________________ की ओर जाने की प्रक्रिया का विकास अध्यात्म ने किया है तो विज्ञान ने भी किया है। वह निरंतर सूक्ष्म की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है। यदि वह स्थूल में ही अटक जाता तो वह निश्चित ही भटक जाता। उसका इतना विकास नहीं होता। हम इसे एक रोग के उदाहरण से समझें। प्राचीन काल में हिस्टीरिया के रोग को भूत-प्रेत का आवेश मान लिया जाता था और इसके निवारण के लिए अनेक कठोर और अमानवीय प्रयत्न किये जाते थे। जब चिन्तन का विकास हुआ, आदमी कुछ सूक्ष्मता में गया तो उसे ज्ञात हुआ कि यह भूत-प्रेत की बीमारी नहीं है, यह शरीर की बीमारी है। खोज होती गई और आज यह माना जाने लगा है कि यह केवल शरीर की बीमारी नहीं है, मन और शरीर-साइकोसोमेटिक बीमारी है। शरीर में हम दवाइयां उड़ेलते जा रहे हैं। बीमारी कहीं है और दवाई किसी को दी जा रही है। दागना था ऊंट को, पर उस तक हाथ नहीं पहुंचा, इसलिए पास में खड़े बैल को ही दाग दिया। आज शरीर-विज्ञान और रोग-विज्ञान ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि अधिकांश बीमारियां मानसिक होती हैं। वे शरीर में अभिव्यक्त होती हैं, पर शरीर की बीमारियां नहीं हैं, मन की बीमारियां हैं। मैं इससे आगे की बात कहता हूं कि बीमारियों का मूल मन भी नहीं है। तीन शब्द हैं-व्याधि, आधि और उपाधि। शरीर की बीमारी को व्याधि और मन की बीमारी को आधि कहते हैं। इनसे भी आगे है-उपाधि। यह है भावना में होने वाली बीमारी। हमारे भाव-संस्थान के चार घटक हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / इस भाव-संस्थान में सारी बीमारियां जन्मती हैं। व्याधि और आधि से आगे उपाधि में जाने पर ही वास्तविकता का सूत्र हस्तगत होगा। यह है स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान। यही है सचाई को जानने का रास्ता। जो स्थूल में अटक जाते हैं, वे आगे नहीं बढ़ पाते। जो आगे से आगे खोज नहीं करते, परीक्षण नहीं करते, वे कभी आगे नहीं बढ़ सकते। ध्यान की प्रक्रिया खोज की प्रक्रिया है। व्यक्ति अपने आपको खोजता है, अपने भीतर में जाता है, गहराइयों में जाता है, परीक्षण करता है, निरीक्षण करता है और इस प्रक्रिया से वह सचाई तक पहुंच जाता 186 कर्मवाद