SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी जागृत है। स्थिति तो वैसी-की-वैसी है। मंजिल दूर है। वहां पहुंचकर इस भेद को मिटाया जा सकता है। जब तक भीतर में आन्तरिक वातावरण विद्यमान है, बाहरी वातावरण और बाहरी उद्दीपन विद्यमान है, तब तक उस उच्च स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह व्यवहार्य भी नहीं बन सकती। तब तक विधि-विधान, मर्यादाएं और रेखाएं बहुत जरूरी हैं। यदि रेखाएं न हों तो बौद्ध-संघ की-सी स्थिति बन सकती है। बुद्ध ने भिक्षुणियों का संघ बनाया। संघ बनाया पर व्यवस्था नहीं दी। इसका परिणाम यह आया कि बुद्ध का संघ भ्रष्ट होता चला गया। व्यवस्था टूट गई। दूसरी ओर भगवान् महावीर ने साध्वियों को दीक्षा दी। साध्वी-संघ बना, पर व्यवस्थाएं इतनी अच्छी दी कि आज भी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का यह जैन-संघ निर्दोष रूप से चल रहा है। __ हम इस बात को न भूलें कि हमारा व्यवहार जो उद्दीपक है, उसका पूरा विवेक बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारी चेतना इतनी स्वतंत्र नहीं बन गई है कि वह उद्दीपकों से प्रभावित न हो। जब तक उद्दीपकों का प्रभाव पड़ता रहता है, तब तक व्यवहार भिन्न प्रकार से ही करना होगा। इसीलिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन सबके लिए विधि-विधान किए गए। अहिंसा की भी विधि है। जो वीतराग अवस्था तक पहुंच गया है, उसके लिए कोई मर्यादा नहीं है। वह बंधा हुआ नहीं होता, अतः उसके लिए कोई विधि नहीं होती। आचारांग का एक महत्त्वपूर्ण सूक्त है-'कुशले पुण णो बद्धे णो मुक्के'-जो कुशल वीतराग हो जाता है, वह किसी बंधन से बंधा हुआ नहीं होता। वह न बंधा हुआ होता है और न मुक्त। बंधन और मोक्ष-दोनों उसके लिए समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि ये दोनों सापेक्ष शब्द हैं। जो वीतराग स्थिति में पहुंच जाता है, उसके लिए इन सापेक्ष शब्दों का कोई उपयोग नहीं रहता। वह दोनों-बंधन और मुक्ति से परे हो जाता है। परन्तु जब तक व्यक्ति 'कुशल' नहीं हो जाता, तब तक वह बंधा हुआ रहता है। वह स्व-अनुशासन से भी बंधा हुआ रहता है। ___प्रेक्षा-ध्यान की उपसंपदा के पांच सूत्र हैं। उनमें एक सूत्र है-प्रतिक्रियाविरति। प्रत्येक व्यक्ति के मन पर बाहरी उद्दीपनों का प्रभाव 136 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy