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________________ जा सकता। उस स्वभाव को कभी भी दबाया नहीं जा सकता। उस स्वभाव को कभी भी पूर्णतः आच्छन्न नहीं किया जा सकता। चाहे हजार बार कर्मों का आक्रमण हो, हजार बार कर्म के पुद्गलों की रासायनिक प्रक्रियाएं आवृत्तियां करती रहें, फिर भी उसे पूर्णतः विकृत नहीं किया जा सकता, न पूर्णतः शक्तिहीन किया जा सकता है। यही हमारे लिए प्रकाश की पहली रश्मि है। यदि यह नहीं होती तो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो पाते। किन्तु हमारे पास वह स्वतंत्रता है, जिसके द्वारा ही परिवर्तन की सारी बातें संभव हो सकती हैं। सबसे पहली बात है अपने स्वरूप का संधान। जिस व्यक्ति में यह सम्यक्-दृष्टि जाग जाती है, अपने स्वरूप के संधान की बात चेतना पर उतर आती है, वह व्यक्ति आवेगों में परिवर्तन करने में सक्षम हो जाता है। स्वरूप के संधान का अर्थ है-भेदज्ञान की प्राप्ति। आध्यात्मिक भूमिका में परिवर्तन का यह पहला बिन्दु है। जब यह भेदज्ञान जाग जाता है, वहां से परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। हम बदलना शुरू कर देते हैं। इससे इतना आंतरिक परिवर्तन, इतना रूपांतरण आ जाता है, व्यक्ति इतना रूपांतरित हो जाता है कि पहले का व्यक्ति और भेदज्ञान या सम्यक्-दृष्टि प्राप्त होने के बाद का व्यक्ति, एक ही व्यक्ति नहीं रह जाता। उसके व्यक्तित्व का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। जीवन को देखने का कोण बदल जाता है। पहले जिस दृष्टि से पदार्थ को देखता था, उसी दृष्टि से अब पदार्थ को नहीं देखता। जिस दृष्टि से अपने को पहले देखता था, उसी दृष्टि से अब अपने को नहीं देखता। अपने को देखने का दृष्टिकोण और पदार्थ को देखने का दृष्टिकोण-दोनों बदल जाते हैं। दृष्टिकोण के परिवर्तन से आवेगों पर करारी चोट होती है, तीव्र प्रहार होता है। जिस दृष्टिकोण के आधार पर आवेगों को पोषण मिल रहा था, उस दृष्टिकोण के बदल जाने पर आवेगों को वह पोषण मिलना बंद हो गया, जीवन-रस प्राप्त होना बंद हो गया। आवेगों को सिंचन मिलता है अहंकार के द्वारा, ममकार के द्वारा। जब तक अहंकार और ममकार हैं, तब तक आवेग पुष्ट होते रहेंगे, बढ़ते रहेंगे, फलते-फूलते 66 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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