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________________ पर शेष सारे कर्म टूट जाते हैं। मोह को सहयोग देने वाले दो तथ्य हैं। एक है-ममकार और दूसरा है अहंकार। ये दो सेनानी हैं। ___अनात्मीय वस्तुओं में आत्मीयता का अभिनिवेश ममकार है। जो आत्मीय नहीं है, उसमें आत्मीयता का भाव रखना ममकार है। जैसे-शरीर मेरा, पिता मेरा, माता मेरी, भाई मेरा, बहन मेरी, पत्नी मेरी, पुत्र मेरा। सबसे पहले ममकार होता है शरीर के प्रति। यह सबसे निकट का है। फिर पिता, माता आदि के प्रति ममकार होता है। यह दूसरे नंबर में है। तीसरे में घर मेरा, नौकर मेरा, धन मेरा, हाथी मेरा, ऊंट मेरा, घोड़ा मेरा। इनमें ममकार होता है। फिर यह ममकार बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ जाता है, इसकी सीमा इतनी विस्तृत हो जाती है कि इसमें हजारों-हजारों वस्तुएं आ जाती हैं। सीमा के विस्तार का कहीं अंत नहीं आता। कर्म आदि कारणों से प्राप्त अवस्थाओं को 'मैं' मान लेना अहंकार है। जो 'मैं' नहीं है, आत्मा नहीं है, उसे आत्मा मान लेना अहंकार है। जैसे अनात्मीय को आत्मीय मान लेना 'ममकार' है, वैसे ही अनात्म को आत्म मान लेना 'अहंकार' है। जैसे-मैं धनी हूं। अब धन कौन और मैं कौन? जो आत्मीय नहीं, उसे आत्मीय मान लिया। ये सारी अवस्थाएं वैभाविक हैं, अनेक कारणों से उत्पन्न हैं। हम कभी कहते हैं- 'मैं रोगी हूं और कभी कहते हैं-'मैं स्वस्थ हूं। यह रोगी होना भी 'मैं' नहीं है और स्वस्थ होना भी 'मैं' नहीं है। प्रसन्न होना भी 'मैं नहीं है और नाराज होना भी मैं नहीं है। मैं धनी हूं, मैं निर्धन हूं, मैं प्रसन्न हूं, मैं अप्रसन्न हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं बड़ा हूं, मैं छोटा हूं-ये सब अहंकार हैं। आत्मा जो है, वह न बड़ा है और न छोटा। न रोगी है और न स्वस्थ। न प्रसन्न है और न अप्रसन्न। न सुखी और न .. दुःखी। फिर भी अहंकार के कारण ये सब कुछ आरोपण चलते हैं। . दृष्टिकोण और आचरण-दोनों में विकृति के बीज अंकुरित होते रहते हैं। समस्या का मूल : मोहकर्म 77
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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