SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार-राशि के जीवों की दो श्रेणियां हैं-एक है कृष्णपक्ष और दूसरी है शुक्लपक्ष। कुछ जीव हैं कृष्णपक्ष वाले और कुछ जीव हैं शुक्लपक्ष वाले। जैसे चन्द्रमा के दो पक्ष होते हैं-कृष्ण और शुक्ल, काला और सफेद। वैसे ही हमारे जीवन के भी दो पक्ष हैं-कृष्ण और शुक्ल, काला और सफेद। कृष्णपक्ष हमारे अनिष्ट कर्मों का सूचक है, अनिष्ट वातावरण का सूचक है, तामस वृत्तियों का सूचक है। शुक्लपक्ष हमारे विकास का सूचक है, बंधनमुक्ति की ओर अग्रसर होने का सूचक है। ' जो व्यक्ति कृष्णपक्ष में है, वह आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता। आध्यात्मिक विकास वही व्यक्ति कर सकता है, जो शक्लपक्ष में है। उसका जो वातावरण है, उसकी जो ओरा है, आभा-मंडल है, पर्यावरण है, वह शुक्ल हो जाता है। उस व्यक्ति के आसपास शुक्लता का वातावरण छा जाता है। वह व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है। उसका विकास प्रारम्भ हो जाता है। एक प्रश्न उभरता है कि कोई भी जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में क्यों आता है? कैसे आता है? इसका कोई हेतु नहीं है। कर्म एकमात्र कारण नहीं है। कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आने का हेतु है-काललब्धि। काल की शक्ति में ऐसा होता है। जैसे परिस्थिति की एक शक्ति है, वैसे काल की भी शक्ति है। इसी प्रकार स्वभाव की भी एक शक्ति होती है। आध्यात्मिक विकास के बीज प्रत्येक जीव में विद्यमान हैं। किन्तु कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक विकास का स्वभाव ही नहीं होता। उनमें चैतन्य तो होता है, चैतन्य के विशिष्ट विकास की क्षमता उनमें नहीं होती। आप पूछ सकते हैं कि क्यों नहीं होती? इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। कर्मशास्त्र की व्याख्या में इसका कोई समाधान नहीं है। इसका एक ही उत्तर हो सकता है, एक ही समाधान हो सकता है कि उन जीवों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे चैतन्य का विकास नहीं कर पाते। उसमें चैतन्य का विकास नहीं होता। यह स्वभाव की शक्ति का उदाहरण है। जैसे काल की अपनी शक्ति है, वैसे ही स्वभाव की अपनी शक्ति है। जैसे परिस्थिति की अपनी शक्ति है; वैसे ही कर्म की शक्ति है। 74 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy