SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहेंगे। जैसे ही दृष्टिकोण बदलता है, अहंकार और ममकार की गांठ टूट जाती है और तब आवेगों को जीवन-रस, पोषण-रस मिलना बंद हो जाता है। उनका आधार ही समाप्त हो जाता है। इसलिए आवेगों की चिकित्सा का पहला सूत्र है-दृष्टिकोण का परिवर्तन, सम्यक्-दृष्टि की प्राप्ति। ___ इसका दूसरा सूत्र है-विपाक की प्रेक्षा, विपाक को देखना। यह भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। हम विपाक की प्रेक्षा नहीं करते, उसे नहीं देखते। इसीलिए उच्छृखल प्रवृत्तियां चलती हैं। यदि हम प्रवृत्ति के विपाक पर ध्यान दें और यह देखने का प्रयत्न करें कि इसका विपाक क्या होगा, क्या विपाक हो रहा है तो उच्छृखल प्रवृत्तियां या आवेग नहीं चल सकते। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, वह जो कुछ करता है और वह विमर्श करता चलता है कि मेरे आचरण का, मेरे कार्य का क्या परिणाम होगा, क्या विपांक होगा, तो वह बहुत ही विवेक और संतुलन के साथ काम करेगा। यदि वह परिणाम और विपाक से आंख मूंदकर कार्य करता चला जाता है तो उससे वे काम भी हो जाते हैं जो अनिष्टकर/हानिकर होते हैं। विश्व में जितने भी अवांछनीय कार्य हुए हैं, होते हैं, वे परिणाम की ओर से आंख मूंद लेने के कारण ही हुए हैं, होते हैं। विपाक-प्रेक्षा की चेतना जागृत न होने के कारण ही. वे होते हैं। प्रेक्षा की चेतना जागृत हो तो अवांछनीय कार्य, अनिष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती। विपाक की प्रेक्षा ध्यान का एक अंग है। जैन दर्शन में धर्म्यध्यान के चार प्रकार बतलाए गए हैं-आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय। इनमें तीसरा है-विपाक विचय। विपाक का विचय-विपाक-प्रेक्षा, विपाक-दर्शन। बहुत गहरे में जाकर हम देखते हैं कि अभी किस कर्म का विपाक हो रहा है। बीमारी में किस . कर्म का विपाक हो रहा है। क्रोध आया, यह किस कर्म का विपाक़ है, उसे हम देखते हैं, विपाक की अनुचिंतना करते हैं, विपाक का विचय करते हैं, वहां हमारे मानस की स्थिति बदल जाती है, वह बिलकुल रूपांतरित हो जाती है। कर्म आठ हैं और आठ कर्मों के अनेक विपाक हैं। इन्द्रिय-ज्ञान आवेग-चिकित्सा 67
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy