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________________ थे, उसी घर में जा रहे हो। आज से हमारा सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया है। यह घटना का केवलज्ञान है। इसके साथ संवेदना का कोई तार जुड़ा हुआ नहीं है। जो घटित हुआ, उसे उसी रूप में स्वीकार किया गया है। मनुष्य जब इस स्थिति में पहुंच जाता है, तब ज्ञान की भूमिका प्रशस्त हो जाती है। भगवान् महावीर की वाणी में इसी का नाम संवर है। जहां केवलज्ञान रहता है, केवल आत्मा की अनुभूति रहती है, वहां विजातीय तत्त्व का आकर्षण बन्द हो जाता है। ___आत्मा की दो स्थितियां हैं-एक अस्वीकार की और दूसरी स्वीकार की। केवल ज्ञान का अनुभव होना अस्वीकार की स्थिति है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की अवस्था में विजातीय तत्त्व का कोई प्रवेश, संक्रमण या प्रभाव नहीं होता। संवेदन स्वीकार की स्थिति है। संवेदन के द्वारा हमारा बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होता है। हम बाहर से कुछ लेते हैं और उसे अपने साथ जोड़ते हैं। जोड़ने की भावधारा का नाम 'आश्रव' और विजातीय तत्त्व के जुड़ने का नाम 'बंध' है। आत्मा के साथ जुड़ा हुआ विजातीय तत्त्व, परिपक्व होकर अपना प्रभाव डालता है, तब उसका नाम 'कर्म' हो जाता है। वह अपना प्रभाव दिखाकर विसर्जित हो जाता है। कोई भी विजातीय तत्त्व आत्मा के साथ निरन्तर चिपका नहीं रह सकता। या तो वह अवधि का परिपाक होने पर अपना प्रभाव दिखलाकर स्वयं चला जाता है, या प्रयत्न के द्वारा उसे विलग कर दिया जाता है। यह विलग करने का प्रयत्न 'निर्जरा' है। तपस्या से कर्म निर्जीर्ण होते हैं, इसलिए उसका (तपस्या का) नाम निर्जरा है। निर्जरा का चरम बिन्दु मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है-केवल आत्मा। आत्मा और पुद्गल का जो योग है, वह बन्धन है, संसार है। केवल आत्मा के अस्तित्व का होना, पुद्गल का योग न होना ही मोक्ष है। इसकी अनुभूति धर्म के हर क्षण में की जा सकती है। __ आश्रव और संवर, बंध और निर्जरा-इन चार तत्त्वों को समझने पर ही कर्म की वास्तविकता को समझा जा सकता है। केवल चैतन्य का अनुभव होना संवर है। चैतन्य के साथ राग-द्वेष का मिश्रण होना कर्मवाद 265
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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