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________________ संचालित क्रिया है। हमारी अनेक क्रियाएं स्वतः संचालित होती हैं और अनेक क्रियाएं प्रेरणा-जनित होती हैं। दोनों प्रकार की क्रियाएं हमारे शरीर में हो रही हैं। हम भोजन करते हैं। भोजन करने के बाद हम उस क्रिया से निवृत्त हो जाते हैं। आगे की सारी क्रियाएं अपने आप होती हैं, स्वतः संचालित होती हैं। हमने खाना खाया। खाने के साथ उसका पचाने वाला रस स्वतः उसके साथ मिल जाता है। नीचे उतरा। पाचन हुआ। छना। रस की क्रिया बनी। रस बना। सारे शरीर में फैला। जो सार-सार था, वह फैला। रक्त बना। क्रियाएं संचालित हुईं। जो असार था, वह बड़ी आंत में गया। उत्सर्ग की क्रिया सम्पन्न हुई। ये सारी क्रियाएं अपने-आप होती चली गयीं। आपको पता ही नहीं चला। न आपने उसके लिए कोई प्रयत्न किया। फिर भी वे क्रियाएं संपन्न हो गयीं। क्या आप कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि अब भोजन को पचाना है, रस बनाना है, मांस बनाना है। नहीं सोचते, कोई प्रयत्न नहीं करते, फिर भी ये सारे कार्य संपन्न होते हैं। जहां जो होना होता है, वह स्वतः होता चला जाता है। जो शक्ति मिलनी है, वह मिल जाती है। जो ऊर्जा में बदलना है, वह ऊर्जा में बदल जाता है। इसी प्रकार हम क्रिया करते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। उस प्रतिक्रिया स्वरूप हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं। यह भी एक प्रकार का आहार है, आहारण है। हम आहार के अर्थ को समझें। उसे सीमित अर्थ में न लें। जो मंह में खाते हैं, वही आहार नहीं है। हमारे शरीर के किसी भी कण के द्वारा, हमारी शारीरिक संरचना के द्वारा जो भी पुद्गल आकृष्ट होते हैं, वह सब आहार है। कर्म-पुद्गलों का ग्रहण भी आहार है। हम उन्हें खींचते हैं, अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वे पुमल आकर हमारे साथ मिल जाते हैं, चिपक जाते हैं। चिपकने के बाद उनमें जो व्यवस्था होती है, वह स्वतः होती है। वह अपने आप होने वाली व्यवस्था है। उन गृहीत पुद्गलों का वर्गीकरण भी हो जाता है। उनका विभाजन भी हो जाता है। उनके स्वभाव का निर्माण भी हो जाता है, जैसे भोजन में खाये गये बहुत प्रकार के पदार्थों के स्वभाव का निर्णय होता है। शरीर को आवश्यकता है प्रोटीन की तो भोजन 44 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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