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________________ हुआ है, कर्म-परमाणुओं का जो अर्जन हुआ है, वह आज ही कार्यकारी नहीं होगा। कुछ काल तक वे कर्म-परमाणु सत्ता में रहेंगे, उदय में नहीं आयेंगे। वह सत्ताकाल अबाधाकाल कहलाता है। इसका तात्पर्य है कि वे कर्म-परमाणु अस्तित्व में हैं किंतु अभी कार्यकारी नहीं हैं। वे कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। अपना परिणाम प्रदर्शित करने की क्षमता उनमें प्रकट नहीं हुई है। वे अस्तित्व में हैं, किंतु वे अव्यक्त रूप में पड़े हुए हैं। बीज बोया गया। वह अस्तित्व में है किन्तु वह अभिव्यक्त नहीं हुआ, अंकुर के रूप में प्रकट नहीं हुआ। अंकुर के फूटने में थोड़ा समय लगेगा। अंकुर फूटेगा तब वह पौधा बनेगा, आगे, बढ़ेगा, ऊपर आयेगा। बीज भूमि में बोया गया, यह बंध का काल है। बंध के बाद होता है-सत्ता का काल। जब तक कर्म सत्ताकाल में रहेगा, तब तक वह कार्यकारी नहीं होगा। वह अपना परिणाम नहीं दे सकेगा। सब कर्मों का अपना-अपना अस्तित्व-काल होता है। जब यह अस्तित्व-काल या सत्ताकाल या अबाधाकाल पूरा होता है तब कर्म विपाक की स्थिति में आता है और अपना फल देने लगता है। फल-दान कब तक होता है, इसकी भी एक मर्यादा है, सीमा है; उस मर्यादा को कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जाता है-स्थितिकाल। यह कर्म-बंध की चौथी अवस्था या व्यवस्था है। - पहली अवस्था है कर्म-परमाणुओं के आने की, उनके संग्रह की। इसे 'प्रदेश बंध' कहा जाता है। दूसरी अवस्था है कर्म-परमाणुओं के स्वभाव-निर्माण की। कौन-सा कर्म किस स्वभाव का होगा, इस अवस्था को 'प्रकृति-बंध' कहा जाता है। - तीसरी अवस्था है-कर्म-परमाणुओं से रस-शक्ति के निर्माण की। कौन-से कर्म में कितनी रस-शक्ति है, इस अवस्था को 'अनुभाग बंध' कहा जाता है। ____ चौथी अवस्था है-कर्म-परमाणुओं के स्थिति-काल की। कौन-सा कर्म आत्मा के साथ कितने समय तक रह पायेगा, इस अवस्था को 'स्थिति-बंध' कहा जाता है। कर्म का बन्ध 55
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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