________________ है। पानी एक पदार्थ है, जिसमें यह क्षमता है कि वह सुख का साधन बन सकता है, सुख का निमित्त या हेतु बन सकता है। किन्तु पानी पीना सुख का अनुभव नहीं है, चेतना सुख का अनुभव करती है। चेतना को सुख होता है और पदार्थ उसका निमित्त बनता है। एक गिलास पानी पिया, फिर दूसरा गिलास पानी पिया, फिर तीसरा और चौथा गिलास पानी पिया। क्रमशः सुखानुभूति कम होती चली जाएगी और एक समय ऐसा भी आता है कि पानी पीने से सुख की अनुभूति बिलकुल नहीं होती। जैसे-जैसे उपयोगिता कम होती है, सुखानुभूति भी कम होती चली जाती है। संगीत-श्रवण से व्यक्ति को सुख मिलता है। कानों को तप्ति मिलती है। किन्तु एक व्यक्ति नींद में सोया हुआ है, वह संगीत को पसन्द नहीं करेगा। एक आदमी खाने का शौकीन है। पर जब वह रोगग्रस्त है तो अच्छा भोजन भी उसे अच्छा नहीं लगता। उसे सब कुछ बुरा लगता है। पदार्थ में सुख देने की क्षमता नहीं है, पदार्थ सुख का निमित्त बन सकता है। किन्तु यह जरूरी नहीं है कि पदार्थ सुख का निमित बनता ही है। वह बनता भी है और नहीं भी बनता। हमने पदार्थ को सब कुछ मान लिया, यह बहुत बड़ी भ्रांति हो गई। एक बहुत बड़े धनपति ने कहा, 'मेरा ड्राइवर जहां कहीं मोटर खड़ी कर नींद ले लेता है। वह सुख की नींद सोता है और मुझे नींद लेने के लिए गोलियां खानी पड़ती हैं। फिर भी गहरी नींद नहीं आती। मुझे ड्राइवर की नींद से ईर्ष्या होती है. उसके निश्चिन्त जीवन से ईर्ष्या होती है। यह जानते हुए भी उन धनपतियों में एक प्रकार की मूर्छा, एक प्रकार की तृष्णा काम करती है, जिसे वे छोड़ नहीं सकते। जो दुःख का साधन है, वे उसे सुख का' साधन मानकर चलते हैं। जब वे दुःख के साधन को सुख मान लेते हैं तब बेचारे गरीब आदमी सोचते हैं-धन कमाने से यह बड़ा आदमी हो गया, सुखी हो गया। यह कहना तो सच है कि वह धनपति बन गया, बड़ा बन गया, किन्तु उसे सुखी मान लेना यह भ्रांति हो जाती है। एक मार्मिक कहानी है हरियाणा की। एक धोबी था। उसके अनेक पलियां थीं। उसने एक कुत्ता पाल रखा था। उसका नाम था 'शताबा' / वह थक गया। एक दिन पड़ोस के कुत्तों ने आकर कहा, 'तुम बहुत विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 287