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________________ इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि कर्म का सार्वभौम साम्राज्य नहीं है। हम इस धारणा को निकाल दें कि जो कुछ होता है, वह सब कर्म से ही होता है। कर्म की ही सार्वभौमता स्वीकार करता मिथ्या दृष्टिकोण है। सच यह है कि सब कुछ कर्म से नहीं होता। जो घटनाएं कर्म से होने योग्य होती हैं, कर्म की सीमा में आती हैं, वे ही कर्म के द्वारा घटित होती हैं। सब घटनाएं कर्म के द्वारा घटित नहीं होतीं। आज एक ऐसा स्वर चल पड़ा है कि 'भई! क्या करें, ऐसे ही कर्म किये थे, कर्म का ऐसा ही योग था।' हर घटित घटना के लिए, चाहे वह शुभ हो या अशुभ, अच्छी हो या बुरी, हम यही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि कर्म के कारण ही ऐसा घटित हुआ है, कर्म का ही प्रताप है, प्रभाव है, अन्यथा ऐसा नहीं होता। यह भ्रान्ति है, बहुत बड़ा भ्रम है। हम एकाधिकार किसी के हाथ में न सौंपें / प्रकृति के साम्राज्य में अधिनायकवाद नहीं है। जागतिक निगम में कोई अधिनायक नहीं होता। कोई अधिनियन्ता नहीं होता। वहां किसी को एकाधिकार प्राप्त नहीं है। कुछ शक्तियां काल में निहित हैं, कुछ स्वभाव में, कुछ परिस्थिति में और कुछ कर्म में। कुछ शक्तियां हमारे अपने पुरुषार्थ में निहित हैं। इस पुरुषार्थ में कर्म को बदल देने की भी शक्ति होती है। हमारी शक्ति का प्रतीक है पुरुषार्थ। हमारी क्षमता का प्रतीक है पुरुषार्थ। हम इसके द्वारा कर्म को भी बदल डालते हैं। कर्मशास्त्र का यह भी एक नियम है कि कर्मों को बदला जा सकता है। एकाधिकार किसी को प्राप्त नहीं है। यहां सबका मिला-जुला अधिकार है। एकाधिकार नहीं, बंटा हुआ है सारा अधिकार। ___ यदि कर्म ही सब कुछ होता, कर्म को ही एकाधिकार प्राप्त होता तो कोई भी प्राणी अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में नहीं आता, अविकसित प्राणियों की श्रेणी से विकसित प्राणियों की श्रेणी में नहीं आता। ___ यदि कर्म ही सब कुछ होता तो प्राणी साधना की अयोग्य स्थिति से या अपनी अविकसित चैतन्य की भूमिका से आध्यात्मिक चेतना की विकसित भूमिका में नहीं आता। समस्या का मूल : मोहकर्म -
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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