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________________ हो जाये, जम जाये तो संभव है जीव अजीव बन जाये। जीव और अजीव के बीच की भेदरेखा भी तो यही है। वह भी समाप्त हो जाये, यह कभी हो नहीं सकता। इसीलिए चेतना का थोड़ा-सा प्रकाश बचा रहता है। वह प्रकाश उस भावचित्त में बचा। उस भावचित्त ने प्रभावित किया पुद्गलों को, तो सूक्ष्म शरीर भी वैसा ही बन गया, पौद्गलिक चित्त भी वैसा ही बन गया, कर्मचित्त भी वैसा ही बन गया। उसने चेतना के अणु-अणु पर जो ज्ञान के स्रोत थे, अपना आवरण डाल दिया। सब पर आवरण डाल देने पर भावकर्म का संवादी द्रव्यकर्म (पौद्गलिक कर्म) और पौद्गलिक कर्म का (सूक्ष्म शरीर का या कर्म शरीर का) संवादी बना स्थूल शरीर। उसमें एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय का प्रकाश रहा। एक स्पर्शन इन्द्रिय को स्थान मिला, शेष सारी इन्द्रियां समाप्त। आप यह न मानें कि जिसे हम एकेन्द्रिय कहते हैं, वह एक ही इन्द्रिय वाला होता है। उसमें और इन्द्रियों का बोध भी होता है, किन्तु उनका आकार नहीं बनता। आकार इसलिए नहीं बनता कि इन्द्रियों के पूरे विकास की क्षमता उस सूक्ष्म शरीर में नहीं है। सूक्ष्म शरीर में जब इन्द्रिय-विकास की पूरी क्षमता नहीं है, पूरा विकास नहीं है, तो स्थूल शरीर उसका संवादी नहीं होता, उसमें उसके आकार नहीं बनते। आकार के बिना इन्द्रिय-बोध भी स्पष्ट नहीं होता। एकेन्द्रिय जीव में भी पांचों इन्द्रियों का अस्पष्ट बोध होता है। उन्हें स्पष्ट बोध इसलिए नहीं होता कि उन इन्द्रियों के स्थान विकसित नहीं होते। शरीर में इन्द्रियों के जो स्थान हैं, जो कोशिकाएं हैं, वे सक्रिय नहीं होती, विकसित नहीं होती। इसलिए स्पष्ट ज्ञान का अभाव रहता है। यह एक श्रृंखला है-भावचित्त का संवादी होता है पौद्गलिक चित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है स्थूलशरीर / स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और भावशरीर (कर्मशरीर)-इन तीनों में परस्पर संवादिता है। एक जैसा होता है, दूसरा भी वैसा ही होता है और दूसरा जैसा होता है, तीसरा भी वैसा ही होता है। हम इस सचाई को न भूलें कि सूक्ष्म जगत् में जिस प्रकार के हमारे चित्त का निर्माण होता है, जिस प्रकार का भावकर्म होता है, वैसा ही पौद्गलिक कर्म होता है। आत्मा कभी पुद्गल को 32 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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