________________ का विपाक हो जाता है। जो कर्म न जाने कब विपाक में आता है, वह तत्काल विपाक में आ गया। जितनी संक्रामक बीमारियां होती हैं, वे सब उदीरित होती हैं। प्लेग, हैजा आदि संक्रामक बीमारियां अचानक आती हैं, फैलती हैं और अनेक व्यक्तियों को अपना शिकार बना लेती हैं। वे उदीरित बीमारियां हैं। प्लेग का एक रोगी गांव में आता है और सारा गांव महामारी की बीमारी से संक्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है, 'करता कोई है और भोगना किसी दूसरे को पड़ता है।' अच्छा काम किसी ने किया और उसका परिणाम मिला दूसरों को। बुरा काम किसी ने किया और उसका परिणाम भोगना पड़ा दूसरों को। इस सन्दर्भ में कर्म सामाजिक बन जाता है। अगर कर्म को सामाजिक न मानें तो व्यक्ति इतना 'कट' हो जाता है कि दूसरे से प्रभावित होता ही नहीं। फिर तो व्यक्ति व्यक्ति ही रह जाता, समाज बनता ही नहीं। समाज तभी बनता है, जब संक्रमणशीलता रहती है। एक का प्रभाव दूसरे तक पहुंचता है, तभी समाज बनता है। यदि कोई किसी से प्रभावित होता ही नहीं, अप्रभावी अवस्था बनी रहती है तो यह नितान्त वैयक्तिक अवस्था है। इसमें सामाजिकता का विकास ही नहीं होता। इस सन्दर्भ में हम इस प्रश्न पर भी विचार करें कि क्या ध्यान वैयक्तिक है या सामाजिक? कर्म के साथ ध्यान की चर्चा भी करनी होगी, क्योंकि दोनों जुड़े हुए हैं। कर्म बन्धन ध्यान बन्धन-मुक्ति का उपाय है। कर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार का होता है तो क्या ध्यान भी दोनों प्रकार का होता है? जैनेन्द्रकुमारजी ने भी यह प्रश्न रखा कि ध्यान का प्रयोग ठीक है, पर यह व्यक्ति को ही आत्मरति में ले जाता है। यानी व्यक्ति अपने आप में लीन हो जाता है, अन्तर्मुखी बन जाता है। . ह्यूम ने व्यक्तियों को दो वर्गों में बांटा। एक वर्ग में वे व्यक्ति आते हैं, जो बहिर्मुखी (एक्स्ट्रावट) होते हैं और दूसरे वर्ग में वे व्यक्ति आते हैं, जो अन्तर्मुखी (इन्ट्रावट) होते हैं। जो अन्तर्मुखी होता है, वह अपने बारे में सोचता है, अपने भीतर देखता है, सब कुछ अपने लिए करता है, दूसरे के विषय में कोई चिन्ता नहीं करता। यह आत्मरति करे कोई, भोगे कोई 237