________________ साधक अनुकूलता और प्रतिकूलता के प्रकंपनों से परे हो जाता है। वह 'चेतना इतनी अप्रकम्प हो जाती है कि जहां केवल चेतना ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। राग और द्वेष न हों, इसलिए चेतना में तितिक्षा का विकास होना चाहिए। यदि द्वंद्वों को सहन करने की चेतना का विकास नहीं होता है तो राग और द्वेष अवश्य होते हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता। इस प्रकार वीतराग चेतना और तितिक्षा की चेतना-दोनों प्रकार की चेतनाओं का विकास करके ही हम कर्म-विपाकों में परिवर्तन ला सकते हैं। यदि तितिक्षा की चेतना विकसित होती है तो मोहनीय कर्म का विपाक नहीं हो सकता, आवेग नहीं हो सकता। आवेग तभी होता है, जब तितिक्षा की चेतना विकसित नहीं होती। अहंकार और ममकार-शून्य चेतना विकसित नहीं होती। इसलिए आवेग आते हैं। हम प्रतिपक्ष की चेतना को विकसित करें। क्रोध है तो मैत्री की चेतना को विकसित करें। मैत्री के संस्कारों को सुदृढ़ बनायें। मैत्री के संस्कार दृढ़ होंगे तो क्रोध का आवेग अपने आप कम होता चला जाएगा। प्रतिपक्ष की भावना साधना का बहुत बड़ा सूत्र है। दशवैकालिक सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्ष भावना का सुन्दर निरूपण प्राप्त है। यदि क्रोध के आवेग को मिटाना है, कम करना है तो उपशम के संस्कार को पुष्ट करना होगा, क्रोध का प्रतिपक्ष है-उपशम। उपशम का संस्कार जितना पुष्ट होगा, क्रोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जायेगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। मान का प्रतिपक्ष है मृदुता। माया के आवेग को नष्ट करना है तो ऋजुता के संस्कार को पुष्ट करो। ऋजुता और मैत्री में कोई अन्तर नहीं है। मैत्री ऋजुता का ही प्रतिफलन है। जब ऋजुता है तो किसी के साथ शत्रुता हो ही नहीं सकती। शत्रुता से पूर्व कुटिलता आती है। शत्रुता कुटिलतापूर्वक ही होती है। बिना कुटिलता के शत्रुता नहीं होती। जब छिपाने की बात, ठगने की बात आयेगी तभी किसी के साथ अमैत्री का भाव होगा। जहां छिपाने जैसा कुछ भी नहीं है, सरलता-ही-सरलता है, पारदर्शी स्फटिक-सा जीवन है, वहां शत्रुता हो ही नहीं सकती। माया आवेग-चिकित्सा 103