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________________ में ऐसा ही लिखा है, क्या करूं?' आदमी इतना जल्दी सन्तोष मान लेता है कि उसे वैसा नहीं मानना चाहिए। सन्तोष अच्छा भी है. तो बुरा भी है। सन्तोष जहां करना चाहिए वहां नहीं किया जाता और जहां नहीं करना चाहिए वहां किया जाता है। यह कठिनाइयों का मूल है। भाग्यवादी धारणाओं ने भारत का बहुत बड़ा अनर्थ किया है। हमारी एक दार्शनिक भ्रांति है। वह आज भी चल रही है। वह भ्रांति यह है-धर्म या पुण्य या अच्छे कर्म से सुख मिलता है; यह एक बात है और उनसे सुख के साधन मिलते हैं, यह दूसरी बात है। हमारी भ्रान्ति यह हुई कि हमने सुख को और सुख के साधन को एक मान लिया। यह सच है कि सुख की अनुभूति कर्म से होती है और दुःख की अनुभूति भी कर्म से होती है। किन्तु सुख के साधन अच्छे कर्म से मिलते हैं और दुःख के साधन बुरे कर्म से मिलते हैं, इसे स्वीकार करने में कर्मवाद बाधक प्रतीत होता है। वह एक व्यवधान होता है। मैं पहले कर्मवाद की धारणा के आधार पर अपनी बात स्पष्ट करूंगा। . कर्मवाद का एक सिद्धान्त है-किया हुआ कर्म फल देता है। बिना परिपाक या विपाक हुए कोई भी कर्म फल नहीं देता। विपाक की भी कुछ शर्ते हैं-क्षेत्र-विपाक, काल-विपाक, पुद्गल-विपाक और जीव-विपाक। कुछ कर्म ऐसे है, जिनका विपाक क्षेत्र से सम्बन्धित है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक काल से सम्बन्धित होता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक पुद्गल में होता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका विपाक जीव से सम्बन्धित है। सुख-दुःख होना, साता-असाता होना जीव-विपाकी कर्म कहलाता है। सुख का अनुभव भी जीव को होता है। उसका परिपाक जीव में होता है, पदार्थ में नहीं। परन्तु हमने मान लिया कि पदार्थ का होना सख है और पदार्थ का न होना दुःख है। यह बहुत बड़ी भ्रांति पैदा हो गई। अनेक मनीषी आचार्यों ने बताया-पदार्थ के द्वारा जो होता है वह ऐकान्तिक सुख या दुःख नहीं होता। जेठ की दुपहरी है। गहरी प्यास लगी है। पानी का एक गिलास मिलता है तो सुख का अनुभव होता है। व्यक्ति को सुख का अनुभव हुआ पानी से। पानी सुख का अनुभव नहीं है। पानी सुख के अनुभव का एक साधन 286 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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