SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का हम अभ्यास करें। यही वास्तव में साधना है, यही उसकी सार्थकता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति आसक्ति और अनासक्ति से जुड़ी होती है। हम यह अभ्यास करें कि प्रवृत्ति के प्रति आसक्ति न हो या कम हो। प्रवृत्ति हो किन्तु उसके पीछे आसक्ति का, राग-द्वेष का भाव कम हो। प्रवृत्ति के साथ समभाव की धारा जुड़ जाये। फिर चाहे आप प्रवृत्ति करें किन्तु उस प्रवृत्ति के पीछे एक प्रहरी खड़ा मिलेगा और वह आपको सतर्क करता रहेगा। जैसे ही आपने प्रवृत्ति में दोष लाना प्रारम्भ किया, तत्काल कानों में एक ध्वनि गूंज उठेगी-समभाव, तटस्थता, सामायिक, समता। तब आपकी प्रवृत्ति में आने वाला जो दोष है वह अपने आप | नीचे उतर जायेगा, दूर हट जायेगा। प्रवृत्ति के दोषों का प्रक्षालन करने के लिए, उसके दोषों का संशोधन और परिमार्जन करने के लिए हमें जिस बात का अभ्यास करना है वह है समभाव का अभ्यास, समता का अभ्यास, सामायिक का अभ्यास। मनोविज्ञान की भाषा में इसे मार्गान्तरीकरण और उदात्तीकरण कहा गया है।, . प्रवृत्ति का शमन होता है, विलयन होता है, मार्गान्तरीकरण होता है, उदारीकरण होता है। ये चार बातें हैं। पहली बात है शमन की। जो प्रवृत्ति समाज-सम्मत नहीं है, व्यक्ति उसे करना चाहता है, किन्तु सामाजिक प्राणी उस प्रवृत्ति को नहीं करता, उसका शमन करता है। वह अपनी इच्छा को रोक देता है। हर इच्छा की पूर्ति नहीं होती। कोई भी व्यक्ति अपनी प्रत्येक इच्छा पूरी नहीं कर सकता। कुछ पूरी होती हैं, कुछ अधूरी रह जाती हैं, कुछ को छोड़ देना होता है। रास्ते चलते सुन्दर मकान दिखायी दिया। इच्छा हुई कि उस पर कब्जा कर लूं। कब्जा कैसे कर सकता है? नहीं कर सकता। क्योंकि सामाजिक व्यवस्था उसे वैसा करने नहीं देती। मन ललचाया कि इस आलीशान मकान में रहूं, इस पर अधिकार कर लूं, पर वैसा हो नहीं सका। दूसरा है-प्रवृत्ति का विलयन। विलयन भी दबाने की प्रवृत्ति है। कुछ प्रवृत्तियां ऐसी होती हैं, जो मन में उभरती हैं, किन्तु एक दूसरी प्रवृत्ति की बात सामने आ जाती है, तब वह छूट जाती है। एक प्रवृत्ति दूसरे में विलीन हो जाती है, उसका विलयन हो जाता है। 48 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy