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________________ रखा जाए? इससे तो मैं पुरुष हूं-यह धारणा पुष्ट होगी और मैं स्त्री हूं' यह धारणा भी पुष्ट होगी। साधना है इस भेद को मिटाने के लिए। तो फिर हम उलटे क्यों चल रहे हैं? यह रेखा क्यों बनाई गई कि यहां स्त्रियां बैठेंगी और यहां पुरुष बैठेंगे? कोई कहीं बैठे, कहीं रहे, साथ रहे, न रहे, क्या फर्क पड़ता है? साधना करनी है तो सबको साथ-साथ रहना चाहिए। ___ मैंने कहा-यह आदर्श की बात तो अच्छी है और जो साधना में आगे तक पहुंच चुका है उसके लिए ठीक बात है। साधना के चरमबिन्दु पर पहुंच जाने के बाद न कोई पुरुष होता है और न कोई स्त्री। कर्म-सिद्धान्त में दो शब्द व्यवहृत हैं-वेदक और अवेदक। वेद तीन हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। जहां ये तीनों समाप्त हो जाते हैं, इनकी अनुभूति समाप्त हो जाती है, तब अवेद अवस्था प्राप्त होती है। जब वेद पूरा समाप्त हो जाता है, उसका अनुभव नामशेष हो जाता है तब पुरुष पुरुष नहीं रहता और स्त्री स्त्री नहीं रहती। वहां केवल प्राणी रहता है, प्राण रहता है, चेतना रहती है। वहां पुरुषत्व और स्त्रीत्व समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में कोई कठिनाई नहीं होती। . महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत अपनी बहन से साक्षात्कार करने के लिए गए। बहन उनसे भी अधिक पहुंची हुई साधिका थी। संत तो अभी-अभी बने ही थे। वे बहन के आश्रम में पहंचे। वह उस समय निर्वस्त्र होकर स्नान कर रही थी। संत ने देखा और मुड़ गए। बाहर आकर खड़े हो गए। जब बहन स्नान से निवृत्त हो गई, तब भीतर गए और उससे मिले। बहन बोली-एक बार तुम भीतर आये ही थे, फिर बिना मिले बाहर क्यों चले गए? संत ने कहा-'आया तो था, पर तुम निर्वस्त्र स्नान कर रही थी, इसलिए तत्काल बाहर चला गया।' साधिका बहन बोली-'अभी तक तुम्हारे मन में यह भेद बना हुआ है कि यह पुरुष है, यह स्त्री है। तुम क्या साधना करोगे?' .. यह उच्च अवस्था की बात हो सकती है। पर आज साधु बना साधक बना और आज ही हम उस आदर्श की कल्पना करें तो उचित नहीं होगा। अभी पुरुषों में पुरुषत्व भी जागृत है और स्त्रियों में स्त्रीत्व प्रतिबद्धता का प्रश्न 135 .
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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