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________________ होता है, यह मिथ्या है। यदि सब कुछ कर्म के द्वारा ही होगा तो कर्म इतना व्यापक बन जाएगा कि उसकी कोई सीमा नहीं रहेगी। फिर पुरुषार्थ का क्या होगा? फिर काल, स्वभाव और नियति का क्या प्रयोजन होगा? पुरुषार्थ आदि का अपना-अपना प्रभाव है, अपना-अपना कार्य है। वे सब व्यर्थ हो जाएंगे। ध्यान करने वाले यह सोच लें कि अच्छा कर्म किया था, इसलिए ध्यान-साधना में आ गए तो यह भ्रान्ति होगी। कर्म ध्यान का साधक नहीं, बाधक बन सकता है। कर्म ध्यान में विघ्न उपस्थित कर सकता है। ध्यान करने या कराने में सहयोग देना कर्म का कार्य नहीं है। ___ हमें चेतना और कर्म की सीमा का पूरा अवबोध करना चाहिए। चैतन्य की अपनी सीमा है और कर्म की अपनी सीमा है। चैतन्य की दो धाराएं हैं। एक है राग-द्वेष की धारा और दूसरी है निर्मल चैतन्य की धारा। जहां राग-द्वेष की धारा है, वहां उसके साथ कर्म का सम्बन्ध खोजा जा सकता है। जहां निर्मल चेतना की धारा है, वहां कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं होता। - ध्यान करने का प्रयोजन है-वर्तमान क्षण का अनुभव करना। वर्तमान क्षण का अनुभव राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव है। जब हम राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव करते हैं उस समय कर्म का योग नहीं होता, कर्म का बंध नहीं होता। उस समय हम कर्म से अतीत रहते हैं, उस समय केवल द्रष्टाभाव, ज्ञाताभाव बना रहता है। जहां केवल जानना, केवल देखना होता है, वहां कर्म का संबंध नहीं होता। यह केवल जानना, केवल देखना कर्म के द्वारा नहीं होता, कर्म से अलग होने पर होता है। यह शुद्ध चेतना का प्रयोग है। इसे दार्शनिक भाषा में पारिणमिक भाव कहा जाता है। यह चेतना का परिणमन है, जिसके साथ कर्म का कोई. सम्बन्ध नहीं है। जब-जब मनुष्य राग-द्वेष के भाव में जाता है, उस समय राग-द्वेष से जुड़ा हुआ चित्त चैतसिक कर्म बन जाता है और जब-जब मनुष्य चैतसिक कर्म में होता है, उस समय कुछ परमाणुओं का संग्रहण होता है। कुछ परमाणु हमारे साथ जुड़ जाते है, हमारे सूक्ष्मतर शरीर के साथ अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो 211
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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