________________ होती है। जैसी परिणति होती है वैसे ही पुद्गलों को हम ग्रहण करते हैं। उन पुद्गलों का अपने आप में परिपाक होता है। परिपाक के बाद उनकी जो परिणति होती है, वही हमारी आन्तरिक परिणति हो जाती है। यह एक श्रृंखला है। एक व्यक्ति ने ज्ञान के प्रति अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया, ज्ञान की निन्दा की; ज्ञानी की निन्दा की, उस समय उसकी परिणति ज्ञान-विमुख हो गई। उस परिणति-काल में वह कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे कर्म-पुद्गल आत्मा की सारी शक्तियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु ज्ञान-विरोधी परिणति में गृहीत पुद्गल मुख्यतया ज्ञान को आवृत करेंगे। उनका परिपाक ज्ञानावरण के रूप में होगा। इस प्रकार हम सारे कर्मों की मीमांसा करते चलें। जिसकी चेतना की परिणति यदि ठगने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जानेवाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके चरित्र को विकृत बनाते हैं। उनकी परिणति यदि दूसरे को कष्ट देने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जानेवाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके सुख में बाधा डालते हैं। यह परिणति का सिद्धान्त है। हम किस रूप में परिणत होते हैं, किस प्रकार की क्रियात्मक शक्ति के द्वारा पुद्गल धारा को स्वीकार करते हैं, इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके आधार पर ही वह जीवन की सफलता का निर्धारण कर सकता है, जीवन-संघर्ष में आने वाली बाधाओं को पार कर सकता है। - जिस व्यक्ति को यह लगे कि मुझे ज्ञानावरण अधिक सता रहा है, उसे ज्ञानावरण को क्षीण करने की साधना का मार्ग चुनना चाहिए। किसी को मोह अधिक सताता है, किसी की क्षमताओं का अवरोध पैदा होता है-ये भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं। साधना के द्वारा इनका समाधान पाया जा सकता है। क्रोध पर चोट करनी हो तो एक प्रकार की साधना करनी होगी और यदि मन पर चोट करनी हो तो दूसरे प्रकार की साधना करनी होगी। जिस समस्या से जूझना है, उसी के मूल पर प्रहार करने वाली साधना चुननी होगी। यह बहुत सूक्ष्म पद्धति है। रहस्य हमारी समझ में आ जाए तो जीवन की समस्याओं को सुलझाने में हम बहुत सफल हो सकते हैं। कर्मवाद 271