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________________ अमूर्त है और हम यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा अखण्ड चैतन्य वाली है। वह दो का मिला-जुला रूप है। अमूर्त है तो साथ में मूर्त भी जुड़ा हुआ है। वह चेतनावान् है तो साथ में उस पर अचेतन द्रव्य का आवरण भी है। इसलिए चेतना की पूर्ण सत्ता नहीं है। वहां अचेतन का भी कछ अस्तित्व है। आत्मा के साथ भावकर्म का योग है। भावकर्म अर्थात कर्म का चित्त। एक है भावकर्म और दूसरा है द्रव्यकर्म। यह द्रव्यकर्म यानी भावकर्म का एक शारीरिक आकार जो कि भावकर्म का संवादि कार्य करता है, इसे हम द्रव्यकर्म या पौद्गलिक कर्म कह सकते हैं। भावकर्म या द्रव्यकर्म, भावचित्त या पौद्गलिक चित्त-इनमें पूरी संवादिता है, विसंवादिता नहीं। द्रव्यकर्म भावकर्म का प्रतिबिम्ब है। चित्त का जैसा निर्माण होता है, वैसे ही पुद्गल का निर्माण होता है। . चेतना पर कर्म का इतना घना आवरण है कि ज्ञान की शक्ति आवृत हो गई। बहुत आवृत हो गई, केवल जीव का एक अंश बचा उस आवरण से जिससे कि जीव का अस्तित्व सुरक्षित रह सके। वैसे ही कर्म का आकार बना, ठीक उसका संवादी स्थूल शरीर बना और वह एक इन्द्रिय वाला जीव बन गया। एकेन्द्रिय जीव होने का मतलब क्या है? न्यूनतम चेतना का विकास। प्रश्न होता है कि न्यूनतम चेतना का विकास एकेन्द्रिय जीव में ही क्यों होता है? ___ क्योंकि वैज्ञानिक यही मानेगा कि जीव के जिस प्रकार के गुण सूत्र थे, उसी प्रकार के जीव की संरचना हो गई। वैज्ञानिक व्याख्या तो यहां तक पहुंची है। किन्तु कर्मशास्त्रीय व्याख्या बहुत दूर गहराई में चली जाती है। उसके अनुसार चेतना का निर्माण, चित्त या भावकर्म का निर्माण इसलिए हुआ कि उसमें राग-द्वेष बहुत प्रबल हो गए। उस राग-द्वेष की प्रबलता ने ऐसे चित्त का निर्माण किया कि चेतना सघन नींद में चली गयी। इस नींद का पारिभाषिक नाम है-स्त्यानर्द्धि निद्रा। वैसी नींद जिसमें चेतना स्त्यान हो जाती है, जम जाती है, सघन हो जाती है। उस स्थिति में चेतना इतनी प्रगाढ़ निद्रा में चली गई है कि मात्र चेतना का एक छोटा-सा अंश अनावृत बचा और वह भी इसलिए कि जीव का अस्तित्व कभी मिटता नहीं है। यदि वह अंश भी आवृत कर्म की रासायनिक प्रक्रिया : 1 31
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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