________________ ये चारों अवस्थाएं कर्म-बंध के साथ ही निष्पन्न हो जाती हैं। कर्म के स्थितिकाल के अनुसार उसका सत्ताकाल होता है। जब वह पूरा हो जाता है तब एक-एक निषेक का, परमाणु-पुंज का प्रकटीकरण होने लगता है और प्राणी फल भोगने लगता है। जब सारे परमाणुज समाप्त हो जायेंगे, कर्म-स्थिति समाप्त हो जायेगी तब कर्म अपना फल प्रदर्शित कर शेष हो जायेंगे, नष्ट हो जायेंगे, आत्मा से विलय हो जायेंगे। इसे कर्म-क्षय कहा जाता है। ये चार अवस्थाएं हैं। इनके घटक हैं-राग और द्वेष। हमारी रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति के द्वारा ये घटित होती हैं। हम अपनी चंचलता के द्वारा कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करते हैं। कषाय के द्वारा उन कर्म-परमाणुओं को टिकाकर रखते हैं। आकृष्ट करना और टिकाकर . रखना-ये दो बातें हैं। आकर्षण होता है मन, वचन और शरीर में चंचलता के द्वारा और उनका टिकाव होता है कषाय के द्वारा। वे कषाय के द्वारा बांधकर रखे जाते हैं। कषाय जितना तीव्र होगा, उतने ही दीर्घकाल तक कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपके रहेंगे। कर्म-परमाणुओं को चिपकाये रखना कषाय का काम है और उन्हें आकृष्ट करना चंचलता का काम है। क्या यह हमारा साधना का सूत्र नहीं बन सकता? क्या यह साधना का आधार नहीं बन सकता? यह साधना का सूत्र बन सकता है, आधार बन सकता है। हमारी साधना के दो आधार-बिंदु हैं-चंचलता को रोकना और कषाय को कम करना, राग-द्वेष को कम करना। तटस्थ होना, समभाव में रहना, स्थिर रहना-ये ही साधना के दो सूत्र हैं। समूचे कर्मशास्त्र को साधना के संदर्भ में समझें तो दो बातें बहुत ही स्पष्ट ही हो जाती हैं कि चंचलता के द्वारा कर्म-परमाणु खींचे जाते हैं और कषाय के द्वारा वे टिके रहते हैं और अपना फल देते हैं। फल की तीव्रता और मंदता कषाय के आधार पर होती है। दीर्घकाल की स्थिति और अल्पकाल की स्थिति कषाय के आधार पर होती है। स्थिति और फलदान की शक्ति-ये दोनों कषाय पर निर्भर हैं। कषाय ही कर्म-स्थिति को 56 कर्मवाद