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________________ कारण यह चंचलता। इसलिए यह स्वीकार करने में बहुत सुविधा है कि कर्म है। चौथा कारण है-पुद्गल और जीव का परस्पर प्रभाव। ये एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है। पुद्गल मन को प्रभावित करता है, शरीर को प्रभावित करता है। जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम और पुद्गल में ऐसा गठबंधन है, ऐसी संधि है कि जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम पुद्गल को सहयोग देते हैं और पुद्गल राग-द्वेषात्मक परिणाम को सहयोग देता है। दोनों एक-दूसरे से संबद्ध हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। चेतना का, आत्मा का इस प्रकार दूसरे से प्रभावित होना इस बात का साक्षी है कि कर्म का अस्तित्व है। ____ हम पहले यह चर्चा कर चुके हैं कि कर्म की सार्वभौम सत्ता नहीं है, सर्वशक्ति-संपन्न सत्ता नहीं है। यह बहुत ही नियंत्रित तत्त्व है। हम साधना के क्षेत्र में या व्यवहार के क्षेत्र में भी यह भूल कर बैठते हैं और कह देते हैं कि हमसे साधना हो नहीं सकती, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है। व्यवहार के क्षेत्र में भी हम कह देते हैं-मैं यह काम नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है। हमने बस मान लिया कि कर्म ही सब कुछ है। कर्म ही सब कुछ नहीं है। वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह सब कुछ हो जाए। हमने भूल-वश उसे सब कुछ होने का स्थान दे दिया। ___हम जब साधना की दृष्टि से कर्म-शास्त्र पर विचार करते हैं तब हमें इन दो-चार बातों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। ___पहली बात-कर्म पर भी अंकुश है। वह कोई निरंकुश सत्ता नहीं है। उस पर सबसे पहला अंकुश यह है कि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व है। यदि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता तो फिर कर्म सब कुछ होता जाता है। किन्तु आत्मा का स्वतंत्र स्वभाव है और वह चैतन्य कभी भी अपने स्वभाव को तोड़ने नहीं देता, नष्ट होने नहीं देता। इसलिए कर्म आत्मा पर एकाधिकार नहीं जमा सकता। कर्म आत्मा पर कितना ही प्रभाव डाले पर वह उस कर्मवाद के अंकुश 126
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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