________________ अल्प आरंभ, अल्प परिग्रह और इच्छा-परिणाम-ये तीन शब्द ऐसे हैं जो विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था, विकेन्द्रित सत्ता और व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा, इच्छाओं की सीमा-ये तीन सिद्धांत हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। प्रश्न होता है कि पुण्य को रोकने की बात क्यों कही? अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का सिद्धांत क्यों प्रतिपादित किया गया? समय-समय का मूल्य होता है। प्राचीन ग्रन्थों में जहां बड़े आदमी का वर्णन मिलता है तो उसका बड़प्पन पलियों की संख्या में आंका जाता था। अमुक व्यक्ति के हजार पलियां हैं, अमुक के दस हजार और चक्रवर्ती के एक लाख बानवे हजार पलियां हैं। इतनी पत्नियों के बिना कोई चक्रवर्ती नहीं बन सकता। उस समय बहुपतित्व बड़प्पन का सूचक था। जिसके जितनी ज़्यादा पत्नियां, वह उतना ही बड़ा आदमी। जिसके कम पलियां, वह छोटा आदमी। आज यह धारणा उलट गयी है। आज बहुपलित्ववाद प्रचलित नहीं है। यत्र-तत्र है तो वहां भी वह सीमित है। हजार पत्नियां होना कोई पुण्य का उदय नहीं है और एक-दो पत्नियों का होना कोई पाप का उदय नहीं है। यह समाज-व्यवस्था से अधिक सम्बन्धित है। एक-एक समय में एक-एक प्रथा प्रचलित होती है। उसी के आधार पर व्यक्ति का मानदण्ड किया जाता है। __ भारतीय लोग बहुत अधिक अकर्मण्य हैं। इसमें उनकी भाग्यवादी धारणा का बहुत बड़ा हाथ है। कुछ भौगोलिक कारण भी हो सकता है। गर्म देश के आदमियों में आलस्य अधिक होता है। किन्तु यह भी सचाई है कि आज के आदमी ने पुरुषार्थ को छोड़ दिया। वह कर्मवादी और भाग्यवादी धारणाओं को लेकर सोया पड़ा है। वह यह सोच भी नहीं पाता कि वर्तमान के पुरुषार्थ के द्वारा आदमी समस्याओं से उबर सकता है, अर्थ-व्यवस्था को बदलकर सम्पदा बढ़ा सकता है, गरीबी को मिटा सकता है और समाज में समीकरण ला सकता है। यह लगता है कि. भारत का आदमी यदि भाग्यवादी धारणा का पोषक नहीं होता तो आज तक यहां कई क्रांतियां घटित हो जातीं। आज वह अनेक कठिनाइयां झेल रहा है, पर कर्मवादी धारणा को छोड़ने के लिए तैयार विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद 265 /