________________ राग-द्वेष का जीवित रहना, चिरजीवी होना-यह एक वलय है। राग-द्वेष के चिर-जीवन का कारण है कर्म और कर्म के प्रवेश का कारण है-राग-द्वेष। यह एक पूरा चक्र है। यह निरंतर गतिमान् है, कहीं टूटता नहीं। राग-द्वेष से कर्म और कर्म से राग-द्वेष चलता रहता है। यह एक वृत्त है। इसमें सारी स्थितियां पलती जा रही हैं। यही वृत्त हमारे सभी आचरणों का आधार बनता है। यह स्थिति तब तक चलती रहती है, जब तक हम संज्ञातीत चेतना तक नहीं चले जाते, जब तक हमारी चेतना वीतराग नहीं बन जाती, जब तक वीतराग चेतना प्राप्त नहीं होती, संज्ञातीत चेतना उपलब्ध नहीं होती, तब तक संज्ञा की चेतना, राग-द्वेष की चेतना चलती रहती है। यह चक्र निरंतर गतिशील रहता है। हमारे सारे आचरण उससे प्रभावित रहते हैं। हम किसी भी घटना या मानवीय आचरण की केवल परिस्थिति, हेतु या निमित्त के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते। केवल शारीरिक या रासायनिक परिवर्तनों के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते। उनकी व्याख्या के लिए हमें अतीत को देखना होता है। दूसरे शब्दों में, कर्म के विपाक की व्याख्या करने के लिए, हमें कर्म के बीज को देखना होगा। हमें देखना होगा कि इस विपाक या परिणाम का बीज कहां है और क्या है? उसके बिना उसकी पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। कभी-कभी हमें लगता है कि यह आकस्मिक हो गया। किन्तु कुछ भी आकस्मिक नहीं होता। उसके पीछे एक हेतु होता है, एक कारण होता है। छिपा हुआ जो बीज है, वह कारण है। कारण को हम जब तक ठीक नहीं समझ लेते, तब तक उस आचरण का ठीक चित्र प्रस्तुत नहीं कर सकते। एक आदमी सामान्य जीवन जीते-जीते एक असामान्य आचरण कर लेता है। हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं-अरे, वह बहुत बड़ा आदमी था। ऐसा काम वह कर नहीं सकता। उससे ऐसा काम हो नहीं सकता। हम एक आश्चर्य के द्वारा उस व्यक्ति के साथ उस आचरण का संबंध जोड़ना नहीं चाहते, किन्तु तोड़ना चाहते हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है। आप पचास वर्ष के जीवन को देखकर, वर्तमान और आंखों के सामने गुजरने वाले जीवन को देखकर इतना आश्चर्य नहीं कर सकते। यदि 22 कर्मवाद