________________ अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल। यह सूत्र हमारी नैतिक मान्यताओं तथा अवधारणाओं का आधार बनता है। जब यह धारणा होती है कि बुरे कर्म का बुरा फल तो आदमी को बुराई से बचने का अवसर मिलता है। इस स्थिति में कभी-कभी एक प्रश्न आता है कि क्या भारत में कोई कर्मवादी आदमी है? क्या कर्मवाद को स्वीकार कर चलने वाला कोई है? कर्मवाद को मोखिक रूप में स्वीकार करने वाले मिलेंगे, पर कर्मवाद के मर्म को हृदयंगम कर चलने वाले, उसको जीवन से अनुस्यूत कर चलने वाले लोग कम मिलेंगे। इस तथ्य को स्वीकार करने वाला भ्रष्टाचार नहीं कर सकता। वह अनैतिक या अप्रामाणिक व्यवहार नहीं कर सकता। वह प्रलोभन में आकर घी में गाय की चर्बी मिलाने जैसा जघन्य अपराध नहीं कर सकता। सार्वजनिक संस्थाओं में लाखों का दान देने वाले व्यक्तियों के घर पर जब घी में मिलावट करने की चीजें मिलती हैं, तब आश्चर्य होता है। क्या दान और जघन्यतम वृत्ति में कोई संगति है? कहीं संगति नहीं है। हमें मानना ही होगा कि.कर्मवाद की मौखिक स्वीकृति एक बात है और उसको हृदयंगम कर चलना दूसरी बात है। जिस व्यक्ति ने कर्मवाद को हृदय से स्वीकार किया है और इस बात को गहराई में जाकर समझा है कि बुरे कर्म का फल बुरा होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता, जघन्य अपराध नहीं कर सकता। वास्तव में देखा जाए तो कर्मवाद का सिद्धांत बुराई से बचने के लिए तथा नैतिक जीवन जीने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। किन्तु आदमी ने इसे पराजयवादी मनोवृत्ति के साथ जोड़ दिया और कर्मवादी का अर्थ हो गया पराजयवादी मनोवृत्ति वाला। वह सोचने लग जाता है कि धर्म-कर्म करने वाले दुःख पाते हैं और बुराई करने वाले फलते-फूलते हैं। पराजय मान ली। धर्म को छोड़ दिया, धर्म से दूर हो गया। उसने पराजयवादी मनोवृत्ति, निराशावादी मनोवृत्ति, पलायनवादी मनोवृत्ति स्वीकार कर ली। वास्तव में कर्म पलायनवादी मनोवृत्ति का प्रेरक नहीं है। यह एक पुरुषार्थ से जुड़ी हुई प्रेरणा है। कर्म से पुरुषार्थ को कभी अलग नहीं किया जा सकता। दोनों जुड़े हुए हैं। दोनों के साथ एक जुड़ी हुई प्रेरणा है, इसे हमें स्वीकार करना होगा। कभी-कभी समस्या के समाधान 160 कर्मवाद