SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब जागृति का बिन्दु उभरता है, थोड़ा-सा प्रकाश आता है तब मूर्छा का सघन बिन्दु धुंधलाने लगता है। राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि का भेद होता है। यह पहली बार होता है। अपूर्वकरण के द्वारा। अपूर्वकरण अर्थात् चित्त की ऐसी निर्मलता जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुई थी। जो पहले कभी प्राप्त नहीं होता वह अपूर्व होता है। जो एक बार प्राप्त हो गया वह अपूर्व नहीं होता। जो घटना पहली बार घटित होती है, वह अपूर्व होती है। यहां राग-द्वेष की गांठ पहली बार टूटने लगती है। जागृति का एक बिन्दु उभरता है। जो सघनतम अंधकार था वह टूटता है। जैसे-जैसे हमारे चैतन्य का अनुभव आगे बढ़ता है, प्रकाश फैलता है, वैसे-वैसे मूर्छा का बिन्दु कमजोर होता जाता है। जब चैतन्य का अनुभव स्पष्ट होता है तब सम्यक्त्व संवर बन सकता है। चैतन्य का अनुभव और स्पष्ट होता है तब आकांक्षाएं समाप्त होने लगती हैं। अमिट प्यास भी बुझने लगती है, तब व्रत संवर होता है। चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है तब प्रमाद समाप्त होने लगता है, अप्रमाद संवर की स्थिति निर्मित होने लगती है। चैतन्य का अनुभव और अधिक स्पष्ट होता है, कषाय भी समाप्त हो जाता है तब अकषाय संवर की स्थिति बनती है। पूर्ण प्रकाश की स्थिति, वीतरांगता की स्थिति आ जाती है। राग-द्वेषात्मक परिणाम के द्वारा जो आस्रव हो रहा था, वह समाप्त हो जाता है और चैतन्य का पूर्ण अनुभव जागृत हो जाता है। सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि मोह के उपशांत या क्षीण होने पर संवर होता है। पर संवर कैसे होता है? उसकी प्रक्रिया क्या है? इस पर हमें गहराई से विचार करना चाहिए। संवर साधना के द्वारा ही हो सकता है। साधना के अनुभवों के द्वारा ही यह ज्ञात हो सकता है कि संवर कैसे हो सकता है? मैं कहूं कि संवर करें, आस्रव रुक जायेगा, मूर्छा का सघन वलय टूट जायेगा। बात तो बहुत सीधी-सी लगती है। पर संवर कैसे हो, यह प्रश्न इतना सीधा नहीं है। साधना के क्षेत्र में चार शब्द प्रचलित हैं-संयम, चारित्र, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान। संयम करें। इन्द्रियों का संयम करें, मन का संयम करें, वासनाओं का संयम करें। चारित्र अर्थात् आचरण। हम शुद्ध आचरण करें। संयम संवर 120 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy