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________________ वह केवल स्वार्थ की बात ही सोचता, परार्थ की ओर ध्यान ही नहीं देता। वह फिर घर-गृहस्थी के धन्धों में इतना उलझ जाता कि उसके बाहर कभी दृष्टि ही नहीं डाल पाता। उठते-बैठते, सोते-जागते वह उसी में उलझा रहता। एक व्यापारी था। वह व्यापार में आकंठ डूबा हुआ था। सोते-जागते केवल व्यापार के ही स्वप्न देखता था। एक रात वह सो रहा था। सपना आया। ग्राहक ने कपड़ा मांगा। उसने कपड़ा देने की धुन में अपनी ओढ़ी हुई चादर फाड़ डाली। पत्नी जाग गई और उसे चादर फाड़ते देख लिया। उसने कहा-अरे, यह क्या कर रहे हो? चादर क्यों फाड़ रहे हो? वह बोला-कमबख्त! घर पर तो पीछा नहीं छोड़ती, दुकान पर भी आ धमकी। ____आदमी इतना आसक्त हो जाता है कि वह त्याग की बात सोच ही नहीं सकता। एक ओर भोग है, एक ओर त्याग है। भोग प्रिय होता है, त्याग प्रिय नहीं होता। फिर भी भोगों को त्यागने की भावना आती है। ऐसा क्यों होता है? भोग आपात-भद्र होते हैं और परिणाम-विरस, किन्तु त्याग आपात-विरस होते हैं और परिणाम-भद्र। पदार्थ की प्रकृति है कि वह प्रारम्भ में प्रिय लगता है, पर बाद में अप्रिय बन जाता है। जैसे-जैसे पदार्थ का सेवन बढ़ता है, वैसे-वैसे अप्रियता भी बढ़ती है। भोग में रहा हुआ आदमी भोग में रहता है। उसके पीछे कर्म की प्रेरणा है। कर्म. ही उसे भोग में बनाए रखते हैं। कर्म अचेतन है। अचेतन की प्रेरणा अचेतन की ओर ले जाती है। कर्म की प्रेरणा से प्रेरित व्यक्ति भोग में आसक्त हो जाता है। भोग परतन्त्र हो सकता है। यह बात समझ में आ सकती है, पर भोग में रहने वाला आदमी त्याग की ओर जाता है, यह किसकी प्रेरणा है? कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो इस ओर जाने की प्रेरणा दे। इस प्रेरणा के साथ कर्म का कोई संबंध नहीं है। इस प्रेरणा का मूल घटक है आत्मा। हमारे भीतर चेतना की एक शद्ध धारा बहती है, निरन्तर बहती है। एक क्षण भी ऐसा नहीं आता कि वह चैतन्य की धारा रुक जाए, चेतना लुप्त हो जाए। यदि चेतना लुप्त हो जाती है तो सारी बात समाप्त हो जाती है, चेतन अचेतन प्रतिक्रमण 175
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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