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________________ वैयक्तिक होता है और परिणाम की दृष्टि से सोचते हैं तो कर्म सामाजिक . होता है। समाज नेता के आधार पर चलता है, फिर चाहे एकाधिपत्य हो या प्रजातंत्र हो। यह नहीं होता कि समाज में सब-के-सब नेता हों, अग्रणी हों। समाज कुछेक व्यक्तियों के सहारे चलता है, इसलिए परिणाम का भी कुछ व्यक्तियों पर निर्भर होना स्वाभाविक है। पर उसकी संचारिता, संक्रमणशीलता और प्रभाव पूरे समाज पर होना ज़रूरी है। इसका एक पहलू और है। मनोविज्ञान की दृष्टि से माना जाता है कि जीन में दो प्रकार की विशेषताएं होती हैं। माता-पिता के गुण संतान में संक्रांत होते हैं, विरोधी गुण भी संक्रांत होते हैं। उसमें एक प्रभावी होता है और दूसरा अप्रभावी। जो प्रभावी होता है वह व्यक्त हो जाता है और जो अप्रभावी होता है, वह पर्दे के पीछे रह जाता है। कर्मवाद की यही प्रकृति है। हमारे साथ जितने कर्मों का सम्बन्ध है, उन सभी कर्मों की विरोधी प्रकृतियां बनी रहती हैं। जैसे सुखवेदनीय कर्म है तो दुःखवेदनीय कर्म भी है। इसी प्रकार शुभ नाम-कर्म-अशुभ नाम कर्म, उच्च गोत्रकर्म-नीच गोत्रकर्म, शुभ आयुष्य-अशुभ आयुष्य। दोनों विरोधी प्रकृतियां हैं। ये इतनी विरोधी हैं कि एक के आने पर दूसरी प्रकृति बदल जाती है। दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं। जिस समय सुखवेदनीय कर्म का उदय रहेगा, वह कर्म फल देगा, उस समय दुःखवेदनीय कर्म का उदय नहीं होगा। वह फल नहीं देगा। वह पर्दे के पीछे चला जाएगा। जिस क्षण असुखवेदनीय कर्म का उदय होता है तो उस क्षण में सुखवेदनीय कर्म नीचे चला जाएगा। यह चक्र चलता रहता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो पुरुषार्थ की बात ही समाप्त हो जाती है। . ___ एक भाई ने पूछा था-रोग होता है तब औषधि ली जाती है। यह औषधि का सेवन भुलावा तो नहीं है? भुलावा नहीं है। दवा भी निमित्त बनती है। रोग के कारण जो असुखवेदनीय कर्म विपाक में था, वह दवा के निमित्त से चला गया, अविपाक में चला गया, अनुदय में चला गया। उसका प्रभाव नहीं रहा। वह सुखवेदनीय के प्रकट होते ही समाप्त हो गया। वह स्थिति आती है, दूसरी तिरोहित हो जाती है। 234 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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