________________ आ सकता। सब विच्छिन्न हो जाते हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा कि साधना का चरम शिखर है-'अयोग' वहां सब योग समाप्त हो जाते हैं। यह 'अयोग' शब्द बड़ा जटिल है! सभी आचार्यों ने शब्द चुना-'योग'। उन्होंने कहा-योग की साधना करो। भगवान् महावीर ने कहा-'नहीं, अयोग की साधना करो। योगों को समाप्त करो, संबंधों को तोड़ो।' इससे क्या होगा? इससे सब कुछ घटित हो जायेगा। क्योंकि पाना कुछ भी नहीं है। बाहर से लेना कुछ भी नहीं है। हम सब अपने आप में परिपूर्ण हैं। कुछ भी उपादेय नहीं है। बाहर ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो अपने लिए हितकर हो। बाहर जितनी वस्तुएं हैं उन्हें छोड़ना ही हितकर है। सब संबंधों को तोड़ना, अयोग करना ही हितकर है। अंतिम शिखर है-अयोग। जब सम्यक्त्व का संवर हो जाता है, व्रत का संवर हो जाता है, अप्रमाद का संवर हो जाता है, अकषाय का संवर हो जाता है तब अंतिम शिखर आता है-अयोग संवर। जहां हमने सारे संबंध काट डाले वहां अयोग हो जाता है। वहां पूर्ण विकास हो जाता है, परमात्मा की पूर्ण स्थिति उपलब्ध हो जाती है। अयोग संवर के घटित होते ही, जो पौद्गलिक संबंध आत्मा के साथ हैं, वे सब एक साथ विच्छिन्न हो जाते हैं। जब चैतन्य का अनुभव प्राप्त होता है तब योग टूटने शुरू होते हैं। मूढ़ता का गहन वलय टूटने लग जाता है। कर्मों के जितने संबंध हमने स्थापित किये हैं वे सारे-के-सारे चैतन्य की विस्मति के कारण हुए हैं। जब-जब चैतन्य की विस्मृति होती है तब-तब कोई-न-कोई पुद्गल हमारे साथ जुड़ जाता है और अपना प्रभाव जमा लेता है। हम जब अपने चैतन्य के अनुभव में होते हैं, जब हम अपना होश संभालते हैं, तब उन पुद्गलों को प्रभाव मंद होने लग जाता है, वह लुप्त होने लग जाता है। पुद्गल धीरे-धीरे खिसकने लग जाते हैं, दूर होने लग जाते हैं। उस समय हमारा अस्तित्व उजागर होता है। बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? स्वतंत्रता और परतंत्रता का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। 108 कर्मवाद