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________________ काटीं। लकड़ियों का एक भारा अपने कंधे पर लादकर लड़खड़ाता हुआ बाजार की ओर चला। पसीने से तरबतर हो गया। कभी भार को उतारता, कभी बैठता, कभी चलता। मन में खजूर खाने की लालसा उत्कट होती गई। बाजार में आया, लकड़ियां बेचीं। पैसा मिला। खजूर खरीदे और जंगल में चला गया। एक वृक्ष के नीचे बैठा। कोई विचार आया और वह अनुप्रेक्षा करने लग गया। जब तक व्यक्ति अनुप्रेक्षा में नहीं जाता, स्वभाव नहीं बदलता। प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा बहुत जरूरी है। प्रेक्षा से सच्चाइयां ज्ञात हो जाती हैं और अनुप्रेक्षा से स्वभाव के परिवर्तन में सहयोग मिलता है। संन्यासी अनुप्रेक्षा के क्षणों में चला गया। उसने सोचा-देखो, मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं। फिर भी मैंने लकड़ियों का इतना बोझ ढोया, इतने कष्ट सहे। यह सब इसलिए कि मैं मन का चाकर बन गया। मन मेरा स्वामी बन गया। मैंने अनगिन कष्ट सहे, इन गिनती के खजूरों के लिए। मैं अब इस दासता को तोडूंगा। मैं खजूर नहीं खाऊंगा। आज मेरा मस्तिष्क मन पर हावी हो गया। मांग पैदा हुई, कल और कोई दूसरी मांग पैदा हो सकती है, परसों कोई तीसरी-चौथी मांग हो सकती है। मांगों का कहीं अन्त नहीं है। इन मांगों के पीछे मैं इस बूढ़े शरीर को कहां-कहां झोंकता रहूंगा। अच्छा है कि मैं अपने मन का स्वामी बनूं। अपने मर पर अपना अनुशासन करूं। संन्यासी में स्वामी बनने की अनुप्रेक्षा जागी। वह उस अनुप्रेक्षा में बहता रहा। अब उसे खजूर उतने प्रिय नहीं रहे। उसने राह गुजरते एक चरवाहे के लड़के को बुलाया और सारे खजूर उसे दे दिए। संन्यासी बिना खजूर खाए अपने स्थान पर लौट आया। जब मस्तिष्क स्वामी बनता है, तब व्यक्ति को अनेक कठिनाइयों का बोझ ढोना पड़ता है। जब चित्त मस्तिष्क और मन पर अपना अधिकार जमाता है, तब स्थिति बदल जाती है। व्यक्ति-व्यक्ति में इतना ही तो अन्तर है। व्यक्ति-व्यक्ति के रूप, रंग, आकार-प्रकार का अन्तर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता। व्यक्ति की वैयक्तिक विशेषता इस बात पर निर्भर करती है कि कौन व्यक्ति मन के सहारे चलता है, मंन का अनुशासन 244 कर्मवाद .
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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