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________________ ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में ये वृत्तियां होती हैं। एक बार जंगल के सारे खरगोश एकत्रित हुए। परस्पर चर्चा चली कि हमारा भी जीवन कोई जीवन है? निरन्तर इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। अनेक प्राणियों का भय बना रहता है। इससे तो अच्छा है कि हम अपने जीवन को समाप्त कर दें। ऐसे जीवन से तो मौत अच्छी है। सब एकमत हुए और पास की नदी में डूब मरने की बात सोच ली। सब नदी के तट पर पहंचे। खरगोशों की पदचाप सुनकर नदी के मेंढक इधर-उधर फुदकने लगे। मेंढकों को फुदकते देखकर एक बूढ़े खरगोश ने अपने साथियों से कहा-अरे! सबने यह क्या सोचा? इतने छोटे-छोटे जीव भी मजे में जी रहे हैं। हम तो इनसे बहुत बड़े हैं। तत्काल सबका भाव बदला। उनके मन से मरने की बात निकल गई। आशा-निराशा, अहंभाव-हीनभाव-ये प्रत्येक घटना और दृश्य के साथ आते रहते हैं। यह भोक्ताभाव है। भोक्तृता है। ध्यान का प्रयोजन है-ज्ञाता-भाव को विकसित करना, भोक्ताभाव को कम करना। जब भोक्ताभाव कम होता है, तब समस्याओं का समाधान होता है। जानो और देखो। जब जानने और देखने की स्थिति पुष्ट होती है, तब भोगने की स्थिति अपने आप कमजोर हो जाती है। जो आदमी भोगता है, उसकी स्थिति विचित्र बन जाती है। वह हर घटना के साथ तादात्म्य जोड़ लेता है, और तब उसमें उसी प्रकार के भाव उभर आते हैं। जब वह रंगमंच के सामने बैठा होता है, अभिनय को देखता है, तब रुदन को देखकर स्वयं रोने लग जाता है, करुण दृश्य को देखकर स्वयं करुण बन जाता है। कभी हंसने लग जाता है और कभी रोने लग जाता है। कभी हीन बनता है और कभी दीन बन जाता है। यह घटना के साथ बह जाने की मनोवृत्ति है। यह कर्म की प्रखर मनोवृत्ति है। इस मनोवृत्ति को समाप्त करना, कर्म की मलिनता को समाप्त करना, कर्म को शुद्ध करना-यह है अकर्म। अकर्म का अर्थ कर्म न करना नहीं है। ज्ञाता-द्रष्टा बनने का अर्थ कर्म से पलायन नहीं है। ज्ञाता-द्रष्टा बनने से भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी, अर्थ मिल जाएगा, ऐसा नहीं होता। आदमी कर्म को छोड़ नहीं सकता। उसके दोष को मिटाया जा सकता है। कर्म अकर्म और पलायनवाद 255
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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