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________________ में प्रतिष्ठित है। किन्तु उसका मूल अवस्थान न 'जीन' है और न कर्मशरीर है। ये तो बीच के माध्यम हैं जो अपना-अपना कार्य करते हैं। मूल शक्ति का स्रोत है आत्मा। सारी शक्ति वहां से आती है। ये बीच के स्रोत केवल तारतम्य पैदा करने वाले होते हैं। ये शक्ति के मूल स्रोत नहीं हैं। पुरुषार्थ, कर्तृत्व, वीर्य, अन्तःस्फुरणाएं-ये सारे आत्मा से आ रहे हैं। हमें वहां तक पहुंचना है। - मैं एक सीधा-सा प्रश्न उपस्थित करता हूं। प्रत्येक भारतीय दर्शन तथा कर्म में विश्वास करने वाला व्यक्ति चिन्तन करे। कर्म एक माध्यम है जो प्रत्येक प्राणी को प्रभावित करता है, पर वही सब-कुछ नहीं है। यदि कर्म ही सब-कुछ हो तो आदमी कोई त्याग कर ही नहीं सकता। कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो त्याग करा सके, त्याग के लिए प्रेरित कर सके। कर्म का कार्य है व्यक्ति को भोग की ओर ले जाना। त्याग की ओर ले जाना कर्म का कार्य नहीं है। वेदनीय कर्म, नाम कर्म, आयुष्य कर्म, गोत्र कर्म-ये सभी पौद्गलिक संयोग कराने वाले कर्म हैं। ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्म-ये दोनों ज्ञान और दर्शन को आवृत्त करने वाले कर्म हैं। मोहनीय कर्म मूर्छा पैदा करने वाला कर्म है। अन्तराय कर्म शक्ति में बाधा उत्पन्न करने वाला.कर्म है। ये आठ कर्म हैं। इनमें से एक कर्म भी ऐसा नहीं है जो त्याग की ओर ले जा सके। फिर भी भोग में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति, पदार्थों में आसक्त रहने वाला व्यक्ति त्याग की ओर क्यों जाता है? क्यों उसके मन में त्याग की भावना जागती है? इसका कारण क्या है? कोई-न-कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कारण पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि केवल कर्म ही नहीं है। हमारे भीतर एक ऐसी शक्ति है, चेतना है जो निरन्तर संघर्षरत है और जो मनुष्य को शुद्ध चेतना की अवस्था तक ले जाना चाहती है। वह स्वबोध की अवस्था है, आत्मा के सहज स्वरूप की अवस्था है, सहज आनन्द की अवस्था है। उस ओर जाने की सहज प्रेरणा है हमारी। यदि यह सहज प्रेरणा नहीं होती तो आदमी विषयों में इतना आसक्त हो जाता कि वह त्याग की बात कभी सोच ही नहीं पाता, परमार्थ की ओर कभी डग भर ही नहीं पाता। स्वार्थ और परार्थ में 174 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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