ्रान्ति है। जिसने इस पृष्ठभूमि पर धर्म को समझा है, उसने धर्म का 'क-ख-ग' भी नहीं जाना पद-चिह्न रह जाते हैं 221
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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